मानस के राम
भाग 49
इंद्रजीत द्वारा यज्ञ करना
संजीवनी बूटी के प्रयोग से लक्ष्मण के प्राण बच गए थे। वानर सेना में उत्साह की एक लहर दौड़ गई थी। सभी बहुत खुश थे। सुषेण वैद्य ने हनुमान से कहा कि वह द्रोणागिरी पर्वत को वापस उसके स्थान पर रख आएं। हनुमान उनकी आज्ञा मानकर पर्वत को दोबारा उसके स्थान पर पर रख आए।
रावण को जब यह समाचार मिला कि शक्ति लगने के बावजूद लक्ष्मण के प्राण बच गए हैं तो वह बहुत क्रोधित हुआ। उसने इंद्रजीत से कहा,
"वानर हनुमान बहुत ही विकट है। कालनेमि भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ पाया। वह एक ही रात में हिमालय जाकर द्रोणागिरी पर्वत के साथ वापस लंका आ गया।"
इंद्रजीत भी सब जानकर हैरान था। पर उसने अभी हिम्मत नहीं हारी थी। वह बोला,
"पिताश्री आपकी बात सच है। परंतु अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है। मैंने ऐसी परिस्थिति के लिए ही एक उपाय बचाकर रखा था।"
उसकी बात सुनकर रावण ने कहा,
"कैसा उपाय ?"
"पिताश्री मैं अब कुलदेवी निकुंबला के मंदिर में विशेष तांत्रिक यज्ञ करूंँगा। जिससे मुझे एक दिव्य रथ की प्राप्ति होगी। उस पर बैठकर मैं अजेय हो जाऊंँगा।"
"इंद्रजीत तुम शीघ्र ही यह तांत्रिक यज्ञ करो। जिससे हमारी विजय सुनिश्चित हो सके।"
"मैं अभी देवी निकुंबला के मंदिर में यज्ञ करने के लिए जा रहा हूँ। किंतु यह बात अत्यंत गोपनीय रहनी चाहिए। अतः आप रनिवास में भी इस विषय में कोई सूचना ना दें।"
"यह बात गोपनीय रहेगी। परंतु फिर भी तुम सुरक्षा के लिए कुछ सैनिक साथ ले जाना।"
"मैंने पहले ही इसकी व्यवस्था कर ली है। मैं अपना यज्ञ समाप्त कर सीधे युद्धभूमि में जाऊँगा। आप मुझे आशीर्वाद दें कि मैं अपने यज्ञ में सफलता प्राप्त करूँ।"
रावण से आशीर्वाद प्राप्त कर इंद्रजीत देवी निकुंबला के मंदिर में चला गया।
अपने शिविर में राम अपने अनुज लक्ष्मण के साथ अयोध्या के विषय में बात कर रहे थे। राम को बार बार ऐसा लग रहा था कि भरत का मन कुछ विचलित है। उन्होंने लक्ष्मण से कहा,
"मैंने ऐसा अनुभव किया है कि यहाँ की परिस्थितियों के विषय में जानकर भरत बहुत दुखी है। संजीवनी बूटी लाते समय हनुमान से उसकी भेंट हुई थी।"
लक्ष्मण ने कहा,
"तब तो यह हो सकता है कि भ्राता भरत अयोध्या की सेना के साथ हमारी सहायता के लिए आ जाएं।"
लक्ष्मण की बात सुनकर राम मंद मंद मुस्कुरा कर बोले,
"ऐसा नहीं होगा। भरत मर्यादा को समझता है। मैं वनवास में हूँ। इस अवधि में अयोध्या की किसी भी वस्तु पर मेरा अधिकार नहीं है। गुरु वशिष्ठ भी उसे इसकी आज्ञा प्रदान नहीं करेंगे।"
राम तथा लक्ष्मण अयोध्या के विषय में बातचीत कर ही रहे थे कि तभी विभीषण ने शिविर में प्रवेश किया। वह बहुत ही परेशान थे। उन्हें परेशान देखकर राम ने कहा,
"क्या बात है ? आप इतने चिंतित क्यों हैं ?"
