18.
किसना की कविताओं का संग्रह 'झरोखे जिंदगी के' बहुत सुर्खियां बटोर रहा था। उसकी अंतिम इच्छा के अनुसार मिलनेवाली रॉयल्टी एड्स से मरनेवालो मरीज़ों के परिवार की सहायता हेतु दान की जा रही थी। इलाहबाद में स्मारक ने अस्पताल के दो कर्मचारियों को उसकी अम्मा सुरसतिया की तलाश में भेजा था। परंतु पता लगा की पुत्र के अवसान की खबर पाकर वह वृद्धा माता सदमे से पागल हो गई थी और उसकी विक्षिप्त अवस्था में एक दिन संगम में जल समाधी ले ली अभागन ने।
बा-बापूजी को फाल्गुनी ने फोन करके बुलाया था। पति की गिरती सेहत के साथ-साथ फाल्गुनी का मनोबल भी क्षीण होता दिखाई दे रहा था। डॉ. मित्रा एवं अन्य एक-दो डॉक्टरों की सहायता से बा-बापूजी और फाल्गुनी उसे मुंबई ले आए। यहां उसकी सब प्रकार की जांच की गई। सभी दिल थामे रिपोर्ट की प्रतीक्षा कर रहे थे। डॉ. मित्रा ने संजीदगी से कहा की उन्हें जिस बात का आकांशा थी, वहीं हुआ। स्मारक को लिवर कैंसर था और कैंसर इतना फैल चुका था की बचने की सारी उम्मीदें कमजोर पड़ गई थीं।
अस्पताल की सारी जिम्मेदारी डॉ. मित्रा को सुपुर्द कर फाल्गुनी ने पति की सेवा में दिन-रात एक कर दिया था। हंसाबेन रो-रोकर बेहाल थी, बापूजी अंदर ही अंदर विलाप करते रहते, फाल्गुनी के माता-पिता पुत्री के भावी वैधव्य के बारे में सोचकर दुःख के अथाह सागर में डूबे थे और फाल्गुनी ! पति की सेवा में अपने आप को भूल गई थी। उस दिन शाम के वक्त स्मारक ने एक फीकी मुस्कराहट के साथ कहा, "अपने आखीरी दिन अस्पताल में बिताना चाहता हूं। आप लोग कृपया मुझे मेरे अस्पताल ले चलें, अन्यथा मेरी आत्मा को कभी मुक्ति नहीं मिलेगी। कहकर उसे वमन की तीव्र इच्छा हुई। जब तक वह उठकर पैन में वमन करता हड़हड़ाकर वहीं हरी-हरी उलटी कर दी और फाल्गुनी ने पति का सारा वमन अपनी हथेलियों में भर लिया। कितनी लाचार थी उस व्यक्ति की आँखें आज, जीने सर्वदा दूसरों को जीवनदान दिया। डॉ. कोचर ने स्मारक के पिता को बहार ले जाते हुए समझाया, "देखिये, अपने बेटे की हालत तो देख ही रहे हैं आप ?अब कोई उम्मीद नहीं हैं। मुझे ऐसा लगता है की ऐसा महान व्यक्ति, जिसने दूसरों की सेवा में ही अपना जीवन नि:स्वार्थ भाव से समर्पित कर दिया हो, उसकी अंतिम इच्छा को अवश्य ही पूरा करना चाहिए हमें। अब ज्यादा वक्त न गंवाएं, तुरंत उसे ले जाने की व्यवस्था की जानी चाहिए। " पिता ने सीने पर पत्थर रखकर स्थिति की नजाकत को समझा।
