ग्वालियर संभाग के कहानीकारों के लेखन में सांस्कृतिक मूल्य 12
डॉ. पदमा शर्मा
सहायक प्राध्यापक, हिन्दी
शा. श्रीमंत माधवराव सिंधिया स्नातकोत्तर महाविद्यालय शिवपुरी (म0 प्र0)
अध्याय - चार
प्रतिनिधि कहानीकारों के लेखन में सांस्कृतिक मूल्य
6. निरंजन श्रोत्रिय की कहानियों में सांस्कृतिक मूल्य
संदर्भ सूची
6-निरंजन श्रोत्रिय की कहानियों में सांस्कृतिक मूल्य
निरंजन श्रोत्रिय की कहानियों में कस्बाई एवं नगरीय सभ्यता एवं संस्कृति के दर्ष न होते हैं। उनकी कहानियाँ शहर से जुड़ी होने के कारण वर्तमान परिवेश से सम्पृक्त हैं। वे स्वयं प्रगतिशील विचारों के पक्षघर हैं यह बात उनकी कहानियों में दृष्टिगोचर होती है। विवाह एक ऐसा सामाजिक बंधन है जो मात्र सात फेरों तक ही सीमित नहीं है। वह एक समझौता भी नहीं है वरन् दो व्यक्यिों (महिला एवं पुरूष) द्वारा मन से स्वीकृत एक पवित्र बन्धन है जिसमें वर-वधु की आपसी रजामन्दी आवश्यक है। वे प्रेमविवाह के पक्षधर हैं। प्रेमविवाह वो भी अन्तर्जातीय हो तो उसमें दृढ़ निश्चयी रहना होता है।
’’....पापा जो दीदी न कर सकी वह मैं करना चाहती हूँ।’’ मेरी आवाज संयत और दृढ़ थी।
पापा चौके थे। शायद उŸोजित भी हो उठे थे। बोले कुछ नहीं। शायद मेरे रोम-रोम से निश्चय फूट रहा था।......1
प्रेम विवाह में विवाह के पूर्व प्रेम परवान चढ़कर सिर पर बोलता है। प्रेमजन एक दूसरे से कई वादे करते हैं, साथ जीने-मरने की कसमें खाते हैं, असीमित प्रेम प्रदर्शित करते हैं इसी प्रक्रिया में विवाह बन्धन में भी बंध जाते है। विवाहोपरान्त वह आकर्षण धीरे-धीरे कम होने लगता है और फिर प्रारम्भ होता है एक दूसरे पर आरोप लगाने का सिलसिला-
’’सच अपनी समझ पर तरस आता है। क्या सोचकर मैंने तुमसे......’’
’’अब पछताबा हो रहा है न। मुझे भी है।’’
’’तुम्हें किस बात का पछताबा है? तुमने तो अपने माँ-बाप का दहेज का पैसा भी बचवा दिया।’’2
विवाह एक संस्कार है इसमें कई दिनों पूर्व से कई रीति एवं परम्पराओं का निर्वहन होने लगता है। विवाह में दुल्हन लाल जोड़ा पहनती है वर वधू अग्नि के सात फेरे लेकर विवाह बन्धन में बँधते हैं (मैं बेवफा हूँ)। यदि लड़का गलत सोहबत में पड़ गया है और उसे बंधन में बांधना हो तो बतौर सजा भी लड़के का विवाह कर दिया जाता है (धुआँ)।
लेखक ने मालवांचल के गाँव एवं वहाँ की संस्कृति का चित्रण किया है। गाँव के मकान अधिकांशतः कच्चे होते हैं जिन्हें लीपा जाता है। सरपंच तथा पटवारी जो गाँव के धनाड्य व्यक्तियों में गिने जाते है। उनके मकान पक्के बने होते हैं।
’’मध्यप्रदेश के मालवा अंचल का एक छोटा-सा गाँव। कोई सौ-एक मकान होंगे-अघिकतर कच्चे मकान हैं। दो-तीन पक्के मकान भी हैं जो गाँव के सरपंच, पटवारी और धनी किसानों के हैं। बिना किसी योजना के एक अल्हड़-सी बसावट.....।’’
’’......गाँव में नालियां कच्ची हैं और पानी अक्सर राह में बीचों-बीच कीचड़ मचाता हुआ बहता रहता है, जिस पर मच्छर भिन भिनाते रहते हैं। गाँव के मध्य में एक बरगद का वृक्ष है। इसके चारों ओर पक्का ओटला बना दिया गया है........’’3
जातिगत संकीर्णता लोगों के मन मस्तिश्क में गहरे तक बैठी रहती है। गाँव में तो जाति भेद और भी अधिक विद्रूप स्थिति में व्याप्त रहता है। निम्न जाति को अपनी पेयजल पूर्ति के लिये भी अलग-थलग ही रहना पड़ता है।
’’गाँव में तीन पक्के कुए हैं जिन्हें लोगों ने अपनी सुविधानुसार बांट लिया है। ओछी जात बालों के लिए कुआ गांव की कांकर से बाहर है।’’4
