इसी साल आई "चेन्नई एक्सप्रेस"। शाहरुख खान और दीपिका पादुकोण की जोड़ी दर्शकों को एक बार फ़िर दिखाई दी।
गौरी ख़ान के निर्माण और रोहित शेट्टी के निर्देशन में इस दक्षिण भारतीय परिवेश में बनी हिंदी फ़िल्म ने सफ़लता के झंडे गाढ़े। बॉक्स ऑफिस के लिहाज से ब्लॉक बस्टर रही इस फ़िल्म को वैश्विक कमाई की नज़र से अब तक की सबसे सफ़ल फ़िल्म बताया गया।
ये सब बातें शाहरुख खान के रेड चिली एंटरटेनमेंट के लिए माइने रखती होंगी किंतु दीपिका पादुकोण के लिए ये साल उन्हें फ़िल्म वर्ल्ड की निर्विवाद नंबर वन एक्ट्रेस बनाने वाला रहा।
इस फ़िल्म की भूमिका दीपिका के कैरियर के हिसाब से इसलिए भी काबिले गौर मानी जायेगी कि इसमें उन्होंने अलग जॉनर की एक्टिंग के प्रतिमान स्थापित किए। जहां कॉकटेल और ये जवानी है दीवानी में उन्होंने एक अत्यंत आधुनिक लड़की का क़िरदार निभाया वहीं इसमें फ़िर वो एक देसी मिजाज़ की मध्यम वर्गीय लड़की को चरितार्थ करने में कामयाब रहीं।
फ़िल्म में तमिलियन लड़की का क़िरदार और कई संवादों में तमिल भाषा का प्रयोग उनके लिए एक अलग चुनौती था।
फ़िल्म का संगीत साधारण था किंतु पटकथा में एक कसावट थी। ख़ुद नायक की तरह ही दर्शकों को भी ये सोचने समझने का वक्त नहीं मिला कि आख़िर ये हो क्या रहा है?
पर दर्शक हंसते रहे, रोमांचित रहे।
फ़िल्म के संवाद भी गुदगुदाने वाले थे। दीपिका अपने रोल में पूरी तरह एक पारंपरिक तमिल कस्बाई लड़की ही दिखाई देती रहीं।
पहली बार एक और बात लोगों ने ध्यान से देखी। पिछले कई सालों से प्रियंका चोपड़ा और दीपिका पादुकोण के बीच श्रेष्ठता का एक महामुकाबला जो चलता रहा था उसमें ऐसा लगा कि नेक टू नेक चलती स्पर्धा में दीपिका ने कुछ बढ़त बना ली।
हालांकि इसके पीछे ऐसे तर्क़ भी दिए गए कि प्रियंका अब गंभीर रिलेशनशिप में हैं और जल्दी ही पारिवारिक जीवन में धमाका करेंगी इसलिए इस वक्त उन्हें किसी प्रोफेशनल मुकाबले में शामिल न माना जाए।
इन दिनों प्रियंका का हॉलीवुड कनेक्शन भी चरम पर था।
लेकिन दर्शकों और शुभचिंतकों को दो सुपरस्टारों के बीच की उस उत्तेजना भरी स्पर्धा का मज़ा एक बार फ़िर आया जिसे वो पिछले कई दशक से देखने से वंचित रहे थे।
पिछले लगभग तीन दशक से ये परिपाटी बन गई थी कि नंबर वन एक्ट्रेस को बिना किसी जुझारू मुकाबले के केवल अपनी सुपरहिट फिल्मों के बूते पर शिखर की ये जगह हासिल हो गई थी जिसे "नंबर वन" कहा जाता है और इस पर काबिज़ होने वाले अभिनेता और अभिनेत्री फ़िल्म लोक के बेताज बादशाह अथवा महारानी माने जाते हैं।
वर्षों पहले हेमा मालिनी और मुमताज या रेखा और ज़ीनत अमान में ऐसी ही जंग दिखाई दी। उसके बाद श्रीदेवी, माधुरी दीक्षित, काजोल, रानी मुखर्जी, ऐश्वर्या राय, विद्या बालन और कैटरीना कैफ तक लगभग सभी ने अपने - अपने समय में अपनी फ़िल्मों की हवाहवाई कामयाबी के दम पर ये शिखर पोजीशन पाई। उन्हें जीतने के लिए किसी को हराना नहीं पड़ा।
एक सच ये भी है कि तथाकथित "गोल्डन एरा" के बाद नायिकाओं के केस में किसी एक के शिखर पर बने रहने का स्पान भी कुछ सीमित हो गया। जबकि अभिनेताओं के मामले में ऐसा नहीं था।
इसका सबसे बड़ा कारण यह था कि वैश्विक सौन्दर्य प्रतियोगिताओं में भारतीय लड़कियों की सफ़लता पिछली सदी के अंतिम दशक में यकायक बढ़ गई और एक के बाद एक इन "घोषित" रूपसियों के कदम फिल्मी पर्दे पर पड़ने लगे। नतीजतन, हर साल- दो साल बाद नई संभावना के रूप में कोई न कोई "रूप की रानी" आती रही। इनमें केवल युक्ता मुखी को छोड़ कर लगभग सभी ने औसतन अच्छी पारी खेली।