विभीषण ने उत्तर दिया,
"गुप्तचरों ने समाचार दिया है कि इंद्रजीत कुलदेवी निकुंबला के मंदिर में विशेष तांत्रिक यज्ञ करने के लिए गया है।"
यह सुनकर लक्ष्मण ने कहा,
"इसमें चिंतित होने वाली क्या बात है विभीषण जी। वह कुछ भी करे पर अब उसकी मृत्यु मेरे ही हाथों से होनी है।"
"इंद्रजीत कोई साधारण यज्ञ नहीं कर रहा है। यदि वह इस यज्ञ में सफल हो गया तो उसे एक ऐसा दिव्य रथ प्राप्त होगा जो उसे अविजित बना देगा।"
यह बात सुनकर लक्ष्मण भी सोच में पड़ गए।
यज्ञ का विध्वंस
विभीषण ने बताया कि एक बार देवराज इंद्र ने रावण को बंदी बना लिया था। वह उसे अपने रथ में बैठाकर ले जा रहे थे। तब इंद्रजीत ने अपनी अदृश्य होने की शक्ति का प्रयोग कर उनके रथ में प्रवेश कर रावण को बंधन मुक्त किया। उसके बाद उसने इंद्र को बंदी बना लिया और अपने साथ ले आया।
इंद्र के ना होने से स्वर्ग से अव्यवस्था उत्पन्न हो गई। तब ब्रह्मा जी ने इंद्रजीत के पास जाकर निवेदन किया कि वह इंद्र को छोड़ दे। तब इंद्रजीत ने कहा कि देवराज इंद्र को छोड़ने के बदले में उसे अमरत्व प्राप्त करने का वरदान चाहिए।
उसकी मांग सुनकर ब्रह्मा जी सोच में पड़ गए। उन्होंने कहा कि सृष्टि के नियम के अनुसार जो जन्म लेता है उसकी मृत्यु अवश्य होती है। इसलिए वह उसे अमरता का वरदान नहीं दे सकते हैं। पर उसे वरदान देते हैं कि जब वह अपनी कुलदेवी निकुंबला के मंदिर में विशेष तांत्रिक यज्ञ करेगा तो उसे एक दिव्य रथ की प्राप्ति होगी। उस पर आरूढ़ होने के बाद देवता भी उसे परास्त नहीं कर पाएंगे। साथ ही उसे ब्रह्मश्री अस्त्र भी मिलेगा। वह अविजित हो जाएगा। पर ब्रह्मा जी ने एक शर्त जोड़ दी थी कि जो भी व्यक्ति यज्ञ के समय उस पर आक्रमण कर यज्ञ में बाधा डालने में सफल होगा उसके हाथ से ही इंद्रजीत की मृत्यु होगी।
सब बताने के बाद विभीषण ने कहा,
"यदि इंद्रजीत अपने यज्ञ में सफल हो गया तो उसे परास्त कर पाना असंभव हो जाएगा। इसलिए आवश्यक है कि उसे सफल ना होने दिया जाए। अतः लक्ष्मण जी आप उसके यज्ञ का ध्वंस कर दीजिए और उसकी मृत्यु का कारण बनिए।"
लक्ष्मण विभीषण की बात मानकर यज्ञ का ध्वंस करने के लिए जाने को तैयार हो गए। राम ने उन्हें समझाया कि इंद्रजीत से युद्ध करते समय वह बुद्धि और संयम से काम लें। इंद्रजीत एक अद्भुत योद्धा है। उससे जीत पाना आसान नहीं है। अतः वह अपने साथ हनुमान, जांबवंत, सुग्रीव, आदि योद्धाओं के साथ वानर सेना लेकर जाएं।
विभीषण ने बताया कि वैसे तो निकुंबला देवी के मंदिर का रास्ता बहुत लंबा और टेढ़ा मेढ़ा है। पर उन्हें एक छोटा रास्ता पता है। वह लक्ष्मण को उसी रास्ते से ले जाएंगे।
राम के मन में एक दुविधा थी। वह नहीं चाहते थे कि विभीषण के प्राण संकट में डालें। उन्होंने कहा,
"मैंने आपको लंका का राजा बनाने का वचन दिया है। आपको देखकर इंद्रजीत क्रोधित होकर आप पर आक्रमण कर सकता है। मैं आपके प्राणों को संकट में नहीं डाल सकता हूँ।"
विभीषण ने कहा,
"परंतु प्रभु मेरा जाना आवश्यक है। मैं लक्ष्मण जी को सही समय पर सुरिक्षत निकुंबला देवी के मंदिर पहुँचा सकता हूँ।"
लक्ष्मण ने कहा,
"भ्राताश्री आप चिंता ना करें। मैं वचन देता हूंँ कि मेरे रहते इंद्रजीत विभीषण जी का कुछ नहीं बिगाड़ सकता है।"
