इसी वर्ष दो हज़ार तेरह में रिलीज़ हुई फ़िल्म "गोलियों की रासलीला रामलीला" में दीपिका पादुकोण को फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार समारोह में बेस्ट एक्ट्रेस का अवॉर्ड पहली बार मिला। इस तरह उनकी सफ़लता पर एक बार फ़िर लोगों और समीक्षकों की मोहर लग गई, क्योंकि इससे पहले उन्होंने साल की सर्वश्रेष्ठ नवोदित अभिनेत्री का खिताब तो पाया था किंतु सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के लिए उनका सिर्फ़ नामांकन दो बार हो चुका था।
संजय लीला भंसाली की ये फ़िल्म ज़बरदस्त ढंग से कामयाब हुई।
आजकल जैसे एक परिपाटी सी ही चल पड़ी थी कि सफ़ल और लोकप्रिय फ़िल्मों को किसी न किसी बहाने विवादों में घसीटा जाए।
कभी- कभी तो ऐसा होता है कि ज़्यादा कमाई करने वाली कामयाब फ़िल्म से प्रतिस्पर्धी एक प्रकार की ईर्ष्या भी रखने लगते हैं और फ़िर उन्हें फ़िल्म के संदर्भ में कोई भी मुद्दा हाथ लगते ही फ़ौरन तिल का ताड़ बना दिया जाता है। अपने अस्तित्व और गलाकाट प्रतियोगी माहौल में सांस ले रहा मीडिया इस काम में विवाद उठाने वालों को जायज़ - नाजायज़ सहयोग करता देखा जाता है।
किंतु कभी- कभी ये अति - संवेदनशीलता फ़िल्म के बाज़ार को हवा देकर उछाल भी देती है। ऐसे में कई बार ख़ुद फ़िल्म निर्माता ऐसे विवादों को हवा देते हुए भी दिखाई देते हैं। कई बार उनकी महज़ चुप्पी ही काम कर जाती है।
इस फ़िल्म ने भी विवाद के चलते देश की बड़ी अदालतें देखीं। बात केवल इतनी सी थी कि फ़िल्म के नाम में से "रामलीला" शब्द को हटाकर इसे रिलीज़ करने का आदेश कचहरी ने दिया था। ऐसा न होने पर देश की सर्वोच्च अदालत तक भी बात पहुंची। जबकि फ़िल्म की कहानी में रामलीला का संदर्भ भगवान राम की किसी लीला से नहीं, बल्कि नायक नायिका का नाम राम और लीला होने के कारण था।
फ़िल्म जगत में ऐसे उदाहरण पहले भी मौजूद हैं जब लड़के का नाम राज और लड़की का नीति होने पर फ़िल्म का नाम राजनीति रख दिया गया। या फिर बहुत पुरानी फ़िल्म "नीला आकाश" में नायक धर्मेन्द्र का नाम आकाश और नायिका माला सिन्हा का नाम नीला था।
हां, फ़िल्म में दर्शकों को "संजय लीला" ज़रूर पसंद आई। फ़िल्म बेहद कामयाब सुपरहिट रही।
जबलपुर शहर के दो वकीलों ने नाम का ये मुद्दा उठाया था।
जो भी हो, फ़िल्म शानदार थी और ख़ूब चली। फ़िल्म का मूल कथानक वैसे तो विलियम शेक्सपियर की कहानी "रोमियो जूलियट" से प्रेरित था पर इसे गुजरात के दो खानदानों की आपसी रंजिश के परिप्रेक्ष्य में उभारा गया था।
सनेड़ा और रजाड़ी नामक दो खानदानों की खूनी दुश्मनी के बीच परवान चढ़ती प्रेमकहानी में दीपिका पादुकोण और रणवीर सिंह ने बेहतरीन अभिनय किया। यद्यपि फ़िल्म दुखांत थी किंतु इसके हीरो - हीरोइन जैसे एक वास्तविक अमरप्रेम में बंध गए।
फ़िल्म ग्यारह गानों से सजी थी। गीत संगीत भी आकर्षक था। मोंटी शर्मा और स्वयं संजय ने इसका संगीत तैयार किया।
इसके कई गीत बहुत लोकप्रिय हुए। गीतों पर गुजरात के पॉपुलर लोकसंगीत की छाप थी।
फ़िल्म का एक बड़ा आकर्षण एक गीत में प्रियंका चोपड़ा का डांस भी था, जिसे मेहमान कलाकार के तौर पर आइटम नंबर करते हुए प्रियंका चोपड़ा ने अंजाम दिया था। ये फ़िल्म का टाइटल सॉन्ग था।
