Travel to the center of the earth - 14 in Hindi Adventure Stories by Abhilekh Dwivedi books and stories PDF | पृथ्वी के केंद्र तक का सफर - 14

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पृथ्वी के केंद्र तक का सफर - 14

चैप्टर 14

सफर की असली शुरुआत।

हमारे सफर की असल शुरुआत तो अब हुई थी। अब तक हमने साहस और लगन से हर मुश्किल को पार कर लिया था। हम थके भी फिर भी बढ़े। अब हमारा सामना उन भयानक खतरों से होना था जिससे हम अनभिज्ञ थे।
मैंने अभी तक भयानक कुण्ड में झाँकने की हिम्मत नहीं की थी जिसमें हमें उतरना था। आखिरकार वो समय आ गया जिससे मैं नहीं बच सकता था। मेरे पास अभी भी मौका था कि इस मूर्खतापूर्ण कार्य से मना कर दूँ या पीछे हट जाऊँ। लेकिन में हैन्स की हिम्मत के आगे लज्जित नहीं होना चाहता था। वो निश्चिंत होकर आराम से, बिना किसी विद्रोह के, हर खतरों को पार करते हुए ऐसे चल रहा था कि मुझे खुद पर शर्म आ रही थी।
अगर मैं सिर्फ मौसाजी के साथ होता तो वहीं बैठ कर नहीं जाने के सारे कारण गिना देता; लेकिन हैन्स को देखकर मेरी बोलती बन्द थी। मैंने कुछ देर के लिए ग्रेचेन के बारे में सोचा और खाँचे की तरफ बढ़ गया।
उसका व्यास लगभग सौ मीटर और परिधि लगभग तीन सौ मीटर था। मैं किनारे पर एक बड़े से चट्टान के सहारे झुका और देखने लगा। मेरे रोंगटे खड़े हो गए, दाँत किटकिटाने लगे और कदम लड़खड़ाने लगे। ऐसा लगा जैसे मैं अपना संतुलन खो रहा हूँ, और सिर चक्करघिन्नी बन गया था, जैसे मैं किसी नशे में हूँ। ये कुण्ड का खिंचाव था जो इतना शक्तिशाली था। मैं सिर के बल गिरते वहाँ पहुँच जाता लेकिन उससे पहले ही एक दमदार और सख्त हाथ ने मुझे पकड़ लिया। वो हैन्स के हाथ थे। लगता है कोपेनहेगन से चलते हुए ऊँचाई से बिना पलक झपकाए देखने का जो ज्ञान मिला था मैं उसे भूल गया था।
वैसे, जितनी देर मैंने इस अद्भुत खाँचे को देखा था मुझे उतनी ही देर में उसके प्राकृतिक सरंचना का अंदाज़ा हो गया था। उसके ढाल जो लगभग कुएँ की सीध जैसे थे उनपर दुनियाभर के उभरे भाग थे जो नीचे उतरने में सहायक होंगे।
वो बिना बाड़े या जंगले वाली खतरनाक सीढ़ियों जैसा था। अगर रस्से का एक सिरा ऊपरी सतह पर बाँध देते तो उस रस्से से नीचे उतरने में आसानी होती, लेकिन ऊपर कहाँ बाँधें? मुझे लगा ये सवाल बहुत ज़रूरी है।
हालाँकि मौसाजी उन लोगों में से हैं जो हर चीज़ की तैयारी पहले से कर के रखते हैं। उन्होंने इस समस्या का आसान हल निकाला। उन्होंने एक रस्से के गट्ठर को खोला जो मेरे अँगूठे जितना मोटा और करीब चार सौ फ़ीट की लम्बाई लिए हुए था। उन्होंने उसके आधे हिस्से को नीचे फेंक कर, एक गाँठ को बड़े से चट्टान में फँसा दिया। उसके बाद रस्से के दूसरे सिरे को भी नीचे की तरफ फेंक दिया।
बारी बारी हम उसके सहारे दो सौ फ़ीट तक नीचे उतर सकते थे। दो सौ फ़ीट के बाद उसे उतार कर फिर इसी क्रम से आगे बढ़ सकते थे।
ये वाक़ई में आसान और चतुराई वाला साधन था। नीचे उतरना तो मुझे आसान लगा लेकिन ऊपर आने का खयाल फिर परेशान करने लगा।
"अब," जैसे ही मौसाजी ने सारी तैयारी कर ली, फिर कहा, "देखना है कि सामान कैसे ले जाना है। इनके तीन हिस्से करने होंगे और हर हिस्सा हरेक कोई अपनी पीठ पर लाद लेगा। जो सबसे ज़रूरी और कीमती दस्तावेज वाले हैं, उन्हें मैं ले जाऊँगा।"
लगता है मौसाजी ने ध्यान ही नहीं दिया कि उनके साथ हम दो छुट्टे भी हैं।
"हैन्स," उन्होंने कहना जारी रखा, "तुम सारे औजार और उनसे जुड़ी चीज़ वाले हिस्से को, और हैरी तुम, तीसरे हिस्से को जो हथियारों वाला है। मैं बाकी के खाने-पीने और नाजुक चीजों को रख लूँगा।"
"लेकिन," मैंने उत्सुकतावश पूछा, "हमारे कपड़े, रस्सियाँ और सीढ़ियों को कौन ले जाएगा?"
