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सुबह के अखबारांे का पारायण करने के बाद माधुरी, विशाल और नेताजी अपने टाऊनशिप के मिशन पर चले। नेताजी जब मंत्रीजी के दरबार मंे हाजरी लगा रहे थे तो वहां पर दूषित पेयजल की समस्या छाई हुई थी। नेताजी सीधे मंत्रीजी के कक्ष मंे घुस गये। पीछे-पीछे माधुरी और दबे कदमांे से विशाल।
मंत्रीजी ने माधुरी व विशाल के अभिवादन का जवाब देना भी उचित नहीं समझा और नेताजी को लेकर मंत्रणा कक्ष मंे घुस गये। आधे घंटे की बातचीत के बाद नेताजी ने विशाल और माधुरी को भी अन्दर बुला दिया। विशाल ने स्कीम का प्रेजेन्टेशन शुरू किया मगर नेताजी उन्हंे सब समझा चुके थे। अतः बातचीत व्यापारिक स्तर पर शुरू हुई।
‘आपकी इस सेजनुमा टाऊनशिप से किसे लाभ होगा।’
‘सभी का लाभ है सर। जनता को सस्ते दामांे मंे फ्लैट, कम्पनियांे को ऑफिस खोलने की जगह और लोगांे को रोजगार मिलेगा।’
‘कितने लोगों को।’
‘शुरू मंे दस हजार बाद मंे यह संख्या बढ़कर पच्चीस हजार तक हो जायेगी।’
‘सरकार से क्या चाहते है आप?’
इस पर माधुरी बोली।
‘सरकार हमंे जो सब्सिडी देगी उसी से हम और ज्यादा विकास करंेगे।’
‘बिजली, सड़क, पानी की सुविधाएंे कैसी होगी ?’
‘वो हम कर लेंगे सर। बिजली और सड़क हम बनायंेगे। पानी की व्यवस्था भी हम ही कर लेंगे। बस सरकार अनुमति दे दे।’
‘मैं कोशिश करूंगा। मामला बड़ा है केबिनेट मंे जायेगा ?’
‘सर। आपका आर्शीवाद मिल जाये तो.............।’ विशाल बोल पड़ा।
‘आर्शीवाद की कीमत क्या है।’ मंत्री ने पूछा।
‘सर जो आपका आदेश हो।’
‘आदेशांे की चिन्ता मत करो। इतने आदेश दे दूंगा कि बोलती बन्द हो जायेगी।’ नेताजी ने कहा।
‘सर आप कहे।’
ठीक है, दस प्रतिशत फ्लैट, दस प्रतिशत विकसित कारपोरेट लैण्ड मेरा होगा।
‘सर ये तो बहुत ज्यादा है, हम केवल तीस प्रतिशत जमीन ही काम मंे लेंगे, बाकी जमीन तो ग्रीन रहेगी।’
‘तो तुम तीस के बजाय चालीस प्रतिशत जमीन को काम मंे लेना। मैं सब ठीक कर लूंगा। ठीक है।’
‘हां, सर ठीक है।’
और सुनो कल के सभी अखबारांे मंे एक पूरे पृष्ठ का रंगीन विज्ञापन डाल दो। कल ही बुकिंग भी शुरू कर सकते हो।’
‘जी अच्छा।’ नेताजी, माधुरी और विशाल सभी ने एक स्वर मंे खुशी जाहिर की।
मंत्रीजी कक्ष से वापसी मंे सभी के चेहरे खुश थे। अन्दर मंत्री जी दूषित पेयजल से हुई मौतांे पर मीडिया के सामने अफसोस जाहिर कर रहे थे।
मंत्रीजी के बंगले के बाहर ही मिनरल वाटर की बोतलंे लेकर माधुरी कार मंे बैठ गई। विशाल ने कार चलाई और नेताजी ने कार के शीशे चढ़ा दिये। वे वापस कस्बे की और लौट चले।
कस्बा यथावत था। सब कुछ सामान्य।
शुक्लाजी आज घर जल्दी आ गये। श्रीमती शुक्ला याने शुक्लाइन को यह सुविधा थी कि वो मध्यान्तर से पूर्व अपनी कक्षाएँ ले ले और मध्यान्तर के बाद घर आकर गृहस्थी का कामकाज संभाल ले। यह सुविधा शुक्लाजी के प्राचार्य होने के कारण नहीं थी बल्कि माधुरी की कृपा का प्रसाद था या मित्रता का लाभ था। आज के इस अति आधुनिक कलिकाल मंे मित्रता की परिभाषा ही यहीं थी कि स्वार्थ पूरे हो तो मित्रता और यदि स्वार्थांे की पूर्ति मंे कमी आ जाये तो शत्रुता। माधुरी, शुक्लाईन से अपनी शर्तों पर काम करवा लेती थी। शुक्लाइन ने पति को प्रिन्सिपल स्वयं को स्थायी अध्यापक बनवा लिया था। दोनांे हाथ साथ-साथ धुल रहेे थे। मौजां ही मौजां।
