Journey to the center of the earth - 17 in Hindi Adventure Stories by Abhilekh Dwivedi books and stories PDF | पृथ्वी के केंद्र तक का सफर - 17

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पृथ्वी के केंद्र तक का सफर - 17

चैप्टर 17

गहराई में - कोयले की खदान।

हम सच में सीमित राशन पर निर्भर रहना था। हमारे रसद मुश्किल से तीन दिन के लायक थे। इसका एहसास मुझे रात्रिभोज के समय हुआ। और सबसे बुरी बात ये थी कि हम उन पत्थरों के बीच थे जहाँ पानी मिलना नामुमकिन था।
मैंने पानी के अकाल के बारे में पड़ा था और हम जहाँ थे, वहाँ कुछ समय बाद हमारे सफर और ज़िन्दगी का अंत होना तय था। लेकिन ये सब बातें मौसाजी से नहीं कह सकता था। वो प्लेटो के किसी कथन को सुना देते।
अगले दिन हम सब बस बढ़े जा रहे थे, सुरंग दर सुरंग और तोरण दर तोरण पार कर रहे थे। बिना कुछ कहे हम अपने सफर में बढ़े जा रहे थे। हैन्स की तरह हम दोनों भी गूँगे और चुपचाप होकर चले जा रहे थे।
आगे जो रास्ते मिल रहे थे उनमें चढ़ाई नहीं थी, अगर होंगे भी तो पता नहीं चल रहा था। कभी-कभी साफ पता चलता कि हम नीचे की ओर जा रहे हैं। लेकिन इनके बदलाव को समझना इतना आसान नहीं था, प्रोफ़ेसर को वैसे भी इनपर भरोसा नहीं था क्योंकि यहाँ परतों पर कोई विशेष बदलाव नहीं मिल रहे थे भले पत्थरों के बदलते स्वरूप में उनका गहरापन दिखने लगा था।
विद्युतीय रोशनी में दीवारें चमक रहीं थीं जो चूनेदार पत्थरों और ललाहुँ बलुआ पत्थरों से बने थे। किसी को भी ऐसा लगेगा कि डेवनशायर भी यहीं का एक टुकड़ा होगा जिसे वहाँ के लोगों ने उसे अपने हिसाब से नाम से दिया। उस गलियारे में चमकदार पत्थरों के टुकड़े निकले हुए थे, कहीं भूरे गोमेद रंग पर विभिन्न और रंगबिरंगे पट्टी नुमा सफेद रंग थे, कहीं पीले में और कहीं लाल रंग में। कुछ दूर आगे जाकर कुछ ऐसे जोड़ मिले जहाँ चेरी जैसे लाल रंग के विभिन्न नमूने थे।
अधिकतर चमकीले पत्थरों पर प्राचीन जानवरों के निशान थे। उस काल के मुकाबले, अभी प्रकृति और कला ने काफी तरक्की कर ली है। उन प्रारंभिक ट्रिलोबाइट्स के बजाय कुछ आधुनिक निशान मिले। इनमें वो मछली भी थी जिससे भूविज्ञानियों ने रेंगने वाले प्राणी का पता लगाया था।
डेवनशायर के समुद्रों में इसी प्रजाति के जीव प्रचुर मात्रा में थे जो नए पत्थरों के निर्माण की वजह से उसके नीचे अनंत गहराई में रहते थे।
मुझे साफ पता चल गया था कि हम उस ओर बढ़ रहे हैं जब जीवन, जंगलों से होता हुआ इंसानों में विकसित हुआ था। मेरे मौसाजी, जो कि एक प्रोफ़ेसर भी थे, ने इन सब को नजरअंदाज कर दिया था। वो बस हर हाल में आगे बढ़ना चाहते थे।
उनको दो बातों में से किसी एक की उम्मीद थी; या तो उनके पैरों तले कोई सुरंग मिलेगा जिससे वो नीचे उतरेंगे, या फिर कोई अडिग अवरोध उन्हें इन्हीं रास्तों से वापसी के लिए मजबूर करे। लेकिन शाम होने तक दोनों में से ऐसा कुछ नहीं हुआ और मुझे डर लगने लगा।
शुक्रवार की रात जब प्यास में मैं थूक गटक रहा था और भूख मर चुकी थी, हमारी टोली अभी भी आगे बढ़ रही थी जहाँ गलियारे अब और ज़्यादा घुमावदार, उतार चढ़ाव और अनंत रूप लिए हुए थे। सबकुछ शान्त और भयावह लग रहा था। मैं देख सकता था कि मौसाजी भी काफी दूर तक निकल चुके हैं।
लगभग दस घण्टे लगातार चलने के बाद, जो कि बहुत ही निराशापूर्ण और मनहूसियत से भरा था, मैंने ध्यान दिया कि आवाज़ के गूँजने की ध्वनि और रोशनी की चमक धीमी होती जा रही थी। वो चमकीले पत्थर, ललाहुँ बलुआ पत्थर और चूनेदार पत्थरों वाली दीवारें छूट चुके हैं और उनकी जगह गहरे, काले और बिना रोशनी वाली दीवारें हैं। जब हम सुरंग के एक संकरे हिस्से पर पहुँचे तो मैंने अपना हाथ उन दीवारों पर टिका दिया।
जैसे ही मैंने उसपर से अपना हाथ हटाया और उसे देखा तो वो पूरा काला था। हम पृथ्वी के उस सतह पर थे जहाँ कोयले की परत होती है।
"कोयले का खदान!" मैं चीखा।
"बिना खनिक वाला कोयले का खदान," मौसाजी ने आराम से कहा।
"वो कैसे?"
