Journey to the center of the earth - 9 in Hindi Adventure Stories by Abhilekh Dwivedi books and stories PDF | पृथ्वी के केंद्र तक का सफर - 9

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पृथ्वी के केंद्र तक का सफर - 9

चैप्टर 9

हमारी शुरुआत - जोखिमों से मुलाकात।

जब हमने अपनी खतरनाक और रोमांचक यात्रा शुरू की तो बादल घिरे लेकिन स्थिर थे। हमें ना प्रचण्ड गर्मी से डरना था, ना ही मूसलाधार बारिश से। दरअसल, यात्रियों के लिए मौसम सबसे सही था।
घुड़सवारी मुझे वैसे भी पसंद थी लेकिन एक अनजान देश में आसानी से उसका लुत्फ लेना अलग अनुभव दे रहा था।
मुझे ये यात्रा सुखद लग रही थी, जीवन की चाह, आज़ादी, संतुष्टि, सब मिल रहा था। सच ये था कि मेरी आत्मा इतनी खुश थी कि मैं अपने पहले कहे गए बकवास यात्रा वाली बात से सहमत नहीं हो रहा था।
"आखिर में," मैंने खुद से कहा, "इसमें मेरा क्या घाटा है? एक सफर करना है जहाँ जानने के लिए एक देश, चढ़ने के लिए बेमिसाल पहाड़ और कुछ बुरा भी है तो बस, एक शांत ज्वालामुखी के खोह में उतरना है।"
मुझे तो शक हो रहा था कि सैकन्युज़ेम्म ने ये खतरनाक काम किया होगा। पृथ्वी के अंदर जाने का गलियारा, उसके पेचीदा रास्ते - ये सब सोचकर ही लगता था किसी के बावलेपन से पैदा हुआ भ्रमजाल है। लेकिन अब निकल ही पड़े हैं तो बिना शिकायत के आगे बढ़ना है।
रिकिविक से निकलने के पहले ही मैंने इस बारे में तय कर लिया था।
हैन्स, हमारा जांबाज़ दिशा-निर्देशक अपने तेज़, बराबर और बड़े कदमों से आगे चलेगा, दो घोड़े उसके पीछे सामानों को लादे बिना चाबुक या एड़ दिए बढ़ेंगे। मैं और मौसाजी अपने घोड़ों पर कम समान लादे, उनके साथ बढ़ेंगे।
आइसलैंड, यूरोप का सबसे बड़ा द्वीप है। यहाँ करीब सत्तर हज़ार निवासी हैं और जिसकी ज़मीनी सतह तीस हजार वर्ग मील में है। भूगोलवेत्ताओं ने उसे चार हिस्सों में बाँटा है और हमें उस दक्षिणी-पश्चिम चौथाई को पार करना है जिसे प्रादेशिक भाषा में 'सुवेष्ट्र फॉरंगर' कहते हैं।
रिकिविक से निकलते ही हैन्स ने समुद्र की सीध का रास्ता पकड़ लिया था। हम लोगों ने सूखे-बेजान मैदानी इलाकों को चुना जहाँ हरे घास जल्दी नहीं उगते थे। यहाँ बसंत इतनी आसानी से नहीं आता था।
आगे बढ़ते हुए रह-रहकर दूर क्षितिज पर ऊबड़-खाबड़ शिखर की धुंधली चोटियाँ दिखती थी, सुबह के रोशनी में हल्के कोहरे और बर्फीली हवाओं की वजह से जो पथरीले पहाड़ गुम हो जाते थे; वो धीरे-धीरे ऐसे दिखते जैसे किसी उपद्रवी समुद्र में से जमी हुई भित्तियाँ निकल रही हों।
रास्ते में हर कहीं बड़े-बड़े चट्टान थे जिससे हमें चलने में भी परेशानी हो रही थी। लेकिन हमारे घोड़े जैसे इन जगहों से परिचित थे या जैसे उन्हें स्वाभाविक रूप से ज्ञान था कि कौन सा रास्ता सही है। मौसाजी को किसी भी चाबुक, एड़ या आवाज़ देने की ज़रूरत नहीं पड़ रही थी। अधीर होने की कोई ज़रूरत ही नहीं। जिस तरीके से मौसाजी घोड़े पर बैठे थे और उनके लम्बे पैर धरती को छू रहे थे, मुझे तो देखकर हँसी आ रही थी। वो छः फुट के किन्नर लग रहे थे।
"शाबाश घोड़े, शाबास!" वो चीखते थे, "मुझे लगता है आइसलैंडिक घोड़ों जितना चतुर कोई जानवर नहीं होगा। बर्फ, तूफान, पथरीले रास्ते, चट्टान, आँधी - जो भी हों ये रुकने वाले नहीं हैं। ये बहादुर, मजबूत, सुरक्षित, शान्त हैं, ना ही ग़लत कदम रखते हैं, ना झूलते हैं और ना ही फिसलते हैं। मुझे तो यकीन है कि ये किसी भी नदी या नालों को किसी तैराकी जीव की तरह पार कर, सुरक्षित दूसरे किनारे पहुँच सकते हैं। हालाँकि हमें जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए और इन्हें अपना रास्ता तय करने देना चाहिए जिससे कि हम दस दिनों का सफर आसानी से पूरा कर सकें।
"ये सही होगा," मेरा जवाब था, "लेकिन हमारे काबिल दिशा-निर्देशक का क्या?"
