मानस के राम
भाग 45
धन्यमालिनी का शोक करना
अपने पुत्रों की मृत्यु का समाचार सुनकर रावण दुखी अवस्था में अपने महल में बैठा था। जो उत्साह उसके मन में जागा था वह अपने पत्रों की मृत्यु का समाचार सुनकर फिर से समाप्त हो गया था।
रावण भीतर ही भीतर छटपटा रहा था। अपने कुटुंबियों एवं अपनी जाति का विनाश अपनी आंँखों के सामने होते देखना उसके लिए तनिक भी सरल नहीं था। परंतु अब वह ऐसे मोड़ पर आकर खड़ा था जहाँ से पीछे मुड़कर नहीं जाया जा सकता था। आगे का मार्ग अंधकार में लग रहा था। लेकिन उस पर आगे बढ़ना अब उसकी विवशता हो गई थी।
रावण सर झुकाए विचारों में डूबा हुआ बैठा था। तभी उसके कानों में अपनी रानी अतिकाय की माँ धन्यमालिनी के रुदन का स्वर सुनाई पड़ा। वह महारानी मंदोदरी के साथ रावण के सामने अपने हृदय की वेदना प्रकट करने आई थी। धन्यमालिनी ने रोते हुए कहा,
"हे नाथ आप तो ऐश्वर्य और वैभव से परिपूर्ण लंका के राजा हैं। आप जैसे प्रबल प्रतापी राजा की रानी होते हुए भी आज मैं निर्धन हो गई हूंँ। मेरे पुत्र का वध होने से मेरी गोद सूनी हो गई है। क्या आप मुझे मेरा पुत्र लौटा सकेंगे ?"
अपनी रानी के मुख से इस प्रकार की बात सुनकर रावण और भी अधिक व्यथित हो गया। उसे सांत्वना देते हुए बोला,
"इस प्रकार विलाप ना करो। अतिकाय मेरा भी पुत्र था। अपने पुत्र को खोने का जितना दुख तुम्हें है उतना ही मुझे भी है। अपने पुत्रों की मृत्यु का समाचार सुनकर मेरा कलेजा फटा जा रहा है।"
"महाराज आपको अपने पुत्रों के बलिदान से कोई अंतर नहीं पड़ता है। आपके हृदय में तो बस अब अपनी कामवासना को पूरा करने की इच्छा ही बाकी है। उसकी पूर्ति के लिए ही आपने अपने कुल और अपनी जाति को इस संकट में डाल दिया है।"
धन्यमालिनी का यह आरोप रावण के दिल में कटार की तरह उतर गया। उसी समय रावण के महल में उसके पुत्र इंद्रजीत ने प्रवेश किया। उसके कानों में भी धन्यमालिनी का रुदन सुनाई पड़ा। उसने धन्यमालिनी को समझाते हुए कहा,
"माता मैं आपके हृदय की वेदना को समझता हूंँ। मुझे भी बहुत कष्ट हो रहा है मुझसे आयु में छोटे मेरे चार चार भाई वीरगति को प्राप्त हो गए। किंतु माता यह विपत्ति का समय है। विपत्ति में धैर्य बनाए रखना ही सबसे अच्छा होता है। आप इस प्रकार रुदन ना करें। आप लंका की महारानी हैं। आपको इस प्रकार रोते देखकर लंका के निवासियों का मनोबल भी टूट जाएगा।"
धन्यमालिनी का ह्रदय इस समय पीड़ा से दुख रहा था। उसे इंद्रजीत का इस प्रकार समझाना जरा भी अच्छा नहीं लगा। उसने क्रोध में कहा,
"लंका की महारानी एक माँ भी है। एक मांँ को अपने पुत्र की मृत्यु पर अश्रु बहाने का पूरा अधिकार है। तुम इतने कठोर ह्रदय कैसे हो सकते हो कि एक माता से अपने पुत्र के वियोग में अश्रु बहाने का अधिकार भी छीन लो।"
धन्यमालिनी की बात सुनकर इंद्रजीत ने कहा,
"महारानी और साधारण स्त्री में बहुत अंतर होता है माता। राज परिवार की स्त्री सिर्फ अपने लिए ही नहीं जीती है। उसे अपनी प्रजा का भी ध्यान रखना होता है। अतः एक महारानी होने के नाते आपको इस बात का ध्यान रखना पड़ेगा कि आपकी तरफ से ऐसा कोई भी कार्य ना हो जिससे प्रजा में भय का वातावरण उत्पन्न हो। यदि महारानी इस प्रकार विलाप करेंगी तो लंका की उन स्त्रियों पर क्या बीतेगी जिन्होंने भी अपने सुहाग या पुत्र रणभूमि में बलिदान कर दिए हैं।"
मंदोदरी ने इंद्रजीत से कहा,
"पुत्र जिस माता ने अपना पुत्र खोया है वह इन सब बातों को नहीं समझ सकती है। इस समय धन्यमालिनी पुत्र के वियोग में तड़प रही है।"
इंद्रजीत ने कहा,
