Travel to the center of the Earth - 10 in Hindi Adventure Stories by Abhilekh Dwivedi books and stories PDF | पृथ्वी के केंद्र तक का सफर - 10

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पृथ्वी के केंद्र तक का सफर - 10

चैप्टर 10

आइसलैंड की यात्रा।

किसी ने कभी नहीं सोचा होगा कि पृथ्वी के इस हिस्से में रात जगमगाती नहीं होगी। दरअसल, आइसलैंड में जून-जुलाई के महीने में सूर्य-अस्त नहीं होता।
हालाँकि उम्मीद से ज़्यादा मौसम के तापमान में गिरावट थी। ठंड थी लेकिन इससे मेरे भूख को कोई फर्क नहीं पड़ता था। और यहाँ भी एक घर ने हमारी खातिरदारी के लिए अपने दरवाज़े खोल दिए।
घर एक मामूली से मज़दूर का था लेकिन खातिरदारी राजसी था। हम जैसे ही दरवाजे पर पहुँचे उसने आगे बढ़कर हाथ के इशारे से अंदर आने के लिए कहा।
साथ चलना मुश्किल था इसलिए हम उसके पीछे चल दिए। एक लम्बे, गहरे और संकरे रास्ते से वो अंदर ले जा रहा था जहाँ लकड़ियों से बने कमरे थे। उन रास्तों से सभी कमरों का जायज़ा मिल रहा था। पहले रसोईघर, फिर काम-घर जहाँ बुनाई के काम होते थे, उसके बाद उनका पारिवारिक शयनकक्ष, और इसके बाद मेहमानों के लिए कमरा। अपनी कद-काठी की वजह से मौसाजी का सिर कई बार कमरे की छत से टकरा जाता था।
हमें अपना कमरा दिखाया गया जो काफी बड़ा था, मिट्टी की ज़मीन थी और रोशनी के लिए एक खिड़की थी जिसके कपाट शायद भेड़ के चमड़े से बने हुए थे।
लाल रंग के बड़े से बक्से पर पुआल बिछा कर बिस्तर बनाए गए थे जो आइसलैंडिक तरीके से सजे थे। हमें नहीं पता था हमारा इतना खयाल रखा जाएगा। आपत्ति सिर्फ एक ही बात से थी; सुखी मछली, कच्चे माँस, खट्टे दूध के मिश्रित गन्ध इतनी तेज थी कि अंदर का हर नस उस बदबू से सराबोर हो चुका था।
जैसे हम सफर के कपड़े बदल चुके थे, रसोईघर से मेजबान के पुकारने की आवाज़ आ रही थी। जितनी भी ठंड हो, आइसलैंडर्स अलाव सिर्फ रसोईघर में ही जलाते थे।
मौसाजी बिना समय बर्बाद करे मेहमान-नवाज़ी का लुत्फ लेने चल दिए और उनके पीछे मैं।
रसोईघर की चिमनी किसी प्राचीन नमूने से बनी हुई थी। कमरे के बीच मे बड़े से पत्थर में अलाव जलता था और छत पर एक सुराख था जिससे धुआँ निकलता था। ये एक ही कमरा रसोईघर, बैठक और भोजन-कक्ष का मिश्रण था।
हमारे अंदर आते ही मेजबान ने आगे बढ़कर हमारे अभिवादन में कुछ शब्द कहे, जिसका अर्थ होता है 'खुश रहें' और हम दोनों के गालों को चूमा।
उसकी पत्नी ने भी वैसे ही अभिवादन करते हुए दोनों ने अपने हाथों को अपने हृदय से लगाया और सम्मानपूर्वक झुक कर हमारा स्वागत किया।
ये बेमिसाल आइसलैंडिक औरत उन्नीस बच्चों की माँ थी जो वहीं छोटे, बड़े, लोटते, रेंगते, नज़र आ रहे थे। धुएँ में रह-रहकर कोई नया चेहरा दिखता जो मासूमियत में उसी धुएँ में मुझे घूरता रहता था।
हम दोनों इस परिवार के साथ काफी हिल-मिल गए थे लेकिन हमारे इतना समझने से पहले ही उनके तीन-चार बच्चे हमारे कन्धे पर, कुछ बिस्तर पर और कुछ हमारे पैरों से टंगे हुए थे। जो बोल सकते थे वो हर तरीके से रो रहे थे और जो कुछ नहीं बोल सकते थे वो हर तरीके से शोर मचा रहे थे।
