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‘तुम नेतागिरी तो छांट़ो मत। काम कराना हो तो पचास का नोट इधर करो।’ और तीन बजे आकर मृत्यु प्रमाण पत्र ले जाओ।’
कल्लू ने अपने मृत पिता का मृत्यु प्रमाण पत्र उसी रोज तीन बजे पचास रूपये मंे प्राप्त कर लिया।
सरकार कभी भी छुट्टी पर नहीं रहती और यदि सुविधा शुल्क हो तो अफसर भी लपकर कर कागज निकाल देते है।
कल्लू जब प्रमाण पत्र लेकर वापस आया तो जबरा कुत्ता वहां पर एक टांग ऊंची करके पेशाब की धार मार रहा था।
शाम को ठीये पर कल्लू ने यह सब जानकारी झबरे की मौजदूगी मंे कुलदीपकजी को दी। कुलदीपकजी ने कहा।
‘यार ये सुविधा हमारे यहां ही है। काम कितनी आसानी से हो गया। किसी का अहसान नहीं लेना पड़ा। चांदी का जूता मंुह पर मारने मात्र से काम हो गया। तेरे बाप की आत्मा स्वर्ग मंे यह सब देख, सुनकर शान्ति से होगी कि उसके बेटे ने मृत्यु प्रमाण पत्र प्राप्त कर लिया है। अब खातेदारी मंे सफलता मिलकर रहेगी।’
कल्लू कुछ न बोला बस शून्य मंे ताकता रहा।
प्रिय पाठकांे एवं पाठिकाआंे, उपन्यास के प्रथम पृष्ठ पर जिस नायकनुमा खलनायक या खलनायकनुमा नायक से आपकी मुलाकात हुई थी और जिसने आगे जाकर अपने उस मामले को रफा-दफा करने की खातिर अपनी महिला मित्र को कार-फोन, फ्लैट और एक अदद पति उपहार मंे दिया था, वो आजकल बड़ा दुःखी, परेशान और हैरान था। अवसाद मंे था। पिताश्री चल बसे थे। इसके साथ ही उसका पुलिसिया रोब-दाब भी चल बसा था। बाजार की हालत उसके हिसाब से खराब थी। एक-दो विवादस्पद जमीनांे मंे पूंजी फंस गई थी। ऊपर से उसने अपनी फर्म को प्राइवेट लिमिटेड बना दिया था।
डायरेक्टर के रूप मंे स्वयं, अपनी पत्नी और एक साले को रख लिया था। उसकी निजि सगी पत्नी एक स्वर्गीय या नरकीय आई.ए.एस. की सन्तान थी। पहले प्यार हुआ फिर विवाह हो गया सो यह एक लव-कम-अरेन्ज मैरिज हो गई। लेकिन मैडम का रोब-दाब एक बड़े आई.सी.एस अफसर की पुत्री जैसा ही था।
सुबह-सुबह ही वह अपने प्रोपर्टी डीलर कम्पनी के एम.डी. कम चैयरमेन पति पर चिल्ला रही थी।
‘आखिर ये सब क्या हो रहा है ?’
‘कहो। क्या हो रहा है ? कुछ भी तो नहीं। सब ठीक-ठाक तो है।’
‘क्या खाक ठीक-ठाक है। तुम घर से बाहर कुछ भी करो। मुझे कोई मतलब नहीं। मगर मेरे घर मंे मेरी नजरांे के सामने यह सब नहीं चलेगा।’
‘क्या ? क्या नहीं चलेगा ?’
