असत्यम्। अशिवम् ।। असुन्दरम् ।।। - 19 in Hindi Comedy stories by Yashvant Kothari books and stories PDF | असत्यम्। अशिवम्।। असुन्दरम्।।। - 19

Featured Books
  • सनातन - 3

    ...मैं दिखने में प्रौढ़ और वेशभूषा से पंडित किस्म का आदमी हूँ...

  • My Passionate Hubby - 5

    ॐ गं गणपतये सर्व कार्य सिद्धि कुरु कुरु स्वाहा॥अब आगे –लेकिन...

  • इंटरनेट वाला लव - 91

    हा हा अब जाओ और थोड़ा अच्छे से वक्त बिता लो क्यू की फिर तो त...

  • अपराध ही अपराध - भाग 6

    अध्याय 6   “ ब्रदर फिर भी 3 लाख रुपए ‘टू मच...

  • आखेट महल - 7

    छ:शंभूसिंह के साथ गौरांबर उस दिन उसके गाँव में क्या आया, उसक...

Categories
Share

असत्यम्। अशिवम्।। असुन्दरम्।।। - 19

19

शुक्लाजी व श्री मती शुक्ला टेन से वापस आ रहे थे । मुख्यमंत्री की मिटिंग का गहरा असर था । ये बात अलग कि उन्हें मिला कुछ नहीं । वादेां, घोपणाओं से किसका पेट भरता है । टेन में भंयकर भीड़ थी। राजनैतिक रैली के कारण हर ड़िब्बे में बिना टिकट कार्यकर्ता सवार थे । टी. टी. रेलवे पुलिस, स्टेशन कर्मचारी,अधिकारी सब घायब थे । रेली सत्ताधारी पार्टी की थी । सभी का मूक सहयोग था । ष्शहर में भी पुलिस,अर्ध सैनिक बल, अन्य सुरक्षा एजेन्सी सभी मिल कर रैली को सफल बनाने में जुटे थे । टेन में आरक्षित ड़िब्बों की भी हालत खराब थी आरक्षण टिकट वाले खड़े थे । राजनैतिक पार्टियों के कार्यकर्ता सीटों पर जमंे पड़े थे । ऐसे माहोल में एक छुटभैये नेताजी चिरौरी करके ड़िब्बे में घुस गये ।ष्शुक्ला जी व ष्शुक्लाइन जी एक बर्थ में घुस गये । नेताजी ने अपनी रेली की सफलता और व्यवस्था की पूरी जानकारी दी ।

प्ूारी रेली में हम लोग छाये रहे । ष्शाम को मंत्री जी के धर पर भोज था । दाल -बाटी,चूरमा ! पड़ोस के मंत्री जी के यहां पर गुलाब जामुन पुडी,कचौड़ी जिसे जहां ठीक लगा खाया । कुछ लोग बांध कर भी ले आये । रास्ते में काम आयेगा ।

ष्शुक्लाजी क्या बोलते । नेताजी आगे बोले ।

‘ लगे हाथ पार्टी के मुख्यालय भी हो आये ।

भईया ! का बताये ! पूरा दफतर दुल्हन की तरह सजा -धजा था । पार्टी कार्यालय तो महल है महल । बड़े -बड़े कक्ष । ए.सी. । कारे । टेलीफोन । फेक्स । फोटो स्टेट मशीने । इन्टरनेट । नेता ही नेता । अध्यक्ष जी का कमरा । क्या कहने । साथ में एक मंत्रणा-कक्ष । एक पी.ए. कक्ष । एक वेटिंग रूम । हर तरफ सत्ता की चकाचौध । आंखे चौधियां गई भईया हमारी तो ।

‘ अच्छा ! ष्शुक्लाजी ने हुंकारा भरा नेताजी ने प्रवचन जारी रखा ।

‘ कहॉं गान्धी, नेहरू की राजनीति और कहां ये फाइवस्टार पोलिटिक्स ।

हमने गांधी को मारा,इन्दरागान्धी की हत्या की । राजीव भी चले गये । मगर ससुरा ये देश नहीं सुधरा ।

क्यों ? श्री मती ष्शुक्ला बोल पड़ी,

अब आप ही देखिये । क्या गरीब वोटर इस पार्टी - दफतर में जा सकता है ? क्या कोई उसकी बात सुनेगा ?