केवल काजोल और रानी मुखर्जी के बीच ही कुछ समय तक बड़ी सफलताओं से सज्जित इस जंग का मज़ा दर्शकों को आया।
विद्या बालन और कैटरीना कैफ को करीना कपूर की ओर से कुछ चुनौती ज़रूर मिली किंतु करीना को दर्शकों ने उनके अपने अभिनय के बूते सर्वश्रेष्ठ सितारे की अहमियत कभी नहीं दी। उनकी कामयाबी बहुसितारा प्रोजेक्ट्स की कामयाबी में जज़्ब होकर रही।
वर्षों बाद ये कड़ा मुकाबला दीपिका और प्रियंका के बीच ज़रूर रंग लाया।
और साल दो हज़ार तेरह तो निर्विवाद रूप से दीपिका पादुकोण के नाम रहा।
एक बार फ़िर वही स्थिति हो गई कि छोटा बड़ा हर निर्माता अपनी अगली फिल्म में लेने के लिए दीपिका को ही एप्रोच करने लगा किंतु दीपिका ने अपने कैरियर के दौड़ते घोड़े पर समय रहते लगाम कस ली और अपनी पसंद की गिनी चुनी फ़िल्में ही स्वीकार करना शुरू कर दिया।
इन्हीं दिनों एक अन्य फ़िल्म "बॉम्बे टॉकीज" में दीपिका ने मेहमान भूमिका भी निभाई। फ़िल्म में उन्हें अपने असली रूप अर्थात फिल्म स्टार की भूमिका में ही दिखाया गया जहां उनकी विशेष उपस्थिति एक गीत "अपना बॉम्बे टॉकीज" में रही।
दीपिका को अपने आगमन के साथ ही पहली फिल्म के बाद नवोदित अभिनेत्री के फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड के साथ साथ कुछ अन्य पुरस्कार भी प्राप्त हुए जिनमें स्क्रीन अवॉर्ड तथा कुछ अन्य पुरस्कार व नॉमिनेशन शामिल थे।
अगले ही वर्ष दीपिका ने अपने दक्षिण भारतीय संपर्कों तथा लोकप्रियता को देखते हुए एक तमिल फ़िल्म "कोचादियान" में काम किया। वो अपने आरंभिक दिनों में पहले भी एक कन्नड़ फिल्म में काम कर ही चुकी थीं। अब अपनी हिंदी फ़िल्मों की धुआंधार सफ़लता के बाद तमिल फ़िल्म लेकर उन्होंने एक प्रकार से यही सिद्ध किया कि कलाकार के लिए भाषा कोई मायने नहीं रखती। उसके लिए मुख्य है उसकी अपनी भूमिका और अभिनय।
जबकि कई बड़े कलाकार अपनी फ़िल्म की पूरी गणित पर अपनी पैनी नज़र रखते हैं, दीपिका ने जताया कि वो कलाकार हैं, अभिनेत्री!
ये बड़े आश्चर्य की बात है कि भारतीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी दो बार "सबसे कामुक महिला" अर्थात सेक्सीएस्ट वूमन के खिताब से नवाज़े जाने के बावजूद उन्हें कभी अश्लील होने या अश्लीलता परोसने के लांछन का सामना नहीं करना पड़ा।
एफएचएम के भारतीय संस्करण में उन्हें इस बार भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया की सबसे कामुक महिला कहा गया। इस तमगे ने संसार भर की अभिनेत्रियों को चौंका दिया।
भारत के उनके प्रशंसक तो सही मायनों में इस बात का अर्थ ही नहीं समझ सके।
उनके कई शुभचिंतक उनकी इस उपलब्धि पर स्तब्ध थे, कुछ सशंकित तो कई सिर्फ़ रहस्यमय ढंग से ख़ामोश।
लेकिन एक महान अदाकारा के लिए विश्वसनीय मीडिया द्वारा कही गई इस बात का वास्तविक अर्थ क्या है, ये फ़िल्म इतिहास, वर्तमान और भविष्य से जुडे़ हर शख़्स को जानना चाहिए।
वस्तुतः इस बात का मतलब ये नहीं है उन्होंने उन्मुक्त प्रेम संबंध बनाए हैं या बनाने के लिए पुरुषों को आमंत्रित किया है। इसका अर्थ ये है कि उन्हें देख कर पुरुषों के मन में उनसे प्रेम करने की लालसा सर्वाधिक शिद्दत से जागती है।
ये आपका अपराध नहीं है। अगर कोई आपके सपने देखता है तो इसमें आप क्या कर सकते हैं?
यदि दुनिया आपकी दीवानी है तो ये दीवानगी दुनिया की समस्या है, आपकी नहीं!
यूरोप के कुछ देशों का इतिहास तो ऐसी घटनाओं से भरा पड़ा है जब सुंदरी राजकुमारियों और रानियों ने पुरुषों अथवा लड़कों के दिल - दिमाग़ में अपने बेसाख्ता ख़ूबसूरत शरीर की साम्राज्य - सीमा आंकने के लिए कई चौंकाने वाले अनूठे प्रयोग किए।