‘वही सब जो तुमने रात को किया।’
‘क्यों ! क्या किया।’
‘रात भर ताशपत्ती, शराब, जुआं और......बाहर के गेस्टरूम मंे लड़कियां। ये....ये सब मैं नहीं होने दूंगी।’
‘क्यांे ? क्यांे ? तुम क्या कर लोगी।’
‘मैं इस घर की मालकिन हूं। और घर मंे वहीं होगा जो मैं चाहूंगी।’
‘देखो डार्लिंग। ये सब व्यवसाय का हिस्सा है।’
‘क्या व्यवसाय का हिस्सा है। मैं भी तो सुनंू।’
‘मैडम इट इज ए पार्ट ऑफ दी गेम।’
‘व्हाट ? व्हाट इज दी पार्ट ऑफ दी गेम।’
‘आई डू नाट एग्री।’ आई.ए.एस. पुत्री ने गुस्से मंे पैर पटकते हुए कहा।
‘तुम भी सब जानती और समझती हो।’ जिस नई जमीन का सौदा हम कर रहे है, उसे सरकार से नियमित कराने के लिए रात को पार्टी थी। तुम्हारा मूड नही था तो तुम्हंे नहीं बुलाया। वैसे भी ऐसी पार्टियांे मंे घरेलू महिलाओ को कोई रोल नही होता है।’
‘तो तुम ये सब कर्म-काण्ड बाहर क्यांे नहीं करते।’
‘बाहर ही करता हूं। इस बार भी बाहर का ही विचार था मगर कमिश्नर अड़ गया, वेन्यू घर पर रखो। क्या करता मेरे करोड़ रूपये अटक गये थे।’
‘लेकिन ये सब घर मंे ही.......बच्चे नहीं है तो इसका मतलब ये तो नहीं कि तुम बिलकुल बेलगाम हो जाओ।’
‘मैं तो बेलगाम नहीं हूँ । मैडम केवल धन्धे के कारण ये सब हुुआ। अब गुस्सा छोड़ो। सब ठीक हो जायेगा।’
‘आइन्दा घ्यान रखना। ऐसी लड़कियांे को घर लाए तो ठीक नहीं होगा।’
आखिर प्रोपर्टी डीलर ने कान पकड़े, नाक रगड़ी। भविष्य मंे ऐसा नही करने की कसम खाई तब जाकर मैडम के मूड मंे उपेक्षित सुधार हुआ।
मौसम ठीक हो गया। अब गरजने-बरसने की कोई संभावना नहीं है, यह देखकर प्रोपर्टी डीलर ने अपना जाल फंेका।
’डार्लिग जो जमीन इस बार ले रहे है वो तुम्हारे पिता के फार्म फाऊस के पास ही है, यदि मम्मीजी भी पार्टनर बन जाये तो पूरी टाउनशिप विकसित हो सकती है यह प्रोजेक्ट पांच सौ करोड़ तक जा सकता है।
‘चुप रहो। तुम्हंे शरम नहीं आती तुम्हंे, मेरे मम्मीजी की जमीन पर आंखें गड़ाते हो। आंखें निकलवा दूंगी।’
‘इतना नाराज क्यांे होती हो। मम्मीजी से एक बार बात करके तो देखो।’
‘मम्मीजी पहले ही भाई को बेदखल कर चुकी है।’
‘वो अलग मामला था। तुम्हारा आवारा भाई सब खा-पीकर नष्ट कर देता।’
‘मैं इस सम्बन्ध मंे मम्मीजी से कुछ नहीं कह सकती हूं। तुम खुद बात कर लेना।’
‘मैरे मैं इतनी हिम्मत कहां है।’
‘क्यांे रात को तो कमरे मंे बहुत हिम्मत दिखा रहे थे। आवाजे बाहर तक आ रही थी।’
‘अरे वो दूसरी बात है। वैसी भी ये बाहरी चालू लड़कियो के चांेचलें होते है। उनसे अपना काम निकल गया। पैमेन्ट कर दिया। बस। बात खत्म।’
‘तो मैरे से भी काम निकालना है।’
‘नहीं मेरी जान। मेरी मलिका। मेरी बहारांे की रानी। तुम तो कम्पनी की मालकिन हो। चाहो तो मुझे सजा दे सकती हो।’
‘सजा तो तुम काट चुके हो। तुम्हारे घर मंे ही तो पुलिस ने अवैध हथियार बरामद किये थे। वो तो मेर पापा तब पावर मंे थे। गृह सचिव थे। सब मामला रफा-दफा करवा दिया। नहीं तो अभी भी संजय दत्त की तरह चक्की फीस रहे होते।’
‘अरे मेरी जान, अब माफ भी करो। क्यांे गड़े मुर्दे उखाड़ रही हो।’
‘उखाड़ने को अब बचा ही क्या है। उस फार्म मंे जो मर्डर हुआ था उसका क्या।’
‘अरे वो तो कभी का रफा-दफा हो गया मैडम।’
‘बस तुम ऐसे ही किसी दिन ऐसे फंसांेगे कि निकल नही पाओंगे और मैं तुम्हारे नाम को रोती रहूंगी।’
‘नहीं मैडम ऐसा नही होगा। अब हम भाले से बांटियां सेंकते है। कामकाज के लिए कारिंदे है। अक्सर उनके हस्ताक्षरांे और मेरे फोन से काम हो जाते है। मेरे अब फंसने के अवसर नहीं है। किस्मत भी मेरे साथ है।’
’अब क्या आदेश है?’
