मानस के राम
भाग 47
लक्ष्मण को शक्ति लगना
लक्ष्मण इंद्रजीत का सामना करने युद्धभूमि में पहुँचे। इंद्रजीत ने कहा,
"नागपाश के बंधन से मुक्त हो गए किंतु आज मैं तुम्हें मृत्यु की गोद में सुलाकर ही जाऊँगा।"
लक्ष्मण ने कहा,
"शब्दों के बाण नहीं वास्तविक बाण चलाओ। मैं भी अब तुम्हें दंड देकर ही यहाँ से जाऊँगा।"
एक बार फिर दोनों के बीच भयंकर युद्ध होने लगा। लेकिन कुछ ही देर में इंद्रजीत माया का प्रयोग करने लगा। वह अदृश्य हो गया। आकाश में जाकर बाणों की वर्षा करने लगा। वह कभी एक दिशा से बाण चलाता तो कभी दूसरी दिशा से। लक्ष्मण बड़ी वीरता से उसके बाणों का सामना कर रहे थे। किंतु इस प्रकार इंद्रजीत का सामना करना अत्यंत कठिन हो रहा था।
लक्ष्मण राम के पास आए और उनसे सारी बात कहने के बाद बोले,
"भ्राताश्री इंद्रजीत अपनी माया का प्रयोग करके युद्ध कर रहा है। उसका सामना करना बहुत कठिन हो रहा है। आप आज्ञा दीजिए कि मैं ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कर उसे उसकी दुष्टता का दंड दूँ।"
राम ने कहा,
"अनुज लक्ष्मण शास्त्रों में कहा गया है कि ब्रह्मास्त्र का प्रयोग अत्यंत घातक हो सकता है। अतः जब तक अत्यंत आवश्यक ना हो इसका प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए।"
राम की बात मानकर लक्ष्मण वापस युद्धभूमि में जाकर इंद्रजीत का सामना करने लगे।
इंद्रजीत अपनी माया का प्रयोग करके भी लक्ष्मण को पराजित नहीं कर पा रहा था। किंतु वह किसी भी मूल्य पर लक्ष्मण को पराजित करना चाहता था। अतः उसने बिना किसी संकोच के उन पर ब्रह्म शक्ति चला दी।
ब्रह्म शक्ति लगते ही लक्ष्मण मूर्छित होकर गिर पड़े। अपनी विजय पर अट्टहास करता हुआ इंद्रजीत प्रकट हो गया। उसने अपने सैनिकों से कहा कि वह मूर्छित लक्ष्मण को उठाकर उसके रथ पर डाल दें। वह मूर्छित लक्ष्मण को अपने पिता के सामने प्रस्तुत करेगा। सैनिकों ने लक्ष्मण को भूमि से उठाने का प्रयास किया परंतु वह ऐसा करने में असमर्थ रहे।
सैनिकों के असफल रहने पर स्वयं इंद्रजीत ने प्रयास किया। पर अपनी पूरी शक्ति लगाकर भी लक्ष्मण को भूमि से नहीं उठा सका।
हनुमान आगे आकर बोले,
"तुम अपनी समस्त शक्ति लगाकर भी इन्हें नहीं ले जा सकते हो। अतः व्यर्थ प्रयास ना करो। जाओ यहाँ से।"
यह कहकर हनुमान ने जय श्रीराम का उद्घोष किया और लक्ष्मण को भूमि से उठकर अपने कंधे पर लादकर युद्धभूमि से ले गए।
राम का अपने भाई के लिए विलाप
हनुमान मूर्छित लक्ष्मण को लेकर राम के पास आए। लक्ष्मण को उस अवस्था में देखकर सारे शिविर में हाहाकार मच गया। सब हनुमान से पूँछ रहे थे कि लक्ष्मण को क्या हुआ है।
अपने अनुज लक्ष्मण को मूर्छित अवस्था में देखकर राम बहुत दुखी हुए। वह अपने अनुज लक्ष्मण के पास भूमि पर बैठ गए। उनकी आँखों से आंसू बह रहे थे। उन्होंने हनुमान से कहा,
"यह लक्ष्मण को क्या हो गया है पवनपुत्र। लक्ष्मण इस तरह अचेत क्यों पड़ा है ?"
हनुमान ने कहा,
"प्रभु उस मायावी असुर ने ना जाने कौन सी शक्ति का प्रयोग किया है। उस शक्ति के लगते ही लक्ष्मण जी मूर्छित हो गए।"
हनुमान की बात सुनकर राम ने विभीषण से कहा,
"विभीषण जी इंद्रजीत ने मेरे अनुज पर किस शक्ति का प्रयोग किया है ?"