पहले माधुरी दीक्षित और अब प्रियंका चोपड़ा ने दीपिका की फ़िल्म में गेस्ट अपीयरेंस देकर जैसे अप्रत्यक्ष रुप से दर्शकों को ये संदेश दे दिया कि अब दीपिका पादुकोण फ़िल्म जगत की अगली महारानी का तमगा हासिल करने की ओर बढ़ रही हैं।
फ़िल्म में नायक रणवीर सिंह के साथ उनकी न भुलाई जा सकने वाली केमिस्ट्री देखने को मिली।
संजय ने जो जादू कभी "हम दिल दे चुके सनम" में ऐश्वर्या राय के साथ जगाया था, उसकी तुलना में दीपिका का प्रभाव यहां देखने वालों की निगाहों में कहीं उन्नीस नहीं पड़ा। दीपिका का मानो एक नया अवतार सामने आया।
फ़िल्म को देखते हुए नायिका की देहयष्टि और चंचल चपलता पर उस उदासीनता की एक हल्की सी झाईं भी कहीं नहीं दिखी जिसकी आशंका किसी हीरोइन के अपने प्यार से "ब्रेक अप" के फ़ौरन बाद कुछ समय के लिए दिखाई दे सकती है। ऐसा लगा मानो दीपिका हमेशा से ही रणबीर की नहीं बल्कि रणवीर की ही प्रेमिका रही हों।
विशेषज्ञ जानते हैं कि ऐसा वही कर सकता है जो बेहतरीन एक्टर हो। "उदासीनता में उन्माद", ये दीपिका का ही बूता था। यदि आप किसी के प्यार में हों और उसके साथ नाचते हुए गाना गाएं, तो इसमें अभिनय कैसा? अभिनय तो वही है कि जिसे आप पसंद तक न करें, परदे पर उसके जनम - जनम के साथी दिखाई दे सकें। अभिनय केवल प्रेम में ही नहीं बल्कि नफ़रत, दोस्ती, दुश्मनी, स्पर्धा... सभी जगह आपका इम्तहान लेता है। हम प्यार की मिसाल केवल इसलिए देते हैं क्योंकि अधिकांश दर्शक सिनेमा घर में प्रेम की तलाश में ही आते हैं।
मॉडलिंग ने दीपिका को और दीपिका ने मॉडलिंग को कभी नहीं छोड़ा। वे इसी साल "आल अबाउट यू" ब्रांड से भी जुड़ीं।
ये ठीक वैसा ही था जैसे रंगकर्म से जुडे़ अभिनेताओं ने फ़िल्मों में सफ़ल हो जाने पर भी नाटकों में काम करना नहीं छोड़ा। शशि कपूर, ओम पुरी, नसीरुद्दीन शाह, शबाना आज़मी जैसे कलाकार फ़िल्मों में पहले दर्जे की सफ़लता हासिल कर लेने के बाद भी स्टेज से जुडे़ ही रहे। क्योंकि रंगमंच उनका पैशन था। वे इसमें ही "बनते" थे। यहां वे चार्ज होते थे, ताकि कहीं और खर्च हो सकें।
यही बात दीपिका के लिए मॉडलिंग को लेकर थी।
देश दुनिया का लोकप्रिय नहाने का साबुन लक्स जो किसी समय सायरा बानो, आशा पारेख, साधना और शर्मिला टैगोर के बूते पर बिकता था अब दीपिका पादुकोण के सहारे अपनी बढ़त बनाए हुए था।
दो - तीन साल पहले सन दो हज़ार दस में एक कंपनी ने तो दीपिका पादुकोण को एक ऐसा खिताब दे डाला था, आम भारतीय जिसका वास्तविक अर्थ तक नहीं जानते थे। उन्हें अपने व्यक्तित्व और देहयष्टि के सहारे वर्ष की सबसे सेक्सी महिला ठहराया गया था।
लेकिन जो लोग इसका अर्थ सही परिप्रेक्ष्य में जानते हैं वे ये भी अच्छी तरह जानते हैं कि ये तमगा कोई नकारात्मक उपलब्धि नहीं है। ये वस्तुतः वही गुण है जिसके लिए दुनिया भर की औरतें श्रृंगार करती हैं। ये वही गुण है जिसके लिए दुनिया भर के युवा बेतहाशा धन बहाते हैं। जिसके लिए खूबसूरती और देह निर्माण के कारोबार चलते हैं।
लाखों में एक कोई ऐसा होता या होती है जिसे ये सौभाग्य कुदरती तौर पर ही हासिल हो जाता है।
विश्व की सौन्दर्य प्रतियोगिताओं में बकायदा एक फ़ील्ड होता है कि आप कितने सेक्सी हैं।
ये केवल नई दुनिया की बात नहीं है। दुनिया का इतिहास सौन्दर्य और उस पर मर मिटने वालों की गाथाओं से भरा पड़ा है।