‘क्या एक कप चाय मिलेगी।’
‘चाय तो नौकरानी भी बना देगी।’
‘मुझे तो तुम्हारे हाथांे से पीनी है।’
‘ठीक है, मगर आज से रात को दस बजे घर आ जाओगे। ये चांेचलंे घर से बाहर।’
‘जोे आज्ञा मेम साहब।’
‘एक कप चाय का सवाल है भाई।’
स्त्री पुरूष सम्बन्धांे की हजारांे विवेचनाएंे की गई है। और की जाती रहेगी। आधुनिक नारी सशक्तिकरण के इस उत्तर आधुनिक काल मंे नारी जागरण के नित नये आयाम दिखाई दे रहे है। प्रापर्टी डीलर तथा पत्नी संघर्ष का भी यही निष्कर्ष निकलता है कि नारी घी से भरा हुआ घड़ा है और नर जलता हुआ अंगारा। दोनांे के संयोग वियोग से पुरूष और प्रकृति दोनांे प्रभावित होते है। दोनांे का सम्बन्ध अभिन्न, अखण्ड, अनादि, अविस्मरणीय है। नारी पुरूष के जीवन को हर क्षेत्र मंे सहयोग देती है। भारतीय नारीत्व को गौरवान्वित करती है नारी का सहयोग।
समाज की सारी मान्यताएंे, मर्यादाएं, नारी स्वयं में रक्षित करती है और पुरूष को बांधे रखने मंे सफल होती है। मगर यह खुली अर्थव्यवस्था, विश्व एक गांव की अवधारणा तथा तेजी से कम से कम समय मंे अधिक से अधिक पैसा कमाने की लालसा आदमी को नीच कर्मो की ओर प्रवृत्त करती हैं।
प्रोपर्टी कम्पनी के एम.डी. के रूप मंे विशाल ने पूरे शहर मंे अपना दबदबा कायम कर लिया था। मगर बड़े शहरांे से आने वाली नित नई कम्पनियांे के सामने उसका ठहरना मुश्किल हो रहा था।
उसकी पत्नी ममता भी यह सब समझती थी, मगर बड़े अफसर की पु़त्री होने के नाते पति को दबा कर रखने के हैसियत थी उसकी। वो चाहती वहीं करती। वह विशाल को एक अति महत्वाकांक्षी घोड़ा समझती थी और इस घोड़े की स्वयं सवारी पूरे एशो आराम के साथ करना चाहती थी। इस मामलें मंे उसे कोई अन्य भागीदार मंजूर नहीं था। पुराने किस्से उसे भी याद थे। मगर अंगारांे की राख उड़ाकर वह स्वयं दग्ध नहीं होना चाहती थी। माननीय स्वभाव के अनुसार उसमंे भी उतार-चढ़ाव आते रहते थे।
जिस जमीन पर विशाल ने गिद्ध दृष्टि डाली थी, वो पहले कभी शहर से दूर रिसोर्ट था। मगर शहर के विकास के साथ-साथ रिसोर्ट-फार्महाऊस के रूप मंे शहर के नजदीक आ गया था। धनी-मानी लोग मौज-शोक के लिए आते थे। चारांे तरफ खाली जमीन थी और विशाल एक विशाल टाऊनशिप के सपने देखने लगा था। पांच सौ करोड़ रूपयांे की टाऊनशिप.....। एक सपना.......।
