Manas Ke Ram - 48 in Hindi Fiction Stories by Ashish Kumar Trivedi books and stories PDF | मानस के राम (रामकथा) - 48

Featured Books
Categories
Share

मानस के राम (रामकथा) - 48




मानस के राम

भाग 48


कालनेमि द्वारा हनुमान का रास्ता रोकना

रावण ने अपने दूत शुक को सारी बातों का पता लगाने के लिए भेजा था। वहाँ जो कुछ हुआ उसके बारे में बताने के लिए वह रावण के दरबार में उपस्थित हुआ। उसने रावण को सब कुछ बता दिया। सब सुनकर इंद्रजीत ने ज़ोरदार अट्टहास कर कहा,
"सुषेण वैद्य ने जो उपाय बताया है उसका पूरा होना असंभव है। अब लक्ष्मण की मृत्यु तय है। उसके वियोग में राम भी सर पटक पटक कर अपने प्राण त्याग देगा। हमारे रास्ते के दोनों कंटक हट जाएंगे।"
शुक ने हाथ जोड़कर कहा,
"क्षमा करें युवराज.. किंतु हनुमान जिस दृढ़ संकल्प के साथ गया है उसे देखकर लगता है कि वह सफल होकर ही लौटेगा।"
"कोई कितने भी निश्चय के साथ इस काम का बीड़ा उठाए। परंतु यहाँ से हिमालय जाकर जड़ी बूटी लेकर सूर्योदय से पहले आ पाना कभी नहीं हो सकता है।"
रावण गंभीरता पूर्वक शुक की बात पर विचार कर रहा था। उसने कहा,
"इंद्रजीत उस वानर हनुमान के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता है। वह विशाल समुद्र लांघकर लंका तक पहुँच गया था। स्वर्ण निर्मित लंका को अग्नि के हवाले कर राख कर दिया था। वह कुछ भी कर सकता है।"
रावण की बात सुनकर इंद्रजीत भी विचारमग्न हो गया। कुछ देर विचार करने के बाद बोला,
"आपका कहना उचित है। इसलिए मैंने विचार किया है कि यदि उस वानर के रास्ते में बाधा उत्पन्न कर दी जाए तो वह समय पर अपना काम पूरा कर लौट नहीं पाएगा। इससे हमारी सफलता सुनिश्चित हो जाएगी।"
इंद्रजीत का उपाय सुनकर रावण ने कहा,
"तुमने उत्तम उपाय बताया है। हनुमान के कार्य में बाधा उत्पन्न करने के लिए मायावी कालनेमि से अच्छा कोई नहीं हो सकता है।"

रावण ने कालनेमि को बुलाकर उसे सारी बात बताई। कालनेमी हनुमान के पराक्रम उनकी बुद्धि से परिचित था। उसे अपने स्वामी का आदेश मानना था। पर उसने रावण को समझाने का प्रयास करते हुए कहा,
"महाराज आपके आदेश का पालन करना मेरा कर्तव्य है। परंतु महाराज हनुमान कोई साधारण वानर नहीं है। उसे उसके कर्तव्य से विमुख कर पाना संभव नहीं है।"
रावण ने कहा,
"तुम्हारे जैसा मायावी असुर कुछ भी करने में सक्षम है। तुम्हें हनुमान से युद्ध नहीं करना है। बस अपनी माया का प्रयोग कर हनुमान को रात भर के लिए रोककर रखना है। जिससे वह समय पर बूटी लेकर लंका ना पहुँच सके।"
"जैसी आपकी आज्ञा महाराज। मैं जाकर हनुमान को हिमालय पहुँचने से रोकने का प्रयास करता हूँ।"
रावण ने प्रसन्न होकर कहा,
"जाओ और अपने काम में सफल हो।"
कालनेमि चला गया। रावण निश्चिंत हो गया कि अब हनुमान समय पर संजीवनी बूटी लेकर लंका नहीं पहुँच पाएंगे।