राम ने लक्ष्मण के इस आश्वासन को मान लिया। राम से आशीर्वाद प्राप्त कर लक्ष्मण विभीषण के साथ यज्ञ का ध्वंस करने चले गए।
विभीषण लक्ष्मण और अन्य लोगों को लेकर एक गुफा के पास पहुँचे। गुफा के द्वार पर राक्षस सैनिक पहरा दे रहे थे। अंदर से यज्ञ वेदी का धुआं उठता दिख रहा था। मंत्रोच्चार की ध्वनि आ रही थी। विभीषण ने सुग्रीव से कहा कि वह अपनी सेना के साथ पहरा दे रहे सैनिकों पर आक्रमण करें। जिससे गुफा के अंदर जाकर यज्ञ का ध्वंस कर सकें।
वानर राक्षस सैनिकों पर टूट पड़े। दोनों दलों के बीच भयंकर युद्ध होने लगा। बहुत कोलाहल हो रहा था। लेकिन इस सबसे विचलित हुए बिना इंद्रजीत मंत्रोच्चार करते हुए यज्ञ में आहुति दे रहा था।
हनुमान अंगद आदि वानर गुफा में घुस गए। वह प्रयास कर रहे थे कि किसी तरह इंद्रजीत का ध्यान भंग कर यज्ञ को रोक सकें। परंतु इंद्रजीत अडिग था। अंत में हनुमान ने यज्ञ कुंड में पानी डालकर अग्नि को बुझा दिया।
यज्ञ का ध्वंस होने से इंद्रजीत क्रोध में भयंकर गर्जना करने लगा।
इंद्रजीत का वध
यज्ञ का ध्वंस होने पर विभीषण लक्ष्मण को एक वटवृक्ष के पास ले गए। उन्हें पता था कि अब वह युद्ध भूमि में जाएगा। परंतु युद्ध के लिए जाने से पहले वह इस वृक्ष के पास आकर यहाँ बंधे हुए प्रेतों को पानी देगा। विभीषण ने लक्ष्मण से कहा कि वह यहाँ इंद्रजीत को युद्ध के लिए ललकार कर उसका वध कर दें।
कुछ ही समय में इंद्रजीत उस वटवृक्ष के पास पहुँचा। लक्ष्मण ने उसे युद्ध के लिए ललकारा। इंद्रजीत ने जब विभीषण को उनके साथ देखा तो वह क्रोध में जल उठा। विभीषण को अपशब्द कहने लगा। उसने कहा कि लक्ष्मण से पहले वह विभीषण को उनके किए का दंड देगा।
इंद्रजीत ने विभीषण का वध करने के लिए बाण का संधान किया। लक्ष्मण को कुबेर ने पहले ही बता दिया था कि इंद्रजीत विभीषण को किस बाण से मारेगा। उन्होंने उस बाण की काट का संधान कर बाण चलाया। इंद्रजीत का बाण विफल हो गया।
अपनी विफलता पर क्रोधित होकर लक्ष्मण पर बाण चलाने आरंभ कर दिए। लक्ष्मण उसके हर बाण को काट दे रहे थे। उन दोनों के बीच भयंकर युद्ध होने लगा। इंद्रजीत किसी भी तरह लक्ष्मण का वध करना चाहता था। उसने ब्रह्मास्त्र का संधान कर उन पर चलाया। पर बाण लक्ष्मण को हानि पहुँचाए बिना लौट गया। इंद्रजीत यह देखकर आश्चर्यचकित रह गया। उसके बाद उसने शिवजी का दिया पाशुपतास्त्र चलाया। पर वह भी लक्ष्मण को बिना कोई क्षति पहुँचाए लौट गया।
दो दिव्यास्त्र चलाने के बाद भी इंद्रजीत को बात समझ नहीं आई। उसने नारायण अस्त्र का संधान कर लक्ष्मण पर चला दिया। परंतु नारायण अस्त्र भी उसी तरह लक्ष्मण को सकुशल छोड़कर लौट आया। नारायण अस्त्र की विफलता पर इंद्रजीत को समझ आ गया कि लक्ष्मण कोई साधारण मानव नहीं हैं। उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था। अपनी मायावी शक्ति का प्रयोग कर वह अंतर्ध्यान हो गया।
विभीषण तथा लक्ष्मण उसके इस तरह गायब हो जाने हैरान रह गए।
इंद्रजीत अपने पिता रावण के महल के बाहर जाकर पुकारने लगा। इंद्रजीत की पुकार सुनकर रावण बाहर आया। उसने इंद्रजीत से कहा,
"क्या हुआ ? तुम्हारा यज्ञ सफल नहीं हो पाया क्या ?"
