Journey to the center of the earth - 23 in Hindi Adventure Stories by Abhilekh Dwivedi books and stories PDF | पृथ्वी के केंद्र तक का सफर - 23

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पृथ्वी के केंद्र तक का सफर - 23

चैप्टर 23

अकेलापन।

इस बात को सच में स्वीकारना होगा कि अब तक हमारे साथ सब अच्छा ही हुआ था और मैंने भी कुछ ज़्यादा शिकायतें नहीं की थी। और अगर तकलीफें नहीं बढ़ीं, हम सही-सलामत अपने गंतव्य तक पहुँच सकते हैं। हमारे लिए वो बेमिसाल पल होगा! मैंने फिर से पुराने जोश के साथ प्रोफ़ेसर से बात करना शुरू कर दिया था। क्या मैं गंभीर था? दरअसल यहाँ सबकुछ इतना रहस्यमयी था कि समझना मुश्किल था कि मुझे क्यों इतनी जल्दी है।
उस यादगार पड़ाव के बाद से रास्ते और ज़्यादा डरावने और खतरनाक हो गए थे; बहुत ज़्यादा सीध में जैसे हमें हमेशा के लिए नीचे विलीन होना है। कुछ दिन तो हम बस तीन-चार मील ही चल रहे थे। मार्ग वाक़ई कठिन था लेकिन इन्हें पार करते हुए हमें हैन्स के धैर्य को देखकर बहुत गर्व हुआ। हैन्स, जो हमारा दिशानिर्देशक था, वो नहीं होता तो अब तक हम कहीं गुम हो चुके होते। उस गम्भीर और दृढ़ आइसलैंडर ने आत्म-संयम से खुद को समर्पित कर सब आसान कर दिया था; और उसे धन्यवाद क्योंकि उसने हमें ऐसे खतरनाक रास्तों से उबारा था जहाँ कैसे भी फंस सकते थे।
उसकी खामोशी हर दिन बढ़ रही थी। मुझे लगा हम उसके इस व्यवहार के आदि भी हो रहे थे। ये सच है कि आप जिसके आसपास रहते हैं उनका प्रभाव आपके दिमाग पर भी पड़ता है। ये ज़रूर वैसा इंसान है जो खुद को चार दीवारों में कैद कर, सभी खयाल और शब्दों को रोक देता होगा। काल कोठरी की सजा से पागल हो चुके लोगों को देखते हुए ही लोगों ने इसका विरोध किया; क्योंकि इससे सोचने-समझने की शक्ति खत्म हो जाती है।
उस यादगार बातचीत के बाद अगले दो सप्ताह तक हमें ऐसा कुछ भी नहीं मिला जिसकी चर्चा हो।
हालाँकि इन संस्मरण को लिखते समय एक हादसे को लिखने के लिए मैंने अपनी याददाश्त को बेवजह परेशान भी किया था।
लेकिन जो हादसा इससे संबंधित है वो वाक़ई खतरनाक था। उसे याद कर के आज भी मेरी आत्मा काँप जाती है और खून ठंडा पड़ जाता है।
वो अगस्त के सातवां दिन था। हम लगातार उतरते हुए लगभग नब्बे मील तक उतर चुके थे, मतलब कह सकते हैं कि हमारे सौ मील ऊपर पहाड़, चट्टान, महासागर, देश, नगर और जीवित प्राणियों की दुनिया थी। आइसलैंड से छः सौ मील दूर हम दक्षिणी पूर्व की दिशा में थे।
उस यादगार दिन से सुरंग का मार्ग क्षैतिज रूप लेता जा रहा था।
इस दौरान में आगे चल रहा था। एक रुह्मकोर्फ़ यंत्र मौसाजी के पास था, दूसरा मैं सम्भाले हुए था। उसकी रौशनी से मैं ग्रेनाइट की परतों पर ध्यान दे रहा था। और मैं अपने इस काम में डूबा हुआ था।
अचानक जब मैं रुककर पीछे मुड़कर देखता हूँ तो मैं अकेला था।
"हम्म," मैंने खुद से कहा, "लगता है मैं कुछ ज़्यादा तेजी से आगे बढ़ गया हूँ, या फिर ज़रूर हैन्स और मौसाजी रुककर सुस्ता रहे होंगे। अच्छा होगा मैं वापस जाकर उनको देखूँ। सौभाग्य से ज़्यादा चढ़ाई नहीं है जो मुझे परेशान कर।"
मैं वापस उन्हीं रास्तों से लौटने लगा और करीब पौन घंटे तक चला। थोड़ा अजीब लगा तो रुककर मैंने चारों तरफ देखा। एक ज़िंदा प्राणी नहीं। मैं ज़ोर से चिल्लाया। कोई जवाब नहीं। मेरी ही आवाज़ वहाँ गूँज कर उन्हीं आवाज़ों में खो गयी।