"इंद्रजीत ने कठिन तप करके प्राणघातिनी शक्ति प्राप्त की है। जब वह लक्ष्मण जी को हरा नहीं सका तो उसने इस घातक शक्ति का प्रयोग किया है। परंतु यह बहुत भयंकर शक्ति है। इसके लगने के बाद प्राणी का बचना असंभव है।"
विभीषण की बात सुनकर राम को गहरा आघात लगा। वह विलाप करते हुए बोले,
"अब अयोध्या लौटकर मैं माता कौशल्या को क्या उत्तर दूँगा। वन आते समय जब मैं माता से आज्ञा लेने गया था तब उन्होंने कहा था कि लक्ष्मण का ध्यान रखना। पर मैं अपने अनुज की रक्षा नहीं कर सका"
सब उन्हें समझाने का प्रयास करते हैं। पर राम अपने भाई को उस अवस्था में देखकर अधीर हो रहे थे। उन्होंने कहा,
"माता सुमित्रा ने लक्ष्मण को मेरी और जानकी की सेवा करने के लिए भेजा था। लक्ष्मण की पत्नी उर्मिला इतने वर्षों से एक तपस्विनी की भांति अपने पति के आने की प्रतीक्षा कर रही है। जब मैं लक्ष्मण को बिना लिए जाऊँगा तो वह मुझसे प्रश्न करेगी कि उसके पति को साथ लेकर क्यों नहीं आया ? तब उसके इस प्रश्न का क्या उत्तर दूँगा। ना तो मैं जानकी की रक्षा कर सका और ना ही अपने अनुज की। अब मैं लौटकर अयोध्या वासियों को क्या मुंह दिखाऊँगा।"
विभीषण ने उन्हें शांत करते हुए कहा,
"प्रभु आप इस प्रकार व्यथित ना हों। लंका के राजवैद्य सुषेण से मंत्रणा की जाए तो वह संभवतः कोई उपाय बता सकते हैं। परंतु उन्हें ला पाना असंभव है।"
यह बात सुनकर हनुमान आगे आकर बोले,
"मैं लंका जाकर स्वयं सुषेण वैद्य को लेकर आऊँगा। आप बताइए कि लंका में उनका निवास कहाँ है ?"
"लंका के उत्तर पश्चिम द्वार के मध्य भाग में वनस्पतियों का एक उपवन है। वहीं वैद्यराज का भवन है।"
राम की आज्ञा पाकर हनुमान सुषेण वैद्य को लाने लंका चले गए।
लंका में एक बार फिर प्रसन्नता का माहौल था। रावण बहुत प्रसन्न था कि अब राम के छोटे भाई लक्ष्मण की मृत्यु अब तय है।
सुषेण वैद्य द्वारा संजीवनी बूटी मंगाना
हनुमान एक बार फिर लघु रूप धारण कर लंका नगरी पहुँचे। नगर के रक्षकों की दृष्टि से बचते हुए वह सुषेण वैद्य के भवन पहुँचे। उस समय सुषेण वैद्य अपने भवन में बैठे किसी ग्रंथ के अध्ययन में व्यस्त थे। उनके समक्ष प्रस्तुत होकर हनुमान ने कहा,
"आप वैद्यराज सुषेण हैं ?"
"हाँ.. परंतु तुम कौन हो ?"
हनुमान ने कहा,
"मैं प्रभु राम का सेवक हूँ। उनके अनुज लक्ष्मण के उपचार हेतु आपको लेने आया हूँ।"
हनुमान की बहुत सुनकर सुषेण वैद्य ने कहा,
"कदापि नहीं. मैं शत्रुपक्ष के किसी भी व्यक्ति का उपचार नहीं करूँगा।"
हनुमान जानते थे कि उन्हें मनाकर ले जाना आसान नहीं है। वह नहीं चाहते थे कि सुषेण वैद्य रक्षकों को बुलाएं। अतः उन्होंने बिना कुछ कहे सुषेण वैद्य का भवन उठा लिया और आकाश मार्ग से अपने शिविर की तरफ चल दिए।
सुषेण वैद्य को जब पता चला कि उन्हें भवन सहित आकाश मार्ग से अपहरण कर ले जाया जा रहा है तो वह अपनी रक्षा के लिए रक्षकों को सहायता के लिए पुकारने लगे। रक्षकों ने देखा कि एक वानर सुषेण वैद्य को भवन सहित उठकर लिए जा रहा है। उन्होंने जाकर रावण को इस बात की सूचना दी।
सारी बात जानकर रावण बहुत क्रोधित हुआ। उसने आदेश दिया कि उसके गुप्तचर शुक को बुलवाकर आदेश दिया कि वह जाकर सच्चाई का पता करे।
सुषेण वैद्य इस तरह अपहरण करके लाए जाने से बहुत क्रोधित हुए। उन्होंने लक्ष्मण का उपचार करने से मना कर दिया। उन्होंने कहा,
"मैं लंका का राजवैद्य हूँ। शत्रुपक्ष का उपचार कर मैं राजद्रोह नहीं करूँगा।"
इस पर विभीषण ने हाथ जोड़कर कहा,