पार्टी में रिटायर्ड़ आई .ए . एस . एस . आई . पी. . एस ., हाइकोर्ट के जज, सचिव, राजनायिको, विशेपज्ञों के मेले लगते है । मेले ! हर रोज किसी न किसी क्षेत्र विशेप की मीटींग । एक रोज वकील,एक रोज

इन्जीनियर, एक रोज ड़ाक्टर, एक रोज हकीम -वैध, एक रेाज अध्यापक, एक रेाज पुलिस वाले, एक रेाज अफसर, भईया ऐसे मैं गरीब किसान,मजदूर को कौन अन्दर घुसने देता है !!

‘ मगर असली वोटर तो वो ही है । ’’

हां है, वोट के समय उसे खिला- पिला कर तैयार कर वोट की मशीन के सामने खड़ा कर देते है । बेचारा बटन दबा देता है । मगर उूपर के पदों तक नहीं पहुॅंचता ।

‘ ष्शुक्लाजी चुपचांप सुन रहे थे । कोई स्टेंशन आ गया था । यहॉं से रेल की भीड़ और बढ़ गई थी ।

डिब्बे में भीड़ थी । अन्धेरा हो चला था । ष्शुक्लाजी - ष्श्क्लाइन जी ने नेताजी के नाश्ते में से नाश्ता किया । अध्यापकों का हम बहुत सम्मान करता हूॅं । नेता जी बोल पड़े थे । मगर ष्शुक्लाइन चुप ही रही । वो जानती थी सरकारी अध्यापक बेचारा क्या क्या करता है । दोपहर का खाना बनाना, बांटना, जानवरों की गिनती करना,पल्स पोलियों, चुनाव, मतदाता सूची,टी . वी . मलेरिया की दवा बांटना, आदि सैकडा़े काम केवल पढ़ाने के काम के अलावा सव । हर काम का अलग अफसर । सरपंच की चमचागिरी अलग । तहसीलदार की सेवा उूपर से । फिर भी स्थानान्तरण, निलम्बन, बरखास्तगी का डर । साल में एक माह का वेतन इन लोगों को समर्पित करने पर ही गांव में रहना संभव । ष्शुक्लाईन ये सब कभी भुगत चुकी थी । ष्शुक्लाजी रजिस्टार बनने से पहले ये सब देख-सुन-भुगत चुके थे । रात गहरा रहीं थी । टेन अन्धेरे को चीरती हुई जा रही थी ।

 

माधुरी विश्वविधालय सहित सभी निजि विश्वविधालयों को राज भवन से नोटिस मिल गये ।,प्रवेश प्रक्रिया, फीस, डिग्री, केपिटेशन, अध्यापक, कर्मचारियों के बारें में जानकारियां मांगी गई । एक -एक प्रोफेसर ने तीन तीन विश्वविधालयों में अपना नाम फेकल्टी के रूप में लिखा रखा था । एक ही समय वो प्रदेश के तीन अलग -अलग स्थनों पर कैसे पढ़ा सकते है । कैसे ष्शोध करा सकते थे । कुछ प्रोफेसर तो सरकारी सेवाओं से निवृत्त हो कर पेंशन भी ले रहे थे । ऐसे ही एक मामले में एक वरिप्ठ शिक्षक जांच में दोपी पाये गये, उन्हें तीनो जगहो से त्यागपत्र देना पड़ा । पेंशन के लिए जो कागज  वे अपने विभाग में देते थे, उसकी भी जांच हो गई । एक अन्य संस्था के निदेशक की जांच में पाया गया कि उनकी डिग्री ही फर्जी है । पी . एचड़ी जहां से की गई थी, वहॉं पर संस्था ही नहीं थी । एक अन्य अध्यापक के ष्शोध पत्र पूर्व प्रकाशित ष्शोध पत्रों की नकल पाये गये । एक अन्य सेवा निवृत अध्यापक ने जो किताब लिखी वो एक अन्य भापा की प्रकाशित पुस्तक का अनुवाद पाया गया ।