शुक्लाजी का बच्चा भी अब बड़ा हो गया था। तुतलाकर बोल-बोल कर सबको मोहित कर देता था। शुक्लाईन घर पर बच्चे की आसानी से देखभाल कर लेती थी।
शुक्लाजी ने आते ही कहा।
‘राज्य सरकार की तरफ से अपने कॉलेज को कम्प्यूटर की निःशुल्क शिक्षा के लिए चुना गया है। मैं चाहता हूं कि अध्यापिका के बजाय तुम कम्प्यूटर लेब का काम संभाल लो।’
‘आपके चाहने से क्या होता है ? और फिर मुझे कम्प्यूटर के बारे मंे कुछ भी मालूम नहीं है।’
‘कौन मां के पेट से सीख कर आता है।’ ‘मुझे विश्वास है तुम सब संभाल लोगी।’
‘इस विश्वास का कारण।’ लक्ष्मी ने अर्थपूर्ण नजरांे से देखते हुए कहा।
‘विश्वास इसलिए तुम सुन्दर ही नही, होशियार, चतुर, चालाक और इन्टेलिजंेट भी हो।’
‘इतने विशेषण एक साथ। क्या बात है आज सब ठीक-ठाक तो है।’
‘हां-हां सब ठीक-ठाक है। माधुरी मैडम राजधानी से आ गई है और कॉलेज मंे कम्प्यूटर लेब खोलने के लिए मुझ घर पर बुलाया है।’
‘तो चले जाओ।’
तुम भी चलती तो...।’ शुक्लाजी ने कहा।
लक्ष्मी ने जान-बूझकर कोई उत्तर नहीं दिया।
शुक्लाजी लक्ष्मी को मना कर अपने साथ माधुरी के यहां ले गये। उन्हंे एक साथ देखकर माधुरी बोली।
‘कहो भाई। क्या हाल-चाल है ? सब ठीक-ठाक तो है।’
‘हां मेम सब ठीक है।’
माधुरी शीघ्र ही कम्प्यूटर साक्षरता कार्यक्रम पर आ गई । बोली।
‘भविष्य का युग कम्प्यूटर का युग है। हमंे अभी से इस ओर प्रयास करने चाहिये। मैं चाहती हूं कि जब कॉलेज विश्वविद्यालय बने तो हम कम्प्यूटर कोर्सेज शुरू कर सके। हमंे अभी से पूरी तैयारी से जुट जाना होगा। अब बड़ी-बड़ी कम्पनियां प्रदेश मंे आयेगी और हमारे यहां के लड़कांे को काम पर रखेगी।’
‘वो तो ठीक है मैडम मगर कम्प्यूटर के क्षेत्र मंे मानव-शक्ति का अभाव है।’
‘इसलिए तो हमारी दाल गल जायेगी। यदि विशेषज्ञ उपलब्ध हो जायंेगे तो हमंे कौन पूछेगा।’
‘मेम कम्प्यूटर लेब के लिए एक इन्चार्ज भी चाहिये।’
‘वो सब शुक्लाजी आप जाने। नया स्टॉफ रखना अभी सम्भव नहीं है। जो है उनसे ही काम चलाये।’
‘फिर आप उचित समझे तो लक्ष्मी को कम्प्यूटर लेब इन्चार्ज बना दे।’
‘ठीक है किसी न किसी को तो बनाना ही है। फिर लक्ष्मी को क्यांे नहीं।’
‘मैडम कुछ कम्प्यूटर भी क्रय करने है।’
‘वो सब आप छोड़ो। मैने राजधानी से दस कम्प्यूटर व अन्य सामान मंगवा लिये है। आप कक्षांे की व्यवस्था कर दे। और काम शुरू करंे।
‘जी अच्छा।‘ शुक्लाजी तो लक्ष्मी के इन्चार्ज बनने मात्र से ही खुश थे। वे ज्यादा बहस नहीं करना चाहते थे। फिर भी बोले।
‘मैडम कम्प्यूटर साक्षरता के लिए शायद राज्य सरकार किसी बड़ी कम्पनी से संविदा करेगी और वे ही यहां पर आकर काम देखंेगे।’
