साल दो हज़ार तेरह दीपिका पादुकोण के लिए राजयोग लेकर आया।
राजयोग का मतलब ये नहीं होता कि मुल्क का राजा कहीं चला जायेगा और राजपाट आपको सौंप जायेगा।
राजयोग का मतलब ये होता है कि आप जहां हैं, जो कुछ कर रहे हैं, वहां दूर - दूर तक आपका कोई सानी नहीं होगा।
बॉलीवुड में लोग भारी जद्दोजहद के बाद आ जाते हैं फ़िर सालों साल एक हिट फ़िल्म के लिए तरसते हैं। सफ़लता मिलती है तो टिक जाते हैं नहीं तो लौट जाते हैं।
यहां कई शाह,बादशाह, शहंशाह ऐसे हुए कि योग नहीं था तो लाख सिर पटकने पर भी फ़िल्म नहीं चली।
कई आम इंसान भी ऐसे आए कि लाख जतन करके उनकी फ़िल्म परदे पर लगी तो जैसे देखने वालों का कोई त्यौहार हो गया। देखते- देखते आम से ख़ास हो गए। कभी घरवालों पर बोझ कहलाने वाले एकदिन "हरदिल अजीज़" हो गए।
इस साल दीपिका की कुल चार फिल्में आईं। और फिल्मी ट्रेड पंडितों की भाषा में बात करें तो बॉक्स ऑफिस पर उनमें से दो ब्लॉकबस्टर, एक सुपरहिट और एक हिट।
ऐसा संयोग फ़िल्म इतिहास में कई दशकों में जाकर मुश्किल से एक - दो बार हो पाया होगा।
कभी राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन के ज़माने में होता था।
कई बार इसके कारण अलग - अलग रहते। कभी फ़िल्म मल्टी स्टारर है, तो कभी मेगा बजट है, कभी किसी ज़बरदस्त कामयाब फ़िल्म का रीमेक है, आदि - आदि।
"रेस-टू" एक सफ़ल फ़िल्म थी। कॉकटेल के बाद दीपिका को इससे दूसरा बूस्ट मिला।
ये अब्बास मस्तान की फ़िल्म थी जो सात वर्ष पहले आई फ़िल्म "रेस" का सीक्वल थी। फ़िल्म की स्टार कास्ट भी बहुत अच्छी थी। इस मल्टी स्टारर फ़िल्म में अनिल कपूर, सैफ़ अली ख़ान और जॉन अब्राहम जैसे सितारे थे। नायिकाएं भी तीन थीं जिनमें दीपिका पादुकोण, जैकलीन फर्नाडीज और अमीषा पटेल की भूमिकाएं थीं साथ ही बिपाशा बसु ने भी एक मेहमान कलाकार के तौर पर काम किया था।
दीपिका को इस फ़िल्म का काफ़ी फायदा मिला। ये सौ करोड़ क्लब में शामिल होने वाली वर्ष की पहली फ़िल्म थी।
बॉक्स ऑफिस की स्थिति देख कर इन दिनों फ़िल्मों को उनकी कमाई और बजट के आधार पर सफल असफल मानने का रिवाज़ चल पड़ा था।
इससे पहले इतिहास में ऐसे कई उदाहरण मौजूद हैं जब कई महान अथवा सफल मानी जाने वाली फ़िल्मों ने अपना खर्च भी नहीं निकाला। इसके उलट, कुछ ऐसी भी फ़िल्में हैं जो ख़ूब देखी गईं, उन्होंने कमाया भी ख़ूब, लेकिन केवल इस आधार पर उन्हें फ़्लॉप माना गया कि उनका बजट बहुत बड़ा था और उनमें भारी रकम निर्माण में व्यय की गई।
यदि रेस टू की बात करें तो ये कहा जा सकता है कि इस फ़िल्म की ग्लोबल सफ़लता बहुत भव्य रही। देश में इसे मिली कामयाबी मात्र एक औसत सफ़लता ही थी। पर यदि आप जेब से साठ करोड़ रुपए खर्च करके दुनिया भर से एक सौ साठ करोड़ रूपए कमा लेते हैं तो इसे आपकी पौ बारह होना ही माना जायेगा। इस फ़िल्म में भी कॉकटेल की तरह प्रीतम का संगीत ही था जो कर्णप्रिय था।
फ़िल्म की तीनों नायिकाओं में निश्चित रूप से दीपिका पादुकोण को जैकलीन और अमीषा पटेल पर बढ़त प्राप्त हुई।
