कहानी—
धुन्ध
आर. एन. सुनगरया,
प्रात: ऑंखें खुलीं तो, तरो-ताजा मेहसूस हुआ, ‘’बेटे की शादी हर्षोल्लास से सम्पन्न हो गई।‘’
‘’प्रणाम! पिताजी।‘’ नवबधु ने चरण स्पर्श किया! लगा, बहु संस्कारी है।
इस मुकाम तक आते-आते व्यक्ति अपने अन्तिम पड़ाव को छूने लगता है। रह-रहकर वह सहारे की लहरों पर विश्वास / अविश्वास के थपेड़ों में डोलने लगता है। तत्काल कोई धारणा बनाकर नहीं चलना चाहिए। भविष्य के गर्भ में क्या पल रहा है, इसे कौन जान सकता है।
हॉं, यादों के झरोखे जरूर खुलने लगते हैं---
.........लेवर रूम के बाहर चहल-कदमी करते हुये व्याकुलता में एवं जिज्ञासा में की गई प्रतीक्षा के विस्तार से आतुरता बढ़ती जा रही है।
‘’आपको पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई है...!’’
एकाएक आवाज गूँजी तो सन्न रह गया। प्रफुल्लता में.....मैं कोई शिष्टाचार भी नहीं निभा पाया, धन्यवाद, इत्यादि। कोई प्रश्न भी नहीं पूछ पाया......नवजात शिशु और उसकी माता...ठीक है ना जच्चा-बच्चा आदि- आदि ।
.....साल-साल, दो-दो साल, के अन्तराल परिवार में तीन बच्चों ने जन्म ले लिये.....इनके लालन-पालन, परवरिश में पति-पत्नी दोनों का पूर्ण ध्यान लग गया।
अल्प आय में कठिनाईयॉं भी कम नहीं होती, मगर फिर भी जितना अच्छे से अच्छा लालन-पालन, पढ़ाई-लिखाई या शिक्षा-दीक्षा हो सकती थी, उसमें कोई कसर नहीं छोड़ी। और बहुत ही लाड़-प्यार, दुलार से औलाद को जवान किया। जितनी सम्भव हो सकती थी या यूँ कहें कि जितनी शिक्षा वे अपनी क्षमताओं और पसन्द के आधार पर कर सकते थे, पूरे किये। उसमें कोई बाधा नहीं आने दी।
साफ सुथरे परिवेश में, सभ्य समाज के साथ खेलकूद कर व पढ़-लिखकर युवावस्था तक पहुँचे। कभी भी, किसी अभाव का आभास नहीं होने दिया।
ये ना जाने, किस आशा-विश्वास के साथ सभी पालक कर जाते हैं...हँसते...हँसते.....
विलक्षण! होता है मानव मस्तिष्क सम्पूर्ण कार्यकलाप दिमाग के निर्देश पर अपने दृष्टिकोण के अनुसार होता है। इस मंजर, मंशा, साजिश अथवा योजना का पूर्व अनुभव (पूर्वानुमान) लगाना कि ऊँट किस करवट बैठेगा अत्यन्त कठिन व दुर्लभ काम है। कुछ भी आभास नहीं हो पाता कि किस और हवा का रूख है।
युगों-युगों से परस्पर सम्बन्ध कुछ निर्धारित खॉंचों में ढले हुये चले आ रहे हैं, जो समाज में सर्वमान्य हैं। एक-दूसरे से रिश्ते-नातों की परिपाठी सर्वविदित है। उसी के निर्वहन में समाज संतुलित है। सारे कार्यक्रम सर्वशॉंति पूर्वक सम्पन्न होते हैं। कहीं कोई विरोध नहीं होता।
इसी अदृश्य बन्धन को बनाये रखने के लिये, संस्कार ओर सम्मान जैसे शबदों का प्रयोग होता है। इसी कड़ी में आत्मसम्मान एवं स्वभिमान को महत्वपूर्ण माना जाता है। इसकी सुरक्षा आत्मसुरक्षा से किसी तरह कम नहीं ऑंकी जाती। इसी को मापदण्ड मान कर सामाजिक मूल्यांकन किया जाता है। जिसमें जितना आत्मसम्मान, वह उतना ही समाज में स्वीकार होता है। प्रसंसनीय कहा जाता है।
सामान्य सामाजिक शिष्टाचार को ध्यान में रखकर ही बात-व्यवहार में महत्व दिया जाता है।
आत्मसम्मान एवं आत्म-स्वभिमान को ठेस पहुँचाकर कोई रिश्ता दीर्घकाल तक चल सकता है क्या? ऐसी स्थिति में सम्बन्ध सदा-सदा के लिये टूट जाते हैं। किसी भी परिस्थ्िाति में पुन: नाता स्थापित होना असम्भव है।
परस्पर विश्वास खत्म, तो सब कुछ नष्ट! पश्चाताप की ऑंच से पत्थर पिघलाना निर्मूल है। कालचक्र आगे बढ़ते रहने की प्रेरणा देता है।
रिश्ते के शुरूआति समय ज्ञात हुआ कि वह-बेटे उच्च शिक्षा प्राप्त हैं।
चिन्ता दूर हुई। पूरा परिवार सुसभ्य, सुशील, व्यवहारकुशल, सब से सामन्जस पूर्वक, सुख-शान्ति बनी रहेगी, सारे परिवेश में कोई कलह की नौवत नहीं आयेगी। सब के सब अपने-अपने दायरों में तालमेल बैठाकर हंसी-खुशी एवं अमन-चैन से रहेंगे।
सभी रिश्तों का यथोचित सम्मान, महत्व, मर्यादा इत्यादि का निर्वहन करेंगे!
