’कहानी’ - 8-
’’ये वो प्रियम्बदा तो नही’’
मैं आॅटो के लिए खड़ी थी। पीछे से किसी ने कंधे पर हाथ रखा। मैं चैंक पड़ी। पलट कर देखा तो वो खड़ी थी। मैं उसे देखकर मुस्करा पड़ी। प्रत्युत्तर में वह भी मुस्कराती हुई बड़े ही अपनत्व से मेरा हाथ पकड़ कर खड़ी हो गयी और मेरा हालचाल पूछने लगी। मैंने भी उसका हाल पूछा और बातों का आदान-प्रदान होने लगा। उस दिन भी वह पूर्व की भाँति खूबसूरत लग रही थी। किन्तु इस खूबसूरत चेहरे के सौन्दर्य के पीछे छिपी उसकी पीड़ा मेरी दृष्टि से छुप न सकी। भले ही वह उस पीड़ा को छिपाने का असफल प्रयत्न कर रही थी तथा हँस-हँस कर मेरे प्रश्नों के उत्तर दे रही थी। प्रश्न जो उसके विषय में थे, उसके बच्चों के विषय में थे उनके सकारात्मक उत्तर तो वह दे रही थी किन्तु न जाने क्यों मैं सन्तुष्ट नही हो पा रही थी। फिर भी उसे यँू हँसता- मुस्कराता देख कर मुझे प्रसन्नता की अनुभूति हो रही थी।
कुछ क्षण पश्चात् आॅटो आ गया और मैं उससे जाने की अनुमति ले कर आॅटों की तरफ बढ़ने लगी। उसने दोनों हाथ जोड़ कर ’नमस्ते मैडम जी’ कहा। मेरा आॅटो काॅलेज की तरफ बढ़ने लगा। वह प्रियम्बदा थी।
जुलाई माह का यह दूसरा सप्ताह था। मेरा काॅलेज ग्रीष्मावकाश के पश्चात् पहली जुलाई से खुल गया था। मैं इस समय कालेज जा रही थी। प्रियम्बदा मेरे काॅलेज के समीप स्थित अपने घर से वापस आ रही थी।
मैं मुख्य शहर से सटे हुए एक छोटे से कस्बे के सरकारी इण्टर काॅलेज में अध्यापन कार्य करती हूँ। मेरा काॅलेज जहाँ पर स्थित है वह जगह कुछ समय पूर्व छोटा-सा गाँव था। धीरे-धीरे यह गाँव विकसित होता हुआ एक कस्बे के रूप में परिवर्तित होता जा रहा है। इस क्षेत्र के शीघ्र विकास की एक वजह यह भी है कि यह शहर से सटा हुआ क्षेत्र है। लगभग नौ वर्ष पूर्व जब मेरी नियुक्ति इस गाँव के राजकीय इण्टर काॅलेज में हुई थी, तब यह अन्यन्त पिछड़ा हुआ गाँव था। न पक्की सड़कें थीं न यहाँ बिजली थी। मकान भी इतनी अधिक संख्या में नही थे। जो कुछ थे वो कच्चे-पक्के थे। हर तरफ हरे-भरे खेत, कच्ची सड़कों व पगडंडियों के किनारे आम, महुआ, शीशम, गुलमोहर, अमलतास के वृक्ष, लहराते दृष्टिगोचर होते थे। दूर-दूर तक प्राकृतिक सौन्दर्य विस्तृत था। देखते-देखते इस गाँव का शहरीकरण होने लगा। या यूँ कहें कि शहर इस गाँव तक विस्तृत हो गया। कारण यह था कि ये गाँव के शहर के निकट स्थित था। लोग जमीनों की तलाश में गाँव तक आ गये। कुछ ही वर्षों में यह गाँव, गाँव न रह कर शहर में तब्दील हो गया। यहाँ के बाग, खेत, जमीनें सब प्लाटों में बँटने लगे। वृक्ष कट गये। उनके स्थान पर कंक्रीट के जंगल उगने लगे। पक्की सड़कें, बिजली,पानी, निजी