360 degree love - 22 in Hindi Love Stories by Raj Gopal S Verma books and stories PDF | 360 डिग्री वाला प्रेम - 22

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360 डिग्री वाला प्रेम - 22

२२.

कुछ उलझन

आज डिनर के लिए सबको कैंट एरिया में जाना था. राजेश जी के बचपन के मित्र लखनऊ कैंट में एक वरिष्ठ अधिकारी थे जिन्होंने आज परिवार को रात्रि भोज पर आमंत्रित किया था.

सब कुछ खुशनुमा-सा लग रहा था अभी. इस सबके बावजूद आरिणी का मन रह-रह कर कुछ सशंकित-सा हो जाता था. लगता था जैसे उससे कुछ छिपाया जा रहा हो. पर, दूसरे ही क्षण वह ऐसा कोई विचार अपने मन से जबरन निकाल फेंकती. सोचती कि उसके अधिक सोचने का ही परिणाम हो सकती है यह स्थिति. हो सकता है कि आरव किसी हलके-फुल्के तनाव में हो. और वैसे तो वह भी न जाने कितने दिनों… वर्षों से जानती थी उसे. वो बात अलग है कि उनकी कोई अन्तरंग मित्रता कभी नहीं रही उससे .आरव का स्वभाव भी ऐसा कभी कुछ कहता नहीं था. उनका रिश्ता ऐसा था जैसे दो अलग-अलग राह पर चलते राही अचानक एक मोड़ पर आ मिलें और साथ चलने लगें. यहाँ सम्वाद नहीं थे, बस एक अनजानी कशिश थी…जो रास्ते को दिलकश बना रही थी. मंजिल से दोनों ही अनभिज्ञ थे, लेकिन कुछ चिंता वाली बात होती तो कॉलेज के पांच सालों में क्या कभी कुछ सुनने को न मिलता, उड़ता-उड़ता ही सही, आरिणी ने सोचा. अफवाहें तो अच्छी बातों से ज्यादा तेज़ी से उडती हैं. उसने तो कभी आरव के विषय में कोई गलत बात कभी नहीं सुनी.

 

मम्मी-पापा से फोन पर बात होती. भूमि और देव भी अक्सर फोन करते लेकिन सिर्फ संशय के आधार पर वह किसी से कुछ कह भी तो नही सकती थी . आरव का मान ही अब उसका भी मान था.

 

दिन की थकान के कारण यूँ तो आरिणी भी नींद की गिरफ्त में आ रही थी, पर वह उनींदी होकर भी साथ निभा रही थी. वर्तिका और आरव भी संकेतों में जल्दी चलने की बात कर रहे थे, लेकिन पेरेंट्स तो पुरानी बातों में ऐसे व्यस्त थे, जैसे शायद कोई और अवसर मिलेगा ही नहीं. डिनर से लौटने में अर्द्ध रात्रि हो गई.

 

कपडे बदलकर सोने की तैयारी कर ही रही थी आरिणी कि आरव पहले ही नींद में खो गया. आरिणी को लगा कि इस आरव को शायद वह नहीं जानती. कितने अच्छे से उन लोगों ने प्रोजेक्ट वर्क किया था… कैसे कॉफ़ी कैफ़े डे की यादें संजोई थी, कैसे वो उसे छोड़ने आता था और रास्ते में जोक सुनाया करता था. और इस घर की पुरानी यादें सब जैसे मिसिंग था अब. वह अनजान और खोई सी महसूस कर रही थी इस माहौल में अपने आप को . कई बार चकित भी होती और सोचती कि कहीं कोई साजिश तो नहीं… जैसे फिल्मों और टीवी के धारावाहिकों में दिखाया जाता है. अब इतना तो लगने लगता उसे कि कुछ तो गड़बड़ है. जरूर. और वह पता लगा लगाकर रहेगी कि कोई मेडिकल प्रॉब्लम है , ड्रग्स का मामला है.या फिर कुछ और.

 

आरव का अपने प्रति प्यार वह अभी भी उसकी आँखों में देख सकती थी पर सोचती क्या यह संभव है कि दो युवा वह भी शादीशुदा एक ही छत के नीचे बिना कोई अन्तरंग क्षण व्यतीत किये हफ्तों निकाल दें. यह ऐसा विषय भी नहीं जिसके बारे में वह किसी से बात कर ले. एक नारी सुलभ लज्जा उसके होंठ सी देती.

 

सबसे अधिक जो बात आरिणी को व्यथित करती वह थी परिवार में सभी का आरव के इस असामान्य व्यवहार को सामान्य मानना. समस्या के अस्तित्व को स्वीकारे बिना समस्या का समाधान संभव है क्या? इस विषय पर कोई भी बात उर्मिला जी को बेहद नागवार लगती थी..