"ये जवानी है दीवानी" जब रिलीज़ हुई तो लोगों ने सोचा कि ये जया भादुड़ी (बच्चन) रणधीर कपूर की एक बहुत पुरानी फ़िल्म "जवानी दीवानी" जैसी औसत फ़िल्म होगी, क्योंकि इसका टाइटल भी उस पुरानी फ़िल्म के एक गीत "ये जवानी है दीवानी" से ही लिया गया था। किंतु नए ज़माने के रंग- ढंग में रंगी ये मनोरंजक फ़िल्म शानदार ढंग से कामयाब हुई और दशक का एक धमाका सिद्ध हुई। इसके नशीले गीत लोगों की ज़ुबान पर चढ़ गए। इसमें दीपिका के नायक रणबीर कपूर थे। युवा दर्शकों ने फ़िल्म को दिल से पसंद किया।
इस फ़िल्म को करण जौहर ने बनाया था और इसे अयान मुखर्जी ने निर्देशित किया था।
ख़ास बात ये थी कि ये फ़िल्म शुरू होने से पहले रणबीर कपूर और दीपिका पादुकोण प्रेम प्रसंग में थे किंतु कुछ समय पहले ही उन दोनों के बीच ब्रेकअप हो गया। अयान मुखर्जी को तो ये यकीन ही नहीं था कि अब एक दूसरे की नज़रों से उतर जाने के बाद रणबीर और दीपिका एक साथ ऐसी फ़िल्म करने के लिए तैयार होंगे जो शुरू से आख़िर तक दोनों के बीच नोंक झोंक और प्यार प्रीत पर आधारित है।
किंतु रणबीर के इस स्थिति में भी दीपिका के साथ काम करने के लिए हां भर देने पर दीपिका से इस मामले में बात की गई और आश्चर्य की बात ये रही कि दीपिका ने भी फ़िल्म स्वीकार कर ली। ये एक तरह से दीपिका का शुद्ध प्रोफेशनलिज्म ही था कि उन्होंने काम और निजी संबंधों को अलग - अलग रखा। वरना फ़िल्म के निर्माता तो पहले से ही ये सोच कर बैठे थे कि यदि दीपिका रणबीर के साथ अब काम करने को मना करेंगी तो कैटरीना कैफ अथवा अनुष्का शर्मा को अप्रोच किया जायेगा।
फ़िल्म ने जबरदस्त कामयाबी हासिल की और भारी कमाई करते हुए निर्माता की झोली मुनाफे की रकम से भर दी।
मौजूदा दौर के मानदंडों के अनुसार ये फ़िल्म सौ करोड़ क्लब में शामिल हो जाने के बाद भी सिनेमा घरों की शान बनी रही। एक समय तो जानकारों का कयास था कि फ़िल्म "थ्री इडियट्स" और "एक था टाइगर" के बाद तीसरी सबसे ज़्यादा कमाई करने वाली फ़िल्म साबित होगी।
लोग सुनते आए थे कि हीरोइनें फ़िल्म में अपनी छवि और लुक्स को लेकर शुरू से ही सतर्क रहती आई हैं और कई बार तो नायिका के गेटअप को मुद्दा बनाकर निर्देशकों से मतभेद तक होते देखे गए हैं। जबकि विलक्षण अभिनेत्री दीपिका पादुकोण ने फ़िल्म में मांग के अनुरूप चश्मे का प्रयोग किया। इतना ही नहीं, बल्कि दीपिका अपने द्वारा प्रयुक्त चश्मे को लेकर इतनी इमोशनल हुईं कि उन्होंने फ़िल्म के बाद निर्माता से उस चश्मे को सहेज कर रखने की पेशकश तक कर डाली।
ऐसा अटैचमेंट पोशाकों या वस्तुओं को लेकर पहले भी कई बार देखा गया है जब अभिनेता किसी टोपी, कपड़े अथवा जूते को अपना लकी चार्म मानते हुए ऐसे अंधविश्वास में भी फंसते नजर आए कि अमुक चीज़ हमारे लिए लकी है तो हम अपनी हर फिल्म में उसका ही प्रयोग करेंगे।
किंतु दीपिका का इमोशन कुछ अलग तरह का था क्योंकि ये फ़िल्म उन्होंने अपने पूर्व प्रेमी से ब्रेक अप के बाद भी स्वीकार की थी और जाहिर है कि स्वाभिमानी दीपिका फ़िल्म के दौरान अपने नायक की तुलना में फ़िल्म में प्रयुक्त अन्य प्रॉपर्टी से अटैच दिखाई दीं।
फ़िल्म में आदित्य रॉय कपूर और कल्कि कोचलिन तो थे ही, फ़िल्म के एक गाने में स्पेशल अपीयरेंस में माधुरी दीक्षित भी थीं।
बहरहाल फ़िल्म ब्लॉकबस्टर साबित हुई और दीपिका ने एक बार फिर वो मुकाम देखा जिसकी हकदार वो हमेशा से रहीं।
फ़िल्म के गीतों ने धमाल मचाया।
फ़िल्म का वो होली गीत गली - गली, शहर - शहर बजा जिस पर कुछ समीक्षकों द्वारा द्विअर्थी गीत होने का लांछन लगाया गया।