"मैं बता दूँगा," मौसाजी ने सख्ती से उपदेशक वाले अंदाज़ में कहा, "मुझे पूरा विश्वास है कि इन कोयले की परतों को किसी इंसानी हाथों ने नहीं किया है। प्रकृति ने किया है या नहीं वो बाद में देखेंगे। अभी फिलहाल भोजन का समय है तो पहले वही करते हैं।"
हैन्स सबके लिए भोजन परोसने में व्यस्त हो गया। मैं कुछ भी नहीं खाने की स्तिथि में था। मुझे बस अपने हिस्से का पानी चाहिए था। जो मैंने झेला है उसके बारे में ना कहना ही सही है। हैन्स का झोला भी तीन लोगों के लिए पूरा नहीं था।
भोजन उपरांत मेरे दोनों सहचर अपनी थकान और तकलीफ को भूलने के लिए वहीं अपने गट्ठर पर पसर कर सो गए। मैं थकान से सो नहीं पाया, बस सुबह का इंतज़ार कर रहा था।
अगले दिन शनिवार सुबह छः बजे हम फिर शुरू हो गए। बीस मिनट बाद हम ऐसे जगह खड़े थे जहाँ विशाल उत्खनन हुआ था। उसके स्वरूप को देखकर मैं समझ गया था इससे इंसानों को कोई सरोकार नहीं है; ज़रूर कोई वज्रपात हुआ होगा और प्राकृतिक चमत्कार ने इसे अभी तक सम्भाले रखा है।
ये विशालकाय खोह लगभग सौ फीट चौड़ा और डेढ़ सौ फीट तक गहरा था। निश्चित रूप से पृथ्वी में कोई भयानक हलचल हुई होगी जिसके फलस्वरूप ये हुआ होगा। एक बहुत बड़ा हिस्सा ऐसे अलग हुआ जैसे दो भागों में बाँटा गया हो और हम वो पहले इंसान थे जो उसमें उतरने जा रहे थे।
कोयले काल की पूरी कहानी उन गहरे और काले दीवारों पर अंकित थी। एक भूविज्ञानी आराम से इनकी उत्पत्ति और कालखंड को समझ सकता था। बलुआ मिट्टी से उन कोयलों की परतें विभाजित थी, शायद ऊपर के भार की वजह से हुआ था।
दूसरे युग की शुरुआत में भयंकर गर्मी और निरंतर उमस की वजह से पृथ्वी पर बेहिसाब प्राकृतिक संपदा थी। बादलों से घिरे रहने की वजह से सूर्य की किरणें शायद ही पहुँचती थी।
इसका मतलब है किसी बाहरी ताप से यहाँ कोई असर नहीं पड़ा।
इतनी गर्मी या तेज उन तारों में भी नहीं था कि वो ब्रह्माण्ड को रौशन करें। मौसम भी हर गोलार्द्ध पर एक जैसा था, चाहे भूमध्य रेखा हो या उत्तरी ध्रुव।
फिर इतना ताप आया कहाँ से? क्या पृथ्वी की गहराई से?