एम्बुलेंस तेज रफ़्तार से दौड़ती चली जा रही थी। स्मारक पत्नी की गोद में सिर रखे निढाल और बेबस पड़ा था। माता हंसाबेन पुत्र को जीवित अवस्था में देखते रहने के मोह से टकटकी लगाए उसका श्रीहीन मुख निहार रही थी और भरी आखों के सैलाब को रह-रहकर आंचल से रोकने का व्यर्थ प्रयास किए जा रही थी। पिता चिंता के स्याह बादलों से घिरे थे और डॉक्टर कोचर रह-रहकर उसकी क्षीण पड़ती नब्ज को टटोलने का प्रय्तन कर रहे थे। बड़ी मुश्किल से अधमुंदी पलकों को खोलने की चेष्टा करते हुए स्मारक पत्नी की और देख रहा था। फाल्गुनी ने उसके बालों में स्नेह से उंगलियां फिराते हुए भरोई आवाज में कहा, "क्या आप अपना वादा भूल गए की जीवन भर रेवा (नर्मदा ) के समानांतर किनारों की तरह हम भी साथ चलेंगे ?" स्मारक ने दग्ध नैनोंसे अपनी 'रेवा' यानी फाल्गुनी की ओर निहारा, फिर इशारों से मुरली देने का अनुराध किया। फाल्गुनी उसकी मुरली को साथ लेकर ही चली थी। कापतें दुर्बल हाथों में मुरली को धरे वह अपने निस्तेज अधरों तक ले आया। टूटती सांसों के क्षीण दम से आज मुरली भी विरह बेला का राग छेड़ते हुए रो पड़ी।
अस्पताल परिसर में एम्बुलेंस प्रवेश कर चुकी थी। सारा स्टाफ दौड़ता हुआ आ पहुंचा इस महान साधक की चरण धूल लेने के लिए। भीड़ को हटाते हुए स्ट्रेचर द्वारा स्मारक को उसके कमरे में लाया गया। पत्नी, माता-पिता ओर दो डॉक्टरों के अलावा कमरे में किसी अन्य का प्रवेश वर्जित कर दिया गया। माता के आंसूं नर्मदा के बान ( बाढ़ ) की तरह उमड़ते चले जा रहे थे।
संगीत प्रिय स्मारक ने फाल्गुनी से अंतिम बार उसके गीत को सुनाने का इशारा किया। न चाहते हुए भी पति की अंतिम इच्छा को पूर्ण करने के लिए अवरुद्ध कंठ से उसने गीत का मुखड़ा शुरू किया ही था---
‘मेने एकली मुकी श्याम क्या चल्या....’
(मुझे अकेला छोड़कर श्याम कहां जा रहे हो....)
कि अचानक अंतिम घड़ी का पैगाम आ गया ओर स्मारक दोनों हाथों को मुश्किल से जोड़ते हुए फाल्गुनी की सिंदूर से चमकती मांग और लाल बिंदियावाली सुहागन का रूप अपनी आंखों में हमेशा के लिए कैद करते हुए कांपते अधरों को खोलकर दो अक्षर बुदबुदाया 'क्षमा'। धड़कनों का कपाट बंद हो गया, परंतु फाल्गुनी की ओर प्राणहीन चक्षु अब भी क्षमा-याचना लिए हुए खुले ही थे।
जिस जवान पुत्र के कंधों पर सवार हो, अपनी शेष यात्रा पर निकलने की कामना कभी वृद्ध पिता ने की होगी, आज विधाता ने ऐसा क्रूर दंड दिया उन्हें की जवान पुत्र के पार्थिव शरीर को पिता के वृद्ध कंधों की आवश्यकता आन पड़ी और फाल्गुनी ! वह सचमुच ही आज अभिशप्त अहिल्या-सी पाषाण हो चुकी थी। बहुत चेष्टा की थी सावित्री बनकर यम से लड़ने की, परंतु उसका सहयात्री स्मारक सत्यवान न बन सका।
विस्फारित निर्विकार नेत्रों से प्राणहीन पति के मस्तक को गोद में धरे आज फिर एक बार स्वंय ही उसका विष्धभरे अधर उच्चारण कर उठे----
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।।
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान न्यन्यानि संयाति नवानि देही ।।
*****