"सुषेण जी आप तो एक महान वैद्य हैं। आपके पास विद्या है जिससे मरते हुए व्यक्ति को भी प्राण दान मिल सकता है। आपके लिए रोगी का उपचार करना ही सबसे बड़ा धर्म है। फिर चाहे वह कोई भी हो। अतः आप उदारता दिखाएं और अचेत पड़े लक्ष्मण जी के प्राणों की रक्षा करें।"
"शत्रुपक्ष की सहायता करना राजद्रोह है।"
राम ने भी प्रार्थना करते हुए कहा,
"हे वैद्यराज मेरा अनुज लक्ष्मण मुझे प्राणों से भी अधिक प्रिय है। मेरा अनुज अपने जीवन के लिए संघर्ष कर रहा है। आप निर्णय लें कि मेरे अनुज को जीवन दान देकर एक वैद्य के धर्म का पालन करेंगे या लंका का निवासी होने के धर्म का पालन। यह निर्णय आपका है। परंतु मैं पूर्ण विश्वास के साथ अपने अनुज को उपचार के लिए आपको सौंपता हूँ।"
राम की प्रार्थना सुनकर विभीषण सोच में पड़ गए। उनके मन में दुविधा थी कि वह क्या निर्णय लें। एक वैद्य होने के नाते उनके सामने अचेत पड़े लक्ष्मण का उपचार करना उनका कर्तव्य था। परंतु यह भी सत्य था कि लक्ष्मण लंका के शत्रु थे। यदि वह उनका उपचार ना करते तो चिकित्सक के धर्म की अवहेलना करते। लक्ष्मण का उपचार कर वह शत्रुपक्ष की सहायता करते।
उन्हें दुविधा में देखकर हनुमान ने कहा,
"वैद्यराज आप किसी प्रकार की दुविधा में ना रहें। चिकित्सक के लिए रोगी ना शत्रु होता है और ना ही मित्र। आप एक चिकित्सक के रूप में सोचकर अपना निर्णय करें।"
कुछ देर सोचने के बाद सुषेण वैद्य ने कहा,
"मैंने अपना निर्णय कर लिया है। मैं एक चिकित्सक का कर्तव्य निभाऊँगा।"
सुषेण वैद्य ने यह कहकर अचेत पड़े लक्ष्मण का निरीक्षण किया। कुछ देर निरीक्षण करने के बाद उन्होंने कहा,
"स्थिति बहुत गंभीर है। मेरे पास जो जड़ी बूटियां हैं वह इस परिस्थिति में काम नहीं आएंगी।"
यह बात सुनकर राम ने चिंतित होकर कहा,
"क्या इसका कोई उपाय नहीं है ?"
सुषेण वैद्य ने कहा,
"उपाय तो है परंतु बहुत कठिन है।"
राम ने कहा,
"क्या उपाय है ?"
"सूर्योदय से पूर्व हिमालय से संजीवनी बूटी लेकर आना है। यह अत्यंत कठिन काम है।"
हनुमान ने कहा,
"मैं अपने आराध्य प्रभु राम के लिए कोई भी चुनौती स्वीकार करने को तैयार हूँ। अतः आप विस्तार से बताएं।"
हनुमान के उत्साह को देखकर सुषेण वैद्य ने कहा,
"यदि आप इस आसाध्य कार्य को करना चाहते हैं तो ठीक है। कैलाश और ऋषभ पर्वत के बीच द्रोणागिरी पर्वत है। वहाँ कई प्रकार की चमत्कारी बूटियां हैं। उसमें से चार औषधीय बूटियां लानी हैं। जिनमें से दिव्य प्रकाश प्रस्फुटित होता है। । उनके नाम विषल्यकारिणी, संधानी, स्वर्णकारिणी और मृत संजीवनी हैं। लक्ष्मण के प्राण बचाने में मृत संजीवनी ही काम आ सकती है। परंतु सूर्योदय से पहले ही उस औषधि का आना अत्यंत आवश्यक है।"
हनुमान ने राम से कहा,
"प्रभु मुझे आज्ञा दीजिए।"
राम ने कहा,
"परंतु यह अत्यंत कठिन काम है हनुमान।"
"प्रभु काम चाहे कितना कठिन हो पर साहस से सब कुछ संभव है। आप मुझे आशीर्वाद दें कि मैं सफल हो सकूँ।"
राम ने कहा,
"तुम कभी भी असफल नहीं हो सकते हो हनुमान। जाओ और विजई होकर लौटो।"
हनुमान के चलने से पहले सुषेण वैद्य ने कहा,
"हनुमान संजीवनी की पहचान है कि उसमें से एक दिव्य ज्योति निकलती है। यह सभी औषधियां समुद्र मंथन के समय प्राप्त हुई थीं। देवताओं ने इन्हें हिमालय पर्वत पर सुरक्षित रखा है। देवताओं के संरक्षण में होने के कारण जब तुम वहाँ पहुँचोगे तो यह सब औषधियां विलुप्त हो जाएंगी। अतः तुम्हें उनके संरक्षक देवताओं से प्रार्थना कर उन्हें अपने आने का प्रयोजन बताना होगा। तुम्हारा प्रयोजन धर्म पूर्ण है। इसलिए वह तुम्हारी सहायता करेंगे।"
राम से सफलता का आशीर्वाद प्राप्त कर व सुषेण वैद्य से मार्गदर्शन प्राप्त कर हनुमान संजीवनी लाने के लिए चले गए।