कालनेमि का वध

कालनेमि अपनी माया का प्रयोग कर हनुमान से भी पहले एक स्थान पर पहुँच गया। उसने माया का प्रयोग कर एक कुटिया का निर्माण किया। एक तपस्वी मुनि का वेष बनाकर वह राम नाम का गुणगान करने लगा।
आकाश मार्ग से जाते हुए हनुमान के कानों में राम नाम पड़ा तो वह यह देखने के लिए उतरे कि इस स्थान में यह राम भक्त कौन है। उन्होंने तपस्वी का वेष धारण किए कालनेमि को देखकर पूँछा,
"हे मुनिवर आप कौन हैं ? प्रभु राम के भक्त जान पड़ते हैं। कृपया अपना परिचय दें।"
हनुमान को प्रभावित करने के लिए कालनेमि ने कहा,
"मैं प्रभु राम का भक्त हूँ। मैं जानता हूँ कि तुम प्रभु राम के भक्त हनुमान हो। लक्ष्मण जी के प्राणों की रक्षा के लिए हिमालय संजीवनी बूटी लेने जा रहे हो।"
कालनेमि की बात सुनकर हनुमान जी खुश होकर बोले,
"आप तो कोई पहुँचे हुए तपस्वी हैं। आपके दर्शन कर बहुत प्रसन्नता हुई। अब मैं अपने कर्तव्य के पालन के लिए जा रहा हूँ।"
कालनेमि ने कहा,
"तुम जिस कार्य के लिए जा रहे हो उसमें तुम्हें सफलता अवश्य मिलेगी। अतः कुछ देर विश्राम कर लो। पास में एक तालाब है। वहाँ जाकर स्नान करके आओ। मैं तुम्हें वह विद्या सिखाऊँगा जिससे तुम सही बूटी का चुनाव कर सकोगे।"
कालनेमि की बात मानकर हनुमान तालाब में स्नान करने के लिए चले गए। जब वह तालाब में स्नान कर रहे थे तब एक मगरमच्छ ने उन पर आक्रमण किया। हनुमान ने उस मगरमच्छ को मारकर दूर फेंक दिया। वहांँ पर एक स्त्री प्रकट हुई। उसने बताया कि वह एक अप्सरा थी जो ऋषि के श्राप के कारण मगरमच्छ की योनि में जन्मी थी। हनुमान द्वारा उसका वध होने के कारण वह श्राप मुक्त हो गई।
उस अप्सरा ने हनुमान को सावधान किया कि जिस तपस्वी की कुटिया में वह ठहरे हैं वह मायावी राक्षस कालनेमि है।
हनुमान जब कुटिया में वापस आए तो कालनेमि ने छल से उन पर अपनी माया का प्रयोग करना चाहा। किंतु हनुमान पहले से ही सावधान थे। उन्होंने उस दुष्ट कालनेमि का वध कर दिया।
कालनेमि का वध करके हनुमान तीव्र गति से उड़ते हुए हिमालय पर स्थित द्रोणागिरी पर्वत पर पहुंँच गए।