"वो अपने आप चले जाएँगे।"
"वो कैसे?" मैंने पूछा।
"तुम देख लेना।"
मौसाजी किसी भी काम को आधा-अधूरा नहीं छोड़ते और पूरा करने से भी नहीं हिचकिचाते। उनके आदेशानुसार सभी गट्ठरों को तैयार कर मजबूती से बाँधा गया और किनारे पर क्रमानुसार लगा दिया गया।
मुझे विस्थापित हवाओं के कराहने और लुढ़कते पत्थरों की आवाज़ सुनायी दे रहे थे। मौसाजी ने कुण्ड की तरफ झुकते हुए अपने सामानों को उतरते हुए तब तक देखा जब तक वो नज़र से ओझल नहीं हुए।
"इसके बाद," उन्होंने कहा, "अब हमारी बारी है।"
एक विश्वास के साथ मैं किसी भी सूझबूझ वाले इंसान से जानना चाहूँगा, क्या ऐसा सुनकर आपको घबराहट नहीं होगी?
प्रोफ़ेसर ने अपने हिस्से का सामान, अपनी पीठ पर बाँधा। हैन्स ने अपना और मैंने अपना। और उतरने की प्रक्रिया वैसे ही शुरू हुई जैसे निर्धारित था: पहले हैन्स, उसके बाद मौसाजी और अन्तिम में, मैं। हम जितनी खामोशी से बढ़ रहे थे, बगल के पत्थर उतनी ही तेजी से गिरते हुए अपने दहाड़ के शोर से हमें परेशान कर रहे थे।
मैंने उतरने के लिए रस्सों को पकड़ कर फिसलना सही समझा और बगल के चट्टानों से दूरी बनाए रखने के लिए एक हाथ में लोहे का डण्डा पकड़ लिया था। लेकिन इस दौरान एक डर बना हुआ था। मुझे लगा था ऊपर का सहारा हमें सम्भाल नहीं पाएगा। हमारे और सामान के भार को देखते हुए मुझे रस्से पर भरोसा नहीं हो रहा था। इसलिए मैंने रस्सों पर भरोसा करने के बजाय खुद की काबलियत और चपलता पर भरोसा किया था क्योंकि जो उभरे हुए ढलान थे मैं उनपर पैर रखकर भी उतर सकता था।
जैसा कि मैंने पहले ही कहा कि हैन्स पहले ही उतर गया था और जैसे ही उसके पैरों के नीचे कुछ खिसका उसने उसी स्वाभाविक अन्दाज़ वाले एक शब्द में कुछ कहा।
"गिफ् एक्ट।"
"सावधान! थोड़ा देखकर।" मौसाजी ने दोहराया।
लगभग आधे घण्टे बाद हम एक सीढ़ीदार चबूतरे पर पहुँचे जो उस खाँचे के ढलान पर उभरे हुए चट्टानों से बना हुआ था।
हैन्स ने अब रस्से के एक सिरे को खींचकर उसे उतार लिया और दूसरा सिरा खुद नीचे आ गया। साथ में आए कई सारे कंकड़, धूल-मिट्टी, किसी अनचाहे बारिश या ओलावृष्टि की तरह।
यहाँ बैठे हुए मैंने एक कोशिश की फिर से नीचे की तरफ देखूँ। मुझे आश्चर्य हुआ कि अभी भी कुछ नहीं दिख रहा था। तो फिर हम सीधे जा कहाँ रहें हैं?