‘इसलिए तो लक्ष्मी ठीक रहेगी। वो हमारी और से काम देखंेगी।’
‘हां-हां ये ठीक रहेगा।’
‘और देखो शुक्लाजी मैंने विश्वविद्यालय के लिए जमीन देख ली है।’
‘अच्छा। बहुत अच्छा।’
‘लेकिन अभी एक्ट बनवाना बहुत मुश्किल है।’
‘जब जमीन हो गई तो बाकी के काम भी हो जायंेगे।’ लक्ष्मी बोली।
‘सब मिलकर ही विकास कर सकते है ये तो खण्ड-खण्ड विकास के पाखण्ड पर्व है।’
‘हम भी बहती गंगा मंे हाथ धो रहे है बस।’ यह कहकर माधुरी ने उन्हंे विदा किया।
घर आकर लक्ष्मी और शुक्लाजी ने बच्चे को प्यार किया वे सोच रहे थे विश्वविद्यालय बने तो उसमंे भी अपने लिए जगह बना लेंगे।
विश्वविद्यालय की गन्दी राजनीति का वृहद अनुभव उन्हांेने अपने शोधकार्य के दौरान कर लिया था और उसका लाभ वे ले सकंेगे। इधर लक्ष्मी लेब इन्चार्ज के बाद डीन बनने के सपने बुनने लग गयी थी। सपनांे के संसार मंे हर किसी को आने की इजाजत नहीं होती, शुक्लाजी को भी नहीं, यहीं सोचकर लक्ष्मी बच्चंे को छाती से चिपकाकर सो गई।
शुक्लाजी अध्यापन मंे ज्यादा रूचि नहीं रखते थे। मगर पढ़ने के शौकीन थे। स्कूल-कॉलेज के जमाने से ही विभिन्न पुस्तकांे को पढ़ने-संग्रह करने मंे उन्हंें आनन्द आता था। घर पर ही छोटी-मोटी लाइब्रेरी थी। सुबह जल्दी उठ जाते तो पढ़ने लग जाते।
आज भी सुबह उनकी आंख जल्दी खुल गयी। इधर-उधर घूमने के बाद वे पुस्तकांे की अलमारी के पास आ गये। सीमोन द बोउवार की पुस्तक स्त्री उपेक्षिता खोलकर पढ़ने लग गये।
लक्ष्मी उठी। चाय लेकर आई। सुबह के अखबार आ गये थे। लक्ष्मी ने देखा। शुक्लाजी का मन पुस्तक मंे है। वो भी स्त्री उपेक्षिता पढ़ चुकी थी। उसे स्त्री हमेशा से ही उपेक्षिता, वंचिता, शोषिता लगी थी। उसकी खुद के बारे मंे भी ऐसी ही राय थी। वो इस सोच से चाहकर भी बाहर नहीं निकल पाती थी। उसे प्रेम, वासना, प्यार, घृणा, भोग विलास सभी कुछ नापसन्द थे, मगर जिदंगी एक व्यापार है, यदि यह मान लिया जाये तो इस व्यापार मंे जायज-नाजायज सब करना ही पड़ता है। भोग का हिस्सा है प्यार, या प्यार का व्यापार। ढाई आखर प्यार के और ढाई आखर ही घृणा के...। उसने अपने आप से कहा। बच्चा जगने के लिए कुनमुना रहा था। उसे उसने वापस थपका दिया। बच्चा सो गया।
शुक्लाजी ने मां के प्यार को देखा और महसूस किया। वे सोचने लगे।
प्रेम के बारें में हम क्या जानते है ? प्रेम एक महत्वपूर्ण भावनात्मक घटना हैं। प्रेम को वैज्ञानिक अध्ययन से अलग समझा जाता हैं। कोई भी शब्द इतना नहीं पढ़ा जाता है, जितना प्रेम, प्यार, इश्क, मुहब्बत। हम नहीं जानते कि हम प्रेम कैसे करते है। क्यों करते है। प्रेम एक जटिल विषय हैं। जिसने मनुष्य को आदि काल से प्रभावित किया है। प्रेम और प्रेम प्रसंग मनुष्य कि चिरस्थायी पहेली है। प्रेम जो गली मोहल्लों से लगाकर समाज में तथा गलियों में गूंजता रहता है। प्रेम के स्वरूप और वास्तविक अर्थ के बारें में उलझनें ही उलझनें है। प्रेम मूलतः अज्ञात और अज्ञेय है। प्रेम का यह स्वरूप मानव की