360 degree love - 24 in Hindi Love Stories by Raj Gopal S Verma books and stories PDF | 360 डिग्री वाला प्रेम - 24

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360 डिग्री वाला प्रेम - 24

२४.

दिन निकल रहे थे ऐसे ही. बीच में तीन दिन के लिए अरु अपनी मम्मी-पापा से मिलने सहारनपुर भी गई. उसका चचेरा भाई आकर लिवा ले गया था. मां से खूब बातें हुई, पर आरिणी ने स्वयं को समझा रखा था कि वह मां को कोई ऐसी बात नहीं बतायेगी जिससे उन्हें परेशानी हो. फिर, अभी तक वह स्वयं नहीं समझ पा रही थी कि आरव की जिन्दगी की वास्तविकता क्या है.

आरव स्वयं लेने पहुंचा था उसे . रात को रुका नहीं क्यूंकि उसी रात की ट्रेन से रिजर्वेशन भी था.

आज आरिणी के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण दिन था. कॉलेज से कॉल आई थी कि उसे होंडा कार कंपनी, ग्रेटर नॉएडा में ट्रेनी इंजीनियर के रूप में चयनित कर लिया गया था. उसका ट्रेनिंग का समय दो हफ्ते बाद आरंभ होना था. दरअसल यह ऑफर उसकी इंटर्नशिप के दौरान ही परिपक्व हो गया था. बस अब औपचारिकता के रूप में उन्होंने कॉलेज को सूचित किया था. शुरुआती सैलरी अधिक नहीं थी, पर जो अनुभव आरिणी को वहाँ मिलने वाला था, वह अकल्पनीय था. इसलिए वह बहुत प्रसन्न थी. उसके खूबसूरत स्वप्न का एक भाग… एक नया अध्याय आरम्भ होने जा रहा था.

 

धीरे–धीरे घर का माहौल ही बदल-सा गया था उधर. व्यवहार में काफी नाटकीयता आने लगी थी, यह आरिणी महसूस कर पा रही थी. राजेश प्रताप सिंह तो घर पर कम ही होते थे, अगर होते भी तो उनसे औपचारिक बातें ही हो पातीं. वर्तिका से उसकी केमिस्ट्री बहुत अच्छी थी, पर उर्मिला जी और आरव की ओर से जो व्यवहार होता, उससे कई बार आरिणी का मन खिन्न हो जाता… उदास भी होता और अवसाद की सी भावनाएं बलवती होने लगती. यूँ तो वह इन विचारों को मन से झटक देती पर वाकई में वह कुछ महीनों पहले… और प्रोजेक्ट वर्क के अपने साथी आरव और उसकी मम्मी को मिस कर रही थी. या फिर कुछ अधिक ही अपेक्षाएं थी उसकी, यह समझ नहीं आ रहा था उसे.

 

आरव को भी कई अच्छे ऑफर मिले लेकिन उर्मिला जी आरव के लखनऊ से बाहर जाने के सख्त खिलाफ थी.और आरिणी से भी यही अपेक्षा थी. शादी के बाद अलग अलग शहरों में रहने का क्या औचित्य!

 

“मेरा विचार तो यह है कि तुम लखनऊ में ही कोई नौकरी तलाश करो… अब यह भी कोई छोटा-मोटा शहर तो है नहीं. घर पर रहना भी हो जाएगा और धीरे-धीरे करियर भी बन ही जाएगा”,

 

उर्मिला जी ने आरिणी को मिले इस लैटर ऑफ़ ऑफर पर अपने विचार रखे.

 

आरिणी एकबारगी चुप रही. वह स्वयं अभी समझ नहीं पा रही थी कि क्या करना चाहिए उसे. हाँ, इतना जानती थी कि न तो आरव कहीं अप्लाई करता, और न ही उसकी मम्मी आरव के बाहर जॉब करने की पक्षधर थी. उनकी कोई योजना भविष्य में उसके लिए लखनऊ में ही कोई फ़ैक्टरी लगवाने की थी.

 

“देखते हैं… अभी समय है!”,

 

कहकर आरिणी ने चर्चा के विस्तृत रूप लेने से पहले ही विराम दे दिया था. आरव की कोई प्रतिक्रिया नहीं थी… न प्रसन्नता, न उदासी. वर्तिका और राजेश सिंह अभी मौजूद नहीं थे. पर बाद में दोनों की प्रतिक्रिया प्रसन्नता भरी थी… ऐसी जैसे उन्हें ही कुछ नया सीखने का अवसर मिला हो. राजेश तो स्वयं मैकेनिकल इंजीनियरिंग ब्रांच से थे, इसलिए समझते थे कि होंडा कंपनी से शुरुआत करने के मायने क्या हैं.

 

आरिणी ‘गुड नाईट’ कह कर बेडरूम में चली आई थी, पर आँखों में नींद नहीं थी. आरव अभी नीचे ही था. ऐसे में वह अकेले बड़ी सी बालकनी की रेलिंग पर हाथ टिका कर दूर तक फैले विशाल मौन धारण करे वृक्षों की कतार और थोड़ी दूर दिख रही सड़क पर गाड़ियों की आवाजाही से चुंधियाती रौशनी का विरोधाभास देखती रही. वह रौशनी कभी चिंघाड़ती गाडी की होती, किसी खरामा-खरामा चलती पुरानी-सी गाडी से आती दिखती. वातावरण में हवा का झोंका तो नहीं था कोई, इसलिए पेड़ों… उनकी शाखाओं और पत्तियों ने मौन व्रत रखा था शायद.

 

कितना साम्य था इस स्थिति में, आरिणी ने सोचा. वो शांत स्वभाव बांज, देवदार और भोजपत्र के वृक्ष जो खुशनुमा पहाड़ों की जान होते हैं, उसे यहाँ खुद से निरीह और चुपचाप अन्याय सहन करने का प्रतीक बनकर दिख रहे थे, जबकि दूर गाड़ियों का बेलगाम ट्रैफिक उसे घर के और सदस्यों-- ख़ास तौर पर उर्मिला और आरव की तरह लग रहा था.

००००