मानस के राम
भाग 39अंगद का शक्ति प्रदर्शन
अंगद ने अपना पांव एक खंभे की तरह भूमि पर जमा रखा था। उसकी चुनौती से सारे दरबार में खलबली मच गई थी। अंगद ने पूरे आत्मविश्वास के साथ वहाँ उपस्थित लोगों को चुनौती दी थी कि यदि कोई भी उसके पांव को हिला देगा तो श्री राम अपनी सेना के साथ वापस चले जाएंगे। उसकी चुनौती सुनकर रावण ने कहा,
"वानर अपनी वाचालता में तूने बहुत बड़ी बात कह दी है। तेरे इस पैर को हिलाने में मेरे साधारण सैनिक को भी एक क्षण नहीं लगेगा। फिर भी तुमने दरबार में बैठे लोगों को चुनौती दी है। तुम्हारी चुनौती स्वीकार है।"
रावण के दरबार में उपस्थित वीरों में से एक-एक करके उठकर आने लगे। सभी अपनी शक्ति लगाकर अंगद के पांव को हिलाने की कोशिश करते। किंतु अंगद के पांव को तनिक भी नहीं हिल रहा था। अंगद का पांव इस तरह भूमि से चिपका हुआ था जैसे किसी वट वृक्ष ने अपनी जड़ें जमा रखी हों। सभी आते और अपनी पूरी शक्ति लगाकर भी अंगद का पांव हिला नहीं पाते। सभी को लज्जित होकर वापस जाना पड़ रहा था।
अपने दरबार में उपस्थित वीरों का यह हाल देखकर रावण क्रोधित हो रहा था। उसने अपने पुत्र इंद्रजीत की तरफ देखा। इंद्रजीत अपने आसन से उठा। अपने पिता रावण को प्रणाम किया। उसके पश्चात अंगद के पास गया। उसके मन में अहंकार था। वह सोच रहा था कि मैंने तो देवराज इंद्र को भी परास्त किया है। इस वानर का पांव वह इस प्रकार भूमि से उखाड़ देगा जैसे दूब उखड़ी जाती है।
इंद्रजीत ने अभिमान से अंगद की तरफ देखा। उसके पश्चात उसके सामने भूमि पर बैठ गया। उसके पैर को अपने हाथ से पकड़ा और कस कर खींचा। किंतु अंगद का पांव टस से मस नहीं हुआ। इंद्रजीत ने पहले से भी अधिक शक्ति लगाकर अंगद का पांव खींचने का प्रयास किया। परंतु इस बार भी वही परिणाम हुआ। अपनी इस पराजय पर इंद्रजीत लज्जित हुआ। उसने एक बार चारों तरफ नजर दौड़ाकर दरबार में बैठे योद्धाओं को देखा। सभी लज्जा से दृष्टि नीचे किए बैठे थे। उसने अपने पिता लंकापति रावण के चेहरे पर दृष्टि डाली। रावण के चेहरे पर लज्जा और क्रोध के मिले जुले भाव थे।
इंद्रजीत ने पुनः प्रयास किया। उसने अपने दोनों हाथों से अंगद का पांव पकड़कर पूरी ताकत से खींचने का प्रयास किया। किंतु इस बार भी उसके हाथ पराजय ही आई। इंद्रजीत स्वयं भी क्रोध और लज्जा से भरा हुआ था। वह किसी भी तरह से अंगद के पैर को हिलाकर जीतना चाहता था। उसने अनेक तरीके से अंगद के पैर को हिलाने की कोशिश की। अपने हर प्रयत्न में वह असफल रहा।
उसने अपनी सारी शक्ति का उपयोग अंगद के पांव को हिलाने में कर दिया था। वह थक कर चूर हो गया था। उसने अधिक शक्ति नहीं बची थी। अंत में वह भी पराजित होकर लज्जा में सर झुकाए अपने आसन पर जाकर बैठ गया।
अंगद अभी भी अचल उसी मुद्रा में खड़ा था। रावण ने अपने दरबार में सर झुकाए बैठे वीरों पर दृष्टि डाली। उसके दरबार में उपस्थित महाबलशाली योद्धा जिन पर उसे अभिमान था एक साधारण वानर से पराजित होकर अपनी नजरें झुकाए बैठे थे। रावण के पास अब इस बात के अतिरिक्त अब और कोई उपाय नहीं था कि वह स्वयं उठकर अंगद का पांव जमीन से उखाड़ दे।
रावण अपने सिंहासन से उठा और अंगद के पास आया। अंगद जानता था कि वह आसानी से उसका पांव भूमि से उखाड़ देगा। रावण जैसे ही उसके पैरों की तरफ बढ़ा अंगद ने कहा,
"अब तो तुम्हारा अभिमान चूर चूर हो गया है। इसलिए मेरे पैर पड़ने से अच्छा है कि मेरे स्वामी श्री राम के चरणों में जाकर क्षमा मांग लो। अपने कुल को विनाश से बचा लो।"
अंगद की यह बात सुनकर रावण और भी अधिक लज्जित हुआ। अंगद ने भूमि पर जमा अपना पांव हटाकर कहा,
