Apne-Apne Karagruh - 24 in Hindi Moral Stories by Sudha Adesh books and stories PDF | अपने-अपने कारागृह - 24

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अपने-अपने कारागृह - 24

अपने-अपने कारागृह-24

उषा ' परंपरा ' पहुँची ही थी कि एक कमरे से कराहने की आवाज सुनकर वह उस कमरे की ओर गई । परंपरा के सभी लोग रीता जी के चारों ओर घेरा बनाकर खड़े थे । वह कराह रही थीं जबकि रंजना फोन पर किसी से बात कर रही थी । उषा ने सीमा से कारण पूछा तो उसने कहा, ' रीता जी तीन दिन से बुखार से तड़प रही हैं किंतु वह अस्पताल नहीं जाना चाहतीं ।'

' पर क्यों ?' उषा ने पूछा ।

'वह कह रही हैं, मुझे मर जाने दो । मैं जीना नहीं चाहती ।' सीमा ने विवश नजरों से उसे देखते हुए कहा ।

' प्लीज आप लोग इन्हें ऐसे घेरकर मत खड़े होइए ।' रंजना ने सबसे आग्रह करते हुए, उनके चारों ओर बने घेरे को चीरते हुए रीता जी के पास जाकर कहा,' आंटी मैंने डॉक्टर श्रीवास्तव को फोन कर दिया है । वह एंबुलेंस भेज रहे हैं । इसके साथ ही मैंने आपके बेटे सदानंद जी को भी फोन कर दिया है, आपके बारे में सुनकर उन्होंने कहा है कि मैं तुरंत आता हूँ ।'

' तुमने सदानंद को क्यों फोन किया !! मैं उससे मिलना नहीं चाहती और न ही मैं अस्पताल जाऊँगी ...मुझे मर जाने दो ।' कहते हुए रीता जी ने अपना सिर कसकर पकड़ लिया ।

' आंटीजी, ऐसा मत कहिए । आपको हम सबके लिए ठीक होना होगा ।' उषा ने उनका हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा तथा उनका माथा सहलाने लगी ।

रीता जी ने उसका हाथ पकड़कर कहा, ' बेटा, मैं अब इस मानसिक कष्ट से मुक्ति पाना चाहती हूँ । दिल में दर्द का सैलाब लिए आखिर कब तक जीऊँगी ? अब तू ही इन्हें समझा कि मैं जिऊँ भी तो किसके लिए जिऊँ ? जिनके लिए मैंने अपने जीवन के कीमती वर्ष गंवा दिए , जब आज उनके पास ही मेरे लिए समय नहीं है तो मैं अब जीने की चाहना क्यों करूँ । मेरी मंजिल अब यहां नहीं वरन परमात्मा से मिलन की है । अब मुझे मर जाने दो ।' कहते हुए उन्होंने अपने जबड़े भींच लिए । इसके साथ ही उनके हाथ शिथिल होते गए...थोड़ी ही देर में उनका शरीर ठंडा पड़ गया ।

रीता जी का इस तरह चले जाना उन सबको जीवन की नश्वरता का बोध कर गया था । गीता सूरी ने दार्शनिक अंदाज में कहा, ' बहुत परेशान थीं बेचारी, चलो मुक्ति मिली ।'

' किसी ने सच ही कहा है कि इंसान अकेला ही आता है, अकेला ही जाता है । भरा पूरा परिवार होते हुए भी कोई हमारे लिए आँसू बहाने वाला भी नहीं है ।' कहकर सीमा रोने लगी ।

' प्लीज आँटी, ऐसा मत कहिए, हम सब एक परिवार ही तो हैं ।' रंजना ने सीमा को अपने अंक में भरते हुए उनके आँसू पोंछते हुए कहा ।

' सच कह रही हो रंजना । अब हम सब एक परिवार का हिस्सा ही तो हैं पर यादें पीछा ही नहीं छोड़तीं हैं।' शमीम ने कहा था ।