जो यदि साकार हो जाये तो उसकी कम्पनी भी टक्कर की कम्पनी बन जाये। मगर सब कुछ इतना आसान नहीं था। ममता के पिताजी की जमीन को हासिल करना ही सबसे टेढी खीर थी। विशाल इन सभी उलझनांे मंे उलझा था। जमीनांे के मकड़जाल मंे एक ओर चीज की जरूरत थी, एक प्रभावशाली राजनेता की। उसे राजनेता तो नहीं मिला मगर माधुरी से उसकी मुलाकात हो गयी। और माधुरी ने उसे नेताजी के बंगले पर चलने का न्यौता दिया।
वास्तव मंे माधुरी को अपने कॉलेज के लिए नई भूमि की तलाश थी, विशाल के पास भूमि थी। टाऊनशिप की योजना थी और क्रियान्वयन के लिए नेताजी की तलाश थी। माधुरी के पास कामचलाऊ राजनैतिक ज्ञान था। नेताजी से दुआ सलाम थी। थोड़ा बहुत पैसा भी था और महत्वाकांक्षी घोड़ो पर सवारी करने मंे उसे भी मजा आता था। अब उसके पास दो घोड़े थे। विशाल और नेताजी। उसने इन दोनांे घोड़ांे पर सवारी करने का निश्चय किया। उसने विशाल को नेताजी तक पहुंचाया। नेताजी को हलाल के लिए मुर्गे की तलाश थी। विशाल मोटा-ताजा मुर्गा था। नेताजी के बंगले पर तीनांे मिले। विशाल, माधुरी और नेताजी।
विशाल ने अपनी टाउनशिप योजना नेताजी को समझाई। नेताजी ने बात समझने की कोशिश ही नहीं की। वे जानते थे कि इस टाऊनशिप को पूरा कराने मंे ऊंची राजनैतिक पहुंच की आवश्यकता है और ये विशाल या माधुरी के पास नहीं है। बात यहीं तक होती तो भी ठीक था। विशाल के बारे मंे उन्हांेने अपनी ओर से भी खोजबीन कर ली थी। उन्हंे पता चल गया था कि आई.ए.एस ससुराल से उसे कुछ मिलने वाला नहीं है।
माधुरी ने स्पष्ट कहा।
टाऊनशिप मंे स्कूल, कॉलेज या विश्वविद्यालय के लिये जो जमीन आरक्षित होगी वह उसकी होगी। उसके ऐवज मंे वो विशाल के सरकार मंे फंसे पड़े काम-काज निपटाने मंे मदद देगी। विशाल इस बात से केवल आंशिक सहमत था। बोला।
‘मैडम टाऊनशिप मंे केवल स्कूल के लिए जमीन है।’
‘वो मैं नही जानती, यदि मेरा निजि विश्वविद्यालय बना तो उसी टाऊनशिप मंे बनेगा।’
‘तो फिर स्कूल नहीं बनेगा।’
‘स्कूल तो आवश्यक है, नेताजी ने कहा।’
ऐसा करते है कि स्कूल खोलने के लिए जमीन आरक्षित कर देते है और यदि विश्वविद्यालय का एक्ट बन जायेगा तो स्कूल को ही विश्वविद्यालय का दर्जा दे देंगे। नेताजी ने समझौते के रूप मंे निर्णय दिया। विशाल और माधुरी सहमत हो गये।
अब मामला नेताजी की हिस्सेदारी पर आकर अटक गया। इस मामला मंे माधुरी ने पहल की। नेताजी की तरफ से बोली।
