Manas Ke Ram - 35 in Hindi Fiction Stories by Ashish Kumar Trivedi books and stories PDF | मानस के राम (रामकथा) - 35

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मानस के राम (रामकथा) - 35





मानस के राम
भाग 35


रावण का दरबारियों से मंत्रणा करना

रावण ने मंदोदरी को शांत कराने के लिए अपनी शक्ति का गुणगान किया था। लेकिन मन ही मन वह भी बहुत चिंतित। मंदोदरी के महल से वह सीधे अपने दरबार पहुँचा। उसने वहाँ उपस्थित मंत्रीगणों को सारी बात से अवगत कराया। सब जानकर इंद्रजीत ने कहा,
"आश्चर्य की बात है उस साधारण वनवासी राम की सेना लंका के तट तक आ गई।"
एक मंत्री ने कहा,
"ऐसा लगता है कि यह सब उन देवताओं की कोई चाल है। देवता ही वानरों का वेष बनाकर राम का साथ दे रहे हैं। अन्यथा समुद्र पर सेतु तो बनाना तो असंभव है।"
अपने मंत्री की बात सुनकर इंद्रजीत और अधिक उत्तेजित हो गया। दंभ में बोला,
"जिन देवताओं के राजा इंद्र को हराकर मैंने इंद्रजीत नाम पाया है उनकी इतनी हिम्मत कैसे हो सकती है कि वह उस राम का साथ दें।"
माल्यवंत इन सब बातों को सुनकर बोले,
"आप सभी अपने अहंकार में सच को अनदेखा करने का प्रयास कर रहे हैं। सच तो यही है कि राम कोई साधारण मनुष्य नहीं हैं। उनसे बैर मोल लेकर अपने विनाश को न्योता देना समझदारी की बात नहीं होगी। इसलिए यही उचित है कि किसी को भेजकर राम से संधि कर ली जाए।"
माल्यवंत की सलाह सुनकर रावण आग बबूला हो गया। उसने कहा,
"आप अब बूढ़े हो चुके हैं। युद्ध करना अब आपके बस की बात नहीं। किंतु ऐसी निराशाजनक बातें करके हमारा उत्साह मत कम कीजिए। अब यही उचित है कि आप भी अब कहीं जाकर तपस्या में लीन हो जाइए।"
रावण के ऐसे कटु वचन सुनकर माल्यवंत ने उसे प्रणाम किया और वहांँ से चले गए।
उनके जाने के बाद इंद्रजीत ने फिर कहा,
"महाराज जैसे जैसे दिन बीत रहे हैं लंका के वासियों में भय का वातावरण उत्पन्न हो रहा है। अतः शीघ्र ही कुछ करना आवश्यक है। जब वह राम अपनी सेना के साथ सागर के उस पार था तब ही मैंने सलाह दी थी कि वहीं उन पर आक्रमण कर उनका विनाश कर दिया जाए। किंतु तब मेरी बात पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। अब मैं अपने सैनिकों के साथ आज रात ही उन पर जाकर आक्रमण करूँगा‌। राम तथा उसकी वानर सेना का अंत कर दूंँगा।"
शुक ने कहा,
"युवराज इंद्रजीत मेरी सलाह है कि आक्रमण आज रात ना कर कल रात को किया जाए।"
इंद्रजीत ने कहा,
"ऐसा करने का क्या कारण है ? हमें अब समय बिल्कुल भी व्यर्थ नहीं करना चाहिए।"
शुक ने कहा,
"क्षमा करें युवराज मैं समय व्यर्थ करने की बात नहीं कह रहा। किंतु शत्रु के दल में जाने से पूर्व पूरी सावधानी बरतनी चाहिए। मेरी तो सलाह है कि मैं जाकर इस बात का पता लगाने का प्रयास करता हूँ कि उनके दल में क्या तैयारी चल रही है। उनकी तैयारियों के आधार पर हम अपनी योजना बनाकर उन पर आक्रमण करें। इससे सफलता मिलने की संभावना बहुत अधिक बढ़ जाएगी।"
इंद्रजीत ने कहा,
"ठीक है ऐसा ही करो। लेकिन इस बार तुम अकेले मत जाना।"
शुक ने कहा,
"इस बार मैं अपने साथी सारण को भी साथ लेकर जाऊँगा।"
रावण ने सलाह दी,
"एक बात का ध्यान रखना। तुम दोनों उस कुलद्रोही विभीषण की दृष्टि से दूर रहना। वह भी राक्षस जाति का है। हमारी मायावी शक्तियों को अच्छी तरह जानता है।"
शुक ने प्रणाम किया और अपने काम को पूरा करने के लिए चला गया।
रावण ने आगे कहा,
"प्रहस्त, अकंपन, महापाश तुम लोगों का दायित्व है कि लंका वासियों में किसी प्रकार का भय व्याप्त ना होने पाए। इसके लिए उन्हें विभिन्न प्रकार के आमोद प्रमोद में उलझा कर रखो। ऐसी व्यवस्था करो कि यदि वानर सेना लंका के द्वार पर भी आ जाए तो नागरिकों में किसी प्रकार की चिंता ना हो।"
रावण का आदेश पाकर तीनों अपने काम को करने के लिए चले गए।
रावण भी उठा और अपने विलास भवन की तरफ चल दिया।


