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पेज तीन पर माडल थे। चैनलांे मंे काम करने वाले थे। फैशन था। रेम्प था और स्थानीय चैनलांे के एंकर थे। एफ.एम. के जोकी थे, कुल मिलाकर एक ऐसा कोलाज था जिसका कैनवास तो बहुत बड़ा था, मगर रंग फीके थे। विचार नदारद थे। चिन्तन ढूंढ़े नहीं मिलता था। मन्थन की बात करना बेमानी था। अविनाश और उसके जैसे पच्चीसांे लोगांे की ये मजबूरियां थी। हर शहर की तरह इस शहर मंे भी धारावारिक बनाने वाले पैदा हो गये थे। ये लोग अपने फार्म हाऊसांे पर स्क्रीन टेस्ट के नाम पर स्किनटैस्ट करते। झूठा-सच्चा धारावाहिक बनाते। पैसे के बलबूते पर दूरदर्शन या चैनलांे पर प्रसारित करते, कराते। विज्ञापन बटोरते और ये सब सूचनाएंे पेज तीन पर डाल देते या डलवा देते।
पिछले दिनांे ऐसे ही धारावाहिकांे के निर्माता के साथ कुछ दूरदर्शी अधिकारी अदूरदर्शिता के कारण रंगे हाथों पकड़े गये। जेल गये। मगर सत्ता बदलते ही छूट कर और भी ऊंचे अफसर बनकर लौटे।
अविनाश क्या कर सकता था। उसे अपना घर-परिवार चलाना था। एक बार विचार किया अपना अखबार निकालू, मगर खर्चें का हिसाब किताब देखकर चुप लगा गया। सब कपड़े तक बिक जाते और शायद अखबार फिर भी नहीं चलता। उसने कुछ काम भी अन्य नाम से शुरू कर दिये। गृहस्थी की गाड़ी चलने लगी। इसी बीच उसकी मुलाकात अपने साले कुलदीपक और झपकलाल से हुई। तीनो कल्लू के ठीये पर मिले।
कुलदीपक भी ठाला था। झपकलाल भी ठाला बैठा था। बैठे ढाले अविनाश मिल गया था। कालू के ढीये पर बैठने को कुछ नहीं था, मगर सोचने को बहुत कुछ था। कालू बोला।
‘साब हमारे गांव का एक सैनिक शहीद हुआ है।’
‘कब।’
पिछली बार जब संसद पर आतंकवादी हमला हुआ था, तब।’
‘अच्छा फिर उसके घर वालांे को कुछ मिला।’
‘कहां साहब। सरकार ने घोषणाएं तो बड़ी-बड़ी की, मगर हुआ कुछ नहीं।’
‘क्यांे।’ अविनाश की पत्रकारिता जागी।
‘क्या-क्या बताये साहब। उसकी विधवा बेचारी गांव मंे स्मारक बनाना चाहती थी। मगर वो भी नहीं हुआ। मूर्ति तो बन गई। लग भी गई। मगर उसके अनावरण के लिए खर्चा कौन दे। मंत्री आयंेगे।’
‘तो क्या ग्राम-पंचायत या गांव वाले कुछ नहीं करते।’
‘वे बेचारे क्या करें। और क्यों करे। सब कुछ उस विधवा के माथे ही है।’
‘ये तो सरासर गलत है।’
‘क्या गलत और क्या सही बाबूजी। मगर उसी विधवा को जो पैसे मिले वहीं सब झगड़े की जड़ है। घर के लोग भी उस पर आंखंे गड़ाये बैठे हैं।’
‘लेकिन पैसा तो उसके खाते मंे होगा।’
‘खाते मंें होने से क्या होता है। आखिर रहना तो घर मंे ही पड़ता है।’
‘और पेट्रोल पम्प।’
‘पेट्रोल पम्प की मत पूछो बाबूजी।’
‘क्यांे क्या हुआ।’
‘वो भी नहीं मिला।’
‘क्यों-क्यांे नहीं मिला।’
‘क्यांेकि जमीन नहीं मिली।’
‘जमीन क्यांे नहीं मिली।’
‘अफसरांे ने आंवटन नहीं किया।’
‘क्यांे नहीं किया?’
‘क्यांेकि रिश्वत नहीं दी गई।’
‘तो क्या इस शहीदी काम के लिए भी रिश्वत मांगी जा रही हैं ?’