"उसके लिए मैं चिंतित नहीं हूँ, उसके जैसे लोग अपना सफर खुद तय कर लेते हैं। देखो हैन्स को। वो जितना धीरे चल रहा है उसको थकान नहीं होगी। हाँ, उसको शिकायत होती तो वो हमारे घोड़ों की मदद ले सकता था। मुझे भी मरोड़ पड़ सकते थे अगर कसरत नहीं की होती। मेरी बाँहें ठीक हैं लेकिन पैर थोड़े जम रहें हैं।"
इन सब के साथ हम तेज़ी से आगे बढ़ रहे थे। जहाँ हम पहुँचे वो लगभग निर्जन था। जहाँ-तहाँ उजड़े खेत, मिट्टी, लकड़ी और लावा के अवशेष से बने घर इन मार्गों पर उनकी गरीबी को दर्शा रहे थे। इनकी हालत देखकर यही लगा कि हर दरवाज़े पर कुछ दान कर दें। जहाँ ना ढंग के सड़क हैं, रास्ते और हरियाली लापता हैं, और गरीबी चरम पर है, वहाँ तमाम गुज़रे हुए यात्रियों के निशान मिट चुके थे।
शायद बँटवारे की ही वजह से इस प्रान्त का एक हिस्सा जो आइसलैंड की राजधानी से कुछ ही दूरी पर है, सबसे ज़्यादा समृद्ध और परिपूर्ण है। पहले पता नहीं कैसे रहे होंगे। लगभग आधा मील तय कर लेने के बाद भी हमें किसी झोपड़े के दरवाजे पर ना तो कोई किसान दिखा और ना ही कोई अपनी भेड़ के झुण्ड के साथ फिरता चरवाहा।
थोड़े-बहुत गाय और भेड़ कहीं-कहीं दिखे थे। फिर आगे क्या उम्मीद करेंगे उन इलाकों से जो ज्वालामुखी के फटने और हलचल से उजड़े होंगे?
समय रहते ये सब सीखना था। हालाँकि नक्शा देखकर पता चला कि हमने हवाओं और समुद्री लहरों के निर्देशों पर जितना रास्ता तय किया, हमने अधिकतर उजड़े देशों को पीछे छोड़ दिया था। असल में इस द्वीप पर जो ज्वालामुखी हलचल होते हैं, वो एक के ऊपर एक बड़े चट्टानों के नीचे धरती की गहराई में दबे होते हैं, और जिसके फटने से इस द्वीप को दिव्य पहचान मिलती है।
हालाँकि उम्मीद से परे जब हम स्नेफल्स के करीब थे तब प्राकृतिक अवशेषों के समूह में जो हलचल हुई उससे हम चकित थे, उन्हें शायद जैसे हमारा ही इंतज़ार था।
रिकिविक से दो घण्टे चलने के बाद हम ओएलकिर्क पहुँचे जहाँ मुख्य गिरजाघर था। वहाँ बस कुछ ही घर थे, इंग्लैंड या जर्मनी के उपग्राम से भी छोटे।
यहाँ हैन्स डेढ़ घण्टे के लिए रुका। उसने हमारे साथ नाश्ता किया जिसके लिए उसने हाँ कहा था और मौसाजी के सड़क से जुड़े सवालों के लिए ना कहा था। जब रात बिताने की बात हुई तो उसने अपने उसी अंदाज में जवाब दिया।
"गार्डर।" उसका एक शब्द में जवाब था।
मैन उसी समय नक्शा निकालकर देखना शुरू किया कि ये कहाँ स्थित है। बहुत ध्यान से देखने पर पता चला कि रिकिविक से लगभग चार मील दूर, ह्वल्फोर्ड की सीमा पर एक छोटा सा ग्राम है। मैंने मौसाजी को दिखाया और हम दोनों के चेहरे पर एक मुस्कान आ गयी।
"बाईस में से बस चार मील? ये तो ज़्यादा दूर नहीं है।"
इससे पहले कि वो कुछ और उत्साही निष्कर्ष पर पहुँचते, हैन्स ने बिना उनकी बातों पर ध्यान दिए, घोड़ों के सामने से, अपने उसी अविचलित और शांतिपूर्ण चाल में आगे बढ़ने लगा।
उन उजड़े और निर्जन मैदान से होते हुए, तीन घण्टे बाद हम कॉलफोर्ड के रास्ते निकले, जो छोटा और आसान होने के साथ खाड़ी के रास्तों से बचाता था। थोड़ी देर बाद हम एक यूलबर्ग नामक सामुदायिक क्षेत्र में पहुँचे जिसने समय से पहले ही अपना सबकुछ खो दिया था। ये धार्मिक स्थल भी यहाँ के लोगों की तरह बस जिये जा रहें हैं।