"अब मैं जा रहा हूंँ। यदि मेरे इस शक्ति प्रदर्शन से तुम्हारे मस्तिष्क में कुछ भी समझ आया हो तो कल सूर्योदय से पूर्व सीता माता को लेकर श्री राम के चरणों में आ जाना। अन्यथा कल श्री राम की सेना लंका पर आक्रमण कर देगी। यह समझ लो कि मेरा शक्ति प्रदर्शन वानर सेना के बड़े-बड़े वीरों की सामर्थ्य का अंश मात्र भी नहीं है।"
रावण ने अपने पुत्र इंद्रजीत को आदेश दिया,
"पकड़ लो इस वाचाल वानर को। यह है यहांँ से जीवित ना जा पाए।"
इंद्रजीत अपने सैनिकों के साथ अंगद को पकड़ने के लिए आगे बढ़ा। अंगद ने जय श्री राम का नारा लगाया और वहांँ से छलांग लगाकर उड़ गया। वह वापस राम के पास आया और उन्हें सारी बात बता दी।
माल्यवंत का रावण को पुनः समझाना
अंगद वाले प्रकरण के बाद माल्यवंत ने एक बार फिर रावण को समझाने का प्रयास किया। उन्होंने कहा,
"महाराज रावण मैं आपका नाना लगता हूँ। अतः आज एक मंत्री के तौर पर नहीं बल्कि परिवार के एक वरिष्ठ सदस्य के तौर पर समझा रहा हूंँ। आज जो भी हुआ उसने फिर स्पष्ट कर दिया कि राम और उसकी वानर सेना साधारण नहीं हैं। आपको एक बहुत अच्छा अवसर मिला है। राम की तरफ से शांति का प्रस्ताव आया है। समझदारी तो यही है कि उस प्रस्ताव को स्वीकार कर व्यर्थ में होने वाले युद्ध को टाला जाए।"
रावण ने कहा,
"नाना जी आप कह रहे हैं कि आप एक मेरे बड़े होने के नाते मुझे समझा रहे हैं। परंतु आप यह मुझे कैसी सीख दे रहे हैं। आप मुझे वह करने को कह रहे हैं जिससे मेरी कीर्ति मिट्टी में मिल जाएगी। मैं यदि आपका कहा मान लूँ तो जग हंसाई के अलावा मुझे कुछ भी नहीं प्राप्त होगा। लोग मुझे डरपोक और कायर कहेंगे। डरपोक और कायर कहे जाने से तो अच्छा है कि मैं युद्ध में मारा जाऊंँ।"
माल्यवंत ने कहा,
"पुत्र अपकीर्ति तो तुमने पहले ही अपने नाम कर ली है। अधर्म कभी भी सुयश नहीं लाता है। सीता जैसी सती नारी का हरण करके तुमने अपने लिए अपयश तथा अपने कुल के लिए सर्वनाश को नियंत्रित किया है। भगवान शिव तथा ब्रह्मा जी जिन्होंने तुम्हें तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न होकर वरदान दिया था वह भी आज तुम्हारे इस कुकृत्य का समर्थन नहीं करेंगे। यदि तुम अपने कुल का विनाश रोकना चाहते हो तो राम द्वारा भेजे गए शांति प्रस्ताव को स्वीकार कर लो।"
रावण पहले ही अहंकार के वश आने वाली विपत्ति को नहीं देख पा रहा था। अंगद ने उससे जो कुछ भी कहा उससे वह और अधिक चिढ़ गया था। उसने कहा,
"नाना जी मेरे कुल का विनाश वह साधारण नर और वानर करेंगे। इससे अधिक हास्यास्पद कौन सी बात हो सकती है।"
माल्यवंत जानते थे कि रावण की मति पूरी तरह भ्रष्ट हो चुकी है। किंतु उसका हितैषी होने के नाते वह उसे आने वाली विपत्ति से सावधान करना चाहते थे। उन्होंने कहा,
"तुम जिन्हें साधारण वानर कह रहे हो उनमें अधिकांश वानर देवताओं के अंश हैं। श्वेत और ज्योतिर्मुख नामक वानर सूर्य के अंश हैं। हेमकूट नामक वानर की उत्पत्ति वरुण देव से हुई है। नल विश्वकर्मा का, दुर्धर वसु का, नील अग्नि देव का पुत्र है। आपके दरबार में उत्पात मचा कर गया अंगद देवराज इंद्र का नाती है। रीछ राज जांबवंत ब्रह्मा जी के पुत्र हैं। जांबवंत ने देवासुर संग्राम में देवराज इंद्र की बहुत सहायता की थी। समुद्र मंथन के समय भी जांबवंत उपस्थित थे।"
वानर सेना के बारे में जानकार भी रावण उसी प्रकार अभिमान में चूर था। माल्यवंत ने आगे कहा,
"इतना सब कुछ जानने के बाद तो यही उचित होगा कि युद्ध को टाल दिया जाए। वैसे भी शांति का प्रस्ताव प्रतिपक्ष से आया है। अतः इस अवसर का लाभ उठाकर शांति प्रस्ताव को स्वीकार कर लीजिए।"
रावण ने कहा,