समझ से दूर हैै। प्रेम के बारें में कोंई जानकारी नहीं हो पाती है प्रेम पर उपलब्ध सामग्री कथात्मक, मानवतावादी तथा साहित्यिक है या अश्लील है या कामुक है और प्रेम का वर्णन एक आवेशपूर्ण अनुभव के रूप में किया जाता है अधिकांश साहित्य प्रेम कैसे करें? का निरूपण करता है। प्रेम के गंभीर सामाजिक और मनोवैज्ञानिक अध्ययन के प्रयास देर से शुरू हुए। प्रेम एक आदर्शीकृत आवेश है जो सेक्स की विफलता से विकसित होता है। या फिर सेक्स के बाद प्रेम विकसित होता है। परन्तु सेक्स प्रेम से अलग भी प्रेम होता है प्रेम को शुद्धतः आत्मिक चरित्र भी माना गया है। प्रेम और सेक्स की अलग अलग व्याख्याएं संभव है। परिभाषाएं संभव हंे प्रेम एक जटिल मनोग्रन्थि हे। प्रेम एक संकल्प हैं। जिसके अर्थ अलग अलग व्यक्तियों कि लिए अलग अलग हो सकता है। यदि प्रेम का समनवय शरीर से है तो उद्दीपन ही सेक्स जनित प्रेम है, यदि ऐसा नहीं है तो यह एक असंगत प्रेम है।
प्रेम संवेगों का उदगम क्या है? प्रेम भावना क्या है? व्यक्ति के उदगम अलग अलग क्यों होतें है। देहिक ओर रूहानी प्रेम क्या है? प्रेम का प्रारम्भ कहां से होता है और अंत कहां पर होता है। प्रेम में पुरस्कार स्वरूप माथे पर एक चुम्बन दिया जाना काफी होता था, मगर धीरे धीरे शारिरिक किस को महत्व दिया जाने लगा ओर सम्बन्ध बनने लग गये। प्रत्येक मनुष्य में जन्म के समय से ही प्रेम का गुण होता है तथा प्रेम की क्षमता होती है।
प्रेम वास्तव में मनुष्य का वह फोकस है जो सेक्स से कुछ अधिक प्राप्त करना चाहता है। जब किसी के लिए दूसरे की तुष्टि अथवा सुरक्षा उतनी महत्वपूर्ण बन जाती हैं। जितनी स्वयं की तो प्रेम अस्तित्व में आता है। प्रेम का अर्थ अधिकार नहीं समर्पण और पूर्णरूप से स्वीकार करना होता है। दो मनुष्योें के बीच आत्मीयता की अभिव्यक्ति ही प्रेम है। प्रेम से अभिप्राय उस अतः प्रेरणा के संवेगों से होता है जो व्यक्ति के साथ व्यक्तिगत संपर्क से प्राप्त होती है। रोमांटिक प्रेम वास्तव में सामान्य प्रेम की गहन अभिव्यक्ति होता है। जिसमें एन्द्रिय तथा रोमांटिक प्रेम का अस्तित्व हमेशा से ही रहता है।
प्रेम के चार मुख्य घटक संभव है परमार्थ प्रेम, सहचरी प्रेम, सेक्स प्रेम, और रोमांटिक प्रेम। शुक्लाजी ने प्रेम का वर्गीकरण करने का प्रयास किया।
प्रेम उभयमानी होता है वास्तव में प्रेम घनात्मक एवं ़़ऋणात्मक धु्रर्वो की तरह ही होता हैं एक ही मन उर्जा के दो विपरीत घुर्वो की तरह है।
प्रेम के पात्र के साथ तादात्मय स्थापित करना ही प्रेम में सर्वोंच्य लक्ष्य हो जाता है। महिला के लिए प्रेम ही धर्म बन जाता है। संसार में प्रेम के अलावा कुछ भी वास्वविक नहीं है। व्यक्ति प्रेम से कभी भी थकता नहीं है। प्रेम जीवन की प्रमुख अभिव्यक्तियों का श्रोत है। प्रेम ही एक ऐसी चीज है जो सर्वाधिक सार्थक है। प्रेम करने वाला कष्ट ओर विपत्तियों का सामना करता है। ओर प्रेम को वरदान मानता है। सुख का कोई भी श्रोत उतना सच्चा नहीं जितना प्रेम है। प्रेम सहनशील बनाता है। समझदार बनाता है। ओर अच्छा बनाता है। हम अधिक उद्दात्त बन जाते है। शुक्लाजी का सोच आगे बढ़ता रहा।