‘हां, भाई हां।’ कल्लू ने जल्लाकर जवाब दिया।
‘आप लोग इस मामले को उठाते क्यांे नहीं।’ अविनाश बोल पड़ा।
‘क्यांे उठाये भाई। सब कुछ कमीशन-कट-रिश्वत का मामला है।’ झपकलाल बोल पड़ा।
‘और फिर मीडिया खेल बिगाड़ तो सकता है, बना नहीं सकता।’ कुलदीपक बोला।
‘नहीं ऐसी बात नहीं है। हम सब मिलकर इस मामलंे को हाथ मंे लेते है।’
‘क्या करांेगे हाथ मंे लेकर आतंकी घटना की बरसी के जो विज्ञापन छपे है। ’ उनमंे शहीदांे के नाम तक गलत छपे हैं, सरकार ने शुद्धि़करण हेतु विज्ञापन दिये है।
‘कैसी सरकार ?’
‘कैसी व्यवस्था ?’
‘कैसे अफसर ?’
‘शहीद-शहीद मंे फर्क।’
और इन नेताआंे-अफसरांे के आतंक से कैसे बचे। मगर अविनाश व उसके मित्रांे ने हिम्मत नहीं हारी। पूरा मामला राष्ट्रीय स्तर पर मीडिया मंे उठाया गया।
शहीद की विधवा को न्याय मिला, मगर इस न्याय का उपभोग करने के लिए शहीद के मां-बाप जीवित नहीं रहे, वे यह लड़ाई लड़ते-लड़ते स्वर्गवासी हो गये।
शहीद की मूर्ति का अनावरण मुख्यमंत्री ने किया। सब ताम-झाम, खर्चें सरकारी हो गये। शहीद की विधवा की आंखंे भर आई। मुख्यमंत्री ने उसे गले लगाया। उसके बेटे को नौकरी का आश्वासन मिला। मगर नौकरी नहीं मिली।
ग् ग् ग्
विशाल जो कल तक मामूली प्रोपर्टी डीलर था, आज एक बड़ा विख्यात या कुख्यात बिल्डर हो गया। इस नई टाऊनशिप के लिए उसने जो अलिखित समझौता उच्च स्तर पर किया था उसमंे माधुरी का रोल बहुत बड़ा था। स्थानीय नेताआंे से लगाकर राजधानी तक उसके रिश्तांे की डोर बन्धी हुई थी। विशाल इस डोर के महत्व को समझता था। उसका उपभोग कर रहा था।
माधुरी के स्कूल-कॉलेज या निजि विश्वविद्यालय के लिए उसने टाऊनशिप का एक ऐसा भू-भाग चुना जो अपेक्षाकृत हल्का था, जहां पर टाऊनशिप के विकास के लिए उसे कुछ ज्यादा नहीं करना था। मगर माधुरी को यह सब मंजूर न था। उसने विशाल को अपनी शर्तांे की याद दिलाई। इधर नेताजी भी माधुरी के साथ थे। टाऊनशिप के कार्य का शुभारंभ हो एतदर्थ विशाल ने सड़क के किनारे से जमीन तक एक बड़ा गेट बना दिया। एक मोर्रम की सड़क बनवाई और बड़े-बड़े होर्डिग लगवा दिये। अखबारांे मंे पूरे पृष्ठांे के विज्ञापन दे दिये। बुकिंग शुरू कर दी। शुरूआती दौर मंे कन्सेशन,फ्री-गिफ्ट, गिफ्ट वाउचर, सस्ती दरंे आदि के सब्जबाग दिखाये गये। बड़े-बड़े बैकांे से लोन की सुविधाआंे के वायदे किये गये और डाउन पेमेन्ट के साथ मंे भूखण्डों, फ्लैटांे, कारपोरेट ऑफिसांे, मॉलों मल्टी फैक्सांे के नाम पर बड़ी-बड़ी राशियां वसूल कर ली गई। मगर अभी तक जमीन का कहीं भी अता पता नहीं था जो गेट लगाये गये थे, उन्हंे गांव वाले उखाड़ कर ले गये।
जिन लोगांे ने बुकिंग कराई थी, वे पैसे वापस मांगने लगे। कम्पनी ने उनकी साख बचाने के नाम पर रिफण्ड चैक काटने शुरू किये। रिफण्ड मंे पच्चीस प्रतिशत राशि काट ली गई। लेकिन ये चैक भी बैंकांे से अनादरित होकर वापस आ गये। बुकिंग कराने वाले कम्पनी के कार्यालयांे मंे गये। कुछ नहीं हुआ। मामला मीडिया मंे उछला। मीडिया से पुलिस और कोर्ट मंे मुकदमंे हुए।
विशाल इस सम्पूर्ण घटनाक्रम से घबरा गया। पुलिस कभी भी उस तक पहुुंच सकती थी। वह माधुरी को लेकर नेताजी के पास आया।
‘सर। ये तो सब मामला ही गड़बड़ हो रहा है।’
‘हां, मैने भी पढ़ा है।’
‘अब क्या करंे।’
‘अरे भाई जब जमीन ही नहीं थी तो ये बुकिंग...शुकिंग क्यांे ?’