' सिर्फ वर्तमान में जीने का प्रयत्न करिए सीमा जी ।अतीत की कडुवी बातों को याद कर मन को कसैला मत बनाइये ।' उषा में उसके हाथ पर अपना हाथ रखते हुए कहा था ।

उषा की बात सुनकर सीमा निःशब्द उसे देखने लगी । केवल सिर हिलाकर उसने मौन स्वीकृति दे दी ।

रंजना ने रीता जी की मृत्यु की सूचना देने के लिए सदानंद को फोन लगाया पर इस बार फोन उनके पुत्र रितेश ने उठाया । रंजना की बात सुनकर उसने कहा, ' पापा नहीं आ पाएंगे । उनका ब्लड प्रेशर बहुत बढ़ गया है । दादी की इच्छा थी कि उनका शरीर मेडिकल कॉलेज में दान दे दिया जाए अतः प्लीज आप उनकी इच्छा पूरी कर दीजिए । जब मुझे समय मिलेगा मैं आकर अन्य फॉर्मेलिटीज पूरी कर दूँगा ।'

रितेश की बात सुनकर रंजना के साथ अन्य सभी हतप्रभ थे । सदानंद नहीं आ सकते थे तो रितेश या उसकी पत्नी तो आ सकते थे । रीता के अनुसार उनका शरीर मेडिकल कॉलेज में दान दे दिया गया ।

उस दिन उषा बुरी तरह आहत हुई थी । आखिर संबंधों में इतनी संवेदनहीनता क्यों आ जाती है । माता -पिता अपना पूरा जीवन बच्चों के पालन पोषण में लगा देते हैं पर बच्चे पंख मिलते ही अपने पालकों की अवहेलना क्यों करने लगते हैं ? क्या वे उनके लिए भी आउटडेटेड हो जाते हैं या माता-पिता का अति डोमिनेटिंग व्यवहार उन्हें उनसे दूर ले जाता है ? वजह चाहे जो भी हो पर यह स्थिति न तो समाज के यह उचित है , न ही संबंधों के लिए...।

शील बुरी तरह रो रही थी उसका कोई नहीं था । रंजना ने उसे रोता देख कर कहा, ' रो मत बेटा , माँ जी नहीं रही तो क्या हुआ ? हम लोग तो हैं हीं, तुम्हें यहां किसी तरह की परेशानी नहीं होगी । अभी तक तुम सिर्फ रीता दादी की सेवा करती थी पर अब तुम अपने सभी दादा -दादी की सेवा करोगी । मैं प्रबंधक से कहकर तुम्हें परंपरा में नौकरी दिलवा दूंगी ।'

' सच आँटी ।' कहकर शील रो पड़ी थी ।

रंजना उसके सिर पर हाथ फेर कर उसे दिलासा दे रही थी । इस दृश्य को देखकर उषा सोच रही थी कि सच रंजना जैसे लोग देश और समाज के लिए अनुकरणीय हैं । जहां वह अपनी संस्था के सभी सदस्यों को की आवश्यकताओं का ध्यान रखती है वहीं उनके सुख -दुख में भी पूरे तन- मन से शरीक होती है । इतना सेवा भाव आज के युग में कम ही देखने को मिलता है । उससे भी बड़ी बात चाहे कितनी भी विषम परिस्थितियां क्यों ना हो उसने रंजना को कभी हताश निराश होते नहीं देखा था ।

**********

उषा उदास मन से घर लौट रही थी कि उसका मोबाइल बज उठा । एक बार सोचा कि वह मोबाइल न उठाए... यह मोबाइल भी 2 मिनट चैन से रहने नहीं देता । चाहे अनचाहे बज उठता है किन्तु मन नहीं माना । गाड़ी साइड करके पर्स से मोबाइल निकाला …