परिवार, नाते-रिश्तेदार, पास-पड़ोसी, दोस्त-यार और भी तमाम सम्बंधित समाज के सज्जनों से, अपने प्रसंसनीय चाल-चलन-चर्चा व व्यवहार द्वारा सभी के दिल-दिमाग में अपनी श्रेष्ठ सम्वेदनायुक्त छबि स्थापित करेगी। ‘’बहु’’ अपने मायके एवं ससुराल का आदर्श दृश्य में चार चॉंद लगायेगी ऐसा विश्वास है। ----लेकिन-----
भेडि़या जब अपने शिकार के पीछे दौड़ते-दौड़ते उस पर झपटता है, तब अपने पंजों के छुपे नाखूनों को निकालकर, अपने शिकार पर, पूरी ताकत से, पैने नाखून शिकार के बदन में चुभा देता है, तब वह घायल होकर अधमरा हो जाता है। इसके बाद शिकारी भेडि़या अपनी मंशा एवं मर्जी अनुसार उसका भक्षण करता है।
जिस पिता के कमाऊ पूत हों, साथ ही बहुऍं भी वेतनधारी हों। जिस पिता ने उनका लालन–पालन बहुत ही प्यार–दुलार सहानुभूति स्नेह पूर्वक किया हो। सर्वसुविधायुक्त आवास, साफ – सुथरा परिवेश सारे आवश्यक भौतिक संसाधन उपलब्ध कराये हों।
सम्भवत: जीवन यापन की सम्पूर्ण सुख– सुविधाऍं, जिन्हें सरल- सुलभ हों.... तो ऐसी औलादों के पिता को शेष जीवन निर्वहन की कोई शंका संशय और अविश्वास की तो कोई गुन्जाईश प्रतीत होती नहीं...... परन्तु...... कुछ तो है, जो हृदय में कसक रहा है। दिल– दिमाग में उथल–पुथल सी अज्ञात कारणों के कारण मेहसूस हो रही है.......। धुन्ध में कुछ स्पष्ट नहीं दिख पा रहा है।
♥♥♥ इति ♥♥♥
संक्षिप्त परिचय
1-नाम:- रामनारयण सुनगरया
2- जन्म:– 01/ 08/ 1956.
3-शिक्षा – अभियॉंत्रिकी स्नातक
4-साहित्यिक शिक्षा:– 1. लेखक प्रशिक्षण महाविद्यालय सहारनपुर से
साहित्यालंकार की उपाधि।
2. कहानी लेखन प्रशिक्षण महाविद्यालय अम्बाला छावनी से
5-प्रकाशन:-- 1. अखिल भारतीय पत्र-पत्रिकाओं में कहानी लेख इत्यादि समय-
समय पर प्रकाशित एवं चर्चित।
2. साहित्यिक पत्रिका ‘’भिलाई प्रकाशन’’ का पॉंच साल तक सफल
सम्पादन एवं प्रकाशन अखिल भारतीय स्तर पर सराहना मिली
6- प्रकाशनाधीन:-- विभिन्न विषयक कृति ।
7- सम्प्रति--- स्वनिवृत्त्िा के पश्चात् ऑफसेट प्रिन्टिंग प्रेस का संचालन एवं
स्वतंत्र लेखन।
8- सम्पर्क :- 6ए/1/8 भिलाई, जिला-दुर्ग (छ. ग.)
मो./ व्हाट्सएप्प नं.- 91318-94197
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