Journey to the center of the earth - 13 in Hindi Adventure Stories by Abhilekh Dwivedi books and stories PDF | पृथ्वी के केंद्र तक का सफर - 13

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पृथ्वी के केंद्र तक का सफर - 13

चैप्टर 13

स्कारतरिस की परछाईं।

जल्दी ही और आसानी से भोजन निपटाने के बाद उस खाली खोह में सबने वही किया जो उनके लिए सम्भव था। समुद्र तल से पाँच हज़ार फ़ीट की ऊँचाई पर, खुल आकाश के नीचे सख्त बिस्तर, दुःखदायी स्तिथि और असंतोषजनक आसरा था।
हालाँकि इससे पहले ऐसी एक भी रात नहीं गुज़री थी जब मुझे चैन की नींद आयी हो। मैंने कोई सपना तक नहीं देखा। मौसाजी के कहे अनुसार "भरपूर थकान" के बाद का ये असर हुआ था।
अगले दिन सुबह जब सूर्य की किरणों और दिन के उजालों में हम उठे तो ठंड से लगभग जमे हुए थे। मैंने अपना ग्रेनाइट वाला बिछौना छोड़कर उस अद्भुत चित्रावली को देखने लगा जो खुद से बनी थी।
मैं स्नेफल्स के दक्षिणी हिस्से पर खड़ा हो गया। वहाँ से मुझे पूरा द्वीप दिख रहा था। किसी भ्रमजाल की तरह द्वीप पर दूसरे पहाड़ उभरे किनारों जैसे थे और बीच का हिस्सा धंसा हुआ लग रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे किसी ने कोई तस्वीर खींच कर मेरे सामने रख दी हो। गहरे तराई और उनके इर्दगिर्द कई रास्ते।खड़े चट्टान किसी कुएँ जैसे, तालाब किसी पोखर जैसे, पोखर किसी बावड़ी जैसे, नदियाँ किसी छोटे नहर में बदले हुए दिख रहे थे। मेरी दायीं तरफ एक के बाद एक हिमनद थे, कई चोटियाँ थीं जिनपर छोटे बादल, धुएँ जैसे दिख रहे थे।
इन ऊँचे-नीचे पहाड़ो की कतारें और उनके बर्फीले शिखर, जैसे झाग से ढके हों, को देखकर मुझे तूफान में समुद्री किनारों की याद दिला रहे थे। पश्चिम की तरफ मेरे सामने समुद्र बिछे थे जैसे दूसरी तरफ पहाड़ों की श्रृंखला थी।
कहाँ से धरती के खत्म होने पर समुद्र शुरू होता है, इन आँखों इसका अनुमान लगाना आसान नहीं था।
जैसे पहले ऊँचाई से नीचे की तरफ देखने पर जो घबराहट होती थी, वो अब गायब हो चुकी थी। शायद मैंने खुद को इतना मजबूत बना लिया था कि मैं अब बेफिक्री से इनका लुत्फ उठा सकता था।
मैं लगभग भूल गया था कि मैं कौन हूँ और कहाँ से आया हूँ। मैं इन नज़ारों में इतना खो गया था कि मुझे समझ ही नहीं आया कि मैंने कितना साहसी कार्य कर दिखाया है। हालाँकि प्रोफ़ेसर और हैन्स ने वहाँ आकर मुझे अपने खयालों से निकालकर वास्तविकता का एहसास करवा दिया था।
मौसाजी ने बायीं तरफ मुड़ते हुए, एक पतली से रेखा की तरफ इशारा किया जिसके ऊपर भाप जैसे बादल और चारों तरफ पानी था।
"ग्रीनलैंड!" उन्होंने कहा।
"ग्रीनलैंड?" मैंने आश्चर्यजनक होते हुए पूछा।
"हाँ," मौसाजी ने कहना जारी रखा और जब वो कुछ समझाते हैं तो उनका प्रोफ़ेसर होना उनपर हावी हो जाता था; "उस अद्भुत भूमि से हम सिर्फ कुछ ही दूरी पर हैं। जब वहाँ बर्फबारी शुरू होती है तो वहाँ के सफेद भालू आइसलैंड आ जाते हैं। हालाँकि ये समय निर्धारित रहता है। हम सब अब इस उत्कृष्ट स्नेफल्स के शिखर पर हैं जिसकी दो चोटियाँ हैं। हैन्स बताएगा कि आइसलैंड की भाषा में इसे क्या कहते हैं जिसपर हम खड़े हैं।"
मौसाजी जैसे ही उसकी तरफ मुड़े, उसने सिर हिलाकर अपने चिरपरिचित अंदाज़ में, और एक शब्द का जवाब दिया।
"स्कारतरिस।"
मौसाजी ने संतुष्ट होते हुए मेरी तरफ एक गर्वीली मुस्कान बिखेरी।
"ज्वालामुखी विवर," उन्होंने कहा, "सुना तुमने?"