हनुमान द्वारा द्रोणागिरी पर्वत उठाना

द्रोणागिरी पर्वत पर पहुंँचकर हनुमान ने देखा कि संपूर्ण पर्वत ही जड़ी बूटियों के दिव्य प्रकाश से प्रकाशित है। किंतु जैसे ही हनुमान पर्वत पर उतरे वैसे ही सारा प्रकाश गायब हो गया और उसके साथ ही जड़ी बूटियां भी विलुप्त हो गईं। हनुमान को सुषेण वैद्य की बात याद आई। उन्होंनेे हाथ जोड़कर कहा,
"औषधियों के संरक्षक देवताओं प्रभु राम के सेवक हनुमान का प्रणाम स्वीकार करें। युद्ध भूमि में शक्ति लगने से प्रभु राम के अनुज लक्ष्मण अचेत हो गए हैं। उनके प्राण संकट में हैं। लंका के वैद्यराज सुषेण की सलाह पर मैं उनके उपचार के लिए जड़ी बूटी लेने आया हूंँ। कृपया मुझे अनुमति प्रदान करें।"
हनुमान के विनती करने पर द्रोणागिरी पर्वत एक बार फिर जड़ी बूटियों के दिव्य प्रकाश से प्रकाशित हो गया। हनुमान मृत संजीवनी की खोज करने लगे। सुषेण वैद्य ने बताया था कि मृत संजीवनी से एक दिव्य ज्योति निकलती है। किंतु द्रोणागिरी पर्वत पर तो हर औषधि से एक दिव्य प्रकाश निकाल रहा था। हनुमान समझ नहीं पा रहे थे कि इनमें से मृत संजीवनी कौन सी है। हर एक बीतता हुआ पल उनके मनोरथ को विफल करने के लिए चेतावनी दे रहा था। उन्होंने अधिक समय व्यर्थ करना उचित नहीं समझा। एक बार जय श्री राम का उद्घोष किया और संपूर्ण द्रोणागिरी पर्वत को उठाकर लंका की तरफ उड़ चले।
हनुमान द्रुतगति से द्रोणागिरी पर्वत लेकर लंका की तरफ जा रहे थे। लौटते समय वह उस स्थान के ऊपर से गुजरे जहाँ भरत कुटिया बनाकर तपस्वी की भांति रहते हुए अयोध्या का राज कार्य संभाल रहे थे। कुटिया के बाहर खड़े रक्षकों ने आकाश पर उड़ते हुए एक विशालकाय जीव को देखा। उन्हें आशंका हुई कि यह कोई राक्षस है जो अयोध्या की तरफ बढ़ रहा है।
भरत अपनी कुटिया में बैठे हुए राम का ध्यान कर रहे थे। रक्षकों ने जाकर उन्हें सूचना दी कि आकाश पर एक विशालकाय प्राणी उड़ता हुआ अयोध्या की तरफ जा रहा है। यह सुनकर भरत ने बाहर आकर देखा। उन्हें आकाश में उड़ते हुए हनुमान दिखाई पड़े। उन्होंने अपना धनुष उठाकर बाण चलाया। वह बाण लगते ही हनुमान द्रोणागिरी पर्वत समेत भूमि पर आकर गिर गए। उनके मुख से राम नाम निकल रहा था। भरत ने जब मूर्छित अवस्था में हनुमान को राम का नाम लेते देखा तो उन्हें एहसास हो गया क्यों हमसे कोई भूल हो गई है।
भरत ने तुरंत हनुमान को उनकी मूर्छा से बाहर लाने का प्रयास किया। जब हनुमान मूर्छा से बाहर आए तो भरत ने पूँछा,
"हे महात्मा आप कौन हैं जो मूर्छित अवस्था में भी मेरे भ्राता श्री राम का नाम ले रहे थे ?"
भरत के मुख से राम के लिए भ्राता शब्द सुनकर हनुमान ने कहा,
"मैं प्रभु श्री राम का सेवक हूँ। आप अवश्य उनके अनुज भरत हैं। मेरे प्रभु सदैव आपका ही स्मरण करते रहते हैं।"
यह सुनकर कि राम वन में भी उनका स्मरण करते हैं भरत भावुक हो गए। उनकी आँखों से आंसू बहने लगे। उन्होंने कहा,
"मेरे भ्राता राम बहुत दयालु हैं। मैं ही उनके कष्टों का कारण हूँ। फिर भी वह मुझे याद करते हैं। हनुमान जी कृपया मुझे बताएं कि मेरे भ्राता राम, भाभीश्री सीता व अनुज लक्ष्मण कैसे हैं ? वह कुशलतापूर्वक तो हैं ? आप से उनकी भेंट किस प्रकार हुई ?"
भरत राम के बारे में जानने के लिए उतावले थे। हनुमान ने उन्हें सारा वृत्तांत बताया। किस प्रकार रावण सीता का हरण करके लंका ले गया। किस प्रकार किष्किंधा में उनकी भेंट राम तथा लक्ष्मण से हुई। उनका सीता की खोज में जाना। समुद्र पर सेतु बांधकर राम का वानर सेना के साथ लंका पर चढ़ाई करना सब कुछ बता दिया। हनुमान ने कहा,
"युद्धभूमि में रावण के पुत्र इंद्रजीत ने लक्ष्मण जी पर शक्ति प्रहार किया। जिससे वह अचेत हो गए। उनके प्राण संकट में हैं। उनके प्राणों की रक्षा के लिए मैं हिमालय पर्वत से मृत संजीवनी बूटी लेने गया था। बूटी की सही पहचान ना होने के कारण मैं संपूर्ण पर्वत उठा कर लंका की तरफ जा रहा था। मुझे सूर्योदय होने से पहले मृत संजीवनी लेकर लंका पहुँचना है।"
सब सुनकर भरत बहुत दुखी हुए। उन्होंने हनुमान से कहा कि वह एक शक्ति बाण का संधान करके उन्हें शीघ्रातिशीघ्र पर्वत सहित लंका पहुंँचा देते हैं। परंतु हनुमान ने कहा कि प्रभु राम की कृपा से वह यह कार्य करने में सक्षम हैं।
भरत से विदाई लेकर हनुमान पुनः तीव्र गति से लंका की तरफ उड़ गए।