गाँव में हर समस्या का निराकरण पंचायत द्वारा कर लिया जाता है। चूकिं पंचायत के सर्वेसर्वा उच्च जाति के होते हैं इसलिये उनकी मनमानी के चलते निम्न जाति को निरपराध होने पर भी सजा भुगतनी पड़ती है। गोविन्दा के पिता को चोरी न करने के बावजूद पटेल द्वारा चोरी की सजा दी गयी। पटेल की बेटी स्वयं गोविन्दा से मिलने आती है और आरोप गोविन्दा पर लगाया जाता है-
’’पंचायत जुटी उसी बरगद के नीचे। पता नहीं कितने न्याय-अन्याय का साक्षी रहा होगा यह बूढा पेड़।.....आखिर रामधन पटेल ने कहना शुरू किया-’पंचो, म्हारे कई नीकेनो हे..........पण आखिर नीच जात तो.....माँ की चिता भी ठंडी नी हुई थी के इने म्हारी बेटी लच्छी के फुसलाई के.............।’’5
गाँव में बरगद तथा पीपल आदि के पेड़ को पूज्य माना जाता है। अधिक आस्थावान् इन वृक्षों के पास एक पत्थर को देव-तुल्य बना रख देते हैं जिससे उस ’देवता की पूजा के साथ-साथ वृक्ष की भी पूजा होती रहती है। वैसे तो ’बड़मावस’ पर वटवृक्ष की पूजा होती ही है जिसे ’बरमावस’ अर्थात् वर (पति) की पूजा से जोड़ा जाता है।
’’औरतें बार- त्योहार पर इसी-बरगद की पूजा करती हैं और परिक्रमा करती हैं। बरगद की जड़ों के बीच किसी ने एक बड़े और गोल पत्थर को सिंदूर में रंगकर रख दिया है तब से ये गाँव के भैंरोजी हैं और गाँव की रक्षा करते हैं...........।’’6
दीवार पर संजा माड़ना और उसकी पूजा करने को ’संजा खेलना’ कहा जाता है। वैसे तो बुन्देलखण्डी अंचलों में इसका प्रभाव देखेने को मिलता है किन्तु मालवा में भी इसे खेला जाता है। लड़कियाँ संजा को तरह-तरह की पन्नियों और फूलों से सजाती हैं। गीत गाये जाते हैं और आरती उतारी जाती है-
’’लच्छी ने आज भी गोबर इकट्ठा करके दीवार पर संजा मांड दी, लेकिन संजाबाई ऐसी-उघाड़ी अच्छी नहीं लगती। दादा से कितनी बार कहा है कि मंडी से उसके लिए सिगरेट की पन्नी लेते आएं, ताकि वह संजा को सजा सके। आज भी उसे गाँव की कांकर के बाहर ही जाना पड़ेगा-गुलतेवड़ी के फूल लेने। गुलतेवड़ी के सुर्ख फूल यदि संजा पर लगा दिए जाएं तो एक निखार आ जाता है।’’7
संजा की विदा होती है तो कल्पना की जाती है कि संजा की तरह ही लड़कियाँ भी अपनी ससुराल को विदा होंगी। संजा की विदा पर सब लड़कियाँ दुःखी होती हैं और रोती हैं-
’’.................मालवा में बालाओं को यौवन का अहसास संजा ही कराती है और जब संजा विदा होती है, तो रोती है, जैसे घर का कोई सदस्य बिछुड़ रहा है। रूंधे कंठों से आवाज निकलती है-’’संजा, तू थारा घर जा........................’’8
संजा खेलते समय गीत गाने की भी परम्परा होती है इन लोकगीतों में पति के लिये तरह-तरह की कल्पना की जाती है साथ ही गीतों के माध्यम से सास को भी खूब बुरा-भला कहा जाता है।
’’...........तभी सखियाँ वह गीत गाने को हुयी जिसमें सास को खूब बुरा-भला कहा गया है। इस गीत को लड़कियाँ बड़े उत्साह और खिलखिलाहट के साथ गाती हैं-’ऐसी दूंगा दारी ने चमचा की...............।’’
लच्छी अपनी भाभी को याद कर गीत गुनगनाती ह ैचंदा जैसो मुखड़ो म्हारी भाभी को।9
श्रोत्रिय जी ने मर्यादावान, चरित्रवान एवं आदर्श वादी पात्रों की रचना की है। निलय और ऋचा एक-दूसरे से अथाह प्यार करते थे। पर ऋचा मर्यादावान् थी उसमें भय, संकोच और संस्कार सब शामिल था। वह जानती थी पिता निलय के ’चौधरी’ उपनाम और उसकी नौकरी के खिलाफ रहेंगे। वह अपनी बहन से कहती हैं- ’’...............ट्राय टू अंडर स्टेंड मी, नेह। पापा-मम्मी ने मेरे लिए पता नहीं क्या-क्या अरमान संजो रखेे हैं। इन लोगों की रिटायर होती जिं़दगी में जरा भी दुख देने की इच्छा नहीं होती।’’................