सेन्टल बोर्ड ने सभी विश्वविधालयों, संस्थाओं से फेकल्टी के नाम,पते, फोटो,परिचय, सम्पूर्ण विवरण मंगवा लिए । राज भवन के निर्देशों की पालना में जाचें ष्शुरू हुई । मगर ष्शैक्षणिक भ्रप्टाचार की गंगोत्री में सभी नहा रहे थे । हमाम में सभी नंगे थे । सभी नपुसंक थे । सभी राजा को नंगा साबित करने के प्रयास में लग गये । राज भवन की जांच समितियांे की रपटे आने में ही काफी समय लग गया । कुछ संस्थाओं ने आयु सीमा बासंठ,पैसंठ,सत्तर वर्प कर दी । सेवानिवृत्त अध्यापकांे के मजे हो गये । पेंशन,दो -दो सस्थाओं से प्रोफेसरी के वेतन - भत्ते और अन्य लाभ ।

आखिर कुछ पकड़े गये । जेल किसी को नहीं हुई । सेवायें समाप्ति ही कार्यवाही के रूप में मान्य कर दी गई ।

माधुरी विश्वविधालय की कुलपति भी इन सभी समस्याओं से झंूझ रही थी । उसके विश्वविधालय के भवन में सुबह एम. बी . ए. सायंकाल इन्जीनियरिंग और रात को फारमेसी की कक्षाएं लग रही थी । बी.एड़ कराने का अलग लफड़ा पाल रखा था । अध्यापकों की बेहद कमी थी । सरकारी जांच से जो अध्यापक खाना-पूरी कर रहे थे वे भी भाग बये । कुछ ने पकड़े जाने और पेंशन बन्द हो जाने के डर से आना बन्द कर दिया ।

वास्तव में शिक्षा के तीन रूप हो गये । एक थड़ी वाली शिक्षा की दुकानें,दूसरे कुछ बड़े ष्शोरूम और सबसे बड़े ष्शोपिंग माल्स । विश्वविधालयों संस्थाओं,तकनीकी सस्ंथाओं का ऐसा जाल फैला कि प्रदेश के हर गली - मोहल्लें में शिक्षा देने और फीस,केंपिटेशन लेने वालों के बड़े -बड़े ष्शोरूम हो गये । मेडिकल,तकनीकि,फारमेसी, आदि में तो और भी बुरा हाल हो गया । लड़के - लड़कियां ड़ाक्टर,वैध, हकीम, कम्पाउड़र, फारमेसिस्ट बन गये, मगर कालेज की ष्शकल ष् नहीं देखी । जमकर दुकान दारी हाने लगी ।

प्रदेश के मंत्री असहाय । मुख्यमंत्री चुप । राज भवन की जांचे चलती रही । शिक्ष की गाड़ी में टेक्टर के पहिये लग गये । माधुरी ये सब जानबूझ कर भी अपनी दुकान चलाती रही । उसे कोई खतरा नहीं था ।

- ष्शुक्लाजी और माधुरी अपने विश्वविधालय के प्रशासनिक भवन में जमे हुए थे । ष्शुक्लाजी ने राजधानी में मुख्यमंत्री की मिटींग के बारे में बताया था ।

‘ वो तो ठीक है ष्शुक्लाजी । मगर ये राज भवन का नोटिस ।

‘ नोटिस का क्या है ? आते रहते हैं । वैसे भी हमारा विश्वविधालय आर्थिक भ्रप्टाचार की श्रेणी में ही नहीं आता है ।

‘ लेकिन हमारे पास अध्यापकों की कमी है ।

‘ हां कुछ अध्यापकों को हम ओवर टाइम देकर ड़बल काम करा रहे है ।

‘ लेकिन ये गलत है ।

‘ इसमें कुछ भी गलत नहीं है ।

‘ अरे भाई फार्मेंसी कालेज में गणित वाले क्या कर रहे है ।

‘ पढ़ा रहे है,और क्या ?