‘बोलो विशाल। इस विकास योजना मंे नेताजी का हिस्सा क्या होगा।’
‘मुनाफे मंे दस फीसदी।’ विकास ने सोच-समझकर मोल-भाव शुरू किया।
‘हिस्सा दे रहे हों या भीख। नेताजी ने गुस्से मंे कहा।’
विशाल चुप रहा। माधुरी ने बात संभाली।
‘सर। आप गुस्सा मत होईये। मुनाफे मंे पच्चीस प्रतिशत हिस्सेदारी आपकी रहेगी। ये सब कुछ बेनामी रहेगा। आप कहीं भी पिक्चर मंे नहीं आयेंगे।
‘पिक्चर मंे आने से मैं डरता नहीं हूं।’
‘वो तो ठीक है सर। पर..............।’ विशाल ने बात जान-बूझकर अधूरी छोड़ दी।
‘फिर आपके अगले चुनाव का खर्चा भी विशाल की कम्पनी ही उठायेगी। माधुरी ने ब्रह्मास्त्र फंेका यह टाऊनशिप आपके क्षेत्र मंे ही होगी।’
‘हां ये तो ठीक है।’ ‘नेताजी ने सहमति प्रकट कर दी।’
तो क्या सहमति-पत्र पर हस्ताक्षर कर दंे। नेताजी बोले।’
‘नेकी और पूछ-पूछ......।’ विशाल ने कहा।’
माधुरी ने तीन गिलास भरे।
‘चीयर्स।’
नई टाऊनशिप के नाम पर तीनांे ने चीयर्स कहा।
माधुरी के मौहल्ले वाले स्कूल कम जूनियर कॉलेज के प्रिन्सिपल हांफ्ते हुए माधुरी के बंगले पर प्रकट हुए। शुक्लाजी की सांस फूलती देखकर माधुरी ने उन्हंे बैठने को कहा।
‘मैडम गजब हो गया।’
‘क्यों ? क्यांे ? क्या हो गया।’
‘एक सवर्ण लड़के ने एक दलित को मार दिया। उसके कपड़े फाड़ दिये। जातिसूचक बातंे कही।’
‘अच्छा फिर क्या हुआ।’
‘दलित छात्र ने पुलिस मंे रपट लिखा दी। पुलिस आई है मेरे भी बयान लेने को कह रही है।’
‘अच्छा और।’
‘और ये कि कॉलेज मंे दो गुट बन गये है। एक दलित और दूसरा सवर्ण। कभी भी विस्फोट हो सकता है।’
‘तुमने क्या कार्यवाही की।’
‘मैं क्या कार्यवाही करता। सीधा-सीधा आपकी सेवामंे सूचना देने आ गया हूं।’
‘शुक्लाजी आप भी बस........। आपसे तो लक्ष्मी मैडम ठीक है। वो सब संभाल लेती।’
‘अब मुझे क्या करना चाहिये।’
आप कुछ मत कीजिये। दोनों छात्रांे को मेरे पास भेज दीजिए।
‘जो आज्ञा।’ शुक्लाजी हांफ्ते-कांपते चले गये। थोड़ी देर बाद दोनांे छात्र माधुरी के बंगले पर हाजिर थे।
माधुरी ने दोनांे को प्यार से समझाया। बिठाया। नाश्ता कराया। पूछा।
‘तुम्हंे कौन भड़का रहा है ?’
दोनांे छात्र चुप रहे। माधुरी ने फिर दलित से पूछा।
‘तुम्हारे साथ क्या हुआ ?’
‘इसने मुझे मारा। कपड़े फाड़ दिये। गाली दी।’
‘और तुमने क्या किया ?’