व्यक्ति का जन्म प्रेम ओर मित्रता करने के लिए होता है। प्रेम के अमूल्य विकास में बाधा डालने वाली प्रत्येक चीज का विरोध किया जाना चाहिये। प्रेम का उन्मुक्त विकास होना चाहिये। अपने रूप को बनाये रखकर दूसरे को ऊर्जान्वित करने को ही प्रेम कहा जाना चाहिये। प्रेम से सुरक्षा की भावना बढ़ती है। प्रेम करने वाले को अपने प्रेम के पात्र के कल्याण ओर विकास मेें ही दिलचस्पी रहती है। प्रेमकरने वाला अपने साधन अपने पात्र को उपलब्ध कराता है। इससे उसे सुख मिलता है।
प्रेम सबसे सहजता से ओर परिवार की परिधी में उत्पन्न होता है। आगे जाकर पूरी मानवता को इस में शामिल किया जा सकता है। प्रेम का भाव प्रेम के पात्र तक ही सीमित नहीं रहता है। बल्कि प्रेम करने वालें के सुख तथा विकास को भी बढ़ाता है।
प्रेम पसन्द या रूचियों पर निर्भर नहीं रहता, प्रेम की गली अति संकरी या में दो ना समाये, ढ़ाई आखर प्रेम का पढ़े सौ पण्डित होय। शुक्लाजी को अपने जीवन की स्मृतियां याद आई। वे फिर सोचने लगे।
प्रेम का रास्ता तलवार की धार पर चलने का रास्ता हैं। विश्व की महान उपलब्ध्यिों के लिए प्रेरणा स्त्री के प्रेम से प्राप्त होती है। कालिदास, नेपोलियन, माइकल फैराडे के जीवन में प्रेम ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। ऐन्द्रिय उल्लास प्रेम का फल होता है। प्रेम व्यक्ति का जीवन हो जाता है, ओर जीविका भी। प्रेम आवश्यक रूप से पसन्द या रूचियों पर निर्भर नहीं करता है। प्रेम अति भाव भी जाग्रत करता है। प्रेम एक ऐसा संवेग है जो आवेग ओर आवेश के बढ़ जाने के बाद बना रहता हैै। प्रेम केवल एक रोमांटिक भावना नहीं है। प्रेम के अधारभूत अनुभव की जड़े व्यक्तियों की आवश्यकताओं में होती है। सूत्र रूप में हम प्रेम की कल्पना एक संवंेगात्मक रूप में कर सकतेे है। वास्तव में प्रेम वैयक्तिक ओर सामाजिक दोनो प्रकार के कल्याण तथा सुख के लिए आवश्यक है। प्रेम की जटिलता को समझना आसान नहीं होता है। प्रेम के विषमलिंगी व्यक्तियों में अनुराग, लगाव रूचि ओर भावावेश होता है। ओर अन्य व्यक्ति इस क्रिया को अपने ढ़ंग से देखने के लिए स्वतंत्र होता है। शुक्लाजी ने स्त्री-पुरूष सम्बन्धांे पर पुनर्विचार किया। प्राचीन भारतीय स्त्री में भी पुरूष की अपेक्षा प्रेम का गुण कहींे अधिक पाया जाता है। प्रेम को उसके अधिक उद्दात्त अर्थ में समझना स्त्री के लिए ही संभव है संपूर्ण प्रेम की और स्त्री का झुकाव ज्यादा पाया जाता है। शरीर गौण हो जाता है। निष्काम प्रेम की कल्पना ही सहज रूप मंे संभव है।
शुक्लाजी सोचते-सोचते परेशान हो गये।
लक्ष्मी उन्हंे विचार मग्न देखकर अपने काम मंे लग गई। छुट्टी का दिन था। सब कुछ आराम से किया जा सकता है। शुक्लाजी ने उसे अपने पास बिठाया। बोले।
‘प्रेम के बारे मंे तुम क्या सोचती हो?’