‘सर आपने कहां था सब ठीक हो जायेगा।’
‘कहा था लेकिन ये थोड़े ही कहा था कि यदि जमीन किसान की है तो उसे हड़प जाओ। तुमने तो जमीन खरीदी ही नहीं और हड़प जाने की बात करने लगे। किसान नाराज हो गये। अब वे जमीन क्यांे देंगे?’
‘सर। कोई रास्ता निकालिये।’ माधुरी बोली।
‘अब तो रास्ता यहीं है कि जो बुकिंग की है उसे लौटाओ।’
‘सर मैं...बरबाद हो जाऊंगा।’
‘तो मैं क्या कर सकता हूूं।’
‘सर आप किसानांे की भूमि अवाप्त करवा दे और फिर उसे विकास हेतु हमंे दिलवा दे। मंत्री से बात अपनी हो ही चुकी है।’
‘ठीक है कुछ करते है।’ यह कह कर नेताजी चले गये। माधुरी और विशाल वापस आ गये। विशाल का दफ्तर सीज हो चुका था। मामला पुलिस मंे था।
ग् ग् ग्
कड़क सर्दी की कड़कड़ाती रात। कल्लू मोची केे ठीये के पास झबरा कुत्ता चारांे तरफ से सिमट-सिमटा कर सो रहा था। काफी समय से वो अकेला था। किसी काम मंे मन नहीं लग रहा था, इधर रोज रात को हलवाई के यहां डिनर पर उसकी मुलाकात एक सफेद कुतिया से होने लगी थी। आज की रात तेज ठण्ड देखकर सफेदी उसके पास ही बैठी रह गई थी। रात बीतती जाती, वे बातंे करते जाते। समय धीरे-धीरे खिसकने लगा। रात का दूसरा प्रहर बीता। झबरे कुत्ते की आंखें नींद से बोझिल होने लगी, मगर उसका ध्यान सफेदी की ओर गया। बाल ऐसे जैसे किसी फिल्मी तारिका की त्वचा। आंखांे जैसे एक गहरी झील, सुतवा नाक, पतले होठ और जब वो सांस खीचती तो लगता मानांे कोई मधुर संगीत बजा है। उसकेे पांवांे की आहट ही झबरे को मदमस्त कर देने को शायद पर्याप्त थी। झबरे से रहा न गया। बोल पड़ा।
‘आखिर इस आदमी नामक जानवर को क्या हो गया है?’
‘क्यांे क्या हुआ।’
‘देखती नहीं चारांे तरफ कैसी आग लग रही है साम्प्रदायकिता, आतंकवाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद, हथियारांे की तस्कारी, देसी कट्टे, विदेशी राईफलंे और...।और इस युवा वर्ग को देखो या तो बेरोजगार है और या फिर पैसे के पीछे पागल होकर भाग रहा है। हर गली, मोहल्ले मंे डिग्री देने की दुकानंे खुल गई है। पैसे जमा कराओ, डिग्री ले जाओ।’
‘और फिर उस डिग्री का क्या करंे ?’ सफेदी ने पूछा।
‘कुछ भी करंे। हमंे, क्या। देने वाले को क्या। वो तो डिग्री बांटते है, ज्ञान थोडें़ ही बांटते है।’ झबरा क्रोध मंे बोल पड़ा।
‘मगर ये सब गलत है ?’
हां, गलत है, मगर क्या-हम तुम इसे ठीक कर सकते है ?’
