सब आगे बढ़ चले उस जंगल की ओर शाकंभरी की सहायता करने,आगे बढ़ने पर रानी सारन्धा किसी पत्थर की ठोकर से गिर पडी़, उनके पैर में चोट लग गई थीं और वो अब चलने में असमर्थ थीं, रानी सारन्धा की स्थिति देखकर अघोरनाथ बोले___
जब तक रानी सारन्धा की स्थिति में सुधार नहीं होता ,तब तक हम इसी स्थान पर विश्राम करेगें, वैसे तो हम उड़ने वाले घोड़े के द्वारा रानी सारन्धा को उस वन मे भेज सकते हैं परन्तु उड़ने वाले घोड़े का ऐसा उपयोग उचित नहीं हैं क्योंकि सारन्धा जंगल में पहले पहुंच गई तो उसकी सुरक्षा का प्रश्न हैं और अगर हम एक एक करके गए भी तो कुछ इधर कुछ उधर,हमें बंटा हुआ देखकर शंखनाद इसका पूर्णतः उपयोग कर हमें हानि पहुंचा सकता हैं, इसलिए यही उचित होगा कि हम सब एकसाथ रहें।।
और अघोरनाथ जी का निर्णय सभी को उचित लगा,सब उस जगह ठहरकर रानी सारन्धा के स्वस्थ होने की प्रतीक्षा करने लगें, वहां एक बरगद के बडे़ से वृक्ष के तले सबने शरण ली,इस घटना में सबसे अच्छा ये रहा कि राजा विक्रम,रानी सारन्धा की देखभाल करने लगें, परन्तु इस बात से रानी सारन्धा को बहुत संकोच हो रहा था,वो ये नहीं चाहतीं थीं राजा विक्रम उनकी इतनी चिंता करें।।
रात्रि का समय सब सो चुके थे और राजा विक्रम पहरा दे रहे थे,गगन में तारें टिमटिमा रहें थें और चन्द्र का श्वेत प्रकाश संसार के कोने-कोने से अंधकार मिटाने का प्रयास कर रहा था,सारी धरती पर चन्द्र की रोशनी चांदी सी प्रतीत हो रही थीं,बस बीच बीच में किसी पक्षी या किसी झींगुर का स्वर सुनाई दे जाता,रानी सारन्धा भी अपनी बांह का तकिया बना कर वृक्ष के तले लेटी थीं,उनके मुख पर चन्द्र का प्रकाश पड़ने से उनके मुख की आभा बढ़ गई थी,ऐसी सुंदरता को देखकर कोई भी मोहित हो जाए, लेकिन मुझे देखकर रानी सारन्धा के मुख पर कोई भाव क्यो नही आते, उन्होंने आज तक कोई भी प्रतिक्रिया नहीं दी,कदाचित् ऐसा तो नहीं वो किसी और से प्रेम करतीं हो,आखिर क्या कारण हो सकता है उनकी शुष्कता का,ये ही सब सोचते-सोचते विक्रम को नींद आने लगी तब उसने सुवर्ण को जगा दिया, वैसे भी तीसरा पहर खत्म होने को था और सुवर्ण के पहरा देने का समय था।।
सुबह हुई,सब जागें,तभी अघोरनाथ जी रानी सारन्धा की स्थिति पूछने आए___
अब कैसा अनुभव हो रहा है,सारन्धा बेटी, अघोरनाथ जी ने सारन्धा से पूछा।।
अब पहले से अधिक अच्छा अनुभव कर रही हूं बाबा!,आज तो चल भी सकतीं हूं, संभवतः आज हम आगे बढ़ सकते हैं,रानी सारन्धा बोली।।
बहुत ही अच्छा हुआ, बेटी! मैं सबसे कहता हूँ कि आगें चलने की तैयारी करें और अघोरनाथ जी इतना कहकर चले गए।।
सब तैयारी कर आगें बढ़ चलें, रास्ते में सारन्धा ने अपने पैर में दोबारा पीड़ा का अनुभव किया और वो एक पत्थर पर बैठकर बोली, मैं अब असमर्थ हूँ आगें नहीं बढ़ सकतीं।।
तभी, राजा विक्रम,सारन्धा के निकट आकर बोले, आपको कोई आपत्ति ना हो तो मैं कुछ आपकी सहायता कर सकता हूँ।।
मुझे आपकी सहायता की आवश्यकता नहीं हैं, क्यों आप मुझे प्रतिपल सताने आ जाते हैं, आपने जो पहले भी मेरी सहायता की हैं उसके लिए मैं सदा आपकी आभारी रहूंगी, परन्तु इस पल मुझे क्षमा करें, मैं वैसे भी बहुत ही कष्टनीय स्थिति में हूँ,मैंने अभी अपने परिवार को गँवाया हैं,जो मेरे लिए असहनीय हैं, आप मेरी अन्तर्वेदना को समझने का प्रयास करें,मुझे सब ज्ञात हैं कि इस समय आपके मन के भाव क्या हैं मेरे लिए, जैसे आप मुझसे प्रेम करने लगें उसी प्रकार मैं भी किसी से प्रेम करती थीं, रानी सारन्धा क्रोध से बोली।।
