आख़िर ये हम सब की ज़िंदगी है। हम सब कोई निसर्ग की बनाई कठपुतलियां नहीं हैं कि हर सुबह सूरज के उजाले के साथ जागेंगे और शाम को सूरज के क्षितिज पर गिरने के बाद फ़िर से एक लंबी रात में बेसुध होकर पड़ जायेंगे।
हमें सपने देखने का काम भी करना है और उन्हें पूरा करने का भी।
वर्ष दो हज़ार पंद्रह आते आते दीपिका एक सफ़ल, सजग, संपन्न और सुलझी हुई शख्सियत बन चुकी थीं।
उन्हें बखूबी याद था कि वो चाहे इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय से समाज शास्त्र विषय में अपनी डिग्री पूरी नहीं कर सकी हैं किन्तु समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को उन्होंने कभी भुलाया नहीं है।
इस विविध रूपा दुनियां के अजीबो गरीब दिन रात बिताते हुए वे इतना तो समझ ही चुकी थीं कि यहां सब खुश नहीं हैं। सब कामयाब नहीं हैं। सबके सपने परवान नहीं चढ़ पाते।
तो क्या सुखी संपन्न लोग अपने मद में झूमते इठलाते हुए उन लोगों की अनदेखी करके आगे बढ़ जाएं जो कष्ट में हैं? जो हंस नहीं पाते। जो हैरान हैं अपनी ज़िंदगी से।
नहीं! और कोई ऐसा करे तो भले ही करे। दीपिका से ऐसा नहीं होगा।
उनके जेहन में हमेशा अपने पिता की शानदार उपलब्धियों से भरी ज़िन्दगी आती थी जो ज़िन्दगी में नाम कमा कर अब थक कर नहीं बैठ गए थे। वे अब भी आने वाली पीढ़ी के लिए कुछ न कुछ सहयोग करते रहने के कई कार्यक्रमों से गहराई से जुडे़ हुए थे।
दीपिका पादुकोण को अपनी जड़ों की विरासत कभी नहीं भूली। अवचेतन में ही सही, उनके मन में हमेशा ये बात रही कि दुखी लोगों के लिए कुछ न कुछ करना है।
इस साल उन्होंने अतिव्यस्त रह कर अपना मानसिक स्वास्थ्य बिगाड़ लेने वाले लोगों के लिए एक "ट्रिपल एल" संस्था "लिव लव लाफ़ फाउण्डेशन" बनाई।
लोगों के आंसू पोंछने का ख़्वाब भी उनके अनगिनत सपनों में शामिल हो गया।
इसे लॉन्च करते हुए दीपिका ने कहा कि वो ख़ुद कई बार अवसाद की शिकार रही हैं और अच्छी तरह जानती हैं कि मानसिक स्वास्थ्य का क्या मतलब हो सकता है। लोगों को अवसाद से निकालने का मतलब केवल एक रोग की चिकित्सा करना ही नहीं है बल्कि ये समाज में तनाव, गुस्से, नफ़रत, रंजिश और विफलता जैसे नकारात्मक तत्वों के असर में आकर छिटक गए लोगों को फ़िर से संभाल कर समाज की मुख्य धारा में लाने जैसा है।
ये दुरूह है, पर ज़रूरी है।
अपने सोच और सामाजिक सरोकारों को ज़मीन प्रदान करने के चलते दीपिका का ये साल एक अलग तरह के माहौल में गुज़रा।
इस साल काफ़ी समय बाद उनकी एक फ़िल्म आई - तमाशा! ये फ़िल्म न तो कोई बहुत बड़ी कामयाबी थी और न ही कोई चुनौती। इसे औसत दर्जे की सफ़लता ही मिली। हां, दीपिका पादुकोण की फ़िल्म थी तो दर्शकों को देखने तो जाना ही था।
ये इम्तियाज़ अली और साजिद नाडियाडवाला ने बनाई थी। जब फ़िल्म की रूपरेखा बनी तो इसका नाम "विंडो सीट" रखा गया था। किन्तु बाद में शेक्सपियर के एक संवाद "दुनिया एक रंगमंच है" से प्रभावित होकर इसका नाम "तमाशा रख दिया गया। इसमें ए आर रहमान का संगीत था और पद्मश्री पंडवानी गायिका तीजन बाई की पंडवानी के साथ एक भूमिका भी शामिल की गई।
दीपिका की अभिनय विशेषज्ञता ने उन्हें एक बार फ़िर रणबीर कपूर के साथ जोड़ा। फ़िल्म फ्रांस के कोर्सिको में फिल्माई गई। इसी फ़िल्म के दौरान संभवतः फ्रांस दीपिका का सबसे पसंदीदा देश बन गया।