मैंने ज़रूर सुना लेकिन जवाब देने में असमर्थ था।
स्नेफल्स का विवर औंधा था जिसके चौड़े मूँह करीब आधे मील जितने बड़े थे और गहराई अनन्त। अनुमान लगाइए ये कैसा होगा जब इसमें ज्वलंत लपटें और तूफान होगा। नीचे का कीपदार नुमा सुराख लगभग पाँच सौ फ़ीट की परिधि लिए हुए था जिसके शिखर से नीचे की ओर का ढलान बहुत स्वाभाविक लग रहा था और हम भी बिना थके और बिना किसी परेशानी के आगे बढ़े जा रहे थे। अचानक से मुझे विवर की तुलना में लदे हुए तोप के खयाल आने लगे, और उतना सोचकर ही मैं सिहर गया था।
"तोप की नली में उतरना," मैंने खुद से बड़बड़ाते हुए कहा, "वो भी जब गोलाबारूद से लदा हो और जो शायद ही चुके, पागलों वाली करतूत है।"
लेकिन यहाँ किसी हिचकिचाहट के लिए कोई मौका नहीं था। हैन्स बिल्कुल शान्तचित्त हुए बेफिक्री से उसी मुद्रा में इस जोखिम कारनामे को अंजाम देने के लिए बढ़ा जा रहा था। मैं बिना कुछ कहे पीछे चल रहा था।
मैं खुद को बलि का बकरा जैसा महसूस कर रहा था।
नीचे उतरने में तकलीफ ना हो इसलिए हैन्स ने नाविकों की तरह बढ़ना शुरू किया, पहले दायीं तरफ से चलता फिर बायीं तरफ से। ये बहुत ज़रूरी था कि चलते वक़्त सही पत्थरों पर कदम हों क्योंकि जो कमज़ोर थे वो शोर के साथ लुढ़कते चले आते थे और उस कुंड की गहराई में लुप्त हो जाते थे। उनके गिरने से काफी देर तक उन्ही की आवाज़ गूँजती रहती थी।
कोन के बहुत से हिस्सों पर हिमनद के टुकड़े भी थे। इसलिए हैन्स चलने के दौरान बहुत सावधानी से कदम रखते हुए लोहे के डण्डे से ठोक कर देखता था कि कहीं कोई छिद्र या बर्फीली परत तो नहीं है। कई संदेहास्पद और खतरनाक जगहों पर हमने एक दूसरे को रस्सियों से बाँधे रखा था जिससे कि अगर कोई फिसलता भी है तो रस्सियों के सहारे उसे बचाया जा सकेगा। इस तरह की सावधानी वाक़ई में कमाल की चीज़ थी क्योंकि आगे अभी और खतरे थे।
हालाँकि तमाम परेशानी और जोखिम उठाते हुए उन ढलानों से, जिससे हैन्स भी सही तरीके से परिचित नहीं था, हम सकुशल और बिना किसी दुर्घटना के आगे बढ़ रहे थे। वैसे, एक सहायक से एक गठरी फिसल कर बड़ी आसानी से उस कुण्ड के नीचे पहुँच चुकी थी।
आधे दिन तक हम सफर के अंत तक पहुँचने वाले थे। मैंने ऊपर की तरफ देखा तो इस कोन का छोटा सा खुला मूँह था जिससे बादल के कुछ खूबसूरत टुकड़े दिख रहे थे। क्या फिर कभी इसे देखने के मौके मिलेंगे!