रानी सारन्धा! कृपया आप क्रोधित ना हो,आप मेरी बातों का आशय उचित नहीं समझ रहीं,राजा विक्रम बोले।।
मैं बिल्कुल उचित समझ रही हूँ, चलिए आज मैं आपको अपने विषय मे सब बता ही देतीं, सब जानकर ही आप मेरे विषय में उचित निर्णय ले कि मैं आपके प्रेम के योग्य हूँ कि नहीं और रानी सारन्धा ने अपने अतीत के विषय मे बोलना शुरू किया।।
पहाड़ो के पार,घने वन जहाँ पंक्षियों के कलरव से वहाँ का वातावरण सदैव गूँजता रहता,घनें वनों के बीच एक नदी बहती थीं, जिसका नाम सारन्धा था,उसके समीप एक राज्य बसता था जिसका नाम रूद्रनगर था,जहाँ के हरे भर खेत इस बात को प्रमाणित करते थे कि इस राज्य के वासी अत्यंत खुशहाल स्थिति में हैं, किसी को भी किसी प्रकार का कष्ट नहीं हैं,सबके घर धन धान्य से भरे हुए हैं और वहाँ के राजा अत्यंत दयालु प्रवृत्ति के थे,उनका नाम दर्शशील था,वे अपने राज्य के लोगों को कभी भी कोई कष्ट ना होने देते,उनकी रानी का नाम शैलजा था,परन्तु बहुत साल व्यतीत हुए राजा के कोई सन्तान ना हो हुई, इस दुख से दुखी होकर रानी शैलजा ने राजा से कहा कि वे अपना दूसरा विवाह कर लें किन्तु राजा दर्शशील दूसरे विवाह के लिए कदाचित् सहमत ना थे उन्होंने इस विषय पर अपने गुरुदेव से मिलने का विचार बनाया और वो अपने गुरू शाक्य ऋषि से मिलने रानी शैलजा के साथ शाक्य वन जा पहुंचे।।
उन दोनों से मिलने के पश्चात गुरदेव बोले___
इतने ब्याकुल ना हो राजन!तनिक धैर्य रखें,कुछ समय पश्चात आपको अवश्य संतान की प्राप्ति होगी और सारे जगत मे आपका मान-अभिमान बढ़ाएगी।।
इस बात से राजा दर्शशील बहुत प्रसन्न हुए और शाक्य वन में एक दो दिन ठहर कर अपने गुरदेव से आज्ञा लेकर लौट ही रहे थे कि मार्ग में बालकों के रोने का स्वर सुनाई दिया जिससे उनका मन द्रवित हो गया और रानी शैलजा भी ब्याकुल हो उठीं।।
राजा दर्शशील ने सारथी से अपना रथ रोकने को कहा और अपने रथ से उतरकर उन्होंने देखा कि कहीं दूर से झाड़ियों से वो स्वर आ रहा हैं,वो दोनों उस झाड़ी के समीप पहुंचे, देखा तो वस्त्र की तहों में एक डलिया में दो जुड़वां बालक रखें हैं,शैलजा से उन बालकों का रोना देखा ना गया और शीघ्रता से उन्होंने दोनो बालकों को अपनी गोद मे उठा लिया।।
उन्होंने आसपास बहुत ढ़ूढ़ा,परन्तु कोई भी दिखाई ना दिया, तब दोनों ये निर्णय लिया कि दोनों बालकों को वो अपने राज्य ले जाएंगे, उनमें से एक बालक था और एक बालिका, दोनों पति पत्नी की जो इच्छा थी वो अब पूर्ण हो चुकी थीं,दोनों खुशी खुशी अब उनका लालनपालन करने लगें,उन्होंने बालिका नाम उस राज्य की नदी के नाम पर सारन्धा रखा जोकि मैं हूं और बालक का नाम चन्द्रभान रखा, धीरे धीरे दोनों बड़े होने लगें और कुछ सालों बाद दोनों अपने यौवनकाल में पहुंच गए, इसी प्रकार सबका जीवन ब्यतीत हो रहा था।।