‘मैं क्या करता पुलिस मंे चला गया।’
‘इससे पहले तुम्हंे प्रिन्सिपल से मिलना था। मुझसे मिलते। हम कुछ करते। मगर तुमने मौका ही नहीं दिया।’
लड़का चुप रहा।
‘और तुम....स्कूल मंे पढ़ने आते हो या लड़ाई-झगड़े करने। तुम्हारे कारण हमारी कितनी बदनामी हो रही है।’
सवर्ण भी चुप रहा।
‘मैं चाहूं तो तुम दोनांे को स्कूल से निकाल बाहर कर दूं। मगर तुम बच्चे हो। तुम दोनांे एक-दूसरे से माफी मांगो।’ माधुरी ने दोनांे को एक-दूसरे से माफी मंगवाई। लिखित मंे समझौता कराया। प्रिन्सिपल शुक्ला से अग्रेषित करा पुलिस मंे दिया पुलिस की भंेट पूजा के बाद मामला शान्त हुआ। दलित छात्र की फीस माफ कर दी गई। सवर्ण छात्र के पिता ने स्कूल मंे डोनेशन दिया। सब कुछ शान्ति से चलने लगा।
माधुरी, विशाल और नेताजी अपनी टाऊनशिप के सिलसिले मंे राजधानी आये हुए थे। राजधानी मंे नेताआंे के लिए ठीये तय थे। तीनांे एक सरकारी डाक बंग्लांे मंे रूके। राजधानी तो राजधानी। यहां की राजनीति के क्या कहने ? बड़े अफसरांे के क्या कहने। सचिवालय, पार्टी दफ्तरांे की चमाचम। चौड़ी खूबसूरत सड़कें। बड़ी-बड़ी कम्पनियांे के बड़े-बड़े दफ्तर। राजधानी की चमक-दमक देखकर माधुरी दंग रह गयी। विशाल ये सब देखता समझता था। उसे अपने काम से मतलब था। पैसा खर्च करना उसे आता था। माधुरी को काम निकलवाना आता था। नेताजी रूपी घोड़े की लगाम माधुरी ने अपने हाथ मंे ले ली और राजधानी की सड़कांे पर तेजी से दौड़ने लगी। राजधानी रात मंे किसी दुल्हन की तरह लगती थी।
राजधानी आकर ही व्यक्ति को अपनी औकात का पता लगता है। कस्बे की राजनीति और कार्यप्रणाली मंे तथा राजधानी की राजनीति और कार्यप्रणाली मंे जमीन-आसमान का अन्तर होता है। व्यक्ति यहां की भीड़ मंे खो जाता है। आदमी का वजूद खत्म हो जाता है। राजधानी मंे राजनीति भी बड़ी होती है। बड़ी तेजी से हर कोई कहीं भी भाग रहा है। राजधानी मंे क्या नहीं है। साड़िया है। सलवार-सूट है। जीन्स है। पेंट है। टॉपलेस बाटम है। बाटमलेस टाप है। यहां पर सूट है। टाई है। जॉकेट है। धोती-कुर्ता है। टोपियां है। विग है। मुखौटे है। खेलापोलमपुर है। कहीं-कहीं पोपाबाई का राज है। राजधानी मंे बड़ी बातंे है। लहरदार बातें। हवाई बातंे। राजधानी ही प्रदेश है। यहां पर पत्रकार है। इलेक्ट्रानिक मीडिया है। बार है। बार गर्ल है। राजधानी मंे हर तरफ दौड़ती भागती जिन्दगी है। हर तरफ हर कोई भाग रहा है। किसी के पास भी टाइम नहीं है। टाइम इज मनी यहीं आकर पता चलता है। यहां प्रेम है। घृणा है। सब कुछ है। षडयंत्र है। सब तुच्छ है। शक्ति है। शक्तिशाली है। पुरूषांे के चेहरे रंगे हुए है। कई चेहरांे के रंग उड़ गये है। क्यांेकि राजनीति मंे चेहरे के रंग बदलते रहते है। राजधानी मंे कच्ची बस्तियां है। भव्य अटटालिकाएं है। अलकापुरी से दृश्य है। गरीब,भीख, मांगती जनता है।, मगर राजधानी का दिल बहुत बड़ा है। वो हर एक को पनाह देती है। शरण देती है। सब के लिए कुछ न कुछ जुगाड़ करती है।