और इन्जिनियरिंग कालेज में तो कोई है ही नहीं ।

‘ है कैसे नहीं,एक सीविल के रिटायर्ड प्रोफेसर सब कक्षाएं संभाल रहे है ।

‘ मगर हमारे यहॉं तो कम्यूंटर चलता है ।

‘ कम्यंूटर हर विधा में काम आता है ।

देख लीजिये कहीं विश्वविधालय को खतरा नहीं है । आप और मैं दोनों ही फंस जायेगे ।

‘ आप बेफिक्र रहे । ये कह कर ष्शुक्लाजी माधुरी के केबिन से बाहर आ गये ।

 

विश्वविधालय में कई मुरारी हीरो बनने के लिए आते है और कई हीरो मुरारी बनने के लिए । ऐसे ही एक हीरो पी. एच. डी. के ड़ाक्टर बनने के लिए झपकलाल के सामने दीन - हीन दशा में सुदामा की भापा में चाटुकारिता का पाठ पढ़ रहे थे । झपकलाल के काम के करने के फण्ड़े बिलकुल पण्ड़ों की तरह साफ सुथरे थे। जितना गुड़ डालोगे उतना ही मीठा होता है नाम के कहावत वे अक्सर गुन गुनाते रहते थे । उन्होने ष्शोधार्थी जी को समझाया कि आपकी थीसीस तब तक जमा नहीं हो सकती जब तक कि गाइड पैनल .........नहीं भेज देते ।

‘ मगर गाइड ने तो पैनल भेज दिया था । ’

‘ भाईजान उस पैनल में वी . सी . मेडम के आदमी का नाम नहीं था, अतः पैनल मैंने ही अपने स्तर पर रिजेक्ट कर दिया ।

‘ आपको यह अधिकार किसने दिया ।

‘ जाकर रजिस्टार या वी . सी . से माथा मारो । यह कह कर झपकलाल ने एक अन्य ष्शोध छाात्रा की थ्सििस की फाइल आगे कर दी । फाइल पर प्रसाद का स्पप्ट प्रभाव दिखाई दे रहा था । ष्शोध छात्र ने प्रत्रावली पर प्रसाद चढ़ाया । नेग - चार किया । और झपकलाल ने सिद्धान्तों से समझोता नहीं करते हुए ष्शोध छात्र को समझाया।

‘ वी . सी . का पैनल ही अन्तिम होगा । अपने गाइड को समझाओ। नया पैनल बनवा कर कागज सीधे मेरे पास ले आओ । आवक -जावक ष्शाखा में दिया तो पी . ए .चड़ी . अगले जनम में मिलेगी । समझे।

जी समझ गया ।

अचानक झपकलाल ने उसे वापस बुलाया और कहा । ’

यार इस पैनल वाले कागज में तुम अपने हाथ से एक लखनउू वाले का नाम जोड़ दो । मैं फाइल आगे बढ़ा देता हूॅ । कौन देखता है ।

‘ लेकिन उस परीक्षक से गाइड का झगडा़ है ।

वहीं तो । मैं सब समझ रहा हूॅ । तुम्हारे गाइड का वी. सी. से झगड़ा है । वी. सी. उसे परीक्षक को बुलाना चाहती है और तुम्हारा गाइड ये नाम मरे ही नहीं लिखेगा । मगर तुम्हे डिग्री लेनी है, हमें देनी है,विश्वविधालय को फीस व अंाकड़े चाहिये । ऐसी स्थिति में वही करो वत्स जो मैं कहता हूॅ । एक नाम अपने हाथ से टांक दो । मरता क्या न करता । मुरारी नामक ष्शोध छात्र ने लखनउू वाले परीक्ष्क का नाम गाइड के कागज पर लिख ड़ाला । फाइल आगे चली । वी. सी. ने लखनउू वाले परीक्षक को ही मौखिक परीक्षा के लिए हवाई यात्रा की स्वीकृति प्रदान की।

