17.
आज सुबह से ही आसमान स्याह बादलों से घिरा हुआ था। रह-रहकर कड़कड़ाती बिजली और बादलों के भयावह गर्जन से फाल्गुनी का कलेजा कांप उठता। डॉ. स्मारक वार्ड में दो अन्य जूनियर डॉक्टरों के साथ राउंड लेने में व्यस्त थे और फाल्गुनी के पास आज कुछ विशेष काम न था या यूं कहें की आज वह थोड़े फुर्सत के मूड में ही थी। इसलिए स्मारक के केबिन में रखे फाइल रैक और किताबों की अलमारी को हाथ में झाड़न लिए साफ-सफाई में जुटी थी। एक-एक किताबों और फाइलें निकलती हुई बड़बड़ाती जा रही थी, " ओफ्फ ओ ! ये स्मारक भी ना , बस्स ! सिवाय काम के होश ही नहीं रहता जनाब को किसी और चीज़ का। फाइलों की हालत तो देखो। च च च ! पता नहीं मेरे बिना क्या होगा इस आदमी का। झल्लाती और बड़बड़ाती हुई वह करीने से रैक में फाइलों को रखती जा रही थी। आल्मारी एक से एक दुर्लभ पुस्तकों, जो देश-विदेश से लाई गई थीं। से पटी हुई थी। फाल्गुनी को पति की लापरवाही पर जहां एक ओर झुंझलाहट हो रही थी, वहीं दूसरी ओर प्रेम भी उमड़ रहा था। सच ! बिलकुल बच्चे की तरह हैं। जीवन में मोटी-मोटी पुस्तकों को पढ़ने के अलावा कुछ किया ही नहीं। " वह सिर को झटकते हुए स्वंय से बातें कर रही थी की चपरासी उसे ढूंढ़ता हुआ आ पहुंचा। " मैडम आपसे कोई महिला मिलने आई हैं। करती हैं बहुत अर्जेंट हैं और अपना नाम भी नहीं बताया। ऊपर से मुझे डांटते हुए कहा की " मैं रिसेप्शन में नहीं बैठूंगी। उनका केबिन कहां हैं, उधर ही इंतजार करूंगी। कहकर जबरदस्ती आपके केबिन में बैठ गई है। " चपरासी एक ही सांस में शिकायत कर गया। फाल्गुनी के काम करते हाथ रुक गए। थोड़ी सोच में पड़ गई थी वह।
" ऐसा कौन सकता है ? ठीक है, तुम चलो मैं आती हूं। " कहते हुए फाल्गुनी ने कमर में खोंसे हुए आंचल को खींच के बाहर किया। सलवटों को सही करते हुए, वॉशबेसिन के ऊपर टंगे आईने में झांकर अपने जूड़े को हाथों से थोड़ा कसा फिर तेजी से डग भरते हुए अपने केबिन की तरह मुड़ गई। दरवाजे पर पहुंचकर ठिठक गई फाल्गुनी। आगंतुका की पीठ दरवाजे की ओर थी। करीने से छंटे हुए बॉब कट केश में कोई अत्याधुनिक जान पड़ती थी। फाल्गुनी ने गला खंखारते हुए प्रवेश किया ही था की वह महिला रिवॉल्विंग चेयर को घुमाते हुए तपाक से उठ खड़ी हुई ओर इससे पहले की फाल्गुनी कुछ समझ पाती, उसके गले से लिपट गई।
" जोगिया तू ? मैं सपना तो नहीं देख रही कहीं ! फाल्गुनी की आंखें हर्ष और आश्चर्य का मिला-जुला भाव लिए फ़ैल गई। दोनों सखियों का वर्षों बाद मिलान किसी भरत-मिलाप से कम न था। चपरासी दरवाजे की ओट में चुपके से बड़ी हसरत लिए खड़ा देख रहा था की बस ! अब तो मैडम उस औरत को बुरी तरह डांटेगी, जिसने उसके साथ बदतमीजी से बात की थी, परंतु बेचारे की सारी तमन्ना कफूर हो गई, जब उसने दोनों को इतने प्रेम से गले मिलते देखा। उसने वहां से चुपचाप खिसकने में ही अपनी भलाई समझी।