..........बचपन से उन लोगों ने मुझे तराश-तराश कर यह रूप दिया है। कहीं मैंने बगावत कर दी तो इनका अपने शिल्प पर से विश्वास उठ जायेगा।’’10
पुरूष पात्र भी मर्यादा में पीछे नहीं है। दिशांतर में निलय-प्रतिभा में संस्कारों एवं सोंदर्य का अद्भुत मिश्रण है। ’’टू लेट’’ का पात्र निमिष भी संस्कारी युवक है जो रचना के यहाँ किराये से रहता है। घर जाने पर उसकी सगाई हो जाती है लेकिन वह यह बात भी बड़ों को बताते हुए वह सकुचा जाता है।
’’हाँ आंटी..........बड़ी अच्छी नौकरी है और...........और.....’’कहते-कहते वह शर्मा गया था। मैं सोच रही थी कि अब और कौन-सा वज्रपात करेगा यह! वह आगे बढ़ा -’’इसी साल मई तक शायद...’’ वह फिर चुप हो गया। उसकी कनपटियाँ लाल हो रही थीं।11
प्रो. विनय अपने काम के प्रति कर्Ÿाव्यनिष्ठ और ईमानदार हैं। वे आदर्श प्राध्यापक हैं अपनी आदर्श वादिता के कारण एक मकान तक नहीं बनवा पाये जबकि अन्य लोग प्रतिस्पर्धा की दौड़ में शामिल हैं। नकल करने वाले छात्रों के वे विरोधी हैं। ’राका’ नाम का छात्र जब उन्हें धमकी दे जाता है वे सोचते हैं मैं भी सभी लोगों की तरह बन जाऊँ लेकिन उनके संस्कार उनकी ईमानदारी उन पार हावी हो जाती है वे सोचते हैं-
’’..........क्या उनकी पैंतीस वर्षों की तपस्या पर एक मामूली गुंडा पानी फेर देगा? क्या एक ऋषि की वर्षोें की साधना और तप से कमाया हुआ पुण्य यों ही छिन जाएगा? प्रोफेसर विनय राका के पास जाकर खड़े हो गए। राका ने सिर उठाया और कुटिल भाव से मुस्कराया। दूसरे ही क्षण कमरा नं. 19 में प्रोफेसर विनय की गरजती आवाज सुनाई दी।...........कुछ देर बाद प्रोफेसर विनय की गरजती आवाज सुनाई दी।..........कुछ देर बाद प्रोफेसर विनय कंट्रोल रूम की ओर जा रहे थे। उनके हाथों में एक उŸार पुस्तिका और एक किताब थी। उनके पीछे राका चल रहा था-एकदम चुपचाप और सिर झुकाए।’’12
लड़कियाँ भी आर्थिक संसाधन जुटाने में मदद करने लगी हैं। वे अपनी जिम्मेदारी बखूबी समझती हैं इसलिए अपने मार्ग में प्यार को भी बीच में नहीं आने देती। छोटे भाई को पढ़ाने की जिम्मेदारी और बहन की शादी का दायित्व निर्वाह कर लेती है पर स्वयं शादी नहीं करवाती। वह जिसे चाहती है उसके बारे में बताने पर माँ क्रोधित हो जाती है और मर्यादा में रहने की बात कहती है। वह यानी सीमा मेहरा अपनी माँ की इच्छापूर्ति के लिए बड़ी सफाई से झूठ भी बोल देती है।