राम द्वारा रावण को चेतावनी

लंका तट पर आने के बाद वानरों ने बड़े ही सुव्यवस्थित तरीके से छावनी का निर्माण किया था। उस छावनी को देखकर राम अति प्रसन्न हुए। उन्होंने सुग्रीव और उनके वानरों की खूब प्रशंसा की।
राम अपने भाई लक्ष्मण, मित्र सुग्रीव तथा विभीषण के साथ बैठे हुए थे। उसी समय आसमान में उन्हें एक विशेष प्रकार की चमक दिखाई पड़ी। उन्हें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि आसमान एकदम साफ है। एक भी बादल नहीं है। तो फिर यह बिजली की चमक कैसी है। उनकी दुविधा को देखकर विभीषण ने कहा,
"श्री राम आप आकाश में हो रही इस चमक के बारे में जानने के लिए उत्सुक हैं। इस चमक का भेद मुझे पता है।"
राम ने कहा,
"यदि ऐसा है तो हमें भी इस चमक का कारण बताने की कृपा करें।"
विभीषण ने कहा,
"त्रिकूट पर्वत के शिखर पर रावण ने अपने आमोद प्रमोद के लिए एक विलास भवन का निर्माण कराया है। इस समय उस भवन के प्रांगण में संगीत और नृत्य की सभा चल रही होगी। उस सभा में लंकापति रावण संगीत का आनंद लेते हुए अपना सर हिला रहा होगा। जिससे उसके मुकुट की चमक यहांँ तक आ रही है। इसके अलावा उसके साथ महारानी मंदोदरी भी होंगी। उनके कर्ण फूल भी हिल रहे होंगे। उनसे भी इस प्रकार की चमक उत्पन्न हो रही है।"
विभीषण की बात सुनकर लक्ष्मण को बहुत आश्चर्य हुआ। उन्होंने कहा,
"आश्चर्य की बात है मुझे तो लगा था कि हमारे आने की सूचना पाकर रावण सावधान हो गया होगा। युद्ध के लिए तैयारियां कर रहा होगा। किंतु वह तो इस स्थिति में भी अपने आमोद प्रमोद में लगा हुआ है।"
विभीषण ने हंस कर कहा,
"आपका यह सोचना ठीक नहीं है। वह हमें इसी भ्रम में डालना चाहता है कि श्री राम तथा उनकी सेना के आने से उसे कोई अंतर नहीं पड़ता है। वह अपने नागरिकों को यह संदेश देना चाहता है कि तुम्हें घबराने की आवश्यकता नहीं है। मनुष्य और वानरों की सेना हमारा कुछ नहीं बिगाड़ पाएगी। इसलिए मैं निश्चिंत होकर राग रंग में लीन हूँ।"
राम ने मुस्कुरा कर कहा,
"यदि रावण हमें संदेश भेज रहा है तो मैं भी उसे अपने आने का संदेश भेज देता हूँ।"
उन्होंने लक्ष्मण को आदेश दिया कि वह उनका धनुष और तूणीर लेकर आएं। विभीषण तथा सुग्रीव को कुछ भी समझ नहीं आ रहा था। लक्ष्मण ने उन्हें उनका धनुष और तूणीर लाकर दे दिया। राम ने अपने धनुष पर एक बाण का संधान किया। उसके बाद उसे उस दिशा की तरफ चला दिया जहाँ से रह रह कर चमक आ रही थी। कुछ देर के पश्चात बाण वापस तूणीर में आ गया। राम ने कहा,
"रावण का मुकुट और महारानी मंदोदरी के कर्णफूल को गिरा कर इस बाण ने उन्हें मेरी चेतावनी दे दी है।"