जोगिया ने फाल्गुनी के चिबुक को पकड़कर उसकी आंखों में झांकते हुए शरारती अंदाज में कहा, " हाय मर जाऊं ! शादी के इतने साल बाद भी कुंवारी कली लगती है। बिलकुल अनछुई ! क्यों री ऐसी कौन-सी घुटटी पिलाते है हमारे डॉक्टर जीजा ?" फाल्गुनी ने " धत " ! कहकर अपने आपको जोगिया से छुड़ाया और उसकी बांह पकड़कर उसे कुर्सी पर बिठाते हुए कहा, " वह सब छोड़ जोगिया, लेकिन तू तो कनाडा जाकर बिलकुल ही हिप्पी बन गई। ये गेरुआ कुर्ता, जींस की स्किन टाइट पैंट, गले में रुद्राक्ष की लंबी माला और तेरे वह कमर तक बाल क्या हुए ? छांट-छूंट कर बॉब करा लिए ? वैसे बुरी नहीं लग रही। सच कहूं तो सेक्सी सन्यासिनी कहना अतिश्योकित न होगी, पर इस तरह अचानक अकेले ? तेरा डायमंड मर्चेंट " विप्स " (विप्लव पटेल) यानी मेरे जीजाजी है कहां, " मैंने तो अभी तक उनकी झलक तक नहीं देखी। " न जाने फाल्गुनी सहसा इतनी बातूनी कैसे हो गई ? शायद मारे खुशी के। आखिर कितने वर्षों बाद अपनी इस प्राण-प्यारी सखी के दर्शन जो हुए थे।
जोगिया ने अपना बेशकीमती गुच्ची का लैदर बैग खोलते हुए एक महगें ब्रांड का सिगरेट केस निकला और उसमें से एक सिगरेट लेकर सुलगाते हुए खिड़की तक आ गई। एक लंबा कश खींचकर छोड़ते हुए उसके गोल-गोल छल्लों को कुछ क्षण निहारती रही। फाल्गुनी को बड़ा आशचर्य हुआ और वह पूछ बैठी, " जोगिया तू और सिगरेट ? क्या हो गया तुझे, कितनी बदल गई है तू। "
जोगिया ने एक तिर्यक हंसी-हँसते हुए कहा, " क्यों फाल्गु, सिगरेट पीने से क्या मेरे अंदर की औरत मर गई या फिर शराब-सिगरेट पुरुषों द्वारा सेवन किए जाने से उनकी मर्दानगी में चार चांद लग जाते हैं ?"
फाल्गुनी ने विषय बदलकर जोगिया से पूछा की उसका सामान कहां है, तो जोगिया ने कहा, " सामान के नाम पर तीन बड़े-बड़े सूटकेस हैं, जो राजकोट पहुंच गए हैं और वह मुंबई से सीधे उसी से मिलने चली आ रही है। न जाने क्यों फाल्गुनी को कुछ अजीब-सा लग रहा था जोगिया का बर्ताव। यूं तो जोगिया बचपन से ही काफी स्वतंत्र ख्याल की एक स्वछंद लड़की थी। जिंदगी में उसने जो चाहा, उसे हासिल किया। अपनी शर्तों पर जिंदगी को भरपूर जीनेवाली जोगिया अपनी जिंदगी को हमेशा रेस का घोड़ा मानकर दांव पे दांव लगाती चली गई और शायद यही वजह थी की उसका सिगरेट अथवा शराब पीना फाल्गुनी को भी कुछ ख़ास आश्चर्य की बात नहीं लगी। विप्लव पटेल से शादी उसने अपनी मर्जी से की थी। बीसियों लड़कियों के साथ विप्लव के संबंध थे। अपार संपत्ति का स्वामी वह हीरा व्यापारी, छोटे शहर के मध्यम वर्ग की उस सांवली चपला की नशीली आंखों के जाम में इस कदर डूबा की जोगिया के मदमाते यौवन का गुलाम बन गया। माता-पिता, नाते-रिश्तेदारों ने भावी जामाता के चरित्र का हवाला दिया, परंतु जोगिया ने किसी की नहीं सुनी। सबसे यही कहती रही की " जवानी में