"मातश्री आप तो पटरानी हैं। आप इस तरह की बात कैसे कर सकती हैं। लंका के लिए यह घोर विपत्ति का समय है। इस समय राज परिवार के प्रत्येक सदस्य का कर्तव्य है कि अपने आचरण से लंका के निवासियों का ढांढस बंधाए रखे। जो भी स्थिति है उसे बदला नहीं जा सकता है। अतः इस समय पिताश्री पर आक्षेप लगाकर उनके मनोबल को तोड़ने का प्रयास ना किया जाए। आपसे अनुरोध है कि आप माता धन्यमालिनी को यहांँ से ले जाएं और सांत्वना दें।"
मंदोदरी धन्यमालिनी को समझा बुझाकर ले गई। रावण गंभीर बना सिर नीचे किए हुए बैठा था। इंद्रजीत ने उससे कहा,
"पिताजी आप इस प्रकार निराश होकर ना बैठें। अब यह युद्ध राक्षस जाति के मान सम्मान का प्रश्न बन गया है। अतः अब किसी भी बात पर विचार करने की जगह इसे जीतने का प्रयास करना चाहिए। प्रश्न अब धर्म अधर्म का नहीं जीत का है। विजई पक्ष का हर दोष जीत के नीचे छुप जाता है। अब आप मुझे युद्धभूमि में जाने की आज्ञा दीजिए।"
इंद्रजीत की बात सुनकर रावण मौन रहा। इंद्रजीत ने कहा,
"महाराज जब भी मेरे रण जाने की बात आती है तो आप इस प्रकार विकसित क्यों हो जाते हैं। कहीं आपका पुत्र मोह तो इसके आड़े नहीं आता है। यदि ऐसा है तो इसे तुरंत त्याग दीजिए। या फिर ऐसा तो नहीं है कि आपको मेरी सामर्थ्य पर भरोसा नहीं।"
रावण ने कहा,
"तुम्हारे पराक्रम पर अविश्वास करने का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता है। तुमने तो देवताओं के साथ युद्ध करते समय मेरी पराजय को जय में बदल दिया था। इंद्र को पराजित कर तुम इंद्रजीत कहलाए। किंतु पुत्र तुम लंका के युवराज हो। लंका का भविष्य हो। मैं इस प्रकार तुम्हारे प्राणों को संकट में नहीं डाल सकता।"
"महाराज यदि मैं विपत्ति के इस समय में लंका के काम ना आ सकूँ तो मुझे युवराज बने रहने का अधिकार नहीं है। आप किसी प्रकार का संकोच ना करें। मुझे युद्धभूमि में जाने की आज्ञा दीजिए। मेरा ह्रदय मेरे कुटुंबी जनों की मृत्यु का प्रतिशोध लेने के लिए तड़प रहा है।"
"मैं तुम्हारे मन की उद्विग्नता को समझ रहा हूंँ। परंतु मेरे रहते हुए यदि तुम्हें कुछ हो गया तो लंका का भविष्य अंधकारमय हो जाएगा।"
"पिताश्री मेरे रहने या ना रहने से लंका के भविष्य पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। आप लंकापति हैं। आप पर लंका का भविष्य निर्भर है। पर यह समय वाद विवाद का नहीं है। अब लंका की रक्षा के लिए मेरे और आपके अतिरिक्त और कोई नहीं बचा है। इसलिए मेरी आपसे विनती है कि आप मुझे रणभूमि में जाने की आज्ञा दें।"
रावण इंद्रजीत के प्रस्ताव पर विचार करने लगा। इंद्रजीत ने कहा,
"महाराज अब अधिक सोचने विचारने की आवश्यकता नहीं है। मुझे आज्ञा दीजिए। कल मैं सूर्य उदय होने पर युद्धभूमि में जाऊंँगा और सूर्यवंशी राम तथा लक्ष्मण के जीवन का अंत करके ही लौटूंँगा।"
इंद्रजीत का विश्वास देखकर रावण आश्वस्त हो गया था कि इंद्रजीत विजई होगा। उसने आज्ञा देते हुए कहा,
"मैं तुम्हें जो तुम्हें में युद्धभूमि में जाने की आज्ञा देता हूँ। जाओ और राक्षस जाति का गौरव बढ़ाओ।"
अपने पिता से युद्ध में जाने की आज्ञा पाकर इंद्रजीत बहुत प्रसन्न हुआ।
इंद्रजीत का रण के लिए जाना
जब मंदोदरी को इस बात की सूचना मिली कि इंद्रजीत युद्धभूमि में जाने वाला है तो वह परेशान हो गई। अब तक राक्षस सेना को हानि ही हुई थी। लंका के बहुत से पराक्रमी योद्धा मारे गए थे। वह अब अपने पुत्र को खोना नहीं चाहती थी।