यहाँ के प्राकृतिक सौंदर्य में कुछ अतिविशिष्ट था तो वो स्कारतरिस की चोटी थी जो अब शायद शून्य में समाहित था।
इसके खोह का निचला हिस्सा तीन भागों में किसी धुआँकश या बाम्बी जैसा बना हुआ था जो ज़रूर स्नेफल्स के जीवित रहने पर लावा, विषाक्त वाष्प और ज्वलंत पदार्थों के लिए मार्ग जैसे रहे होंगे। हरेक चिमनी का मूँह खुलकर हमारे मार्ग के सामने था। मुझे तो भय से साहस ही नहीं हो रहा था कि किसी में भी झाँककर देखूँ।
लेकिन प्रोफ़ेसर ने इतनी तेजी में उनकी प्रकृति और व्यवहार की जाँच पड़ताल की वो खुद हाँफने लगे। किसी प्रफ्फुलित स्कूली बच्चे की तरह इधर-उधर दौड़ते हुए, पागलों की तरह बड़बड़ाते हुए अज्ञात भाषा में कुछ कहे जा रहे थे।
हैन्स ने उन्हें देखा और वहीं कुछ जमे हुए लावा से बनी जगह पर बैठकर चुपचाप उन्हें देखने लगा। उन सभी को मौसाजी कोई पागल जैसे लग रहे थे और वो इसके आगे का परिणाम जानना चाहते थे।
अचानक से प्रोफ़ेसर अजीब तरीके से चिल्लाने लगे। पहले मुझे लगा कहीं वो फिसल कर सिर के बल होते हुए गिरकर नीचे तो नहीं जा रहे। ऐसा कुछ भी नहीं था। वो अपनी बाँहों और टाँगों को फैलाये एक ऐसे स्तंभ के सामने खड़े थे जो शायद प्लूटो से भी बड़ा था। उनके हावभाव से लगा वो बिल्कुल विस्मित थे। लेकिन उनकी चीख से सब पता चल गया।
"हैरी! यहाँ आओ, हैरी!" उन्होंने कहा, "जल्दी यहाँ आओ! बेहतरीन! ज़बरदस्त!"
कुछ समझ तो नहीं आया कि क्या कहना चाह रहे थे फिर भी उनकी आज्ञा का पालन किया मैंने। हैन्स और बाकी सहायक तो हिले भी नहीं।
"देखो!" प्रोफ़ेसर ने किसी फ्रांसीसी सैनिक की तरह एक तरफ इशारा किया।
अब उन्हीं की तरह मैं भी विस्मित था। दायीं तरफ एक बड़े से पत्थर पर एक नाम था जो समय की मार से थोड़ा मिट गया था लेकिन वही नाम था जिसको मैंने ना जाने अबतक कितनी अनगिनत गालियाँ दी थी:
(रेफेर इमेज इन पीडीएफ)
"आर्न सैकन्युज़ेम्म!" मौसाजी खुशी से चीखे, "हे अविश्वासी, अब विश्वास करोगे?"
मेरे लिए कुछ भी कहना आसान नहीं था। मैं चुपचाप वापस अपनी जगह पर जाकर बैठ गया। सबूत लाजवाब और ज़बरदस्त था।
कुछ देर बाद यहाँ से दूर, वापस जर्मनी में था लेकिन अपने खयालों में। वो घर, ग्रेचेन और बूढ़ी रसोइया। मैंने पीछे ग्रेचेन की मुस्कान, खानदानी लज़ीज़ ऑमलेट और अपना मखमली बिस्तर छोड़ दिया था।
यहाँ हम कितने देर से थे मुझे नहीं पता था। इतना कह सकता हूँ कि जब मैं एक नींद लेकर जागा तो वहाँ सिर्फ मैं, हैन्स और मौसाजी थे। बाकी के सहायकों को जाने की अनुमति मिल चुकी थी और वो स्टैपी के लिए रवाना हो चुके थे। काश! मैं भी उनके साथ जा पाता।
हैन्स वहीं पर खुद के बनाये हुए सख्त बिस्तर पर पसरा हुआ था। मौसाजी किसी पिंजरे से निकले हुए जानवर की तरह आगे बढ़े जा रहे थे। मुझे अपनी स्थिति से निकलने की ना तो चाह थी ना ही ताकत। मैंने हैन्स को आदर्श मानते हुए नींद को सफर जारी रखने का मौका दिया, बीच-बीच में पहाड़ों की थरथराहट और हलचल का आभास भी होने लगता था।
इस तरह उस खोह की पहली रात हमने गुज़ारी।
अगली सुबह एक घना बादल किसी कफन जैसा उस खोह के मूँह पर मँडराने लगा। मैंने पहले ध्यान नहीं दिया था लेकिन जब मौसाजी को खीझ में उसे कोसते देखा तो ध्यान गया।