मुझे पहली बार इतनी घबराहट हो रही थी। रोम-रोम सिहर गया था, पसीना, डर और ठंड से कंपकंपी शुरू हो गयी थी।
"मुझे शांत रहना चाहिए।", मैंने ज़ोर से कहा जैसे लड़के डर भगाने के लिए सीटी बजाते हैं। "इसमें कोई शक नहीं कि मेरे साथी मुझे मिलेंगे। यहाँ दो रास्ते हो नहीं सकते। हो सकता है मैं काफी आगे निकल चुका था इसलिए मुझे बस पीछे जाना है।"
ये फैसला कर के मैंने वापस आधे घण्टे तक चढ़ना शुरू किया, बिना ये पहचाने कि इस रास्ते से गुज़रे हैं या नहीं। हर थोड़ी देर में रुककर मैं किसी पुकार को सुनने की कोशिश करता था, हालाँकि यहाँ आवाज़ गूँजती है तो मैं देर तक सुन सकता था। लेकिन कुछ नहीं मिला। इस गलियारे में जबरदस्त सन्नाटा था। सिर्फ मेरे कदमों की आहट सुन सकते थे।
आखिर में मैं रुक गया। मुझे इस एकांत पर विश्वास नहीं हो रहा था। मुझे लग रहा था मैंने कोई ग़लती की है; लेकिन मैं गुम नहीं हूँ। अगर ग़लती की है तो सही मार्ग ढूंढना होगा। और, अगर गुम हूँ? सोच कर ही काँप गया था।
"चलो, चलो।" मैंने खुद से कहा, "जब यहाँ एक ही मार्ग है और उनको इन्हीं रास्तों से आना है, तो हम मिल जाएँगे। बस, मुझे ऊपर की तरफ ही बढ़ना है। हो सकता है उन्हें ध्यान नहीं होगा कि मैं आगे हूँ और मुझे ना पाकर वो मुझे ढूंढने के लिए पीछे मुड़ गए होंगे। अगर ऐसा है तो मुझे जल्दी करना चाहिए, मैं उन तक पहुँच सकता हूँ। इसमें कोई संदेह नहीं है।"
और जब मैंने इतने ज़ोर से ये बातें कही थीं तो किसी को सुनाई भी देना चाहिए था - अगर कोई होता तो, क्योंकि मुझे ऐसा ही लग रहा था। वैसे भी सभी कारणों पर सोचने और समझने के लिए दिमाग का शांत और स्थिर होना ज़रूरी था। मैं वही नहीं कर पा रहा था।
तभी एक और डरावने खयाल से मेरी आत्मा काँप गयी। क्या मैं वाक़ई सबसे आगे था? मैं बिल्कुल था। हैन्स बिल्कुल पीछे, मौसाजी से भी पीछे था। मुझे पूरा याद था कि उसने रुककर अपने कंधे पर सामान की पेटी को बांध रहा था। ये बात मुझे अच्छे से याद थी। मुझे लगता है मैं उसी वक़्त अपने रास्ते आगे बढ़ता गया था।
"एक बार फिर," मैंने फिर से सब याद करना चाहा, "एक ऐसी पक्की चीज़ है जो साबित कर सकती है कि मैं रास्ता नहीं भूला हूँ, जो मुझे इस कंदरा के अंतिम छोर तक का रास्ता दिखा रही थी, जिसे मैंने भुला दिया... वो है, वफादार नहर।"
अब तक मेरी आत्मा भी जवाब देने वाली थी लेकिन इस खयाल से बिना देर किए, तुरंत उठा। समय नहीं बर्बाद कर सकता था।
इस वक़्त मुझे मौसाजी के उस बात की कीमत समझ आयी जब उन्होंने हैन्स को वो छिद्र बंद करने से रोका था; वही छोटा सा फव्वारा जो इस ग्रेनाइट के समूह में था। इस वरदान रूपी फव्वारे के पानी ने इतने दिनों तक हमारी प्यास बुझायी और अब मुझे रास्ता भी दिखायेगा।
इस दिमागी फैसले से मुझे यकीन हो गया था कि ये अपमार्जन जल ही मुझे सही रास्ता दिखायेगा।
मैंने उस हैन्स की नदी में अपने हाथ और सिर को भिगोने से रोक दिया था, जैसे उसकी मौजूदगी पर मैं कोई एहसान कर रहा था।
मेरा डर और आश्चर्य तब और बढ़ गया जब मैं उस ग्रेनाइट के सख्त, धूसरित और कंकड़ी मार्ग पर दौड़ा जा रहा था। जिस नहर पर मुझे इतना भरोसा था, वो ग़ायब था!