अचानक एक बाण ने आकर रावण के सिर का मुकुट गिरा दिया। मंदोदरी के कर्णफूल को बेधता हुआ जिस दिशा से आया था उसी दिशा में लौट गया। नृत्य में व्यस्त नर्तकियां अचानक आए इस व्यवधान से घबरा गईं।
मंदोदरी विचलित हो गई। हाथ जोड़कर भगवान शिव से प्रार्थना करने लगी,
"हे महादेव यह किस तरह का अशुभ संकेत है। अवश्य राक्षस कुल पर कोई बड़ी विपदा आने वाली है। हे उमापति हम पर कृपा करें। राक्षस कुल की रक्षा कीजिए।"
मंदोदरी को इस बात का आभास हो गया था कि वह बाण अवश्य राम ने चलाया है। वह बार बार भगवान शिव से आने वाली विपत्ति को टालने की प्रार्थना करने लगी। उसे परेशान देखकर रावण ने कहा,
"कैलाशनाथ शिव की तो सदैव मुझ पर और मेरे कुल पर कृपा दृष्टि रहती है। परंतु तुम एक छोटी सी घटना से इतना अधिक व्यग्र क्यों हो रही हो ?"
रावण की बात सुनकर मंदोदरी ने कहा,
"नाथ आप किस प्रकार बार बार होने वाली अमंगल घटनाओं को अनदेखा कर सकते हैं। पहले उस वानर ने आकर लंका को आग लगा दी। राम की सेना सागर पर सेतु बांधकर इस पार आ गई। अब यह बाण भी अवश्य राम का चलाया हुआ ही है। जब से आप सीता का हरण करके लाए हैं मेरा मन आने वाली विपत्तियों को लेकर व्याकुल रहता है।"
रावण भी भीतर से भयभीत हो गया था। पर अपने डर को दबाकर बोला,
"इस प्रकार भीरुता की बातें करके मुझे निरुत्साहित मत करो। तुम लंका की पटरानी हो। इस समय जब हमारी प्रजा भयभीत है तब तुम्हारा आचरण ऐसा होना चाहिए कि उन्हें इस बात का आश्वासन मिले की उनके महाराज रावण सब ठीक कर देंगे। अब चलकर विश्राम करो ताकि कल मैं आगे की रणनीति बना सकूँ।"
मंदोदरी ने मुकुट उठाकर रावण के सर पर रखकर एक बार फिर भगवान शिव से प्रार्थना की कि उसके पति का राज्य सुरक्षित रहे। रावण अपने अंतःपुर की तरफ चल दिया। भारी मन से मंदोदरी ने भी उसका अनुसरण किया।