इस उत्सव में रुकावट तब आयी जब भोजन तैयार हुआ। घोड़ों को चराने और बाँधने के बाद हैन्स भी उस समय आ गया था। घोड़ों के लिए वहाँ ज़्यादा कुछ तो नहीं था फिर भी हरी काई, सूखे घास ज़रूर थे ताकि अगले दिन जाने के लिए तैयार रहें।
"शुक्रिया।" हैन्स ने कहा।
किसी पूर्व निर्धारित चीज़ की तरह उसने उसी शांति से उनके और सभी बच्चों के अभिवादन को स्वीकारा।
मेज पर हम सब मिलकर चौबीस लोग थे जो किसी भीड़ से कम नहीं थे। बस दो बच्चों को जगह नहीं मिली थी।
जैसे ही शोरबे को परोसा गया, जो आइसलैंड के बच्चों में स्वाभाविक शांति होती है, पसर गयी। आइसलैंड की काई से बना हुआ शोरबा था जिसका स्वाद किसी भी शर्त पर स्वाद लेने लायक नहीं था और साथ में था खट्टे मक्खन में मछली का बड़ा टुकड़ा। इसके बाद एक किस्म का मट्ठा, बिस्किट और जुनिपर के रस दिए गए। पीने के लिए मलाई रहित दूध और पानी थे। मुझे भूख बहुत लगी थी और मीठे तक पहुँचने से पहले ही, एक भगौना जौ का दलिया, मैं हजम कर चुका था।
जैसे ही भोजन खत्म हुआ, बच्चे गायब हो गए और हम वहीं बैठे रहे जहाँ अलाव जल रहा था और उसके आस-पास गोबर, मछली की हड्डियाँ और कुछ सुखी झाड़ियाँ थीं। जब सबको कुछ हद तक गर्मी मिल चुकी थी तो सब अपने-अपने बिस्तर के लिए निकलने लगे। उस औरत ने आवभगत में हमारे जूते-मोजे उतारने चाहे जिसे हमने प्यार से मना कर दिया और फिर हम सब अपने कमरे में चले गए।
अगली सुबह पाँच बजे हम उन से विदा लेने को तैयार हुए। मौसाजी को काफी मेहनत करनी पड़ी उन्हें मनाने में कि वो इस सेवा की कीमत ले लें।
हैन्स ने फिर इशारा किया आगे बढ़ने का।
गार्डर से हम कुछ सौ गज ही बढ़े थे कि इस देश की प्रकृति ने अपना रंग बदला। सारी मिट्टी नर्म होकर दलदली होने लगी जो बढ़ने के लिए सही नहीं थे। दूसरी तरफ से रुख किया जहाँ किले जैसे ऊँचे पहाड़ के बर्फ की वजह से हम फिसल भी रहे थे। बिना सामान को भिगोए हमने जैसे-तैसे नहरों और झरनों को पार किया। और आगे बढ़ने पर उजड़ा इलाका आया जहाँ कुछ दूरी पर इंसान मँडराते दिख रहे थे। तभी एक ऐसे इंसान से सामना हुआ जिसको देखकर दया और घृणा भी आयी; उसके बड़े से सूजे हुए सिर पर बाल उजड़े थे, चेहरे पर चमक थी और उसके चिथड़े में से भी उसके घाव और उसके मवाद झाँक रहे थे। वो कोई भिखारी नहीं था, हमे देखकर वो उल्टे भाग गया हालाँकि हैन्स ने उसका अभिवादन किया था।
"स्पेटलस्क," उसने कहा।
"कोढ़ी है।" मौसाजी ने समझाया।
इस शब्द ने ही मुझमें घृणा भर दिया था। कोढ़ की बीमारी आइसलैंड में अभी भी कायम थी, आधुनिक विज्ञान के दौर में भी। ये छुआछूत से नहीं होता, वंशानुगत होता है इसलिए ऐसे बदनसीबों का विवाह नहीं होता।