मैं उनके इस बर्ताव का कारण समझ गया था और मेरे अंदर की खुशी को एक उम्मीद नज़र आयी। मैं संक्षिप्त में बताता हूँ।
इन त्रिमुखी जम्हाई लेते बाम्बी जैसे कुण्ड में से किसी एक के रास्ते, सैकन्युज़ेम्म ने साहसी कारनामा दिखाया था। उसके शब्दों में कहे गए और उन चर्मपत्रों के अनुसार सही रास्ता तभी पता चलेगा जब जून के आखरी दिनों में स्कारतरिस की परछाईं इस खोह पर दिखेगी।
अब तक दिशा-सूचक यन्त्र की सहायता से हम यहाँ तक पहुँचे थे लेकिन अब नीचे हमें इसी प्राकृतिक दिशा-सूचक यन्त्र से निर्धारित दिन को आगे बढ़ना होगा।
इन इलाकों में अक्सर ऐसा होता है कि खुले आकाश में भी सूर्य की किरणें इतनी तेज नहीं होती कि परछाईं दिखे। इसलिये सही दिशा का पता चलना आसान नहीं था। जून महीने के 25 दिन हो चुके थे। अगर ये बादल अगले छः दिन और रह गए तो हमें अपना सफर यहीं छोड़कर फिर अगले साल का इंतजार करना होगा और तब तक एक बंदा और कम होगा। मैं वैसे भी इस बेतुके और दानवीय कारनामे से ऊब चुका था।
प्रोफ़ेसर हार्डविग के झुंझलाहट और गुस्से का बखान करना मुश्किल था। दिन गुज़रा लेकिन कुछ भी नहीं बदला। हैन्स भी अपनी जगह से नहीं हिला। उसे भी जानने की इच्छा होगी कि अब हम क्या करेंगे, अगर हमें वाक़ई में कुछ करना होगा। मौसाजी ने मुझसे कुछ नहीं कहा, बस किसी तरह अपने दुःखों पर मरहम लगा रहे थे। उनकी आँखें उन गहरे घने बादलों पर टिकी हुई थी और चेहरे पर से जोश ठंडा हो रहा था। इससे पहले कभी भी गुस्से में ना उनकी आँखें लाल हुई थी, ना नाक फुले थे और कभी दाँत पिसे थे।
26वां दिन भी बिना कुछ बदले निकल गया। उस दिन थोड़ी बूँदाबाँदी और बर्फबारी हुई। हैन्स वहीं एक लावा से बने झोपड़े जैसी जगह में समा गया जैसे डायोजिनिस अपने हौदे में हो। मैं वहाँ बहते झरने जैसे कंकड़ों को लुड़कते हुए नीचे गहराई में जाते देखने में मग्न था।
मौसाजी तो गुस्से से भरे बैठे थे और ये सब तो किसी भी धैर्यवान की हिम्मत तोड़ सकता है। ये उनके साथ ऐसा था जैसे हाथ को आया और मूँह ना लगा हो।
लेकिन सुख और दुःख एक ही सिक्के के वो दो पहलू हैं जिसे भगवान ने ही बनाया है। तो जितना वो दुःखी और परेशान हुए थे, प्रकृति ने उनके लिए खुशियों को निर्धारित दिन के लिए सुरक्षित रखा था।
अगले दिन भी बादल छाए हुए थे, लेकिन रविवार 28वें दिन और जब महीने को खत्म होने में बस 2 दिन रह गए, मौसम का रुख और चाँद बदला, हवा बदली और सूर्य की रोशनी खोह के अंदर उतर गयी।
हर चोटी, हर कंकड़, हर पत्थर और हर ज़र्रा को वो चमक मिल रही थी और उनकी हर परछाईं ज़मीन पर थी। लेकिन इन सब से इतर स्कारतरिस की परछाईं साफ और सामने थी जो दिन के हिसाब से धीरे-धीरे बढ़ रहे थे।
मौसाजी खुशी से उछल पड़े थे।
ठीक 12 बजे जब सूर्य दिन के शीर्ष पर था, इस खदान के केंद्र के किनारों पर परछाईं दिखी।
"ये रहा!" मौसाजी ने खुशी में लम्बी साँस के साथ कहा, "यहाँ है ये, मिल गया हमें। आगे चलो साथियों, भू-गर्भ में।"
मैं हैन्स की तरफ देख रहा था ये जानने के लिए इस मौके पर उसका क्या जवाब होगा।
"फॉरुत।" उसने बेफिक्री से कहा।
"आगे बढ़ना है।" मौसाजी ने समझाया जो अभी खुशी के मारे सातवें आसमान पर थे।
जब हम पूरी तैयारी कर चुके तो हमारी घड़ी ने दिखाया कि एक बजकर तेरह मिनट हो चुके थे।