स्कूल, अस्पताल की सुविधा गाँव तक आ गई। लोगों के खेत विल्डरों द्वारा खरीदे जाने लगे। धीरे-धीरे यहाँ जमीनों की कीमत आसमसन छूने लगी। किसान व खेतिहर लोग जमीनें बेच कर सम्पन्न होने लगे। गाँव में बिल्डरों द्वारा प्लाटिंग कर के वैध-अवैध रूप से से निर्माण कार्य कराया जाने लगा। गाँव के लोग सम्पन्न हुए तो उनके घर भी पक्के उनके घर भी पक्के हो गये। अधिसंख्य घरों में बिजली, टी0वी0, फ्रिज इत्यादि ऐशो-आराम की चीजें आ गईं। पहले इस गाँव में पिछड़ी व दलित वर्ग के लागों की आबादी थी। शहरीकरण के कारण अन्य वर्ग के लोग भी आकर रहने लगे।
मुझे भली-भाँति स्मरण हैं वो दिन जब मेरे काॅलेज से चन्द कदम दूर स्थित एक खाली पड़े प्लाट पर भवन निर्माण होने लगा था। देखते-देखते कुछ ही महीनों में एक बड़ा-सा मकान बन कर खड़ा हो गया। उस मकान में रहने हेतु घर के लोग भी आ गये। क्यों कि घर की छत पर कपड़े सूखते दिखने लगे। यह तो इस गाँव की एक सामान्य-सी बात थी। मुख्य शहर से मात्र दस-बारह कि0मी0 दूर स्थित इस गाँव का शहरी करण होने के कारण तीव्र गति से होते जा रहे पकके मकानों के निर्माण में एक घर प्रियम्बदा का भी निर्मित हो गया। प्रियम्दा के डाॅक्टर पति की डिस्पेन्सरी भी उसी गाँव के मुख्य सड़क पर खुल गयी थी। मैं या यूँ कहें कि मेरे काॅलेज के अन्य सहकर्मियों ने भी प्रियम्बदा के पति और उसके दो बच्चों के अतिरिक्त घर के किसी अन्य सदस्य को अब तक नही देखा था। यद्यपि इन सबको यहाँ रहते हुए चार-पाँच वर्ष हो चुके थे।
इस गाँव के मुख्य निवासी दलित व पिछड़ी जाति के थे किन्तु प्रियम्बदा का परिवार इस वर्ग का नही था। हम सबकी मार्ग में आते-जाते यदा-कदा डा0 सतीश से मुलाकात हो जाती जो कभी डिस्पेन्सरी जा रहे होते या कभी बच्चों को छोड़ने या लेने उनके विद्यालय जा रहे होते। उनके के दो बेटे थे। जिनकी आयु कमशः नौ वर्ष व छः वर्ष की थी। डा0 सतीश गौर वर्ण, इकहरे शरीर,लम्बे कद के आकर्षक व्यकित्व के स्वामी थे। उनके दोनों बच्चे भी उनके जैसे ही थे। वे जब भी मिलते तो हम अभिभवकों का सम्मानपूर्वक अभिवादन करना न भूलते।
दिन व्यतीत होते जा रहे थे। विद्यालयी समयानुसार सत्र दर सत्र वर्ष भी व्यतीत होते जा रहे थे। इधर चार-पाँच वर्षों में यह छोटा-सा गाँव ’रामाश्रय का पुरवा’ विकास की तरफ अग्रसर होता जा रहा था। शहरों की भाँति यहाँ भी सब कुछ निर्मित होता ता रहा था। बड़े बंगले, फ्लैट्स, प्रइवेट स्कूल-काॅलेज, मोबाइल, कम्प्यूटर, साइबर कैफे, मार्ग के दोनो तरफ होटल, ढ़ाबे, रेस्टोरेन्ट से ले कर घर की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु जनरल मर्चेन्ट, कपड़े, पुस्तकें यानि प्रत्येक वस्तु की दुकानंे खुल चुकीं थीं। यहाँ के रहने वाले मूल ग्रामीण निवासी जो कुछ वर्षों पूर्व पैदल चला करते थे वे अब मोटर साइकलों पर फर्राटे भरने लगे। देखते-देखते यह सीधा-साधा गाँव आधुनिक हो गया।