इसी बीच एक दिन सारन्धा नौका विहार करने नदी पर गई, वहां उसने अपनी सखियों और दासियों से हठ की कि वो नाव खेकर अकेले ही नौका विहार करना चाहती हैं,सखियों ने बहुत समझाया,पर उसनें किसी की एक ना सुनी और अकेले ही नाव पर जा बैठी,नाव खेने लगी,कुछ समय उपरांत नदी में एक भँवर पड़ी जिसे दूर से ही देखकर,सारन्धा बचाओ...बचाओ... चिल्लाने लगी क्योंकि उसे नाव की दिशा बदलना नहीं आता था,उसका स्वर वहां उपस्थित एक नवयुवक ने सुना और वो नदी मे कूद पड़ा और तीव्र गति से तैरता हुआ सारन्धा की नाव तक पहुंच कर शीघ्रता से नाव पर चढ़ा और नाव को दूसरी दिशा में मोड़ दिया।।
सारन्धा ने नीचे की ओर मुख करके लजाते हुए उस नवयुवक को धन्यवाद दिया, उसने सारन्धा से उसका परिचय पूछा___
मैं रूद्रनगर के राजा दर्शशील की पुत्री हूँ,यहाँ नौका विहार के लिए अकेले ही निकल पड़ी,मार्ग में भँवर देखकर सहायता हेतु चिल्लाने लगी,सारन्धा ने उत्तर दिया।।
और महाशय आपका परिचय,सारन्धा ने उस नवयुवक से उसका परिचय पूछा।।
जी,मैं अमरेंद्र नगर का राजकुमार सूर्यदर्शन, यहाँ तक आखेट के लिए आ पहुंचा, आपका स्वर सुनकर विचलित होकर देखा तो आप बचाओ...बचाओ चिल्ला रहीं थीं तो शीघ्रता से नदी में कूद पड़ा,सूर्यदर्शन ने सारन्धा के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा।।
आपने आज मेरे प्राणों की रक्षा की हैं इसके लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद, सारन्धा बोली।।
धन्यवाद किस बात का प्रिये!ये तो मेरा धर्म था,सूर्यदर्शन बोला।।
वो सब तो ठीक हैं, महाशय! परन्तु मैं आपकी प्रिये नहीं हूं, सारन्धा बोली।।
नहीं हैं तो हो जाएगीं,आप जैसी सुन्दर राजकुमारी को कौन अपनी प्रिये नही बनाना चाहेगा, सूर्यदर्शन बोला।।
आप भी राजकुमार! कैसा परिहास कर रहें हैं मुझसे, सारन्धा बोली।।
ये परिहास नहीं है राजकुमारी, ये सत्य हैं, लगता हैं आपकी सुन्दरता पर मैं अपना हृदय हार बैठा हूँ, परन्तु आप मेरी बात पर विश्वास नहीं करेंगीं,सूर्य दर्शन ने सारन्धा से कहा।।
अब रहने भी दीजिए राजकुमार, अत्यधिक बातें बना लीं आपने,कृपया कर अब मुझे मेरे राज्य तक पहुंचा आइए,सारन्धा ने राजकुमार से कहा।।
और नदी किनारे आते ही राजकुमार ने राजकुमारी को अपने अपने घोड़े द्वारा उनके राज्य तक पहुंचा दिया, रात्रि के समय सारन्धा की आँखों से निद्रा कोसों दूर थीं, वो केवल सूर्यदर्शन के विषय मे ही सोंच रही थी, कदाचित् सारन्धा को भी राजकुमार प्रिय लगने लगा था।।
धीरे धीरे सारन्धा और सूर्यदर्शन एक दूसरे के अत्यधिक निकट आ चुके थे औंर एकदूसरे से प्रेम करने लगे थे,जब ये बात राजा दर्शशील ने सुनी तो वे अत्यंत ही प्रसन्न हुए और राजकुमारी का विवाह सूर्यदर्शन से करने को सहमत हो गए, बडी़ धूमधाम से विवाह सामारोह की तैयारियां होने लगी और विवाह वाला दिन भी आ गया, परन्तु उस दिन जो हुआ उसकी आशा किसी को नहीं थीं।।
राजकुमार सूर्यदर्शन ने सारन्धा के साथ क्षल किया था,वो विवाह के सामारोह में जादूगर शंखनाद के साथ आया और महाराज दर्शशील, महारानी सारन्धा और राजकुमार चन्द्रभान की हत्या कर दी और रानी सारन्धा को राक्षस के निरीक्षण में तलघर मे बंदी बना दिया।।
ये थी मेरे जीवन की कथा,इसलिए पुनः किसी से प्रेम करके उस कथा को मैं नहीं दोहराना चाहतीं, बहुत बड़ा आघात पहुंचा हैं मुझे प्रेम में और इसका प्रतिशोध जब तक मैं उन दोनों से नहीं ले लेतीं, मैं कैसे किसी से प्रेम करने का सोच सकतीं हूं, इसलिए तो मैं आपलोगों के साथ यहां तक आईं हूं,रानी सारन्धा क्रोधित होकर बोली।।