पत्रिका-अदहन .2,अंक 7,अक्टूबर-दिसम्बर-2018
वेदराम प्रजापति,‘मनमस्त’
पत्रिका अदहन का आमुख पृष्ठ ही पत्रिका का अनूठा आईना-सा लगा। चित्रांकन की पृष्ठभूमि ही दर्दीले साक्ष्य लिए-नए भोर की तलाश में लगी जिसमें गहरी वेदना का मुखर संवाद झाँक रहा है साथ ही उन्मुक्तता की उड़ान भी। सौ पृष्ठों की पत्रिका सामाजिक-साहित्यक का अनूठा विजयी शतक है। सम्पादक मण्डल गहन चिंतन के साक्ष्य में अभिनन्दनीय होकर-बधाई का श्रेय पाता है। पत्रिका, साहित्य विचार और जन-आन्दोलन की विरासत होगी।
अंक की धरोहर में द्वा-दश सोपान हैं जो-मुखातिब से चलकर जन-गण-मन तक की वेदना,संवेदना तथा नवीन सुधारों के संवादों से सजें-सवरें हैं।
सम्पादकीय-रविकान्त जी के गहन चिन्तन की अनूठी झलक लिए हुए हैं जो सच्चाई के मार्ग का पुर्नस्थापन है। साहित्यकार के प्रति मुखर संदेश है। सम्बोधन की कसौटी-सुहेल हाशमी जी की जुवानी जंग है, जो आज के परिवेश को-डर के आगे-सम्बोधन से सजग करने का ज्वलन्त उपक्रम है, जिसमें बामपंथ की गहरी सच्चाई उजागर हो रही है। यथा-आगे बढने का बख्त आ गया है, अगर हम इस सबके लिए तैयार नहीं हैं तो, जब रात के अंधियारे में हमारे दरवाजे पर कोई दस्तक होगी तो हमें बचाने वाला कोई नहीं होगा। मुखर सम्बोधन हैं। बात मुद्रदा की करै तो-गौहर रजा जी, नई तस्वीर के साथ सामने खड़े हैं-जिसमें चिंतन है नई सोच का सबसे खतरनाक होता है सरकारी तंत्र का साम्प्रदायिक हो जाना।
विचार विशेष की कड़ी में-साहित्य के नए इतिहास लेखन की संभावनाऐं मैनेजर पाण्डेय जी की अपनी नवीन पहल है-जिसमें अनेकों तारीखों को समैंटा गया है। साथ ही श्री प्रमोद कुमार तिवारी जी भी इसी कड़ी में-लोक वेद और शास्त्र के बहाने-अनेकों पन्ने पलटते दिखे है। श्री आलोक कुमार जी ने तो, नव जागरण कालीन बौद्धिकों की इतिहास चिंता जैसे विड्ढय को लेकर शशांक उपन्यास के संदर्भ में बहुत कुछ कह डाला है जो आज के परिवेश में अनुत्तरित-सा लग रहा है। क्रम की अगली कड़ी में-आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की साहित्येतिहास-दृष्टि के परिप्रेक्ष्य में- श्री योगेश प्रताप शेखरजी-काफी मुखर होकर बोले है यथा- अपने आप को दलित द्राक्षा की भाँति निचोड़कर जब तक सर्व के लिए निछावर नहीं कर दिया जाता तब तक ‘स्वार्थ‘ खण्ड सत्य है, वह मोह को बढ़ावा देता है, तृष्णा को उत्पन्न करता है और मनुष्य को दयनीय कृपण बना देता है।
कहानी का धरातल भी- अनछुयी व्यथा को उजागर करता है। कहानी असाढ़ की
एक रात-श्री आशुतोष जी की मार्मिक वेदना को चित्रित करती है...सिर्फ और सिर्फ भूरा की याद आती है। विवेक मिश्रा जी की कहानी उजाले के अंधेरे मानव की अर्न्तव्यथा का अदभुत चित्रण है-यथा-खिड़की में बैठे कबूतर पहले से ही जाग रहे थे, बतिया रहे थे, उसे चिढ़ा रहे थे......। कहानी- चोला उद्धार भाया-पेंशन-आज के नौजावानों और पिता पुत्र के संबधों की गहन वेदना लिए है जो श्री राम सागर प्रसाद सिंह की दर्दीली धरती कुरैदती है। श्री स्वतंत्र कुमार सक्सेना जी की कहानी-कैसी-कैसी-पगडंडी-नए सवेरे का उदघोड्ढ सी लगी-जिसमें जीवन के अनेकों दर्दों का साफ सुथरा आईना मिला-यथा-पत्नी बोली- नेहरो तो रयो,पर काऊ की थराई , विनती में नई नेहरा रओ, मेन्त मंे नेहरो रओ।...शरीर थकान से चूर था, अंग-अंग पीड़ा का अनुभव कर रहा था पर मन पुलकित था। कहानी जीवन को नया जागरण देती दिखी। कविता का सोपान-मानव के अनेकों द्वन्द्वों का साक्षात्कार कराता है। गजल की देहरी-श्री निशांत जी की जमीनी पहल है। अन्य रचनाऐं कई संवाद परोसतीं है।