म्ुारारी के गाइड यह सब देख कर ष्शरम से गड़ गये मगर गधा पहलवान तो साहब को मेहरबान होना पड़ता है । मुरारी ने बाह्य परीक्षक की हवाई यात्रा, होटल, घूमने -फिरने को ए. सी. टेक्सी, ष्शराब,

ष्शबाब, मुर्गा सब व्यवस्था की । गाइड टापते रहे और माधुरी मेडम की कृपा से लखनउू वाले परीक्षक की चरण वंदना से मुरारी विश्वविधालय से पी. एच. ड़ी. वाले ड़ाक्टर हो गये । जानना चाहेंगे मुरारी की थिसिस किसने लिखी थी, डेटा कहां से आये थे । ये मूर्खतापूर्ण प्रश्न आपको ष्शोभा नहीं देते । मगर आपके ज्ञान वर्धन हेतु बता देता हूू कि ये सभी काम ष्शोध छात्र ने धुर दक्षिण की एक युनिवरसिटी से चुरा कर तैयार किये थे । गाइड ने उस काम में पूरा सहयोग किया था । गाइड के डर को मुरारी ने निर्मूल कर दिया और माधुरी विश्वविधालय के पहले ड़ाक्टर घोपित हो गये । गाइड के दुश्मनों ने विश्वविधालय में इस थिसिस की धज्जियां उड़ाने की कोशिश की मगर हमाम में सब नंगे ।

यही कहानी हर विश्वविधालय के हर विभाग की हर पी. एच. डी. में थोड़े बहुत फेर बदल के साथ दौहराई जाती है । दोहराई जाती रहेगी ।

ब्ुद्धिजीवियों की लड़ाईयॉं भी देखने में बड़ी बौधक होती है । बड़ी नजर आती है,मगर अन्दर से छोटी घटिया और कमजोर होती है । बड़े लोगों के दिल बड़े छोटे होते है । छोटी -छोटी बातों से ष्शुरू होकर ये लड़ाईयां अहम् अहंकार और धमण्ड की लड़ाईयां हो जाती है । जिसे बुद्धिजीवी स्वाभिमान की लड़ाई कहते है । ऐसे ही दो बुद्धिजीवी माधुरी विश्वविधालय के एक ही विभाग में प्रोफेसर भये । इन प्रोफेसरों का सीधा हिसाब था मेरा छात्र दूसरे प्रोफेसर केा नमस्ते तक नहीं कर सकता । यदि नमस्ते कर दिया तेा डिग्री से वंचित । दोनों के अपने अपने गुट थे । अपने अपने गुर्गे थे । अपने अपने गुण्डे थे । अपने अपने सामाजिक सरोकार थे । सामान्यतया दोनो एक दूसरे के सामने नहीं पडते थे । एक सुबह के समय आते । काम - काज निपटाते । चले जाते । दूसरे लंच के बाद आते । सुबह वाले को गरियाते । अपना काम- काज सलटाते । वी. सी. रजिस्टार के दफतर में हाजरी लगाते । चुगली खाते और चले जाते । विभाग में अघेापित युद्धविराम चलता रहता । कभी -कदा कोई बात होती तो दोनो एक दूसरे की अनुपस्थ्तिि में आपकी भड़ास निकालते और फिर ष्शान्त हो जाते । लेकिन आज के दिन ष्शायद विश्वविधालय के नक्षत्र ठीक नहीं थे । दोनो प्रोफेसरों के भी चन्द्रमा नीच के थे । सो दोनो आमने -सामने पड़ गये ।