अधिकांश युवक लड़कियों के साथ घूमते-फिरते, मौजमस्ती करते हैं तो फिर इसमें इतनी हाय-तौबा मचानेवाली कौन-सी बात हो गई ।" मुझे उसके भूतकाल से कुछ लेना-देना नहीं है पापा। मैं उससे प्रेम करती हूं तो शादी भी उसी से करूंगी। " कहते हुए जोगिया ने अपने पिता को टका-सा जवाब दे दिया। थक-हार कर माता-पिता ने भी अपनी इस जिददी लड़की के निर्णय के आगे हथियार दाल दिए और जोगिया शादी करके कनाडा बस गई। जिंदगी को रेस का घोड़ा माननेवाला अथवा जुआ समझनेवाले जुआरियों को शिकस्त के लिए भी स्वंय को तैयार रखना पड़ता है। शायद जोगिया को जीवन में खेलनेवाले प्रत्येक दांव को जीतने की आदत पड़ चुकी थी। हारना कभी सीखा ही न था उसने।
फाल्गुनी ने चपरासी को जरुरी हिदायतें दीं और जोगिया को लेकर अपने कॉटेज में चली आई। जोगिया एक कुशन को गोदी में रखे अल्थी-पल्थी मारकर दीवान पर बैठ गई। हल्की बूंदा-बांदी शुरू हो गई थी। फाल्गुनी दो मग भरके एस्प्रेसो कॉफी ले आई और नौकरानी को मेथी के पकौड़े बनाने की हिदायत दे आई। सोफे पर इत्मीनान से बैठकर गर्म कॉफी का घूंट भरते हुए फाल्गुनी जोगिया के मुखातिब हुई, " हां तो जोगिया कितने दिनों के लिए आई है भारत और विप्लव कहां है ?"
जोगिया शायद इस प्र्शन के लिए प्रस्तुत थी, तभी तो तुरंत बोल उठी, " फाल्गु, मैं देश लौट आई हूं, हमेशा के लिए। " कुछ क्षण फाल्गुनी के चेहरे पर डूबते-उभरते भावों को पढ़ने की चेष्टा की, फिर आगे बात जारी रखी।
"फाल्गु आई हैव डिवोर्सेड हिम। " मैंने विप्स को तलाक दे दिया है।
फाल्गुनी के हाथ कॉफी पीते-पीते थम गए, " क्या ? ये क्या कह रही है तू जोगिया ! क्यों कैसे ?"
जोगिया ने कॉफी खत्म कर कप को टिपाय पर रखते हुए बात जारी रखी, " देख फाल्गु ! मैंने अपनी खुशियां, अपने अधिकारों के साथ कभी समझौता नहीं किया। अपने जायज अधिकार में छोड़ती नहीं और न ही किसी और को मेरे अधिकार, मेरे जायज हक़ मेरी खुशियों के दायरे में घुसने का अधिकार देती हूं।" फाल्गुनी के चेहरे के भावों को देख जोगिया को लगा की शायद वह समझ नहीं पा रही, जो कुछ वह कह रही है। " देख फाल्गु ! पवित्र अग्नि को साक्षी मानकर स्त्री और पुरुष विवाह के बंधन में बंधते हैं तो एक-दूसरे के पूरक बनकर, न की एक दूसरे को इस्तेमाल करने के लिए। " विप्स " ने मुझे इस्तेमाल ही तो किया था अपना स्वाद बदलने के लिए। जानती है अपनी जिद पे अड़कर मैंने विप्स से शादी की, ये मेरी गलती थी, मैं सैकड़ों बार स्वीकार करती हूं, लेकिन उसे तलाक देने का फैसला सही था। उसने शादी के पहले बहुत औरतों से संबंध बनाए, ये मैं जानती थी, परंतु मैंने शादी हो जाने के बाद उससे उसकी बीती जिंदगी के बारे में कभी भी जिक्र नहीं किया। शुरू के दो साल बड़े मजे में बीते। फिर रिश्तों में ऊब आने लगी। मुझे ऐसा लगा मानो विप्स एक ही जायके से ऊबने लगा था, तभी तो