भई हम तो कुत्ते है। हम कैसे ठीक कर सकते है।
‘जब आदमी ही कुछ नहीं कर पा रहा है तो हम क्या कर लंेगे?’
‘ठण्ड बहुत बढ़ गई है।’
‘हां, ये तो है। कहीं रेन बसेरे मंे चले।’
‘रेन बसेरे मंे हमंे कौन घुसने देगा। वहां पहले ही आदमियांे की भारी भीड़ है। वहां भी उत्कोच से प्रवेश मिलता है।’
‘हमारे पास उत्कोच कहां ?’
‘वहीं तो। वहीं तो। हमारी किस्मत मंे तो यही भट्टी के पास बैठकर रात बिताना लिखा है।’
एक तरफ आहट हुई। आहट की और देखकर झबरा भांेका, सफेदी गुराई। एक पागल सड़क के उस पास से इस पार आ रहा था।
झबरा बोला।
‘अरे ये तो वहीं पागल है जो बस स्टेण्ड पर डोलता है। बेचारा ठण्ड मंे मर जायेगा।’
‘मर जायेगा तो हम क्या करंे। हम तो खुद ही मर रहे है।’
पागल पास आकर बैठ गया और लुढ़क गया। सफेदी ने उसे सूंघा, झबरे ने भी सूंघा। फिर सूं-संू करके उसके पास घेरा डाल कर बैठ गये। पागल को कुछ गरमी आई। उसने आंखें खोली। दोनांे कुत्तांे को देखकर फिर आंखंे बन्द कर ली। सफेदी फिर बोली। ‘रात कट जाये। क्या करंे...।’
झबरा मौन। चुपचाप उसे सुनना चाहता था। झबरे ने अपने विचारांे को गति दी। उसे चुप देख कर सफेदी बोली।
‘क्यांे-क्या बात है आज बहुत उदास हो। रात काटे नहीं कर रही है।’
‘सर्दी तेज है। ये सर्दी के दिन। उदासी के दिन। ये प्रजातन्त्र के दिन।’
सड़क पर लैम्प पोस्ट पर ट्यूब लपक-झपक कर रही थी। सड़क पर विरानी छाई हुई थी। आसपास अन्धेरा था। झबरे के मन मंे भी अन्धकार था। सफेदी के दिल मंे नन्हीं आशा का दीप टिमटिमा रहा था। इसी आशा के साथ वो रात को व्यतीत कर रही थी।
‘कहो मन क्या कहता है।’
‘मन बेचारा क्या कहे। मन तो उड़ता है।’
‘राधा ने उद्धव से कहा था, उद्धव मन नाही, दस बीस एक था जो गया श्याम संग।’
‘मेरी कुतिया, दर्शन मत बगार। तू कुतिया है और कुतियों की तरह ही सोच।’
‘मै कुतिया हूं लेकिन सांेचने-पढ़ने-लिखने और बोलने की आजादी वाली हूं।’
‘ये आजादी...।’
‘तुम तो जानते हो। पहली आजादी आई। फिर दूसरी आजादी आई। फिर ये आर्थिक स्वतन्त्रता का दौर...।’
‘तो इससे अपने को क्या ?’
‘क्यांे अपन भी तो आजादी का सुख भोग रहे है।’
‘आजादी के सुख-दुःख छोड़ो।’
‘आज कुछ गाओ?’