ऐसे बदनसीबों से हमारे सफर पर कोई असर नहीं पड़ने वाला था। लेकिन अब हरे घास वाले मैदानी इलाकों ने हमारा साथ छोड़ना शुरू कर दिया था। कहीं कोई पेड़ नहीं, बस कहीं-कहीं जामुन के पेड़ के आकार के सूखे तने दिख जाते थे। लेकिन जब मैंने पक्षियों को उन ऊँचे आकाश में उस तरफ जाते देखा जिधर कुछ धूप और थोड़ी गर्मी थी, तो मुझमें भी एक उदासी उतर रही थी। मुझे भी वापस घर जाने का और ग्रेचेन के साथ होने का मन करने लगा।
हमने कई सारे समुद्री मार्ग लांघे थे और अब एक खाड़ी पर आकर रुकना पड़ा था। लहरों में उफान तेज़ था लेकिन हम एक बार में उसे पार कर एफटेन्स के उपग्राम में पहुँच चुके थे।
अल्फा और फेटा नाम के नदियों, जो कि ट्राउट और पाइक नामक मछलियों के लिए जाने जाते थे, को पार करने के बाद एक ऐसे सुनसान घर में बिताना पड़ा जो वहाँ की भूतिया रहस्यमयी कहानियों से भरी लग रही थी। ठंड इतनी कड़क थी कि सारी रात उसी के बारे में सोचते गुज़री।
अगले दिन कुछ अनहोनी नहीं हुई इसलिए दिन सही गुज़रा। और उसी तरह फिर गीली और दलदली मिट्टी, वही नज़ारों में उदासीनता और एकछत्र मायूसी। अनुमानित यात्रा लगभग पूरी होने तक हम क्रोसॉल्बत पहुँचे और आराम किया।
उस पूरे सफर में हमारे पैरों के नीचे लावा वाली मिट्टी थी। कहीं गोलनुमा तार जैसे पड़े थे तो कहीं ढेर में लग कर सतह पर जमे थे। इससे ये समझ आ रहा था कि यहाँ कितना लावा बहा है और खैर है कि अब सारे ज्वालामुखी शान्त और खाली हैं नहीं तो अंदाज़ा अकल्पनीय है। यहाँ-वहाँ गर्म पानी वाले झरने से भाप निकल रहे थे।
अब हमें ये सब सरसरी निगाह से देखते हुए तेजी से आगे बढ़ना था। घोड़ों के पैरों के नीचे अब गीली और दलदली मिट्टी ज़्यादा पड़ रही थी, हमे भी हर सौ गज पर छोटी-बड़ी झील मिल जाती थी। हम अब फैक्सा की खाड़ी के पास से गुज़रते हुए स्नेफल्स की दोनों चोटी से कुछ ही दूरी पर थे, लगभग पाँच मील और।
घोड़े भी तेज़ी से बढ़ रहे थे। चोट और इस मिट्टी की परेशानियों से अब वो नहीं घबरा रहे थे। मुझे कहना पड़ेगा कि मैं थकान से बोझिल हो रहा था लेकिन मौसाजी वैसे ही थे जैसे वो पहले दिन चलने के वक़्त थे। मैं उनसे और हैन्स से बहुत प्रभावित था क्योंकि उनके लिए ये कठिन यात्रा किसी चहलकदमी जैसा था।
20 जून, शनिवार शाम छः बजे हम महासागर के किनारे स्थित एक छोटे से ग्राम, बुदिर पहुँचे जहाँ हैन्स ने अपने पैसे माँगे। मौसाजी ने तुरंत उसकी ख्वाहिश पूरी की। यहाँ हैन्स ने अपने परिवार; उसके चाचा और जर्मन रिश्तेदारों के साथ हमारा आवभगत किया। उन्होंने हमारा बहुत अच्छे से खयाल रखा और इतनी थकान के बाद उनके साथ आराम करना मुझे बहुत अच्छा लगा। लेकिन मौसाजी ज़रा भी आराम करने के पक्ष में नहीं थे। हालाँकि अगला दिन रविवार का था लेकिन फिर भी हमें घोड़ों के साथ आगे बढ़ना था।
नज़दीकी पहाड़ों का असर मिट्टी पर दिख रहा था जिसपर चिकने पत्थर ऐसे जमे थे जैसे ओक की काई हो। उन सतहों पर हम फिसल रहे थे। मौसाजी की नज़र अडिग थी, वो आगे बढ़ते हुए हाथ के इशारों से जैसे कह रहे थे, 'इसी विराट को ही तो जीतना है मुझे।'
चार घण्टे की कड़ी यात्रा के बाद स्टैपी पहुँचकर, गिरजाघर के दरवाजे के सामने, घोड़े खुद ही रुक गए।