राजधानी के अस्पताल क्या कहने। फाइल स्टार, होटलांे को मात करते है। राजधानी के कॉलेज, स्कूल, विश्वविद्यालय, लगता है पूरी दुनियां मंे श्रेष्ठ है। विधानसभा भवन जिस पर नजरंे नहीं ठहरे।
शानदार मॉल, मल्टीप्लेक्सांें की दुनिया और चौराहे-चौराहे भीख मांगती मानवता। है। राजधानी का उसूल चढ़ते सूरज को सलाम। आने वाले का बोल-बाला। जाने वाले तेरा मुंह काला।
ऐसे ही माहौल मंे विशाल, माधुरी ओर नेताजी सचिवालय की सीढ़ियां चढ़कर मंत्रीजी के कक्ष तक पहुंचे क्यांेकि सचिवालय की एक लिफ्ट खराब थी और दूसरी आरक्षित थी। मंत्री से मिलने से पहले पी.ए. से मिलो। फिर पी.एस. को काम समझाआंे। फिर कुछ बात बने। मगर मंत्रीजी ने तुरन्त कह दिया।
‘यार कल सुबह बंगले पर आ जाना। अभी तो मंत्रीमण्डल की मिटिंग मंे जा रहा हूं।’
पहला दिन बेकार ही रहा। यह सोचकर तीनांे वापस ठीये पर आ गये।
राजधानी के क्या कहने। राजधानी मंे राजनीति दूषित। हवा दूषित। पानी दूषित। कोढ़ मंे खाज ये कि दूषित पेयजल की आपूर्ति से कच्ची बस्ती मंे सैकड़ांे बच्चे, बड़ांे और बूढ़ांे को उल्टी दस्त हो गये। दो बच्चांे की मौत ने हंगाम बरपा कर दिया।
अफसरांे अहलकाहरांे का दौरा हुआ। विपक्षी दलांे ने सरकार के खिलाफ नारे लगाये। जुलूस निकाले। मृत बच्चांे की आत्मा की शान्ति के लिए प्रार्थना सभाएंे हुई। ज्यादा उत्साही नवयुवा नेताआंे ने पेयजल की आपूर्ति के लिए अपने खजाने खोल दिये। सत्ताधारी पार्टी, नेता अपनी सरकार का कार्यकाल सफलतापूर्वक पूरा होने का जश्न मनाने लगे। इस जश्न की व्यस्तता के चलते सरकार का ध्यान पेयजल, बिजली, स्वास्थ्य जैसी छोटी-मोटी समस्याआंे पर नहीं गया।
पेयजल से हुई मौतांे पर अखबारांे मंे अलग-अलग बयान छपे। बयानांे की सच्चाई का पता लगाने की कोशिश किसी ने भी नहीं की। स्वास्थ्य मंत्री ने मौत का कारण दूषित पेयजल बताया जबकि जलदाय मंत्री ने मृतक का कारण इलाज मंे लापरवाही बताया। दोनांे मंत्री एक ही सरकार मंे थे, मगर अलग-अलग गुटांे मंे थे, इस कारण राजनीति करने से बाज नहीं आये। विपक्ष के नेता के बयान पर एक सत्ताधारी पक्ष ने स्पष्ट कर दिया कि विपक्ष लाशांे की राजनीति कर रहा है। लेकिन विपक्ष ने पीड़ित, दुःखी जनांे को, आर्थिक सहायोग देकर जनता की सहानुभूति इसलिए जीत ली कि अगले चुनावांे मंे यह सब सहानुभूति की लहर बनकर उन्हंे सत्ता के द्वार तक पहुंचा देगी।