इसी साल दीपिका पादुकोण के करियर में एक और ज़बरदस्त धमाका हुआ।
वैसे तो अपने आगमन के साथ ही दीपिका ने दोनों हाथों से प्रशंसा और पुरस्कार बटोरे थे। उन्हें स्टार अवॉर्ड, एचटी कैफे फ़िल्म अवॉर्ड, रीबॉक ज़ूम ग्लैम अवॉर्ड के साथ - साथ बॉलीवुड का मध्य यूरोपीय पुरस्कार हासिल हुआ। उन्हें ज़ी सिने अवॉर्ड, अप्सरा फ़िल्म एण्ड टेलीविज़न प्रोड्यूसर्स गिल्ड अवॉर्ड से भी नवाज़ा गया था।
इसी साल दीपिका की एक बड़ी और भव्य फ़िल्म "बाजीराव मस्तानी" भी रिलीज़ हुई। ये फ़िल्म ही कई अर्थों में वर्ष का ज़बरदस्त धमाका सिद्ध हुई। ये केवल एक फ़िल्म ही नहीं थी बल्कि इसने देश के बीते गुज़रे मराठा इतिहास को भी जीवंत कर दिया।
इस ऐतिहासिक फ़िल्म का ख़ुद अपना इतिहास भी कोई कम दिलचस्प नहीं था।
दरअसल ये ऐतिहासिक ड्रामा सन दो हज़ार तीन से संजय लीला भंसाली के दिमाग़ को मथ रहा था। वो उस समय इसे सलमान खान और ऐश्वर्या राय को लेकर बनाना चाहते थे जिनके साथ "हम दिल दे चुके सनम" बना कर ख़ुद उन्होंने इतिहास रच दिया था। लेकिन इन दोनों के बीच हुए मनमुटाव ने धीरे धीरे झगड़े का ही रूप अख़्तियार कर लिया और संजय को ऐश्वर्या की जगह करीना कपूर के नाम पर विचार करना पड़ा। यहां भी कभी सलमान तो कभी करीना की तारीखों की समस्या आई और संजय का ध्यान अजय देवगण व रानी मुखर्जी पर जाकर रुका। अजय की कुछ अपनी व्यस्तताओं और समानधर्मी प्रोजेक्ट्स में झुकाव को देख कर संजय ने पहले शाहरुख खान और फ़िर ऋतिक रोशन के नाम पर विचार करना शुरू कर दिया।
फ़िल्म एक नायक और दो नायिकाओं वाली थी। अतः तय हुआ कि रणवीर सिंह के साथ दीपिका पादुकोण और कैटरीना कैफ को लेकर फ़िल्म शुरू की जाए क्योंकि इन तमाम बदलावों के चलते साल दो हज़ार चौदह ने दस्तक दे दी थी।
लेकिन अभी फ़िल्म के नक्षत्रों में एक पेंच बाक़ी था। फ़िल्म "गोलियों की रासलीला रामलीला" की इस जोड़ी को कैटरीना कैफ ने आसानी से हज़म नहीं किया और अपनी कुछ शर्तों व सलमान और ऋतिक के साथ चल रही अपनी फ़िल्मों के दबाव के चलते फ़िल्म छोड़ दी।
और इस तरह अंततः रणवीर दीपिका के साथ प्रियंका चोपड़ा को इस भूमिका के लिए मनाया गया जो पहले भी इनके साथ इनकी एक फ़िल्म में कैमियो रोल में एक ज़बरदस्त आइटम नंबर कर चुकी थीं।
तब जाकर फ़िल्म शुरू हो सकी।
इसकी भव्यता के चर्चे फ़िल्म शुरू होने से पहले ही शुरू हो चुके थे।
ये इतिहास की सच्चाइयों से निकले पेशवा किरदारों की कहानी होते हुए भी मराठी के एक कालजयी उपन्यास पर आधारित फ़िल्म थी।
इसके लिए जहां रणवीर सिंह ने मराठी सीखी, घुड़सवारी सीखी और किरदार के सांचे में ढलने के लिए अपना वजन बढ़ाया वहीं प्रियंका चोपड़ा ने भी एक पखवाड़े भर मराठी सीखी।
दीपिका तो कोंकणी भाषी थीं ही, जो मूलतः कर्नाटक से होते हुए भी गोवा और महाराष्ट्र की संस्कृति के काफ़ी करीब थीं।
इस फ़िल्म की शूटिंग मध्य प्रदेश, गुजरात और मुंबई की फ़िल्म सिटी में हुई जहां फ़िल्म के आलीशान भव्य सेट लगाए गए।
दीपिका ने भी तैयारी में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी गोकि उन्हें महाराजा छत्रसाल की बेटी होने के कारण युद्ध दृश्यों में राजस्थान से आया बीस किलो वजन का कवच जो धारण करना था।