शुक और सारण का वानरों की छावनी में प्रवेश

शुक अपने साथी सारण के साथ वानरों की छावनी में आया। उन दोनों ने छावनी में प्रवेश करने से पहले वानरों का रूप धारण कर लिया। वानरों के भेष में दोनों सारी छावनी में घूमते हुए वहाँ की हर गतिविधि को बड़े ध्यान से देख रहे थे।
वानर युद्ध के लिए अनेक प्रकार की तैयारियां कर रहे थे। उनकी तैयारियों से शुक और सारण ने उनकी शक्ति का अनुमान लगाया। उन्होंने पाया कि वानर सेना भी सामर्थ्य में कम नहीं है। उनकी बातचीत सुनकर उन्हें उनकी युद्ध की योजना का भी अनुमान हो गया।
उन दोनों ने कई प्रकार की सूचनाएं प्राप्त कर ली थीं। अब वह राम तथा लक्ष्मण की सुरक्षा व्यवस्था के बारे में जानकारी प्राप्त करना चाहते थे। वह राम की पर्णकुटी की तरफ जा रहे थे। मार्ग में उनकी भेंट विभीषण से हो गई। उन्होंने पहली दृष्टि में ही उन दोनों को पहचान लिया। विभीषण ने वानरों को सावधान करते हुए कहा,
"यह दोनों वानर रूप में रावण के गुप्तचर शुक व सारण हैं। इन्हें बंदी बना लो।"
वानरों ने उन दोनों को बंदी बना लिया। उन्हें लेकर राम तथा लक्ष्मण के पास गए। सुग्रीव भी वहीं थे। वानरों ने उन्हें राम के सामने प्रस्तुत किया। विभीषण ने कहा,
"ये दोनों लंका के गुप्तचर शुक व सारण हैं। हमारी छावनी में विचरण करते हुए सूचनाएं एकत्र कर रहे थे।"
विभीषण की बात सुनकर लक्ष्मण ने क्रोध में कहा,
"इन दोनों को उचित दंड मिलना चाहिए भ्राता श्री।"
राम ने सुग्रीव से पूँछा,
"आप बताइए इन दोनों को क्या दंड मिलना चाहिए ?"
सुग्रीव ने कहा,
"यह शुक तो पहले भी रावण का संदेश लेकर आया था। परंतु दूत का वध नीति के विरुद्ध है। इसलिए इसे जाने दिया था। परंतु अब यह गुप्तचर बनकर आया है। इन दोनों का वध किया जाना ही उचित होगा।"
जांबवंत ने कहा,
"नीति यही कहती है कि यदि विपक्षी का गुप्तचर पकड़ा जाए तो उसका वध करना ही राजनीति की दृष्टि से उचित है।"
लक्ष्मण ने कहा,
"तब तो इन दोनों को मृत्युदंड देने में तनिक भी संकोच मत कीजिए।"
सुग्रीव ने कहा,
"इन लोगों ने हमारी बहुत सी महत्वपूर्ण बातों की जानकारी प्राप्त कर ली है। उससे हमें युद्ध में हानि हो सकती है। अतः इनका मारा जाना ही उचित है ताकि हमारी सूचना शत्रु तक ना पहुँच सके।"
राम ने कहा,
"गुप्तचर ही सही पर ये दोनों अपने स्वामी की आज्ञा का पालन कर रहे हैं।‌ अतः मेरी समझ से उचित यही होगा कि इन्हें बंधन मुक्त करके अपने स्वामी के पास जाने दो।"
विभीषण ने कहा,
"किंतु इससे तो युद्ध में हमारा पक्ष कमजोर हो जाएगा।"
राम ने कहा,
"चिंता की आवश्यकता नहीं है जीत सदैव सत्य की होती है। सत्य हमारे पक्ष में है।"
राम के आदेश पर वानरों ने शुक व सारण को बंधन मुक्त कर दिया। दोनों राम के चरणों में आकर गिर पड़े। शुक ने कहा,
"जैसा सुना था आप वैसे ही करुणा निधान हैं। आप शुरू पर भी दया करते हैं।"
शुक व सारण बार बार राम के पैरों पर गिरकर अपने किए की क्षमा मांगने लगे।