आज से लगभग दो वर्ष पूर्व की बात है। मैं काॅलेज में ही थी कि डाॅ0 सतीश के निधन के दःुखद समाचार ने हम सबको विचलित कर दिया। उस दिन बिजली चली गई थी डा0 सतीश डिस्पेन्सरी में बैठे थे उनके साथ उनके मरीज भी गर्मी व उमस से बेहाल होने लगे। जैसा कि लोगों ने बताया कि इन्वर्टर में कुछ खराबी आ जाने के कारण डा0 सतीश उठ कर इन्वर्टर में पानी डालने लगे। उसी बीच अचानक बिजली आ गई तथा डा0 सतीश उसकी चपेट में आ गये। आस-पास के लोग जब तक घटना को समझते व बचाव में दौड़ते तब तक डा0 सतीश की मृत्यु हो चुकी थी। वो जुलाई माह का अन्तिम सप्ताह था। इस दुखद घटना के घटते ही उनके घर भीड़ इकट्ठी हो गयी। सभी इस घटना से व्यथित थे। मैं व मेरे काॅलेज के सभी सहकर्मी शोक संवेदना प्रकट करने उनके घर गये। हम प्रथम बार उनके घर गये थे। हम ही क्यों गाँव के अधिसंख्य लोेग प्रथम बार उनके घर के गये थे व घर के अन्य सदस्यों को प्रथम बार देखा था। उन अन्य सदस्यें में थी उनकी पत्नी व उनकी छोटी बहन। उन सबका हृदय विदारक रूदन सुन कर सबकी आँखें नम थीं। मैंने डा0 सतीश की पत्नी प्रियम्बदा को उसी दिन प्रथम बार देखा था। उस समय मैंने गाँव के कुछ सीधे-साधे लोगों द्वारा प्रियम्बदा को देख कर आपस में चर्चा करते सुना था कि, ’क्या ये भी डा0 साहेब की छोटी बहन हैं ? ’
’कउन हैं ये?’
’उनकी पत्नी कहाँ हैं?’
यह ज्ञात होने पर कि उनकी पत्नी यही हैं, सब आश्चर्य कर रहे थे। आश्चर्य हो भी क्यों न? अत्यन्त युवा-सी, लम्बी-पतली, कुन्दन की भाँति गौर वर्ण, खूबसूरत नाक-नक्श व सलवार सूट पहने प्रियम्बदा कहीे से भी दो बच्चों की माँ नही लग रही थी। इस आकस्मिक आयी विपत्ति के पहाड़ तले दब कर वह करूण रूदन कर रही थी व बार-बार बेसुध हो रही थी। उसकी लम्बी पहाड़-सी जि़न्दगी व दो बच्चों की जिम्मेदारी। कैसे कटेगा उसका जीवन। हम सब उसके विषय में सोच कर दुःखी हो रहे थे व उस पर हुए प्रकृति के इस निर्मम प्रहार से बेबस थे।
समय दुःखों पर मरहम लगााने का काम अवश्य करता है किन्तु वह ठहर कर........या पलट कर हमें देखने का प्रयत्न कभी नही करता कि हम किस हाल में हेैं। वह तो हमें हमारे हाल पर छोड़ कर आगे बढ़ जाता है। अपनी गति से चलता रहता है। समय अपनी रफ्तार से चलता जा रहा था। प्रियम्बदा कैसे रह रही होगी, कैसे जी रही होगी? उसकी रातें उसके दिन कैसे व्यतीत हो रहे होंगे? इन बातों का उससे क्या लेना-देना ?