उसकी देह से मुझे रोज अलग-अलग बोटियों और इंसानी जिस्म के मांस की गंध आने लगी थी। दरअसल मैं उसके लिए एक डिश थी, यू नो, जिसका उसने जी भर के स्वाद लिया, चटखारे ले-लेकर। उसका प्रेम निवेदन, रातों को किसी विक्षिप्त भूखे प्रेमी-सा मुझ पर टूट पड़ना, वो जिस्मानी उन्माद। उफ्फ ! मैं बता नहीं सकती, मुझे पागल बना देता था और मैं बेवकूफ औरत उसके उन्माद को प्रेम की पराकाष्ठा समझ बैठी थी। सच फाल्गु, हम औरतें हमेशा पुरुषों के जिस्मानी उन्माद को ही उनका सच्चा प्रेम जानकर मूरख बनती चली आई हैं। पुरुष का उन्माद जहां समाप्त होता है, स्त्री का प्रेम तो वहीं से शुरू होता है, पर शायद तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। " कहकर जोगिया ने फिर एक सिगरेट सुलगाई और लंबे-लंबे कश लेकर अपनी उत्तेजना को कम करने का प्रयत्न करने लगी। फाल्गुनी को अब कुछ-कुछ समझ में आने लगा था। पुरुष के प्रणय का उन्माद, उसकी उत्तेजना से वह स्वंय तो वंचित थी, इसलिए उसने जोगिया से इस संधर्भ में कोई तर्क करना उचित नहीं समझा परंतु जोगिया तो भरी बैठी थी। सिगरेट का अंतिम कश खींचकर उसने एशट्रे में राख को झाड़कर उसकी चिंगारी को मसलते हुए बुझाया, फिर आगे की दास्तान शुरू की।
" मुझे अब उसकी देह से अजनबियों की गंध आने लगी थी और फिर धीरे-धीरे उसके अंगों से मेरे शरीर की गंध धूमिल पड़ने लगी, या यूं कहूं की किसी बासी फूल के सीलन-सड़न वाली गंध की हैसियत हो गई थी मेरी। अक्सर उसे गहरी नींद में सोता देखकर, उसके निर्वस्त्र शरीर को मैं सूंघकर बरसों की परिचित अपनी देह की गंध के अवशेषों और अस्तित्व को तलाशने में रात-रात गुजार देती, परंतु रोज अलग-अलग किस्म की गंध में मैं महज एक बासी तरकारी बनके रह गई थी, ए राटन वेजिटेबल यू नो। " फाल्गुनी ने दीर्घ नि:शवास लेते हुए सोचा, कितनी बदल गई है जोगिया। बिंदास रहनेवाली कल की जोगिया तो आज फिलॉस्फर बन गई है और उसका मन अपनी इस सहेली के प्रति करुणा और स्नेह से भर उठा। जोगिया ने बातचीत फिर जारी रखते हुए कहा, " फाल्गु, मैं धीरे-धीरे डिप्रेशन का शिकार होती चली गई। दो-दो मिस कैरिज हो गए। चलो अच्छा हुआ ही हुआ नहीं तो बेचारी औलादों को अपने बाप के कुकर्मों का फल भुगतना पड़ता। उन्हीं दिनों डिप्रेशन से उबरने के लिए मैंने योग गुरु की शरण ली। दीक्षा लेकर घंटों उनके दरबार में ध्यान में लीन रहती। बस, मन की शांति के लिए तभी से ये रुद्राक्ष की माला धारण की मैंने, लेकिन आत्मा ही अशांत हो जब तो भला मन कैसे शांत हो ? विप्स कारोबार के सिलसिले में महीने बीस दिन बाहर रहता और फिर रोज-रोज औरतों के जिस्म के स्वाद से वह भी शायद ऊबने लगा था, तभी तो शायद .... " कहकर जोगिया कुछ क्षणों के लिए खामोश हो गई और खिड़की के पास आकर खड़ी हो गई। वर्षो अपने पुरे यौवन पर थी। जोगिया ने अपनी हथेली खिड़की के बाहर क्र मुट्ठी में बारिश की बूंदों को जकड़ने का प्रयत्न किया, फिर हार मानकर हाथ भीतर खींच लिया।