मंदोदरी को अपने पुत्र की शक्ति पर संदेह नहीं था। ना ही वह भीरु प्रवृत्ति की स्त्री थी। वह मय दानव की पुत्री थी। लंकापति रावण की पटरानी थी। अपने पति और पुत्र का युद्ध में जाना उसके लिए कोई नई बात नहीं थी। पहले भी कई बार वह अपने पुत्र को रण में भेज चुकी थी। किंतु इस बार उसका ह्रदय व्याकुल था। वह जानती थी कि इस बार उसके पति ने एक सती नारी का अपहरण कर अधर्म किया है। इसलिए वह अपने पुत्र की सुरक्षा को लेकर चिंतित थी।
वानर सेना ने राक्षसों के कई वीर योद्धाओं को मार डाला था। यह संकेत था कि अहंकारवश रावण जिन्हें साधारण वानर भालू कहता था वह वास्तव में साधारण नहीं थे। मंदोदरी परेशान थी कि उसकी आँखों के सामने उसके वंश नाश हो रहा है। उसने अपने पति रावण को समझाने का कितना प्रयास किया था। पर कोई लाभ नहीं हुआ था।
मंदोदरी को कुछ नहीं सूझा तो वह अपनी पुत्रवधू इंद्रजीत की पत्नी सुलोचना के पास गई। उसने अपने मन की आशंका उसे बताई। मंदोदरी को चिंतित देखकर सुलोचना ने कहा,
"आप चिंता ना करें। मेरे पति इंद्रजीत एक वीर योद्धा हैं। युद्ध आरंभ हो चुका है। अब वीरोचित कार्य यही है कि निडरतापूर्वक युद्ध किया जाए। अतः हमें भी अब युद्ध में जाते योद्धा को निरुत्साहित किए बिना उन्हें खुशी खुशी पहले की तरह युद्ध में भेजना चाहिए। जिससे उनका उत्साह बना रहे।"
अपनी पुत्रवधू सुलोचना की बात सुनकर मंदोदरी कुछ शांत हुई।
युद्धभूमि में जाने से पहले इंद्रजीत ने मंदोदरी से विजय का आशीर्वाद प्राप्त किया और फिर देवी निकुंबला की पूजा करने शस्त्रागार में गया।
इंद्रजीत ने देवी निकुंबला को प्रसन्न कर दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य से दीक्षा लेकर कई प्रकार की सिद्धियां प्राप्त की थीं। महादेव को प्रसन्न कर उसने एक दिव्य रथ, कई दिव्यास्त्र और तामसी माया प्राप्त की थी। युद्ध में जाने से पहले वह देवी को प्रसन्न कर उनका आशीर्वाद प्राप्त करना चाहता था।
निकुंबला देवी की पूजा करने के बाद इंद्रजीत युद्धभूमि के लिए निकलने से पहले अपनी पत्नी सुलोचना के सामने गया। सुलोचना एक वीर स्त्री थी। उसने इंद्रजीत को विजय तिलक लगाकर हंसते हुए रणभूमि में भेजा।
इधर राम के पक्ष में विचार विमर्श हो रहा था कि अब युद्धभूमि में कौन आएगा। विभीषण के गुप्तचरों ने आकर बताया कि रावण का पुत्र इंद्रजीत युद्धभूमि में आ रहा है। विभीषण ने बताया कि इंद्रजीत एक वीर योद्धा होने के साथ साथ कई मायावी शक्तियों का स्वामी है। अतः उसके साथ युद्ध करते समय ध्यान रखना पड़ेगा।
युद्धभूमि में आते ही इंद्रजीत ने अपने धनुष से टंकार कर अपने आने की सूचना की। उस टंकार से भीषण गर्जना हुई। विभीषण ने कहा,
"यह गर्जना मेघनाद के धनुष की है।"
लक्ष्मण ने कहा,
"मेघनाद क्या इंद्रजीत का ही नाम है ?"
"हाँ...जन्म के समय उसका रुदन मेघ की गर्जना के समान था। अतः उसका नाम मेघनाद पड़ा। इंद्र पर विजय प्राप्त कर उसका नाम इंद्रजीत पड़ा।"
युद्धभूमि में इंद्रजीत का सामना सबसे पहले सुग्रीव से हुआ। किंतु सुग्रीव अधिक समय तक उसके सामने टिक नहीं सके। उसके बाद अंगद सामने आया। पर वह भी इंद्रजीत की शक्ति का सामना नहीं कर सका।
इंद्रजीत ने ललकारा,
"तुम लोग व्यर्थ ही अपनी शक्ति बेकार कर रहे हो। जाकर मेरे भाई अतिकाय के हंता लक्ष्मण से कहो कि आकर मेरा सामना करे।"
उसकी ललकार सुनकर हनुमान ने एक शिला उठाकर उसकी तरफ फेंका। इंद्रजीत ने अपने बाण से उसे चूर चूर कर दिया।
यह स्पष्ट हो गया था कि इंद्रजीत पर विजय प्राप्त करना आसान नहीं होगा।
इंद्रजीत की ललकार लक्ष्मण तक पहुँची तो वह क्रोध में भड़क उठे। राम ने उन्हें समझाया कि इंद्रजीत से युद्ध करते समय वह अपने क्रोध पर काबू रखते हुए विवेक से काम लें।