फोन पर शुचिता थी उसके हेलो कहते ही उसने कहा , ' दीदी हम कल ऑस्ट्रेलिया जा रहे हैं ।'

' यह तो बहुत खुशी की बात है पर माँ जी...।' कह कर उषा ने वाक्य अधूरा छोड़ दिया था ।

' मां जी को हमने ओल्ड एज होम में रख दिया है । मेडिकल सुविधा भी है । उनके लिए एक नौकरानी की व्यवस्था भी कर दी है । सबसे बड़ी बात माँ जी ने ही हमारी समस्या का हल सुझाया था ।'

' रियली...।'

' हां दीदी... उन्होंने ही कहा कि मुझे किसी वृद्धाश्रम में रखकर तुम दोनों चले जाओ । तुमने मेरे लिए बहुत किया है । मेरा भी तुम्हारे प्रति कुछ कर्तव्य है । इनके ना नुकुर करने पर उन्होंने कहा, मैं आग्रह नहीं वरन आदेश दे रही हूँ । मुझे मेरी पोती का बच्चा खिलाना है और हां जैसे ही नवासा होगा सबसे पहले मुझे ही खबर देना । सच दीदी उन्हें यूं छोड़ कर जाना अच्छा तो नहीं लग रहा है पर माँ जी के सहयोग एवं प्रस्ताव हमारे मन के अपराध बोध कुछ कम कर दिया है । '

' शुचिता आंटी में आए परिवर्तन आश्चर्यजनक हैं । काश ! हमारे बुजुर्ग हमारी समस्याओं को समझ कर सहयोग दें तो कोई कारण नहीं है कि कहीं कोई असंतोष पनपे । इंजॉय योर जर्नी '

'थैंक्यू दीदी और हां फोन से कनेक्ट रहना ।'

'अवश्य ... अच्छा रखती हूँ बाय ।'

' बाय ...।'

शुचिता से बात करने के बावजूद भी घर आकर उषा सहज नहीं हो पाई थी । कारण पता लगने पर अजय ने कहा...

' उषा सामाजिक संबंध इतने सहज नहीं होते जितना हम सोचते हैं। इसके एक नहीं अनेकों कारण है आर्थिक के साथ-साथ सामाजिक भी । संबंधों में संवेदनहीनता अचानक नहीं आती धीरे-धीरे पनपती है और एक ज्वालामुखी फटता है तब सारे रिश्ते नाते तहस-नहस हो जाते हैं इसलिए कहा जाता है इंसान को संतुलन बना कर चलना चाहिए .. जहां संतुलन या लय बिगड़ी वहां गिरना अवश्यंभावी है । अगर तुम यह सोच लो मानव जीवन क्षणभंगुर है जो आया है उसे जाना ही है तब शायद कभी स्वयं को हताश निराश महसूस नहीं करोगी ।'

' सच कहा आपने अच्छा मैं चाय बना कर लाती हूँ ।'

' क्यों स्नेहा नहीं आई ?'

' आई थी पर आज उसके घर कोई आने वाला था अतः उसने शाम को छुट्टी ले ली है ।'

' चलो आज फिर बाहर ही खाते हैं । बहुत दिन हो गए कहीं गए भी नहीं है ।' अजय ने प्रेमासिक्त नजरों से उसे देखते हुए कहा ।

' पर मैंने तो सब्जी बना ली है ।'

' उसे फ्रिज में रख देना कल खा लेंगे । चलो तैयार हो जाओ ।'

अजय उस दिन बहुत अच्छे मूड में थे । उस दिन उन्होंने न केवल बाहर खाना खाया वरन वेव माल में मूवी भी देखी । घूम कर जब वे घर लौटे तो बहुत अच्छे मूड में थे । बहुत दिनों पश्चात उनके मन में प्यार का अंकुर फूटा था । उस दिन न जाने कब वे दो बदन एक जान हो गए ।

सुधा आदेश
क्रमशः