 

...सोचते-सोचते आरिणी को भी न जाने कब नींद ने आ घेरा. नींद इतनी गहरी थी कि वह स्वयं सवेरे साढे छह बजे उठ पाई. एक निगाह सोते हुए आरव पर डालकर, वह सीधे नीचे पहुंची. किचेन में जाकर तीन कप चाय बनाई. मम्मी-पापा जागे हुए थे. उन्हें चाय देकर वह स्वयं वरांडे में बैठ कर चाय की चुस्कियां लेती रही.

 

आज आसमान में बादल घुमड़ रहे थे… मौसम सुहाना था… बाहर आम के वृक्ष पर कोयल की कूक मधुर लग रही थी… लेकिन फिर उसे अपने सूनेपन की याद आने लगती, और मन उदास हो जाता. कितने सुंदर लगते थे उसे भी यह आसमान में छाये बादल . वर्षा के पानी की आवाजें उसके मन को प्रफुल्लित कर ऊर्जा से भरने के लिए किसी अनमोल उपचार सरीखी होती थी . पर, आज यह बारिश का वातावरण भी शायद उसको इतना खूबसूरत नहीं लग रहा था. अरे यह क्या… बादल अब छंटने लगे थे, सूरज की किरणें धीरे-धीरे रास्ता बना रही थी. क्या यह किसी बेहतर शुरुआत का संकेत थी अथवा यूँ ही उसके मन का भ्रम था… कौन जाने!

 

शनै: शनै: धूप बढ़ने लगी थी. बादलों ने सूरज की जिस तपिश को रोका हुआ था, वह फिर से उदासियों के माहौल को बढ़ाने के लिए जिद्द पर उतर आई थी. आखिरकार वह वरांडे से उठ कर फिर से सीढियां चढ़ती हुई ऊपर चली आई. जितना बड़ा घर था… उसका अकेलापन भी उसी अनुपात में बढ़ता जा रहा था.

 

आज उसने अपनी डायरी उठाई. वह डायरी जो वह हाई स्कूल से कभी-कभी लिखती आई थी. बस एक यह डायरी मात्र थी… जिसे साथ ले आई थी वह अपनी यादों को जीवंत रखने के लिए. उन दिनों तो उस पर कुछ ऐसा नशा था कि उसके ग्रुप की छह लडकियां लगभग हर दूसरे दिन ही अपनी डायरी में कोई सुंदर-सी, रूमानी और सीधे दिल को स्पर्श करती पंक्तियाँ… या कोई कविता टांक कर ले आतीं. उसमें भी आरिणी अव्वल आती.

 

उन दिनों मेरठ में थी वह अपने परिवार के साथ. मेरठ में सोफिया गर्ल्स कॉलेज का अनुशासन बहुत सख्त हुआ करता था. हिंदी में बात करना तो जैसे अपराध हो… पर वे लोग भी जिद्दी कम नहीं थे. उन्होंने अपनी-अपनी डायरी को खूबसूरत नज्मों से सजा रखा था. एक बार उनकी म्यूजिक की टीचर मिस शैली के हाथ पड़ गई थी वह डायरी… तो डर के मारे जान ही निकलने को थी. पर… यह क्या वह तो मंत्रमुग्ध हो गई थी… पढ़ते-पढ़ते! उन्होंने स्नेह से बुलाकर उसे मुस्कुराते हुए बोला भी,

 

‘यू राइट वैरी वेल आरिणी… एंड हैव अ लॉट ऑफ़ पोटेंशियल...कीप इट अप माय चाइल्ड.. बिसाइड युअर स्टडीज!’

 

ऐसा क्या था उन पन्नों में? अब लगता है कि कुछ भी तो नहीं… सिर्फ अल्हड़ दिनों के कुछ शब्द जिन्हें माला में पिरोने की कोशिश की थी उसने. उसी डायरी के पन्ने पलटते हुए आज सोचा आरिणी ने कि क्यों न आज मन की बात को उतार लूँ इन पन्नों पर! आज २१ जुलाई थी… आरिणी ने एक कोरे पृष्ठ पर तारीख अंकित की...और लिखा--

 

बादल उमड़े हैं आज,

पर न जाने क्यों नहीं बरसे,

क्या समझते नहीं हैं वह भी

मन की बात मेरे,

या हो गये हैं अनजान

बस तुम्हारी ही तरह.

 

मुझे पसंद हैं

बारिश की बूँदें…

हवाओं की आवाजें…

कुछ कोलाहल भी,

पर किसे पसंद होगी,

सूरज की तपिश

हर रोज़-हर वक्त,

चाँद भी यूँ ही आता रहे,

सितारों के संग…

वजूद मेरा भी…

बना रहेगा...शायद,

इस सब के बीच…

कौन जाने ?