’’मेरा ’तपस्या’ देखने का बहुत मन है। सुनते हैं राखी के जीवन का सर्वश्रेष्ठ रोल है। ’’शाम को भाभी कहती हैं भैया से। भैया खामोश हैं। मैं ताड़ जाती हूँ कि मन-ही-मन टिकटों का हिसाब लगा रहे होंगे। ’हाँ भैया’, दिखा लाइये न भाभी को। मैंने और गीता ने देख रखी है। वाकई बड़ी अच्छी फिल्म है। ’’मैं झूठ बोलती हूँ।’’13
उनकी कहानियों में डैडी, पिताजी, अंकल, आंटी, भैया, भाभी, रामधन पटेल, सर, दिवाकर जी जैसे संबोधनों का प्रयोग हुआ है बड़ों के पैर छूना या चरण स्पर्ष किये जाते हैं तो उम्र में वड़े को नमस्ते भी करते हैं। न चाहते हुए भी संस्कार हाथ जोड़ देते हैं-
’’.............उसने अपने हाथ जोड़ दिए। मैंने पहली बार उसे ठीक से देखा।........मेरी इच्छा तो यह हो रही थी कि नमस्ते का जवाब सिर्फ गर्दन झटककर दूं जैसे कि जूनियर्स को देती हूँ लेकिन ये संस्कार कभी-कभी बहुत आड़े आ जाते हैं। मेरा हाथ अपने आप जुड़ गया।’’14
लोग चाय कॉफी हुक्का बीड़ी, शराब सिगरेट का सेवन करते है। उनकी कहानियों में बई, भोत, चड़स, पावनी, थारी, म्हारी, भारी, चुहल, कांकर, मुखड़ा, ओटला, टप्पर आदि शब्दो का प्रयोग हुआ है।पुरूष शर्ट पैन्ट, धोती कुर्ता, कोट-पैन्ट, शर्ट पहनते हैं। खादी का कुर्ता और जीन्स भी पहनते हैं। कुली लाल कुर्ते व साफे का प्रयोग करते हैं। पुरूष सोबर मूंछें रखते हैं और चश्मा पहनते हैं। नवयुवती का दुपट्टा केवल गले में झूलता रहता है। महिलायें साड़ी पहनती हैं और घाघरा और जेवर भी पहनने का प्रचलन है।
’’...........महिलाएं काले, लाल या हरे घाघरे पर केसरिया, हरा या एकदम सुर्ख लुगड़ा ओढ़ती हैं हाथ पैरों में चांदी के बजनी जेवर, जो किसी कलाकृति का नमूना प्रस्तुत नहीं करते बल्कि आवश्यकता पड़ने पर (अकसर) साहूकार की तिजोरी में पहुँचने के लिए बेताब रहते हैं।’’15
संदर्भ सूची
6- निरंजन श्रोत्रिय की कहानियों में सांस्कृतिक मूल्य
स.क्र. कहानी - कहानी संग्रह -पृ. संख्या
01- दिशांतर- उनके बीच का ज़हर तथा अन्य कहानियाँ- पृ.-18
02- लौटना ही है-उनके बीच का ज़हर तथा अन्य कहानियाँ- पृ. 58
03- निष्कासन - उनके बीच का ज़हर तथा अन्य कहानियाँ-पृ. 64
04- वही-पृ. 65
05- वही - पृ. - 64
06- वही- पृ. - 64
07- वही - पृ. - 65
08- वही पृ. - 67
09- वही-पृ. - 68 व 65
10- दिशांतर - उनके बीच का ज़हर तथा अन्य कहानियाँ-पृ. - 15
11- टू लेट- उनके बीच का ज़हर तथा अन्य कहानियाँ--पृ.-30
12- नकल- उनके बीच का ज़हर तथा अन्य कहानियाँ-पृ.-88
13- स्थगन- उनके बीच का ज़हर तथा अन्य कहानियाँ- पृ.-73
14- टु लेट - उनके बीच का ज़हर तथा अन्य कहानियाँ-पृ.-24
15- निस्कासन- उनके बीच का ज़हर तथा अन्य कहानियाँ-पृ.-64