प्रोफ़ेसर हार्डविग के सभी ज्ञानी सिद्धांत से दूर, इस गोलाभ के अंतस में भी कभी एक भीषण और ज्वलंत आग ज़रूर धधक रहा होगा, जिसे पृथ्वी के ऊपरी सतह पर पड़े उन वनस्पतियों ने महसूस किया होगा, जो सूर्य की किरणों की अनुपस्थिति में कोई कली, फूल या गंध नहीं उत्पन्न कर पाते होंगे, लेकिन उनकी जड़ें ज़रूर जीवित रहती होंगी, सिर्फ इस अंदरूनी ताप की वजह से।
उस समय हरियाली जितनी भी रही होगी वही बहुत थे; सदाबहार पौधे, मैदानी घास, कंटीली झाड़ियाँ, काई या कुछ विशेष प्रजाति के, जो उस समय हज़ारों की संख्या में पाए जाते थे।
कोयले की उत्पत्ति के लिए सारा श्रेय इन्हीं समृद्ध वनस्पतियों को जाता है। पृथ्वी के गर्भ में खौलते हुए ढेर अपना काम करते रहते थे तभी ऊपरी सतह पर कुछ हासिल होता था। तभी जो छिद्र बने उनसे वो चीजें ऊपर आयीं। पानी के नीचे भी पौधों के समूह ने खुद को एक संपत्ति के रूप में विकसित किया।
और जिन महासागर के नीचे वनस्पतियों के समूह से मैदान पनप रहे थे, वहाँ शुरू हुए प्राकृतिक रासायनिक क्रियाएँ जिससे खनिज पदार्थों का निर्माण सम्भव हुआ।
इस तरह आदिकाल में कोयले की उत्पत्ति और परतों का निर्माण हुआ, जो शायद अगले तीन सदी तक इस्तेमाल हों, अगर जल्दी ही भाप चलित और गैस ईंधन से सस्ता और आसान विकल्प नहीं बनाए गए।
कोयले की इस बेहिसाब मात्रा, जो शायद ही इस्तेमाल हों, को देखकर मुझे और भी कई बातें और पाठ्यक्रम से मिली जानकारियाँ याद आने लगी थीं। इस खदान में काम करना के लिए भी लाभ को त्यागना होगा।
एक बात और गौर करने लायक यह थी कि अभी पृथ्वी के सतह को थोड़ा-सा ही खोदकर इतने कोयले मिल जाते हैं। इसलिए इन सतहों को देखकर लगता है, ये पृथ्वी के रहने तक मौजूद रहेंगे।
इन सभी भूविज्ञानी बातों के चक्कर में मुझे ध्यान ही नहीं था कि हम अपने सफर में कहाँ पहुँचे हैं। तापमान पूरे सफर में वैसा ही था। एक बड़े दुर्गंध से मेरे सूँघने की शक्ति भी प्रभावित हो चुकी थी। मुझे तुरंत ध्यान आया कि ये गलियारा ज़रूर अग्नि-ताप और उनके खतरनाक गैस की नमी से भरा रहता होगा जिसके विस्फोट से कई औरत विधवाएँ और बच्चे अनाथ हो जाते होंगे।
रुह्मकोर्फ़ यंत्र की सहायता से हम खुशी-खुशी उस रौशनी में आगे बढ़ रहे थे। अगर हमने ज़रा भी लापरवाही दिखाते हुए हाथों में मशाल लिया होता तो एक भयानक धमाका होता और ये यात्रा एक बार में शेष हो गया होता और एक भी यात्री नहीं बचता।
इस बेमिसाल कोयले खदान से आगे तक का हमारा सफर शाम तक चला। मौसाजी अपनी अधीरता को छुपाने में असमर्थ थे और इस बात से असंतुष्ट थे कि हमें अभी भी क्षैतिज दिशा में ही बढ़ना पड़ रहा था।
आगे और पीछे अन्धकार, गहनता और धुंधलका होने की वजह से अनुमान लगाना मुश्किल था कि ये गलियारा कितना लंबा है। मैंने तो मान लिया था कि ये अनंत है और हमें इसी तरह महीनों तक चलना है।
छः बजे अचानक हम एक दीवार के सामने खड़े थे; दाएँ, बाएँ, ऊपर, नीचे कहीं भी कोई रास्ता नहीं था। हम उस बिंदु पर खड़े थे जहाँ चट्टानें साफ लफ़्ज़ों में कह रहे थे - कोई रास्ता नहीं है।
मैं दंग खड़ा रहा। हैन्स ने अपनी बाँहें बाँध ली। मौसाजी खामोश थे।
"खैर, जो हुआ अच्छा हुआ," मौसाजी ने आखिर में कहा, "मुझे पता है अब हमें क्या करना है। हम उस मार्ग में नहीं है जो सैकन्युज़ेम्म ने बताया था। अब हमें वापस मुड़ना होगा। एक रात हम सब अच्छे से आराम करते हैं और तीन दिन के खत्म होने से पहले हम वहाँ पहुँच जाएँगे जहाँ से ये गलियारा बँटा हुआ था।"
"हाँ, लेकिन तभी, जब इतनी ताकत बची हो," मैंने रुआंसा होते हुए कहा।
"क्यों नहीं?"
"कल हम तीनों के पास पानी नहीं होगा, सब खत्म हो चुका है।"
"तुम्हारा साहस तो है।" मौसाजी ने गर्मजोशी से कहा।
अब क्या ही बोल सकते थे? मैं अपने एक तरफ मुड़ा और थकान से गहरी नींद में चला गया लेकिन पानी के डरावने सपने ने जगा दिया। मुझमें ज़रा भी ताज़गी नहीं थी।
मैं एक ग्लास चमकदार पानी के बदले हीरे का खदान दे सकता था।