फाल्गुनी ने इस बार पहल की ," जोगिया, तभी तो शायद, क्या ? आज अपने भीतर भरे हुए सैलाब को छलक जाने दे। " कहकर उसने स्नेह से जोगिया के कंधों को थपथपाया।
जोगिया ने मुश्किल से आंसुओं को रोकते हुए कहना शुरू किया, " देख फाल्गुनी यदि उसके संबंध केवल औरतों तक सीमित रहते तो बात शायद समझ में भी आ जाती, लेकिन उस दिन तो हद ही हो गई। उस बार कारोबार के सिलसिले में कैलिफ़ोर्निया गया था। वापस आया तो साथ में उसका अमेरिकन मित्र माइक भी था। तीन दिनों के लिए हमारा मेहमान बनकर आया था ' माइक ' था। थोड़ा अजीब था। मैं उनका डिनर मेज पर ढंककर सोने चली जाती थी, क्योंकि उन दिनों बिना नींद की गोलियां फांके मुझे नींद ही नहीं आती। वैसे भी दोनों देर रात तक ड्रिंक करते थे और खाना कहते बहुत देर हो जाया करती थी। हमारे संबंधों में दरार तो पड़ ही चुकी थी। नींवें हिलने लगी थीं। टूटने के कगार पर। नपी-तुली बातचीत होती थी, ना के बराबर, यूं समझ। हां ! तो उस रात भी मैं सोने चली गई, पर शायद नींद की गोली लेना भूल गई थी। बहुत रात तक करवटें बदल रही थी। फिर सोचा उठकर देखूं उन्होंने खाना खाया की नहीं। डाइनिंग टेबल साफ़ था, ड्राइंगरूम में भी कोई नहीं, फिर ये दोनों इतनी रात गए तो कहां गए, क्योंकि बाहर भयंकर बर्फ़बारी हो रही थी। तभी पासवाले बैडरूम से सिसकारियों की हलकी आवाज़ों सुनाई दीं। मैंने दबे पांव दरवाजे के बाहर कान लगाकर सुनने का प्रयत्न किया, कुछ अजीब-अजीब-सी आवाज़ें आ रही थी। मेरा माथा ठनका। मैंने हौले से दरवाजे को थोड़ा-सा धकेला। फाल्गु, क्या बताऊं तुझे ? मैंने जो कुछ भी देखा, उसे सोचकर आज भी उबकाई आने लगती है। अपना स्वाद बदलने के लिए इंसान कितना गिर सकता है तू सोच भी नहीं सकती। विप्स ने मेरी साड़ी पहनी हुई थी। गले में हीरों का हार। होठों पर लिपस्टिक, माथे पर बिंदिया और दोनों कामांध वासना की विकृत मनोवृत्ति लिए इस तरह से लिप्त थे और ऐसी वीभत्स, पाशविक कामलीला में मगन थे, जो मैं बता नहीं सकती। छी:-छी: सृष्टि द्वारा निर्धारित नियमों का ऐसा भद्दा उपहास ? वासना का ऐसा वीभत्स नंगा नाच, जिसके बारे में मैंने कभी सुना तक न था, वे स्वंय अपनी आंखों के सामने, अपने ही घर में देखने को मजबूर थी मैं। मैं दौड़कर अपने कमरे में आई और पेट पकड़कर न जाने कितनी देर तक बाथरूम में उलटी करती रही। ओह ! कितनी असहाय थी मैं उस दिन। सिवाय आसुओं के मेरे पास लुटाने को कुछ और बचा ही क्या था ? एक साथ चार-चार नींद की गोलियां फांककर, जो नीम बेहोशी की अवस्था में बिस्तर पर पड़ी तो दूसरे दिन दोपहर को ही नींद टूटी। दर्द और अपमान में सिर फटा जा रहा था। किसी तरह लड़खड़ाते क़दमों से कमरे के बाहर आई तो देखा मेज पर विप्स का मैसेज पड़ा था। " दो दिन के लिए पैरिस जा रहा हूं। टेक केयर। " बीती रात के हादसे से खुद को उबारने का प्रयत्न करने लगी।