यहाँ घोड़ों को कुछ देर आराम और चारा मिला। फिर वो बिना रुके, बड़े चट्टानों और समुद्र के बीच में बने संकरे रास्तों से ब्रैंटर के ओएलकिर्क तक चले और लगभग एक मील बाद ह्वल्फोर्ड के दक्षिणी किनारे पर स्थित सौरबोर के गिरजाघर तक पहुँच गए।
शाम के चार बजे चुके थे और हम डैनिश मान्यता अनुसार चार, और अंग्रेजों के अनुसार बीस मील की दूरी तय कर चुके थे।
ये जगह आधे मील की चौड़ाई में था। असंख्य और अन्धाधुन्ध लहरें उन नुकीले चट्टानों को छू रहे थे। ये पूरा गर्त बड़े चट्टानों से घिरा था जिसमें भूरे रंग का एक बड़ा चट्टान करीब 3 हज़ार फ़ीट का था जिसके आस-पास लालिमा युक्त छोटे चिकने पत्थर थे। घोड़े भले कितने भी चतुर हों, मुझे इस तूफानी रास्ते को पार करने के लिए उनपर ज़रा भी भरोसा नहीं था। इन पानियों पर घुड़सवारी करना ही मेरे हिसाब से अटपटी बात थी।
"अगर ये इनमें ज़रा भी ज्ञान होगा," मैंने खुद से कहा, "तो ये भी साहस नहीं करेंगे। और किसी भी हाल में, मुझे अपनी समझ से काम लेना चाहिए, ना कि इनके।"
लेकिन मौसाजी किसी मज़ाक के मूड में नहीं थे। उन्होंने अपने घोड़े को एक एड़ दी। घोड़ा बढ़कर किनारे पहुँचा और उसने सूँघने के बाद आगे बढ़ने में असमर्थता जतायी।
मौसाजी को अपनी ख्वाहिश पूरी करनी थी और घोड़े की असमर्थता से उनका दिमाग चकरा गया था। उन्होंने तुरंत चाबुक, अपशब्द और एड़ जड़ दिए। घोड़े ने भी बिदक कर उन्हें अपने ऊपर से फेंकने की कोशिश की। उसने अपने पैर जमा लिए और मजबूरन फिर मौसाजी को उतरना पड़ा।
"दुष्ट जानवर!" मौसाजी चीखे, जो अब पैदल यात्री बन चुके थे, और किसी युद्ध में हारे और लज्जित घुड़सवार सैनिक की तरह महसूस कर रहे थे।
"फरया," हैन्स ने उनके कन्धे को थपकाते हुए कहा।
"क्या? किराये की नाव?"
"उहाँ," उसने जवाब में उस तरफ इशारा किया जिधर नाव खड़ी थी। उसके कहने का मतलब था, 'वहाँ'
"खैर," मैंने खुशी जाहिर करते हुए कहा, "इसी से चलते हैं।"
"पहले क्यों नहीं बताया?" मौसाजी चीखे, "एक साथ चलें?"
"तिद्वत्तें," दिशा-निर्देशक ने कहा।
"क्या कहा उसने?" मैंने पूछा, उसकी पहेलीनुमा बात सुनकर।
"उसके कहने का मतलब है ज्वार भाटा," मौसाजी ने उसके शब्दों को अनुवाद कर समझाया।
"हाँ मैं समझ गया। हमें तब तक रुकना चाहिए।"
"फ़ॉर बिदा?" मौसाजी ने पूछा।
"जा," हैन्स ने जवाब दिया।
मौसाजी खिन्न होकर पैर पटकते हुए घोड़ों के साथ नाव के करीब चले गए।
मैं इंतज़ार की वजह समझ गया और खुश भी था, क्योंकि आगे बढ़कर पार करने का ये उचित समय नहीं था। नाव को इस समय उतारने का मतलब होता खतरा मोल लेना या किसी किसी चट्टान की चोट से सब खो देना।
शाम छः बजे सही समय आया। फिर मौसाजी, मैं, हैन्स, दो नाविक और चारों घोड़े, समतलीय नाव में सवार हो गए। एल्बे की भाप-चलित किराये वाली नाव के मुकाबले इसके लम्बे पतवार, रफ्तार के लिए बहुत धीमे थे। एक घण्टे से भी ज़्यादा समय लगा लेकिन सावधानी और सुरक्षित तरीके से हमने पार कर लिया था।
आधे घण्टे के बाद हम गार्डर पहुँच गए।