Journey to the center of the earth - 16 in Hindi Adventure Stories by Abhilekh Dwivedi books and stories PDF | पृथ्वी के केंद्र तक का सफर - 16

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पृथ्वी के केंद्र तक का सफर - 16

चैप्टर 16

पूर्वी सुरंग।

अगले दिन मंगलवार 20 जून, सुबह छः बजे हम अपने आगे के सफर के लिए फिर से तैयार थे।
अब हम आगे जिन रास्तों पर बढ़ रहे थे वो बिल्कुल वैसे ही थे जैसे जर्मनी में पुराने ज़माने के घरों में सीढ़ियाँ होती थीं। करीब बारह बजकर सत्रह मिनट होने पर हम वहाँ रुके जहाँ हैन्स पहले से पहुँच कर अचानक से रुका हुआ था।
"आखिर में," मौसाजी ने चीखते हुए कहा, "हम इस खाँचे के अंतिम छोर पर आ गए हैं।"
मैं सबकुछ देखकर अचरज में था। हमारे सामने चार रास्ते थे जो संकरे और गहरे थे, जिनमें से एक हमें चुनना था। बड़ा सवाल यही था का इनमें से किसे चुनना है क्योंकि ये चुनाव इतना आसान नहीं था।
मौसाजी को ज़रा भी संदेह नहीं था और हमें भी किसी संकोच में नहीं रहने दिया। उन्होंने शान्ति से पूर्वी सुरंग की तरफ इशारा कर उस अंधेरे और गहरे सुरंग में आगे बढ़ने के लिए कहा।
वैसे भी, उनको कोई संदेह होता तो वो समय लेते लेकिन यहाँ इसकी कोई ज़रूरत नहीं थी। ज़रूरी था अवसर और खुद को भाग्यशाली मानकर आगे बढ़ना।
इस गलियारे का ढलान बहुत ही उबड़खाबड़, घुमावदार और संकरा था। आगे बढ़ते हुए जब अंदर इसके तोरण को देखते तो गथिक गिरजाघरों का गलियारा याद आता था। जैसे मध्यकालीन युग के महान शिल्पकार और निर्माणकर्ताओं ने यहीं से ज्ञान लिया हो। वास्तुशिल्पीय सौंदर्य को उजागर करने की प्रेरणा उन्हें यहीं से मिली होगी। लगभग एक मील के बाद इस गुफानुमा मार्ग को पार करते हुए अचानक हमें ऐसा तोरण दिखा जो चौकोर था, जैसे प्राचीनकाल में रोमन बनाते थे, ये छत पर से आगे निकल हुआ था और उसके भार को सम्भाले हुए भी था।
अचानक से उसके बाद भूमिगत सुरंग का मार्ग आ गया जो किसी ऊदबिलाव या भेड़िया के मांद जैसा था और इतना संकरा और घुमावदार कि हमें रेंग के आगे बढ़ना पड़ रहा था।
गर्मी कुछ खास नहीं थी। जिन रास्तों को हमने त्याग दिया था उसके बारे में ये सोचकर ही रोंगटे खड़े हो जाते थे कि जब उन रास्तों से उबलते लावा के साथ लपटें और भाप निकलते होंगे तो क्या होता होगा। मैं उन रास्तों से खौलते दुर्गन्धपूर्ण लावा में उबलते अंगारों और बुलबुलों की कल्पना कर के सिहर जा रहा था।
"अगर आज ये पुराना ज्वालामुखी जीवित होता," मैंने खुद से कहा, "तो परिणाम के बारे में सोच भी नहीं सकते।"
मैंने मौसाजी से ना तो इसकी चर्चा की और ना ही किसी ऐसे भाव को दर्शाया। वो समझ भी जाते और बुरी तरह से चिढ़ भी जाते। उनका उद्देश्य सिर्फ आगे बढ़ना था। उनको जैसे समझ आया और जैसे हो पाया - चाहे रेंगते, चढ़ते, फिसलते - बस आगे बढ़ रहे थे और उनकी उत्सुकता और लगन को देखते, इसे ना सराहना, ग़लत होता।
शाम छः बजे तक अपने सफर में हम थककर, बोझिल होते हुए दक्षिणी दिशा से छः मील पार कर चुके थे, लेकिन नीचे की ओर हमने एक मील भी नहीं पार किया था।
मौसाजी ने हमें वहाँ ठहरने का इशारा किया। चुपचाप हमने भोजन किया और उसके बाद सो गए।
रात के लिए हमारी व्यवस्था बिल्कुल साधारण और सहज थी। यात्रा के लिए जो कम्बल थे, वही हमारे लिए बिछौने थे। हमें ना कड़कते ठंड से डरने की ज़रूरत थी ना ही किसी हमले से डरने की। जो यात्री अफ्रीका के रेगिस्तान में निकलते हैं या अलग दुनिया के किसी जंगल में विचरते हैं, उन्हें रात भर जागना और छुपना पड़ता है; लेकिन धरती के इस खोह में तो प्राकृतिक शान्ति और सुरक्षा ही सर्वोपरि थी।
हमें किसी भी जंगली या खूँखार जानवर का डर नहीं था।
रात की मीठी नींद के बाद सुबह हम एकदम तरोताज़ा थे। किसी को कुछ जवाब नहीं देना था इसलिए हम आगे बढ़ गए। हमने उसी कंदरा से आगे बढ़ना जारी रखा था। ये पता लगाना असम्भव लग रहा था कि हम जा कहाँ रहें हैं। क्योंकि सुरंग नीचे की तरफ जाने के बजाय एकदम क्षैतिज था।
कुछ देर गौर करने के बाद मुझे लगा हम कहीं ऊपरी तरफ तो नहीं बढ़ रहे। लगभग सुबह के दस बजे तक सब कुछ साफ दिखने लगे, और अपनी थकान भी। मेरे कदम धीरे होते हुए एकदम से रुक गए।
"अरे!" प्रोफ़ेसर ने तुरंत पूछा, "क्या हुआ?"