लक्ष्मण की प्राण रक्षा

जैसे जैसे रात्रि बीत रही थी राम की चिंता बढ़ती जा रही थी। शिविर में सभी व्याकुलता से हनुमान के मृत संजीवनी बूटी लेकर लौटने की प्रतीक्षा कर रहे थे। सभी परेशान थे किंतु उनमें इस बात का विश्वास था कि हनुमान अपने काम में अवश्य सफल होंगे।
राम अपने अनुज लक्ष्मण का सर गोद में लिए हुए बैठे थे। वह प्यार से उनका माथा सहला रहे थे। उन्हें भी हनुमान के सफल होकर लौटने की प्रतीक्षा थी। सभी की दृष्टि आकाश की ओर लगी हुई थी। वानर राज सुग्रीव ने देखा कि आसमान में हनुमान एक विशालकाय पर्वत को लेकर आते हुए दिखाई पड़ रहे हैं। उन्होंने सबको यह शुभ समाचार सुनाया। पूरे शिविर में प्रसन्नता और उत्साह की लहर दौड़ गई।
हनुमान नीचे उतरे और उन्होंने द्रोणागिरी पर्वत को एक स्थान पर स्थापित कर दिया। उसके बाद सुषेण वैद्य से हाथ जोड़कर बोले,
"वैद्यराज मुझे मृत संजीवनी की पहचान करने में कठिनाई हो रही थी। अतः मैं संपूर्ण द्रोणागिरी पर्वत ही उठा लाया हूँ। आप कृपया इस पर्वत से मृत संजीवनी प्राप्त कर उपचार आरंभ करें।"
सुषेण वैद्य ने सबसे पहले द्रोणागिरी पर्वत को नमस्कार किया। उसके बाद हाथ जोड़कर प्रार्थना की,
"हे दिव्य मृत संजीवनी आप में जीवनदायिनी शक्ति है। मुझे अपने उपयोग की अनुमति दें जिससे मैं अयोध्या के राजकुमार लक्ष्मण की चिकित्सा कर उनके प्राण बचा सकूँ।"
उसके पश्चात उन्होंने मृत संजीवनी बूटी के वृक्ष से कुछ पत्तियां लेकर औषधि का निर्माण किया। उसके बाद उस औषधि को अचेत पड़े लक्ष्मण के मुख में डाल दिया।
कुछ ही छांव में औषधि ने अपना चमत्कार दिखाया। लक्ष्मण की मूर्छा टूट गई। उन्होंने अपने नेत्र खोल दिए।
उन्हें सुरक्षित देखकर सभी प्रसन्न हो गए।
लक्ष्मण उठकर खड़े हो गए। इंद्रजीत का नाम लेकर चिल्लाने लगे,
"कहाँ है वह दुष्ट। उसने छल से मुझ पर शक्ति का प्रहार किया था। अब मैं उसे जीवित नहीं छोडू़ँगा।"
राम ने उन्हें समझाया कि वह युद्धभूमि में नहीं हैं। अभी कुछ क्षणों पहले ही वह एक भयानक विपदा से उबरे हैं। उन्होंने हनुमान की तरफ कृतज्ञ भाव से देखकर कहा,
"हनुमान ने एक बार फिर हमें संकट से उबारा है।"
सभी हनुमान की भूरि भूरि प्रशंसा कर रहे थे।