‘स्त्री बेचारी क्या सोचे। उसे कौन पूछता है। बचपन मंे बाप की छाया, जवानी मंे पति की शरण और बुढापे मंे पुत्र और बाद मंे नाती-पोते। हर कोई उसे अपना एक खिलोना समझता है या काम करने वाली मशीन या फिर जवानी मंे बच्चे पैदा करने वाली मशीन बस।’
‘लेकिन स्त्री का मन......।’ शुक्लाजी ने टोका।
‘काहे का मन और काहे की आत्मा। सब कहने की बात है। एक संतान हो तो लड़का चाहिये। चीन की हालत देखो बहुत खुश होकर एक-एक संतान का नारा दिया गया। अब आज...। और हमारे देश मंे भी एक-या दो-या तीन लड़कियांे के बाद भी एक लड़के की इच्छा।’
‘लेकिन तुम्हारे तो लड़का है।’
‘व्यक्तिगत बातचीत से क्या फायदा। समाज का सोच क्या है?’
‘समाज का सोच। हमारे हाथ मंे नहीं है।’
‘फिर पूछते क्यांे हो ?’
‘देखो ये सब समस्याएंे हमारी अकेले की नहीं है।’
‘वो तो मैं भी जानती हूं। प्रेम एक व्यापार की तरह है। और इस घोर कलियुग मंे तो इस हाथ दे उस हाथ ले...।’
‘शायद तुम सही हो।’
‘लेकिन यह तो वासना का व्यापार है।’
‘यही तो त्रासद व्यंग्य है श्रीमान।’
‘इस युग मंे और हर युग मंे इस व्यापार का अन्तिम सिरा वासना के हाथ मंे ही रहा है। प्रेम के घटकांे को एक साथ कौन समझना चाहता है।’
‘और कौन समझ सकता है। प्रेम गली अति सांकडी या मंे दो ना समाये। प्रेम करना तलवार की धार पर चलना है।’
‘नही प्रेम एक व्यापार है और इसे इसी दृष्टि से देखा जाना चाहिये।’ शुक्लाजी ने निर्णायक अंदाज मंे कहा।
‘चलो छोड़ो सुबह खूबसूरत है। नहाने के बाद तुम और भी खूबसूरत लगती हो। तुम किसी अप्सरा की तरह लगती हो।’
‘छोड़ो ये चांेचले। मुझे मालूम है जन्नत की हकीकत। यदि विश्वविद्यालय से तुम्हारी प्रिन्सिपली तक की सफलता बयां करने लगंू तो महाभारत के कई सीन हो जाये।’
‘लेकिन ये सब इक तरफा तो न था........।’
‘सवाल ये नहीं है, सवाल ये है कि क्या ये व्यापार नहीं है, यदि व्यापार है तो प्रेम नहीं है। घृणा नहीं है। विनिमय है, और विनिमय की शर्तें हमेशा से ही कठोर होती है। हमंे इन शर्तों को मानना पड़ता है।’
‘शर्तें मानने से हमारे सम्बन्धांे पर क्या असर होता है।’
‘होता है। असर होता है। एक कसक हमेशा कलेजे मंे रहती है। एक टीस है जो कभी खत्म नहीं होती।’
‘लक्ष्मी मानव भी एक जीव है, क्लास मेमेलिया का गया मुख्य चरित्र ही पोलिगेमी है और इससे कोई बच नहीं सकता।’
‘न बचे मगर क्या मनुष्य जानवर है ?’
‘समाज तो ऐसा नहीं मानता।’
‘तब फिर हम ये सब क्यांे करते है ? या क्यांे करने को मजबूर करते है। इसका जवाब कोई नहीं दे सकता।’
‘दे सकता है। हर पीड़ित, शोषित, वंचित को इन बातांे का जवाब पता है। प्रेम ही वासना है। वासना ही व्यापार है।’
शुक्लाजी चुपचाप शून्य मंे देखते रहे। वे चाहकर भी शुक्लाइन से आंखे नहीं मिला सके। शुक्लाईन बच्चे को दूध पिलाने मंे व्यस्त हो गई। उसे प्रेम का शाश्वस्त स्वरूप वात्सल्य ही लगा। बाकी सब वासना, व्यापार, अश्लीलता। पोलिगेमी आदि। वह स्वर्ग सा सुख पा गई।
शुक्लाजी भी इस वात्सल्य सुख को देख-देख कर अनिर्वचनीय आनन्द की अनुभूति करने लगे।
शुक्लाईन बच्चे के तोतले मंुह से वाणी सुनकर निहाल हो गई। उसने प्यार से बच्चंे को चूम लिया। शुक्लाजी ने भी बच्चे के गाल पर स्नेह-चिन्ह का अंकन किया। मगर शुक्लाजी शुक्लाईन से आंखें नहीं मिला पाये। उन्हंे जीवन मंे त्रासद व्यंग्य की फिर अनुभूति हुई।