प्रोफेसर क्रम संख्या एक जो माधुरी विश्वविधालय में आने से पहले एक राजनैतिक दल के निजि कालेज में शिक्षक थे । अपने आपको दल का नेता भी समझते थे नमस्ते करना गवारां नहीं किया ।

इधर प्रोफेसर क्रम संख्या दो जो एक अन्य विचारधारा के थे,ने एक पोथी मांडकर यह पद हथियाया था अब कैसे चुप रहते ।

‘‘ क्या भाई नमस्ते से भी गये ? ’’

क्यो नमस्ते ! नमस्कार ! सतश्रीआकाल ! गुड मार्निगं ! सलाम ! ’’

 

‘‘ ये नमस्कार कर रहे हो या पत्थर फेंक रहे हो ।

‘ पत्थर तो आप फेंक रहे हैं ?

‘ आप गुर्रा क्यों रहे हैं ।

अब दूसरे प्रोफेसर कैसे चुप रहते ।

तुम भेंाको और मैं गुर्राउूं भी नहीं ये कैसे हो सकता है । ’ ’

बस फिर क्या था । बरामदे ष्शैक्षणिक व्यभिचार,अनाचार,ब्लेक मेलिगं,आदि नारों से गूजने लगे । विभाग के छात्र,छात्राएं,कर्मचारियों,अन्य अध्यापको की भीड़ लग गई ।

प्रोफेसर एक दूसरे का कालर पकड़ना चाहते थे । मगर यह संभव न था । धीरे धीरे वार्ता गरम हो रही थी । वे एक दूसरे के इतिहास को दोहराने लगे थे ।

‘ तुम राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेते हो ।

‘ तुम पार्टी के दफतर में क्यों जाते हो । ’

‘ कब गया । ’

‘ पिछले माह ’

‘ वेा तो एक राजनैतिक नियुक्ति का मामला था । ’

‘ सो जब तुम जा सकते हो तो मैं क्यों नहीं । ’

‘ तुम वहॉ पर चाटुकारिता करते हो । ’

‘ नहीं मैं वहॉ पर चुनाव धोपणा पत्र में मदद के लिए गया था । ’

ये तुम्हारा काम नहीं । वैसे भी पिछली बार तुमने पार्टी की लुटिया डुबोदी थी । ’

 

ओर तुम्हारी साली की जमानत जब्त हो गई थी । ’

उससे तुम्हें क्या ?

ओर तुम्हारी पी. एच. डी. की डिग्री फर्जी है ।

डिग्री असली है संस्था के बारे में थेाड़ा कन्फूजन है । लेकिन तुमने तो पूरी की पूरी थिसिस की नकल मार ली ।

‘ ये सब पूरी दुनिया में चलता है । ’

तुम चुप रहो ।

तुाम चुप रहो ।

पाठको ! जोश और क्रोध में बुद्धिजीवी अंगेजी बोलता है, ज्यादा क्रोध में गलत अंग्रेजी बोलता है । सो दोनो बोल पड़े ।

ष्शट अप ।

यू ष्शट अप ।

यू रासकल ।

यू गेट लोस्ट ।

यू गेट लोस्ट । दोनो गेट लोस्ट हो गये ।

अब कहने को क्या बचता है । ऐसा हर विश्वविससलय में साल में एक - दो बार हर विभाग में होता है । कर्मचारी इसे ष्शैक्षणिक दुनियां का नाटक कहते हैं ।

0                   0                  0

 