सबसे पहले तो उस कमरे को डेटॉल डालकर साफ किया। फिर वार्डरॉब में हैंगर पर से अपनी सबसे प्रिय साड़ी, जिसे विप्स ने पहनकर वासना का गंदा खेल खेला था, उसे उतारकर कैंची से चिंदी-चिंदी किया। मुझ पर मानो एक अद्धभुत जुनून सवार था उस दिन। फिर भी मन न भरा तो वह तमाम चीज़ों जो विप्स ने पहनी थी, सब ड्राइंगरूम में लेकर आई और फायर प्लेस में सुलगती चिंगारियों के होम चढ़ा दिया।
राख होते कपड़ों को देखती रही और देखती रही उनमें सुलगते अपने सारे अरमान, सारे सपने जो हर औरत देखती है एक सुखी वैवाहिक जीवन जीने के लिए। मुझे फिर भी तसल्ली न हुई तो उठकर विप्स की अलमारी तलाशनी शुरू की। वहां रखे एक सूटकेस को देखकर न जाने क्यों मेरी छठी इंद्रिय उसमें झांकने को इंगित करने लगी। उसे खोला तो जानती है क्या था उसमें ? जानने कपड़े, मेकअप का सामान, ऊंची एडी की सैंडल, चूडिया, ब्रा-पेंटी और कुछ सी.डी. तथा अश्लील तसवीरें विप्स की। सारी की सारी जनाने लिबास में और पोर्न मैगज़ीन्स। फिर मैंने एक सीडी लगाई। फाल्गु, बता नहीं सकती कि जिस आदमी को मैंने इतना चाहा था, दीवानगी कि हद तक, जिसके लिए अपनों को छोड़ा, सारे समाज से दुश्मनी मोल ली, वह एक विकृत मस्तिष्क का निहायत कमीना आदमी था। सी.डी. में वह औरतों के लिबास में परपरुषों के संग अश्लीलता की हदें पार चुका था तो कहीं पर औरतों के साथ कामलीला की वीभत्स ब्लू फिल्म बनाई थी। फाल्गु, जिस आदमी के स्पर्श से कभी मुझ पर महुवा का नशा चढ़ जाया करता था, आज उसी स्पर्श की कल्पना मात्र से ऐसा लगता है, मानो शरीर में किसी न सैकड़ों-लिजलिजी, ठंडी, रेंगती हुई छिपकलियां छोड़ दी हों। ही इज ए ब्लडी " ट्रॅन्सवेस्टीसं। "
फाल्गुनी ने उस बीच में टोकते हुए पूछा, " जोगिया, सब कुछ समझ में आ रही है मुझे। सचमुच, तूने बहुत झेला और तलाक देकर बहुत ही बुद्धिमानी का काम लिया, लेकिन ये " ट्रॅन्सवेस्टीसं " क्या है, मेरी समझ में नहीं आया। " जोगिया ने उसे समझाया -----
" ट्रॅन्सवेस्टीज " उन लोगों को कहते हैं जो अपोजिट सेक्स के कपड़े पहनकर, उनकी तरह श्रृंगार करके रतिक्रिया में उत्तेजना का अनुभव करते हैं। ये एक प्रकार का मनोरोग है। पुरुष जनाना कपड़े पहनना पसंद करता है और स्त्री मर्दना। आज पश्चिमी देशों में लोग एक ही प्रकार के कन्वेंशनल सेक्स से ऊब गए हैं, तभी तो स्वाद बदलने के लिए न जाने क्या-क्या प्रयोग करते हैं। ये उनकी विकृत मानसिकता का प्रतीक ही तो है, जो आज हमारे देश के महानगरों में बड़ी तेजी से अपना मकड़जाल फैलाकर युवा-पीढ़ी को डस रहा है। " जोगिया एक ही सांस में बोलते हुए हांफने लगी थी और फाल्गुनी ? उसका मुंह हैरत से खुला का खुला रह गया। वह सोच में पड़ गई की क्या इस प्रकार के संबंधों में प्रेम की भी कोई जगह रहती होगी ? या फिर आज प्रेम की परिभाषा बदल गई है।