शनै-शनै इस घटना को घटित हुए लगभग चार माह व्यतीत हो गये। इन चार महीनों के पश्चात् प्रथम बार प्रियम्बदा हमारे विद्यालय आयी। अवसर था विद्यालय के वार्षिकोत्सव का। गाँव के सम्भ्रान्त लोगों को विद्यालय का ओर से आमंत्रित किया गया था। विद्यालय के प्रांगण में मेहमानों के लिए लगी कुर्सियों में से एक कुर्सी खींच कर बैठ गयी चुप-सी। वह अत्यन्त दुबली लग रही थी। मुरझाया पीला-सा चेहरा व भावशून्य आँखों से हम सब की तरफ देख रही थी। कुशलक्षेम पूछने पर एक फीकी-सी मुस्कान चेहरे पर लाते हुए उसने स्वीकृति में सिर्फ सिर हिलाया था। उसे देख कर मेरा हृदय विषाद से भरता जा रहा था। इतना कम उम्र, साथ में दो छोटे बच्चे। कैसे कर पाएगी वह अकेले बच्चों का पालन-पोषण? कैसे रहेगी वह विकृत मानसिकता वाले लोगों से भरे इस समाज में ? कैसे रह पाएगी? जब तक प्रियम्बदा मेरे समक्ष रही तब तक मेरा हृदय इन्ही अनुत्तरित प्रश्नों के साथ जूझता रहा।
समस्त कार्यक्रमों की समाप्ति तक प्रियम्बदा काॅलेज में ही बैठी रही। अधिकांश अतिथियों के जाने के पश्चात् जब व्यस्तता कुछ कम हुई तो मैं प्रियम्बदा के पास जा कर बैठ गयी। प्रियम्बदा ने बताया कि, ’’डा0सतीश की छोटी बहन जो पहले उनके साथ रहती थी, दो माह पश्चात् उसके व्याह की तिथि तय हो गयी है।’’ यह कहते-कहते उसके नेत्रों से अश्रु छलक आए। आगे वह पुनः बोली, किसी के होने न होने से क्या फर्क पड़ता है। दुनिया के कार्य व्यापार तो चलते ही हैं। उनकी कमी तो सिर्फ मैं व उनके बच्चे ही अनुभव कर रहे हैं। कह कर वह चुप हो गयी, कुछ समय और बैठने के पश्चात् चली गयी किन्तु जाते-जाते पुनः मेरे समक्ष अनेक अनुत्तरित प्रश्न खड़ी कर गयी।
डा0 सतीश की डिस्पेन्सरी अब बन्द रहती। प्रियम्बदा यदा-कदा हमें दिखाई दे जाती। समय व्यतीत होता जा रहा था। शनै-शनै इस घटना को व्यतीत हुए एक वर्ष हो गये।
काफी अरसे पश्चात् एक दिन प्रियम्बदा मिली। वह बच्चों के स्कूल से अभिभावक मीटिंग में उपस्थित हो कर लौट रही थी। प्रियम्बदा बताने लगी कि बच्चों को ले कर शहर में रहने लगी हैं। वहाँ उसने किराये का एक छोटा-सा मकान ले लिया है। मेरे यह पूछने पर कि, ’यहाँ उसका अपना इतना बड़ा घर होते हुए भी किराए का छोटा-सा मकान लेने की क्या वजह हो़ गयी?’ यद्यपि यह व्यकिगत्-सा प्रश्न पूछना मुझे नागवार लग रहा था किन्तु प्रियम्बदा मुझसे थोडी-थोड़ी खुलने लग गयी थी तथा अपने हृदय की बातों को कभी-कभी मुझसे साझा करने लगी थी। मेरे प्रश्न के उत्तर में उसने जो कुछ बताया उसका आभास तो मुझे कुछ-कुछ था किन्तु दिनों-दिन होती जा रही हमारी भौतिक प्रगति के साथ हमारे नैतिक मूल्य कितने नीचे गिरते जा रहे हैं इस बात का आभास मुझे प्रियम्बदा की बातों को सुन कर उस दिन हुआ। मुझे ऐसे लगा जैसे हम सभ्य समाज के मनुष्यों के बीच नही बल्कि किसी जंगल में आदमखोर पशुओं के बीच रह रहे हों। उसने हमें बताया कि, ’’ दीदी! यहाँ गाँव