दोनांे ने समवेत स्वरांे मंे राग उगेरा। पड़ोस की गलियांे से और भी कुत्ते आ गये। सब समवेत स्वरांे मंे गाने लगे। आज का गीत।
रात का गीत।
मन का गीत।
खुशी मंे उदासी का गीत।
दूर कहीं, कुछ सियार भी हुआं, हुआं करने लगे।
इस समवेत कौरस को सुनकर पागल की नींद उड़ गई। वो चिल्लाया।
‘साले कुत्तंे कहीं के।’
सफेदी ने जवाब मंे कहा
‘साला आदमी कहीं का।’
‘सियार भी चिल्लाया।’
‘साला आदमी की औलाद कुत्ता।’
झबरा चिल्लाया।
‘आदमी की मां की आंख...।’
कुत्तांे की इस क्रांफेस के कारण सड़क पर खड़ी पुलिस पेट्रोलिंग की कार को धक्का मारते पुलिस के जवानांे को बड़ा गुस्सा आया। एक ने पत्थर उठाकर कुत्तांे पर मारा, मगर दुर्भाग्य से पत्थर कुत्तंे को नहीं पागल को लगा। पागल चिल्लाया।
‘साले। कुत्ते। साले कुत्ते कहीं के।’
पागल एक और तेजी से भागा।
पुलिसमेन उसका पीछा करता, मगर नींद मंे ड्राइवर गाफिल था।
पूरब दिशा मंे धीरे-धीरे भगवान भास्कर के स्वागत मंे उषा की लालिमा दिखाई देने लगी थी। सफेदी ने प्यार से झबरे के नथुने मंे अपना नथुना लगाया और आंखें बन्द कर ली।
सफेदी ने आंखंे खोली। मिचमिचा कर देखा। सूरज पूर्व दिशा मंे ऊगना ही चाहता था। झबरा अलसाया सा पड़ा था। पागल कहीं दूर चला गया था। अभी सड़क पर सन्नाटा था। सफेदी को झबरे पर लाड़ आया। धीरे से कूं-कूं करती हुई अपनी कुत्तागिरी से कुत्ती भाषा मंे उससे पूछने लगी।
‘तुम कब से अकेले हो?’
‘बस यही कुछ छः मास हुए है। एक कुतिया मेरे साथ रोज रात को डिनर करती थी, नगरपालिका वालांे से सहन नहीं हुआ, उसे उठाकर ले गये। भगवान जाने उसके बाद उसका क्या हुआ ?’ झबरे ने झबरन रूलाई रोकते हुए कहा।
‘ये साले आदमी होते ही ऐसे है और यदि सरकारी साण्ड बन जाये तो कहना ही क्या।’ सफेदी ने सहानुभूति जताते हुए कहा।
झबरा कुछ न बोला। बस मौन पड़ा रहा। सफेदी ने फिर पूछा।
‘वो कैसी थी?’
‘कौन?’
‘वो ही पहले वाली।’’
‘पहले वाली। अच्छी थी। सुन्दर थी।’
‘मेरे से भी ज्यादा।’
‘अब सुन्दरता का कुत्ता-पैमाना एक जैसा तो होता नहीं है। कुत्तांे का सौन्दर्य बोध और सौन्दर्य शास्त्र मैंने पढ़ा नहीं है, लेकिन मेरे मन मंे उसकी सुन्दरता की याद ताजा है।’
सफेदी कुछ उदास हो गयी। मगर फिर बोल पड़ी।
‘जो गया सो तो गया ही। उसके पीछे जीना तो नहीं छोड़ सकते।’
‘तुम ठीक कहती हो सफेदी। मैंने जीना नहीं छोड़ा है। जैसे-तैसे जी ही रहा हूं। जीवन है तो हजारांे परेशानियां भी है।’
‘तुम ठीक कहते हो। परेशानियांे का दूसरा नाम ही जीवन है। मृत्यु के बाद कोई परेशानी नही होती है। मृत्यु तो शाश्वत, सत्य, सुन्दर, शान्त, सौम्य और शीतल होती है।’
‘तुमने फिर दर्शन बघारा।’ झबरा गुर्राया।
सफेदी ने मौन धारण कर लिया।
झबरा बोल पड़ा।
‘उसने दो प्यारे-प्यारे छोटे-छोटे बच्चे भी जने थे। उनको दूध पिलाती थी। प्यार करती थी। उनके लिए इधर-उधर से मांस या अण्डे की सफेदी ढूंढ़ कर लाती थी। सब खत्म हो गया। सब कुछ नष्ट हो गया।’
सफेदी ने उसके दुःख मंे दुःख जताया।‘
‘लेकिन ताकवर पर किसकी चलती है, नगरपालिका वाले उसे ले गये।’
ये साला आदमी कुत्ते से भी गया बीता है।’ सफेदी ने कहा। बात का रूख पलटने के लिए पूछा।
‘उसके बाल कैसे थे?’
‘सुनहरे।’
‘और होंठ?’
‘जैसे गुलाब ?’