जोगिया ने आपबीती जारी रखते हुए कहना शुरू किया, " ताश के घर सी मेरी ग्रेह्स्थी थी, इसलिए जीवन की आंधी से बिखर गई। मेरे पास केवल दो दिन थे। विप्स के आने के पहले बहुत कुछ करना था और तभी मैंने तलाक का अहम फैसला लेते हुए डिवोर्स के पेपर बनवाए और पिटिशन फाइल कर दी। उस दिन, न जाने कितनी देर तक शावर के नीचे खड़ी होकर मैं नहाती रही और शरीर के प्रत्येक हिस्से में घिस-घिसकर साबुन लगाती रही इसी भ्र्म में कि उस आदमी के देह कि गंध, उसके स्पर्श का कहीं भी रत्तीभर नामेनिशान न रह जाए। "
जोगिया का गला सूखने लगा था। उसने फ्रिज खोलकर ठंडे पानी की बोतल निकली और गट-गट कर एक ही सांस में पूरी बोतल खाली कर दी। फाल्गुनी गहरी सोच में डूबी थी। क्या शरीर की भूख इंसान को इतना अधम और अनैतिक बना देती है ? वैवाहिक जीवन में आपसी तालमेल, प्रेम, त्याग एक-दूसरे का सम्मान उतना ही आवश्यक है, जितना की प्रकृति द्वारा मलाल न था, क्योंकि स्मारक ने सिवाय शारीरिक सुख के, उसे वह सब दिया था और वह भी जरुरत से ज्यादा, जो एक पत्नी का प्राप्य है। वह जोगिया की तरह इस्तेमाल की चीज न थी और न ही स्वाद बदलने का संबल।
डॉ. स्मारक पत्नी को ढूंढ़ते हुए केबिन में पहुंचे तो मालूम हुआ की उसकी सहेली आई है और दोनों घर पर है। उसने घडी देखी। कम से कम घंटे भर के लिए वह फारिग था, सो कॉटेज में चला आया। " हाय जीजू "। कहकर जोगिया उठ खड़ी हुई। स्मारक भी बड़ी गर्मजोशी से मिला। बरसात थम चुकी थी। जोगिया भी आज स्वंय को हल्का महसूस कर रही थी। वातावरण सहज हो चला था। फाल्गुनी किचन में नौकरानी के साथ व्यस्त हो गई और स्मारक और जोगिया दुनियाभर की बातों में मसरूफ हो गए। लंच खाकर स्मारक उठ खड़ा हुआ, " अरे फाल्गु अपनी सहेली को घुमाओ-फिराओ। शाम को जल्दी आने का प्रयत्न करूंगा फिर तीनों नर्मदा किनारे घूमने जाएंगे। " कहकर स्मारक अस्पताल लौट गया। यूं तो जोगिया शाम को ही राजकोट वापस जाना चाहती थी, परंतु फाल्गुनी के आग्रह पर रात वहीं रुकने को राजी हो गई।
स्मारक वायदानुसार शाम को जल्दी घर लौटा। तीनों चाय पीकर नर्मदा के किनारे निकल गए। बेहद सुहाना मौसम था। नर्मदा की लहरों से मधुर संगीत उभरता प्रतीत हो रहा था। आसमान अब भी सलेटी बादलों से भरा था। कोयले की अंगीठी में भूनते भट्टों की चटकती आवाज और सौंधी खुशबू से मानो फाल्गुनी की बचपन लौट आया। " स्मारक भुट्टा खाएंगे हम " कहते हुए फाल्गुनी मचल गई किसी उड्डंड चपला किशोरी सी। स्मारक और जोगिया उसके बचपने को देखकर हँस पड़े। फाल्गुनी ने गर्म भुट्टे पर अच्छे से नींबू का रस निचोड़ा और ढेर सारा काला नभक और मिरची की बुकनी छिडकी। तीनों भट्टा खाते हुए भीगे रेत पर चलते-चलते काफी आग निकल गए। साईकिल पर मटके में कुल्फी लिए एक कुल्फ़ीवाले को देखकर फाल्गुनी फिर मचल उठी किसी चटोरी किशोरी-सी।