श्री अरमान आनंद जी की कई कविताओं के साथ ’तानाशाह‘ कविता वर्तमान का गहरा चिंतन हैं। होमवर्क भी अनूठा संवाद है। श्री कविता कादम्बरी जी भी-अंधेरी नगरी के साथ लम्बी औरत के परिदृश्य में गहरी उतरी है। श्री गरिमा सिंह जी प्रेम-विराग कविता से चलकर तुम्हारे बिना एवं स्पर्श कविता का चिंतन-बहुत गहरा रहा है।
श्री नरेश सक्सेनाजी और श्री निधि अग्रवालजी की बात-चीत में -‘‘कविता’’ः- भाड्ढा का सबसे सुन्दर और प्रभावशाली रुप है’’-रु.ब.रु. सोपान का अनूठा चिंतन है। इसमें कविता की धरती को गहरा अबदान मिला है। निष्कर्ड्ढ में कहा गया है-‘‘कविता की एक पंक्ति बहुत बडा काम करने वाली होती है, व्यंजना होनी चाहिए उसमें।’’
स्ंस्मरण-सोपान में श्री निरंजनदेव शर्माजी का-‘‘शिल्पगत नएपन का दस्तावेज कृष्णा सोबती का रचना संसार’’ आज का अनूठा-नया दस्तावेज है जो कृष्णा सोबती को हमेशा प्रासंगिक बनाए रखेगा। श्री कमलानन्द झा जी ने अपने संस्मरण की भूमिका-‘‘कोई यूं ही नामवर नहीं होता’’में गहन चिंतन परोसता है-नामवर सिंह की बानगी धरोहर में।
प्रासंगिक-सोपान-में श्री शुभनीत कौशिक जी का चिंतन-‘‘इक्कीसबी सदी के लिए नारीवाद का घोषणा पत्र’’-नारी जागरण और शसक्तीकरण की मिशाल पेश करता है जो आज के परिवेश की महती आवश्यकता की पूर्ति है।
जन आन्दोलन-की धरती पर श्री गोपाल प्रधान जी का आलेख-‘‘नक्सलवादी आन्दोलन और भारतीय साहित्य’’-परिवेश की गहरी पकड है जो आज भी अपनी गहरी जडें जमाए है-विषय चिंतनीय है।
समीक्षा सोपान-में-श्री रमेश दीक्षित जी का चिंतन-‘‘फासीवादी राष्ट्रबादियों को आइना दिखाती किताब’’की समीक्षा का मूल स्वर है-‘‘आज के आइने में राष्ट्रबाद’’-रविकान्त इसकी समीक्षा में, दीक्षित जी बहुत गहराई तक अपने को ले गए है। यह महत्वपूर्ण वैचारिक विमर्श है। श्री बजरंगी बिहारी तिवारी जी की चिंतन धारा-‘‘तुलसी का काव्य विवके’’-कई नए संदर्भों में ले जाता है-‘‘तुलसीदास का काव्य विवेक और मर्यादाबोध’’-श्री कमलानंद झा की जादुई बोध अबनी है।यथा-‘‘तुलसीदास जब राजा और राज्य की आलोचना करते है तो यहॉं उनकी न्याय चेतना बोलती है और यही न्याय चेतना उन्हें समकालीन बनाती है साथ ही आधुनिक चिंतन के करीब भी।’’ पुस्तक-गांव मेरा देश-श्री भगवानसिंह जी की पुस्तक की समीक्षा में श्री सुधांशु शेखर जी अपनी मनोहारी पहल देते है-‘‘चलो गांव की ओर। इसमें कई संदर्भित अंश दिए जो गांव की वर्तमान दशा और दिशा में बदलाव लाना उजागर करते है पुस्तक-तेरी संगी कोई नहीं-मिथिलेश्वर-इस पर चिंतन दे रहे है कि संजय कृष्ण जी-अपनी बानगी में-‘‘अकेले पडते किसान की त्रासद-गाथा।’’ गॉव के दर्द की कथा-व्यथा परोसती है पुस्तक-यथा-‘‘गॉंव बचे रहेंगे तो देश भी बचा रहेगा क्योंकि भारत शहरों का देश नहीं, गॉंवों का देश है।’’
अंतिम सोपान-जन गण मन- श्री हरिओम जी। आपकी चिंतन अवनी-वर्तमान का झरोखा है जहाँ कई पहलू खडे है-यहां एक विमर्श है संघर्षरत तबके का। इस विमर्श में गरीबी,वेरोजगारी,भुखमरी गायब है। अंततः पत्रिका की कसौटी को साधुवाद है।
सम्पर्क सूत्र
गुप्ता पुरा डबरा जिला ग्वालियर म.प्र.
मो. 9981284867