‘और आंखें।’
‘जैसे शराब के कटोरे।’
‘तुम्हे बहुत पसन्द थी।क्या वो मेरे से भी बहुत ज्यादा अच्छी थी।’
हां अच्छी तो थी। मेरा खूब ख्याल भी रखती थी। झबरे ने एक ठण्डी सांस भरी। सफेदी दूर शून्य मंे देखती रही।
तभी कल्लू मोची अपने ठिये पर पहंुचा। उसने अपने बक्से को खोला। दुकान सजा ली। दुकान के नाम पर पालिश का सामान। जूतांे की मरम्मत का सामान। हथोड़ी, कीले, खुरतालंे, पुराने सोल, टायर की चप्पलंे, लैसे, एक-दो पुरानी चप्पलंे। पुराने जूते। पुराने सैण्डल। कुल मिलाकर यही उसकी पूंजी थी। इसी के सहारे वो दुनियां को जीतने के सपने बुनता था।
उसने पढ़ रखा था कि सपने बुनने से कभी-कभी चादर, शाल, रजाई, अंगोछा आदि बन जाते है। वैसे भी सपने देखना-बुनना इस देश मंे बिल्कुल निःशुल्क था। सरकार चाहकर भी इन सपनांे पर टेक्स नहीं लगा पा रही थी। सरकार का ध्यान आते ही कल्लू को अपने पिता के मृत्यु-प्रमाण-पत्र को प्राप्त करने मंे जो परेशानी आई थी, उसे सोच-सोचकर उसने झबरे से कहा।
‘देखा सरकार को मेरे मरे बाप का प्रमाण-पत्र देने मंे भी मौत आ गई।’
झबरा क्या जवाब देता। सफेदी कही रोटी, मांस के टुकड़े के लिए भटक रही थी। झबरा चुपचाप बैठा था।
कल्लू ने चाय मंगवाई। हलवाई ने पुराने पैसे का तकादा किया। कल्लू ने मन ही मन हलवाई को गाली दी। प्रकट मंे बोला।
‘सुबह-सुबह क्यांे खून पी रहा है। आने दो कोई ग्राहक सबसे पहले तेरा हिसाब...।’
चाय आई। कल्लू ने पी। झबरे ने पी। सफेदी भी आ गई। झबरे के साथ उसने भी पी।
चायोत्सव के बाद झबरा गली मंे निकल गया। सफेदी धूप सेकनें लगी।
कल्लू सुबह से ही बोहनी की बांट जोह रहा था। मगर धीरे-धीरे सूरज के चढ़ने के साथ ही सड़क और बाजार मंे चहल-पहल शुरू हो गई थी।
एक-दो पालिश वाले ग्राहक आये। कल्लू ने कहा।
‘बाबूजी महंगाई कितनी बढ़ गई। आज से पालिश की भी रेट बढ़ा दी है।’
ग्राहक चिल्लाया।
‘क्या महंगाई तेरे लिए ही बढ़ी है। पुरानी रेट पर करता है तो कर।’
‘बाबूजी जितना बड़ा जूता होता है उतनी ही ज्यादा पालिश लगती है। आपका जूता भी बड़ा है।’
‘अब ज्यादा चिल्ला मत। काम कर।’
कल्लू चुपचाप काम मंे लग गया।
हलवाई की उधारी चुका दी।
वो मन ही मन जूता और पालिश मंे सम्बन्ध स्थापित करने लगा। बड़ा जूता ज्यादा पालिश। बड़ा जूता बड़ा आदमी। बड़ा जूता बड़े सम्बन्ध। बड़ा जूता बड़ी खोपड़ी। बड़ा जूता बड़ा पैसा। बड़ा जूता बड़ी लड़ाई। बड़ा जूता बड़ा प्यार। बड़ा जूता बड़ी घृणा। बड़ा जूता बड़ी राजनीति। बड़ा जूता बड़ा पद। बड़ा जूता बड़ा कद। बड़ा जूता बड़ा दुःख। बड़ा जूता बड़ा सुख। बड़ा जूता बड़ी कविता। बड़ा जूता बड़ा साहित्य। बड़ा जूता बड़ी पत्रकारिता। बड़ा जूता बड़ी खबरंे। बड़ा जूता सब कुछ बड़ा। बस पालिश छोटी। नालिश बड़ी। बड़ा जूता गरीब का छोटा पेट। आधा भूखा आधा नंगा। बड़ा जूता नपुसंक-नंगा जूता।
उसने बीड़ी सुलगाई और व्यवस्था को एक भद्दी गाली दी।