के लागों ने मेरा जीना मुश्किल कर दिया था। उनकी भेडि़यों-सी घूरती आँखें, अश्लील फब्तियाँ, राह चलते मुझे रोक कर बातें करना व हाल पूछने के बहाने पुरूषें का मुझे स्पर्श करना, मैं किस प्रकार यहाँ रह पाती? यहाँ ये जो संभ्रान्त लोग रहते हैं वे मेरा हाल पूछने के बहाने मेरे घर तक आये हैं व मेरे साथ अशोभनीय व्यवहार करने का प्रयत्न किया है। मैं क्या करती दीदी? शहर में लोग मेरी विवशताओं से अनभिज्ञ हैं। वे मेरी विवश्ताओं का लाभ तो नही उठा पाएंगें? ’’ कह कर वह चुप हो गयी। उसके सूने नेत्र आसमान में कुछ ढूँढनें का प्रयत्न करने लगे। कदाचित् पुराने सुनहरे दिन। कुछ देर रूकने के पश्चात् वह चली गयी।
प्रियम्बदा से मेरी मुलाकात यदा-कदा होती रहती। उसने यहाँ का घर किराए पर दे दिया था। एक दिन मिलने पर उसने बताया कि, ’’ उसका बड़ा बेटा मानसिक रूप से परेशान रहने लगा है। डा0 ने बताया कि वह अवसाद से पीडि़त हो गया है। उसका इलाज चल रहा है। वह अपने पापा को हर समय याद करता है। समझदार जो है।’’ आगे वह बताने लगी कि घर में सम्पत्ति संबन्धित परेशानियाँ भी आने लगी हेै। मेरे ससूराल वाले समझते हैं कि मैं डा0 साहब के हिस्से की सम्पत्ति ले कर कहीं और चली जाऊँगी। जब घर के लोग ही ग़लत सोचते हैं तो बाहर वाले मेरी भवनाओं की कद्र क्यों करेंगे? वे मेरे लिए अच्छा क्यों सोचेंगे?
समय अपनी गति से आगे बढ़ता जा रहा था। दिन-रात ढलते-ढलते ऋतुएँ भी परिवर्तित हो रही थीं। इस नैसर्गिक परिवर्तन के साथ यदा-कदा हम भी परिवर्तित हो जाते हैं। कुछ माह और व्यतीत हुए। कदाचित् पाँच या छः माह। एक दिन प्रियम्बदा मुझसे मिलने काॅलेज आयी। कुशलक्षेम के आदान-प्रदान के पश्चात् उसने मुझे बताया कि, ’’उसके घर का किराएदार उसे कई माह से घर का किराया नही दे रहा है। उसे अकली जान कर परेशान करता है।’’ आगे उसने बताया कि, ’’उसके साथ उसके कोई परिचित आये हैं। बहुत दिनों से आपसे मिली नही थी सोचा कि आपसे मिलती चलूँ।’’ कह कर प्रियम्बदा चुप हो गयी। कुछ क्षण चुप रहने के पश्चात् प्रियम्बदा ने बात आगे बढ़ते हुए कहा कि, दीदी पिछले माह मैंने विवाह कर लिया है। आप कह सकती हैं कि करा दिया गया है। ससुराल के लोग यह सोचते थे कि मैं उनकी सम्पत्ति ले कर कहीें और न चली जाऊँ इसलिए उन्होने अपने ही रिश्तेदार के साथ मेरा विवाह करा दिया। वो विधुर हैं तथा उम्र में मुझसे बड़े हैं।’’ मैने उत्सुकतावश अपने कमरे के दरवाजे से बाहर की तरफ देखा। जैसा कि प्रियम्बदा ने अभी-अभी बताया था कि उसके साथ कोई आया है। मेरे हृदय में यह स्वाभाविक-सी उत्सुकता जागृत हुई कि शायद साथ में आया व्यक्ति ही वो है जिससे प्रियम्बदा ने अब विवाह किया है और मै भी देखूँ कि वह कैसा है? बाहर विद्यालय के मुख्य गेट के पास मुझे एक आदमी खड़ा दिखाई दिया। मैंने प्रियम्बदा से इशारों में पूछा कि, ’क्या ये ही वो व्यक्ति है।’ प्रियम्बदा ने स्वीकृति में सिर हिला दिया।