श्री मान् ! मैं आपके विचार, चिंतन, मनन, मंथन या जो भी आप के दिमाग से हो सकता है उसे आमत्रिंत करता हूॅ । कृपया मुझे, देश, समाज को बताये कि व्यक्ति स्वयं भ्रप्ट होता है या परिस्थितियां उसे भ्रप्टाचारी बनाती है । वे कौन सी स्थितियां परिस्थितियां वगैरह होती है जो व्यक्ति को भ्रप्टाचार की और प्रवृत्त करती है । एक सीधा साधा गउू जैसा व्यक्ति कब ओर क्यों एक धूर्त,पाजी,बदमाश, मक्कार, बन जाता है । मैं आपके इस चिन्तन को भी धार देना चाहूंगा सर कि ईमानदारी की परिभाप क्या है । असली,खालिस,शुद्ध ईमानदारी क्या होती है? कैसी होती है? और ये कि क्यों होती है । आदमी मजबूरी में ईमानदार बना रहता है और मौका लगते ही बेइमानी पर उतर आता है । ऐसा क्यों होता है । ईमानदारी की परिभापा अपने आप में एक ष्शोध का विपय है । इस असार संसार में पैसे लेकर काम कर देने वाला ईमानदार कहलाता है । इसी प्रकार काम नहीं होने पर पैसा वापस लौटा देने वाला भी ईमानदार कहलाता है । कुछ लोग सीमित ईमानदारी की वकालत करते है । इसी प्रकार क्या पुलिस में ईमानदारी की परिभापा शिक्षा विभाग के अध्यापक की ईमानदारी की परिभापा से मेल खा सकती है ।

क्या आयकर विभाग की ईमानदारी की तुलना हम किसी शिक्षक की ईमानदारी से कर सकते है ।

क्या पचास - सौ साल पहले ईमानदारी की परिभापा थी वो आज भी चलन में हैं।

ईमानदारी का नाटक और नाटक में ईमानदारी कैसे सम्भव है ।

ये कैसी विडम्बना है कि बेइमानी के काम में ही सबसे ज्यादा ईमानदारी रखी जाती है ।

श्री मान् ! आप इस लम्बी भूमिका से थक गये होंगे । लेकिन गुलकी बन्नों का दोहिंता,शुक्ला जी का बच्चा, नेताजी के सुपुत्र और कल्लू मोची का इकलोता लड़का ये सभी इसी महत्वपूर्ण प्रश्न पर सेमिनार कर रहे है । ये बच्चे अब किशोर हो गये है। दुनियादारी की समझ रखने लगे है। पोनी बना कर,जींस पहन कर, बेल्ट, जूते,चश्मा, और मोबाइल रखते है । किसी एक की बाईक पर चारों पूरे ष्शहर में धमा चौकड़ी मचाते है । अभी किसी में भी अपराधी प्रवृत्ति का विकास नहीं हुआ है । मगर समय के साथ सब आ जायेगा । हाल फिलहाल ये चारों माधुरी विश्वविधालय के होनहार छात्र है और एक बाबू की सेवा में सौ का नोट टिकाकर अपनी उपस्थिति पूरी कराना चाहते है बाबू काफी समय से अपनी ईमानदारी का रोना रो रहा था । मगर इन युवको का दिल नहीं पसीज रहा था । वो प्रति छात्र सौ रूपये मांग रहा था । नेता पुत्र ने अपना अस्त्र निकाला ‘ करना हो तो सौ रूपये में काम करदो वरना ....! ये भी नहीं मिलेगे । पापा काम करा देगे । इधर ष्शुक्ला पुत्र भी गरजे ’

पापा को अगर पता लग गया तो तुम्हारी खैर नहीं है ।

कल्लू पुत्र ने तुरन्त अपना एस. सी. होने का लाभ उठाया,बोला ‘ यदि मैंने शिकायत कर दी की तुम छुआ-छूत करते हो तो पण्ड़ित जी अन्दर हो जाओगे । ’

बताईये सर ऐसी स्थिति में विश्वविधालय के बाबू का क्या कर्तव्य बनता है ?

बेताल ने विक्रमादित्य का यह प्रश्न सुना तो विक्रमादित्य से चुप नहीं रहा गया बोल पड़ा ।

‘ ऐसी सिथति में भागते भूत की लंगोटी ले लेनी चाहिये, अर्थात बाबू को सौ रूपये लेकर उपस्थिति पूरी कर देनी चाहीये । विक्रमादित्य का मौन टूटते ही बेताल फिर जाकर भ्रप्टाचार के पेड़ पर उल्टा लटक गया।