 

-अरु, २० जुलाई २००४, ०७.१८, लखनऊ.

 

अगले पन्ने पर उसने एक पत्र लिखा. मां के नाम--

 

“मां,

 

तुम कितनी अच्छी हो. जब भी तुम्हारी याद आती है तो एक ऐसी छवि ही उभरती है जो निश्छल है, प्रेमल भावनाओं से समृद्ध और हमेशा मेरे लिए चिंतातुर. पर… देखो अब मैं बड़ी हो गई हूँ. तुमने अपने ही हाथों से तो मेरे हाथ पीले किये थे न ? तो अब मेरे ऊपर छोडो… भविष्य का! बस तुम्हारी प्रार्थनाएं ही मेरा सम्बल बनेंगी.

 

मैं प्रसन्न हूँ… और रहना चाहती हूँ. जो काम अधूरे हैं, जो मंजिल पानी हैं… उसको पा कर ही रहूंगी. कमजोर नहीं हुई हूँ मैं. आप अपना ध्यान रखना… अगर बात न भी कर पाऊं तो समझना तब भी तुम मेरे ही आस-पास हो. तुम्हें यूँ भी हर पल महसूस करती हूँ मैं तो!

 

समय का कुछ पता नहीं होता है… बचपन में लगता था पंख लगाकर उड़ रहा है समय. और अब देखो! लगता है थम-सा गया है. वक्त क्या… हर चीज़. और मैंने तो मैकेनिक्स पढ़ा है, इसलिए मैं रुकी हुई चीज़ों से प्यार नहीं कर पाती हूँ. देखो… यह वक्त कब तक पंख लगाकर उड़ने के लायक बना जाए मुझे भी. तुम तो जानती हो मां कि खाली इंतज़ार नहीं, कुछ परफॉर्म करने में यकीन है मेरा… तुमने और पापा ने ही तो सिखाया है!

 

अपना ध्यान रखना. मुस्कुराओ अब… अकेले मत समझना खुद को. उधर पापा, इधर मैं हूँ न !

 

-तुम्हारी अरु

 

२० जुलाई २००४, ०७.५७, लखनऊ.

 

आरिणी ने मां को पत्र लिखा था, पर वह भी जानती थी कि यह पत्र पोस्ट करने के लिए नहीं है. बस उसकी एक नन्हीं सी व्यथा का प्रतिबिंब है. न जाने कैसे उसकी आँखें नम हो गईं. उसने दुपट्टे से आँखों से लुढ़कने को तैयार अश्रु नीर को वहीं रोक दिया. कमजोर क्यों बनना.. उसने सोचा.

 

वह जाली के दरवाजे और खिड़की की ग्रिल पर दो चिड़ियों की आवाजाही का आनंद लेने लगी थी. गौरैया का युगल था वह. खिड़की के ऊपर डोर क्लोज़र पर दोनों तिनका-तिनका जोड़कर अपना घरोंदा बनाने के प्रयास में थे. एक जाता था, और दूसरी सहेजती थी. फिर दूसरी जाती थी और पहला उसकी बाट जोहता था. कुछ तिनके पहले से थे… और कुछ उन्होंने आज ही इकट्ठे किये थे. दोनों इस बात से बेफिक्र थे कि कोई उन्हें यहाँ नुक्सान भी पहुंचा सकता है.

 

याद है आरिणी को कि जब वह बचपन में समर वेकेशन में अपने दादा जी के पास हरदोई जाया करती थी, तब वह चिड़िया के बच्चों के लिए घास-फूस का घोंसला बनाती थी. न जाने कितना ललचाया होगा उन चिड़ियाओं को, पर वे भी इधर-उधर फुदकती थी, कृत्रिम घोंसले के पास नहीं आती थी. ऐसी ही चिड़ियाओं के इस जोड़े को भी इतनी तो समझ है कि तिनका-तिनका घर बनाने का काम उन्हें खुद ही करना होगा. वही सही है और वही स्वाभिमान प्रज्ञ भी !

 

उसी समय दरवाजे के पल्ले पर धीमी-सी खटखटाहट हुई. उठ कर देखा तो वर्तिका थी. उसने ‘भाभी...’ कहकर उसका हाथ पकड़ लिया. आरव को सोया देखकर बोली,

 

“क्यों बोर हो रहे हो भाभी… आओ नीचे चलो”,

 

आरिणी कैसे टालती उस स्नेहिल अनुरोध को. आखिर वह ही तो थी जो थोड़ा-सा समझ पाती थी उसके मन को. कई बार लगता था कि वह आरव से भी ज्यादा वर्तिका के निकट महसूस करती है स्वयं को.

००००