प्रियम्बदा की बातें सुनकर मैं अचंभित रह गयी। मैं अचंभित इसलिए नही थी कि प्रियम्बदा ने दूसरा विवाह कर लिया था। यह तो अच्छी बात है। अभी उसकी उम्र ही क्या है? मुझे हमेशा ऐसा प्रतीत होता था कि उसका विवाह डा0 सतीश से कम उम्र में ही हो गया था। मैंने प्रियम्बदा के चेहरे की तरफ देखा। उसके माथे पर एक छोटी-सी बिन्दी व मांग में सिन्दूर की लालिमा दिखाई दी। ये सारे सुहाग होने के पश्चात् भी मुझे प्रियम्बदा वैसी ही लग रही थी जैसी इससे पूर्व मिलने पर लगती थी। आँखों में गहराई तक उदासी भरी व निस्तेज चेहरा। मुझे प्रियम्बदा के दूसरे विवाह से नही बल्कि विवाह के करणों को ले कर, समाज के सोच पर हैरानी हो रही थी। सम्पति के लिये उसका विवाह उसकी इच्झा के विरूद्ध करा देना कहाँ तक उचित था। काश! वे उसका विवाह एक प्रौढ़ व्यक्ति से न कर हम उम्र व्यक्ति से व प्रियम्बदा की सहमति से करते जो उसको भवनात्मक सहयोग व बच्चों को पितातुल्य संरक्षण देने के लिए तत्पर रहता। फिर वो विधुर ही क्यों न होता।
प्रियम्बदा उस दिन मुझसे बहुत-सी बातें करना चाह रही थी। वह बताने लगी, ’’दीदी! समाज चाहे जितना भी विकसित हो जाए। विकास के नाम पर भैतिक सुख-सुविधायें जुटा ले। नारी के नाम पर उसकी सोच आज भी वही है, आदिम, असभ्य, जंगली। पुरूषें के लिए नारी सिर्फ एक देह है, भोग्या है। पढ़ा-लिखा समाज सभ्य और शिक्षित होने का चाहे जितना भी ढ़ोंग कर ले........आर्दश की बातें काग़जों पर लिख ले.......पुस्तकों में पढ़ ले....यथार्थ में मनुष्य आज भी असभ्य है।’’ प्रियम्बदा मेरी ओर देख कर अपनी बातें मुझसे कहती जा रही थी। उसकी बातें सुन कर मेरा मन कसैला और....हृदय बोझिल होता जा रहा था।
’’दीदी, क्या सतीश का स्थान कोई और ले पाएगा? दीदी ऐसा क्यों है? लोग समझते हैं कि शरीर की भूख मिटाने के लिए मैंने दूसरा विवाह कर लिया है। किन्तु, ऐसा नही है। मुझे स्वंय से घिन आती है। उन रातों को मुझे सतीश ही आद आते हैं। मुझे अपने इस शरीर से घृणा है। मैं शरीर की भूखी इस दुनिया से की दृष्टि से दूर इस नारी देह को लेकर कहाँ जाऊँ?’’ प्रियम्बदा की ये बातें सुन कर मेरे अन्दर कुछ टूटता जा रहा था। मैं समझ नही पा रही हूँ कि उसे कैसे और क्या समझाऊँ? कैसे उसे सान्त्वना दूँ। क्या मैं नही जानती समाज में नारी की स्थिति....नारी होने का दर्द? अभिशप्त नारी जीवन की सत्यता? मैं अनभिज्ञ तो नही? मेरे हृदय का पीड़ा पिघल कर अश्रु के रूप मे परिवर्तित हो उठी व नेत्रों से बहने लगी। मैंने प्रियम्बदा का हाथ पकड़ कर सान्त्वना देने का प्रयत्न तो किया किन्तु कह कुछ न सकी। प्रियम्बदा जाने के लिए तत्पर हो उठी। उसका हाथ पकड़े हुए मैं काॅलेज के गेट तक आयी। प्रियम्बदा जा रही थी। मैं उसे जाते हुए देर तक देखती रही। प्रियम्बदा चली जा रही थी...धीरे......धीरे......धीरे.......अचम्भित-सी। अनजाने......अनचिह्नने....पथ पर अकेली।
नीरजा हेमेन्द्र