" जोगिया याद है तुझे, राजकोट में रोज स्कूल से लौटते हुए हम अठन्नी की कुल्फी खाया करते थे। "
" हां यार ! क्या दिन थे वो भी, खेलने-खाने के और याद है मेरे घर में रेडियो नहीं था तो हर बुधवार को तेरे घर पर पढ़ने का बहाना बनाकर घर से झूठ बोलकर आया करती थी और हम दोनों आठ बजे बिनाका गीत माला सुना करते थे और एक डायरी में हफ्ते के शीर्ष पायदान के गीतों को नोट करके रखते थे।"
" हां जोगिया, फिर याद है तुझे, एक बार हम दोनों स्कूल से बंक मारकर जुली पिक्चर देखने गए थे, लेकिन एडल्ट पिक्चर है, कहकर दरबान ने हम दोनों को भगा दिया था। हां ! हां ! फिर हम दोनों दूसरे दिन साड़ी पहनकर और ऊंची एडीवाली सैंडल पहनकर जुली पिक्चर देख आए थे और जीजू पता है ये पागल तो पुरे पिक्चर में हाथ से मुंह ढांपे नीची नजर किए ही बैठी हुई थी। " स्मारक उनकी बातों से रह-रहकर ठहाका लगाकर हँस उठता। कुल्फीवाले ने शाल के पत्ते से बनाए दोने में कुल्फी डालकर उनके हाथों में थमाई।
अब हल्का अंधेरा छाने लगा था और हल्की फुहारें भी झिर-झिर बरसने लगी थीं। तीनों लंबे-लंबे डग भरते हुए वापस अपने कॉटेज लौटे। बेहद हसीन और यादगार शाम थी। रसोइए ने बड़ा स्वादिष्ट भोजन बनाया था। जोगिया की पंसद के छोले-भठूरे, पावभाजी, दही बड़े और गुलाबजामुन बने थे। काफी रात तक तीनों करते रहे। जोगिया के सोने का इंतजाम गेस्टहाउसे में करवाया गया। शुभरात्रि कहकर स्मारक और फाल्गुनी भी अपने कमरे में लौट आए। स्मारक अभी तक जोगिया की आपबीती से अनजान था, फाल्गुनी अब लेटे-लेटे स्मारक को सब बातों से अवगत करा रही थी।
स्मारक भी दंग रह गया जोगिया के विषय में जानकर। फाल्गुनी से कहने लगा, " जानती हो फाल्गु जोगिया के पति विप्लव पटेल जैसे कुंठित मनोवृत्तिवाले लोग हमारी तरह जन्मजात समलैंगिक को बदनाम करते हैं। जिस दिन समाज उनकी विकृत्ति और हमारी प्रवृत्ति को अलग-अलग दृष्टिकोण से देखेगा, उस दिन समाज में हमारे जैसे लोगों को भी सम्मान की नजरों से देखा जाएगा।
स्मारक गहरी नींद में डूबा हुआ था, लेकिन फाल्गुनी की आंखों से नींद नदारद थी। नाईट बल्ब की हल्की रोशनी में स्मारक का चेहरा आज बेहद मासूम लग रहा था। फाल्गुनी ने स्नेह से हौले से उसके मस्तक को चूमा और ईश्वर को धन्यवाद किया की उसे स्मारक जैसा स्नेही पति मिला है, पति-पत्नी का ऐसा अद्भुत संबंध था उनका की सिवाय शारीरिक संबंध के, उनके बीच में परस्पर प्रेम, भावनाओं, स्नेह की अपार संपत्ति थी और सफल दांपत्य जीवनयापन के लिए इन सबकी कीमत दैहिक सुख से कहीं अधिक है। न जाने दुनिया में जोगिया जैसी कितनी ही पत्नियां इन सुखों से वंचित है और स्वयं को संसार की सबसे सुखी पत्नी मानकर अब वह भी गहन निद्रा के आगोश में समा गई।