"दरअसल, मैं थककर चूर हो चुका हूँ।" मैंने बेसब्री से जवाब दिया।
"क्या?" मौसाजी चीख पड़े, "इतने आसान मार्ग पर मात्र तीन घण्टे में थक गए?"
"आसान होगा, मैं मानता हूँ, लेकिन थकाऊ है।"
"ऐसे कैसे सम्भव है, जब हम सब नीचे की तरफ जा रहें हैं।"
"मौसाजी, माफ करें। लेकिन मैंने गौर किया है कि हम ऊपरी तरफ जा रहें हैं।"
"ऊपरी तरफ," मौसाजी ने कंधा उचकाते हुए कहा, "ये कैसे हो सकता है?"
"इसमें कोई संदेह नहीं है। पिछले आधे घण्टे से हम चढ़ाई कर रहे हैं और इसी तरह आगे बढ़ते रहे तो कुछ ही देर में हम वापस आइसलैंड में होंगे।"
मौसाजी ने पूरे विश्वास से नहीं मानने में अपना सर हिलाया। मैंने फिर से समझाने की कोशिश की। उन्होंने कोई जवाब देने के बजाय, आगे बढ़ते रहने का इशारा किया। उनकी खामोशी से लग रहा था वो गुस्से से भरे हुए हैं।
खैर अब जो भी हो, मैं अपना गट्ठर उठाए और पूरे आत्मविश्वास और भरोसे के साथ, हैन्स के पीछे चल पड़ा जो मौसाजी से आगे चल रहा था। मुझे हारना या पीछे नहीं रहना था। मैं वैसे भी उनको ना देख पाने से बेचैन हो जाता था। इस भूलभुलैया में पीछे छूटने का खयाल आते ही कंपकंपी शुरू हो जाती है।
हालाँकि इन बातों से इतर मुझे इस बात की अंदर से खुशी थी कि अगर आगे बढ़ते हुए रास्ता और दुर्गम और चढ़ाई वाला हुआ तो अच्छा है। क्योंकि ये हमें वापस पृथ्वी की सतह पर ले आएगा, और यही उम्मीद भी है। इसलिए मुझे अपने हर कदम पर भरोसा था और मैंने इन्हीं बातों को सोचते हुए, ग्रेचेन से विवाह करने के हवाई किले बनाने शुरू कर दिए थे।
करीब बारह बजे अचनाक से उस पथरीले गलियारे की दीवारों पर बदलाव दिखने लगा। मैंने तब गौर किया जब लालटेन की हल्की रोशनी में भी उनसे प्रकाश फूट रहा था। उन दीवारों पर दमकते हुए लावा की परत जमी हुई थी जो चट्टान जैसे दिखते थे। बगल की दीवारें एकदम सीध में और ढुलाई किये हुए जैसे लगते थे।
हम अब उन पत्थरों के बीच में थे जिन्हें भूवैज्ञानिक प्रोफ़ेसर एक दौर में इन्हें सिलुरियन पत्थर कहते थे क्योंकि ऐसे पत्थरों का चलन उस काल में था जब इंग्लैंड में केल्ट जाति के लोग रहते थे और उन्हें सिलुर कहा जाता था।
"मुझे साफ तौर पर दिख रहा है," मैंने ज़ोर से कहा, "ये जो जमी हुई तिलछट की परतें हैं बिल्कुल वैसी ही है जो हम पीछे छोड़ आये हैं। हम ग्रेनाइट को पीछे वैसे ही छोड़ रहे हैं जैसे कुछ लोग हैम्बर्ग से लुबेक जाने के लिए हनोवर से होते हुए जाते हैं।"
शायद मुझे अपना ज्ञान अपने तक रखना चाहिए था। लेकिन मेरी भूविज्ञानी जोश को तब तसल्ली मिली जब मौसाजी ने कुछ सुना।
"अब क्या हो गया?" उन्होंने भारी-भरकम आवाज़ में पूछा।
"आपने देखा नहीं?" मैंने कहा, "इन चूनेदार परतों को और इन काली तिलछट परतों को?"
"अच्छा। हाँ, तो?"