"हाँ पिताश्री विभीषण काका लक्ष्मण और वानर सेना को लेकर निकुंबला देवी के मंदिर पहुँच गए। उन लोगों ने यज्ञ कुंड में पानी डालकर अग्नि को बुझा दिया। परंतु मैं आपके पास किसी और कारण से आया हूँ।"
रावण ने आश्चर्य से कहा,
"मेरे पास किस कारण से आए हो तुम ?"
इंद्रजीत ने कहा,
"पिताश्री मैं आपको वह सच बताने आया हूँ जिसका पता मुझे कुछ ही समय पहले चला।"
रावण ने क्रोध में कहा,
"इंद्रजीत सीधी सीधी बात करो। क्या कहना चाहते हो।"
इंद्रजीत ने गंभीरता से कहा,
"पिताश्री राम और लक्ष्मण कोई साधारण मानव नहीं हैं। मैंने लक्ष्मण पर ब्रह्मास्त्र, पशुपतास्त्र और नारायण अस्त्र का प्रयोग किया था। परंतु उन्होंने उसे कोई भी क्षति नहीं पहुँचाई। राम स्वयं नारायण का अवतार हैं। अतः आप उनकी शरण में जाकर अपने पापों का प्रायश्चित कर लीजिए। अपने साथ समस्त राक्षस जाति के विनाश को रोक लीजिए।"
अपने पुत्र इंद्रजीत के मुंह से यह बात सुनकर रावण क्रोध से चिल्ला उठा। उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि जो इंद्रजीत सदैव उसके साथ था वह ऐसी बात कर रहा है। उसने कहा,
"तुम भी औरों की भांति कायर निकले। तुम चाहते हो कि मैं अपने यश को धूमिल कर उन वनवासियों की शरण में चला जाऊँ। पर ऐसा नहीं होगा। तुम भी मुझे छोड़कर जाना चाहते हो तो जाओ।"
रावण की बात सुनकर इंद्रजीत ने कहा,
"मैं तो बस पुत्र होने के नाते सही मार्ग दिखा रहा था। परंतु आपको त्याग कर मुझे तीनों लोकों का स्वामित्व भी स्वीकार नहीं है। मैं लक्ष्मण से युद्ध करने के लिए जा रहा हूँ।"
इंद्रजीत ने रावण को प्रणाम किया और पुनः लक्ष्मण से युद्ध करने चला गया।
एक बार फिर इंद्रजीत और लक्ष्मण के बीच भयंकर युद्ध होने लगा। इंद्रजीत जानता था कि वह अपने पिता के अधर्म में उनका साथ दे रहा है। पर उसके लिए अपने पुत्र के कर्तव्य का निर्वाह करना ही सबसे बड़ा धर्म था।
वह लक्ष्मण के साथ बराबरी का युद्ध कर रहा था। अंत में लक्ष्मण ने एक दिव्य बाण का संधान कर इंद्रजीत का सर धड़ से अलग कर दिया।