रस्से वाली हरकत फिर से दोहरायी गयी और लगभग पौन घण्टे में और दो सौ फ़ीट नीचे उतर चुके थे।
उतरने के दौरान मुझे तो संदेह हो रहा था उन ज्ञानवान भूवैज्ञानिक पर जिन्होंने पृथ्वी की परतों के बारे में बताया है। मैने वैसे भी अपना दिमाग इन सब में नहीं लगाया कि हम किसी ज्वलनशील कार्बन, सिलुरियन या प्राचीन मिट्टी के बीच में है; ना मैं जानता था और ना ही जानना चाहता था।
प्रोफ़ेसर इन सब से अभ्यस्त थे। उन्होंने हरेक चीज़ को नोट कर लिया और उतरते ही उनका एक छोटा व्याख्यान शुरू हुआ।
"मुझे विश्वास है," उन्होंने कहना जारी रखा, "हम जितना आगे बढ़ेंगे, परिणाम उतना अच्छा होगा। इन ज्वालामुखीय परतों के स्वभाव से महाशय हम्फ्री डेवी के सिद्धांत और भी पुख्ता हो जाते हैं। हम अभी भी उसी आदिकाल वाली मिट्टी के क्षेत्र में है जिसके सम्पर्क में हवा-पानी के आने से रासायनिक संक्रियाएँ होती थी और कई धातुओं की उत्पत्ति होती थी। उस ताप सम्बंधित मुख्य सिद्धान्त के खण्डित होने का अफसोस मुझे हमेशा होता है। आगे बढ़ने से हमें सही तथ्यों का पता चलेगा।"
ये उनका चिरकाल तक का निष्कर्ष था। और मैं ऐसी किसी विनोदपूर्ण बातों में फँसना नहीं चाहता था। मैं कुछ और सोच रहा था। मेरी खामोशी को मेरी हामी समझ कर, हम सब आगे बढ़ गए।
लगभग तीन घण्टे का सफर पूरा होने तक जब हमने फिर से नीचे देखा तो अब भी वो उतना ही दूर दिख रहा था। जब मैंने ऊपर की तरफ देखा तो वो ऊपर का मूँह धीरे-धीरे छोटा हुआ जा रहा था। इन खाँचों की दीवारें भी करीब आती जा रही थी और हम असीमित अन्धकार की तरफ बढ़े जा रहे थे।
कुछ देर के बाद मैंने गौर किया कि अब जो पत्थर लुढ़क कर गिर रहे थे उनका शोर कम और जल्दी सुनाई देने लगा था। मतलब हम कुण्ड के करीब पहुँचने वाले थे।
इस दौरान मैंने बहुत ध्यान से रस्सियों के इस्तेमाल को देखा था जिसके वजह से मुझे पता था कि हम कितनी गहरायी में हैं और कितना समय लग चुका है।
हमने रस्सियों का उपयोग अट्ठाइस बार किया था जिसमें पौन घण्टे का समय लिया गया था, मतलब कुल सात घण्टे। और अट्ठाइस बार सुस्ताना, तो हो गए साढ़े दस घण्टे। हमने एक बजे शुरू किया था तो उस हिसाब से अभी रात के ग्यारह बज चुके होंगे।
इस गणित को समझने के लिए ज़्यादा दिमाग की ज़रूरत नहीं कि अगर दो सौ फ़ीट में अट्ठाइस बार से गुणा करें तो पाँच हजार छः सौ फ़ीट होंगे।
अपने इन्ही गणित और हिसाब में लगा हुआ था कि एक आवाज़ ने वहाँ की चुप्पी तोड़ दी। वो आवाज़ हैन्स की थी।
"रुको!", उसने कहा।
इससे पहले कि मौसाजी को मुझसे ठोकर लगे, मैंने तुरन्त खुद को सम्भाला।
"हम अपने सफर के अन्त के करीब हैं।" काबिल प्रोफ़ेसर ने संतुष्ट होते हुए कहा।
"क्या? हम गहरायी तक पहुँच गए?" मैंने उनके बगल में फिसलते हुए पूछा।
"नहीं, बेवकूफ लड़के! लेकिन हम सबसे नीचे तक पहुँच चुके हैं।"
"मतलब अब इसके आगे हम नहीं जा सकते?" मैंने खुशी की उम्मीद के साथ सवाल किया।
"बिल्कुल जा सकते हैं, मुझे धुँधला सा वो सुरंग दिख रहा है जो सीधे जाकर फिर तिरछे है। जो भी है, अब सुबह ही देखेंगे। अभी भोजन करते हैं और जितना हो सके आराम कर लें।
मैंने सोचा उस समय लेकिन फिर ध्यान नहीं दिया। मुझे वैसे भी एक निराशाजनक सफर में धकेल दिया गया था जहाँ मुझे उम्मीद और भरोसे के सहारे आगे बढ़ना था।
ऊपर से रोशनी जिस तरीके से आ रही थी, यहाँ उतना अँधेरा नहीं लग रहा था।
हमने सम्बंधित झोलों से भोजन निकाला और उसे ग्रहण किया और फिर सब अपने हिसाब से अपने बिस्तर पकड़ लिए जो वहाँ सदियों से पड़े लावा, धूल-मिट्टी और पत्थरों के जमने से बने थे।
मैंने तो तुरंत वो गट्ठर वाला हिस्सा पकड़ लिया जहाँ रस्सियाँ, सीढियाँ और कपड़ों का जमावड़ा था; और उसी पर पसर गया। इतनी थकान के बाद मेरा खुरदुरा बिछौना किसी पंख के समान लग रहा था।
कुछ देर के लिए मैं किसी सुखद समाधि में था।
आजकल कुछ देर लेटने के बाद जब मैं अपनी आँखें खोलता हूँ तो कुछ देर ऊपर देखता रहता हूँ। आज भी जब वही किया तो मुझे एक विशाल चमकदार बिंदु दिखा, जैसे किसी दूरबीन से दिख रहा हो।
वो एक ऐसा सितारा था जिसमें शानदार रोशनी नहीं थी। मेरी गणना के अनुसार वो छोटे भालू वाले तारों के समूह का प्रारंभिक सितारा था।
कुछ देर इस खगोलीय विनोद के बाद मैं गहरी नींद में था।