"हम उस तरफ हैं जहाँ एक सदी में पहली बार जीव-जंतुओं ने जन्म लिया था।"
"ऐसा क्यों लगता है तुम्हें?"
"आप खुद देखिये, परखिये और फिर बताइये।"
उस घुमावदार गुफा में मैंने अपने तरफ से भरसक कोशिश की कि उन्हें रोशनी भी पूरी मिले और उनके होठों पर आश्चर्य के भाव उभरे। मैं ग़लत था। ज्ञानी प्रोफ़ेसर ने एक शब्द नहीं कहा।
पता नहीं वो मुझे समझ पा रहे थे या नहीं। ये भी हो सकता है कि मौसाजी, जो कि एक काबिल अचार्य हैं, अपने दम्भ में मान लिया हो कि उन्होंने पूर्वी सुरंग को ही सही चुना है या फिर ठान लिया है कि अब इसके अंतिम तक पहुँच कर ही रहेंगे? इतना समझ में आ गया था कि हम लावायुक्त मार्ग से निकल चुके हैं और ये रास्ता हमें वापस स्नेफल्स के प्रवेश द्वार पर तो लाएगा नहीं।
आगे बढ़ते हुए और आत्मचिंतन में मुझे एक खयाल आया कि क्या सही में इन परतों में अचानक और असाधारण बदलाव को मैंने समझा भी है या नहीं।
हो सकता है मैं कहीं ग़लत भी हो सकता हूँ, और ऐसा इसलिए सम्भव है क्योंकि जब हम चट्टानी परतों से गुज़र रहे थे तो ज़मीनी सतह पर ऐसे ढेरों का अम्बार था जिनसे ग्रेनाइट बनते हैं।
"अगर ऐसा है, और मैं सही हूँ," मैंने खुद से कहा, "तो प्राचीन काल के पौधों के अवशेष मिलने चाहिए जो मेरे खयाल को सत्यापित करेंगे। और इसके लिए एक अच्छी खोज ज़रूरी है।"
मैं भी खोजने में कोताही नहीं बरतने वाला था लेकिन सौ गज दूर चलकर ही मेरी आँखों को बिना मेहनत, वो बेमिसाल नज़ारा मिल गया था। मुझे विश्वास था कि मैं इसे हासिल कर सकूँगा क्योंकि मुझे पता था कि सिलुरियन काल में पंद्रह सौ से भी ज़्यादा विभिन्न प्रकार के जीव-जंतु तथा वनस्पति थे। अभी तक मेरे पैर जो इन सख्त और शुष्क ज़मीन पर चल नहीं पा रहे थे, अचानक इन मखमली धूल और अवशेषों पर दौड़ने लगे थे।
उन दीवारों पर बहुत साफ तरीके से सूर्य, शैवाल और लाइकॉपोड के रूपरेखा आरेखित थे। ऐसा नहीं है कि मेरे ज्ञानी प्रोफ़ेसर ने गौर नहीं किया होगा, बस फिलहाल उन्होंने आँखें बंद कर आगे बढ़ते रहने का अडिग फैसला ले रखा था।
मुझे लगने लगा कि वो अपने घमण्ड में आगे निकले जा रहे हैं। मैं इस तरह धैर्य या अक्लमंदी से नाटक नहीं कर सकता था। मैंने आगे चलते हुए अचानक से एक ढाँचा उठा लिया जो यकीनन आज के दौर में किसी जानवर से मिलता-जुलता था। अपनी इस उपलब्धि का ज़िक्र मैंने मौसाजी से करने को सोचा।
"ये देख रहें हैं आप?" मैंने कहा।
"ये?" मौसाजी ने अपनी शान्तचित्ता बनाए हुए कहा, "ये उस जानवर के अवशेष हैं जो विलुप्त हुए ट्रिलोबाइट्स प्रजाति से थे, और कुछ नहीं है, मेरा विश्वास करो।"
"लेकिन," मैं उनकी शान्ति से हतोत्साहित होते हुए कहा, "क्या आपको इससे कोई संकेत नहीं मिल रहा?"
"अगर मैं तुमसे पूछूँ कि तुम्हें क्या संकेत मिले हैं?"
"अच्छा, तो मुझे लगता है..."
"मुझे पता है तुम क्या कहना चाहते हो और कुछ हद तक बिना शर्त तुम सही भी हो। हमने आखिरकार लावायुक्त मार्ग और उन परतों को भी पीछे छोड़ दिया है। ये भी सम्भव हो कि मैं ग़लत हूँ लेकिन मेरी गलतियों का तबतक नहीं पता चलेगा जब तक हम इस गलियारे के अंत तक नहीं पहुँच जाते।"
"इस बात के लिए मेरी आपसे सहमति है," मैंने जवाब दिया, "और मैं आपके जवाब का सम्मान करता हूँ, लेकिन आगे एक सबसे बड़ा खतरा है।"
"और वो क्या है?"
"पीने का पानी।"
"मेरे प्यारे हेनरी, इसके लिए कुछ नहीं कर सकते। हमें अपने मौजूदा राशन पर निर्भर रहना होगा।"
और वो चल पड़े।