"नाना जी आपने एक हितैषी के रूप में मुझे सलाह दी है। अब मेरी भी सलाह मानिए आप अब दूसरों की चिंता करना छोड़कर एक सुखमय जीवन व्यतीत कीजिए। राजनीति के मामलों में पड़ने की अब आपको आवश्यकता नहीं रही।"
मालंयवंत ने कहा,
"जब व्यक्ति का विनाश उसके नजदीक होता है तो वह अपने हित की बात भी नहीं सुनता है। तुम्हारी भी यही दशा हो गई है। अब तुम्हारे ऊपर है चाहो तो अपनी गलतियों का पश्चाताप कर शांति प्रस्ताव स्वीकार कर लो। अन्यथा जो होना है वही होगा।"
माल्यवंत अपना अंतिम प्रयास करके चले गए।
युद्ध से पहले की रात
वानर सेना की छावनी में एक सभा में राम और लक्ष्मण अंगद, सुग्रीव, विभीषण, हनुमान और जांबवंत के साथ उपस्थित थे। राम ने कहा,
"महाराज सुग्रीव के जो गुप्तचर लंका में हैं उन्होंने संदेश दिया है कि रावण किसी की भी बात नहीं सुन रहा है। उसके नाना माल्यवंत, ससुर मय दानव और माता कैकसी ने उसे समझाया कि वह शांति प्रस्ताव स्वीकार कर युद्ध को टाल दे। परंतु अपनी हठधर्मिता में रावण किसी की भी नहीं सुन रहा है।"
अंगद ने कहा,
"प्रभु रावण बहुत अहंकारी है। वह किसी की भी बात नहीं सुनेगा मैंने उसे आपका संदेश देते हुए हर तरह से समझाया था। परंतु मेरा प्रयास विफल रहा।"
राम ने मृदु मुस्कान के साथ अंगद को देखकर कहा,
"अंगद मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ। तुमने एक दूत के काम को बहुत अच्छी तरह से किया है।"
लक्ष्मण ने कहा,
"युवराज अंगद जिस तरह से तुमने रावण के दरबार में अपनी शक्ति का प्रदर्शन किया वह सबसे अधिक प्रशंसनीय है। तुमने अपने उस कृत्य से रावण का दर्प चूर कर दिया।"
अंगद ने कहा,
"उसका दर्प तो माता सीता ने ही चूर कर दिया जब उसके समस्त अत्याचार सहकर भी उन्होंने हार नहीं मानी। परंतु वह बहुत ही हठी है। अपने हठ में वह सामने आती विपत्ति को भी नहीं देख रहा है।"
जांबवंत ने कहा,
"तुमने बहुत अच्छी बात कही अंगद। परंतु अब उसके अहंकार के समूल नाश का समय आ गया है।"
राम ने कहा,
"युवराज अंगद उसे कल सूर्योदय से पहले तक का समय दे आए हैं। यदि कल सूर्योदय से पहले वह हमारी शरण में नहीं आता है तो फिर युद्ध ही अंतिम विकल्प है।"
रावण विचारों में मग्न अपने अंतःपुर में बैठा था। आज जो भी घटनाएं घटीं उनके बारे में सोचते हुए उसके ह्रदय में कोलाहल मचा हुआ था। हर कोई उसे एक ही सलाह दे रहा था कि सीता को उसके पति राम को वापस कर उससे क्षमा मांग ले। परंतु उसका ह्रदय इस बात को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं था। उसके लिए यह कृत्य कायरता पूर्ण था। उसकी भुजाओं के बल से दसों दिशाएं कांपती थीं। युद्ध करते हुए मृत्यु तो उसे स्वीकार थी परंतु शांति प्रस्ताव स्वीकार नहीं था।
उसकी माँ, नाना और ससुर मय दानव सभी ने उससे शांति प्रस्ताव स्वीकार करने की ही बात कही थी। वह कुछ शांति पाने के लिए अपनी पटरानी मंदोदरी के पास गया था। मंदोदरी ने भी उससे वही बात कही। मंदोदरी का कहना था कि एक पत्नी और एक माँ होने के नाते वह अपने पति और संतानों को उस युद्ध की विभीषिका में नहीं झोंकना चाहती है जिसे टाला जा सकता है।
रावण ने तय कर लिया था कि वह युद्ध ही करेगा। चाहें परिणाम कुछ भी हो।
त्रिजटा अशोक वाटिका में सीता को हर महत्वपूर्ण जानकारी देती थी। उसने सीता को बताया कि राम ने अंतिम प्रयास करते हुए अंगद नाम के एक दूत को शांति प्रस्ताव देकर भेजा था। परंतु रावण ने उसे ठुकरा दिया। अब शीघ्र ही राम लंका पर आक्रमण उसे जीतकर सीता को वहाँ से ले जाएंगे।
सीता उस क्षण की प्रतीक्षा करने लगीं जब रावण की कैद से मुक्त हो पाएंगी।
महाराज सुग्रीव के दूत ने अंतिम समाचार सुनाया कि रावण अपने शयन कक्ष में चला गया है।
इसका अर्थ था कि अब युद्ध तय था।