16.
फाल्गुनी स्मारक के चेंबर में कुछ आवश्यक विषयों पर चर्चा कर रही थी कि हेड नर्स सिस्टर मार्था ने अंदर आने की इजाजत मांगी। उसके हाथ में किसना की कविताओं की पांडुलिपि थी। फाल्गुनी के हाथ में उन्हें थमाकर वह चली गई। किसना की याद फिर ताजी हो उठी फाल्गुनी के जेहन में और कविता संग्रह के पन्ने पलटने लगी। ' झरोखे जिंदगी के ' इसी नाम का संग्रह था। प्रत्येक पंक्ति में उसे मृत्यु के कगार पर डगमगाते किसना की मासूम चितवन नजर आ रही थी। कविताओं में डूबी पत्नी को देख स्मारक ने कहा," फाल्गुनी मैं भी तो सुनूं एक-आध पंक्ति। " फाल्गुनी ने कुछ पंक्तियों को पढ़कर सुनाया
" दिशा अनंत है सुना, फिर भी दिशाभ्रमित नहीं,
डगर कठिन, कठिन सही क्षितिज के पार जाना है।
अनंत पथ का हूं पाथिक, मृत्यु का नहीं है भय,
जीवन यदि एक सत्य है, मृत्यु भी मिथ्या नहीं।
विचारों के इस शोर में, भले ही वाणी मूक है,
कर्म का परिभाषा है, जीवन तो केवल एक है। "
कितनी निडरता से उस युवक ने मृत्यु की सत्यता को स्वीकार किया था। एक-दो प्रकाशकों से उनकी बात हुई थी और कविता संग्रह को वे हाथोंहाथ लेना चाह रहे थे
अस्पताल के जूनियर डॉक्टरों को एक टीम शहरों और कस्बों के स्कूलों में हफ्ते में दो बार जाया करती थी। एच .आई .वी और एड्स जैसी जानलेवा बीमारियों की रोकथाम के उपायों के विषय में जानकारी देना और उन्हें छूत की बीमारी समझने की भ्रांति को मिटाने की जनजागरूकता का अभियान चला रहे थे।
एड्स की रोकथाम के लिए युद्धस्तर पर छिड़ी इस मुहिम में कई गैर-सरकारी संस्थाएं भी जुड़ चुकी थी। अस्पताल की ख्याति दिन -प्रतिदिन फैलती गई और साथ ही स्मारक की सेहत गिरती चली गई। जो कुछ भी थोड़ा -बहुत खाना पेट में ज्यादा, तुरंत बाहर निकल जाता था। पाचन शक्ति जवाब दे गई थी। अपनी सेहत के प्रति उदासीनता फाल्गुनी के लिए चिंता का कारण बन गई थी, पर वह किसी को सुने तो। उस दिन भी जब फाल्गुनी ने झल्लाते हुए कहा, "आप किसी का कहां मानते ही नहीं। स्वस्थ नहीं रहेंगे तो काम कैसे करेंगे ? दुनियाभर के लोगों का इलाज करते फिरते हैं, फिर अपनी सेहत के प्रति क्यों इतनी उदासीनता ? लगता है मुझे ही कुछ करना होगा अब। बा-बापूजी को यहां बुला लेती हूं। देखती हूं फिर कैसे नहीं सुनते ? " कहकर वह रूठ गई। शायद विवशता के आंसू छलक आए थे उसकी आंखों में। स्मारक ने मानने के अंदाज़ में कहा, " ऐसी कोई बात नहीं फालगु, जो मैं तुमसे छुपा रहा हूं। तुम तो बिना वजह टेंशन ले रही हो। अरे भई डॉक्टर हूं भगवान थोड़े ही और डॉक्टर क्या बीमार नहीं पड़ते। जल्दी ही ठीक हो जाऊंगा, बापूजी से कुछ बताने की आवश्यकता नहीं। "
इस बीच फाल्गुनी का बड़ा भाई मयंक अमेरिका से राजकोट आया सपरिवार। केवल बीस दिन के लिए रहना था। भाई के बुलावे पर फाल्गुनी स्वयं को रोक न सकी और स्मारक को सेहत पर पचास हिदायतें देकर वह राजकोट चली गई एक दिन के लिए। मायके गए हुए यूं भी उसे कई वर्ष हो गए थे अपनी छोटी बहन के सिर पर लाड से हाथ फेरते हुए पूछा, " क्यों री फाल्गु बनेवी (छोटे बहन का पति) तुझे खुश तो रखता है ना ? या फिर डॉक्टर साहब सारा दिन मरीजों में ही खोया रहता है ? और तू ? ये कैसी दशा बनाई है अपनी ? कहां गया वह चंपा सा रंग- रूप ! म्लान मुख, क्लांत आंखें, क्या स्मारक कुछ कहते नहीं तुझे या फिर तेरी और देखने की भी फुर्सत नहीं ? याद है, बचपन में हम सब तेरे रूप -रंग को देखकर चंपा के कहकर पुकारा करते थे। तुझे गोरा सामली (जंगली जलेबी) चनी बोर (छोटे -छोटे लाल बेर ) और केरी (अमिया) पसंद थे और हाथ -पांव पसारे जिद करती थी। मैं न जाने किस-किस के बागों से यह सब तेरे लिए चुरा कर लाया करता था।
" हां मारा वीरा (हां मेरे भइया) सब याद है मुझे। एक बार गुस्से में आकर मैंने पत्थर मारा था तुझे और तेरे माथे से खून निकल आया था। मुझे मार खाने से बचाने के लिए तूने मां से झूठ कहा कि झूले से गिर गया था तू।" और दोनों भाई-बहन अतीत के सुखद स्मृतियों में खोए ना जाने कितनी यादों को ताजा कर रहे थे। बहुत दिनों बाद फालगुनी को अपनों के बीच बडा ही आनंद आया। भाई ने और दो दिन रुकने का आग्रह किया पर फाल्गुनी में स्मारक की गिरती सेहत के चलते अपनी विवशता बताई, पर जाते-जाते भाई को यह कह कर संतुष्ट किया कि ईश्वर से प्रार्थना है कि हर जन्म में स्मारक ही उसका पति हो।
राजकोट से मुंबई की फ्लाइट थी, जहां उसे ससुराल में भी एक रात के लिए ठहरना था। बहु के पदार्पण से श्वसुरग्रह खिल उठा। हंसाबेन ने बहु को कलेजे से लगाए हुए कहा, " फाल्गु तुम लोगों के बिना घर काटता है री। पता नहीं उस पगले पर किस बात का जुनून सवार है की मरीज और अस्पताल के बीच सारे रिश्ते से दूर चला गया। एक बार भी उस निष्ठुर को अपने बूढ़े माता-पिता का ख्याल नहीं आता ?" कहते हुए पुत्र बिछोह से आहत उन बूढ़ी आंखों में स्वाभिमान और विवशता के आंसू छलक गए और हर बार की तरह फाल्गुनी ने सुहाग का बचाव करते हुए कहा, " बा क्यों जी छोटा करती हो। किसने कह दिया वे आपको याद नहीं करते ? बहुत ज्यादा याद करते हैं। फुर्सत के वक्त आप ही लोगों की बातें तो करते हैं। आप लोग ही क्यों नहीं वहां चले आते? बापूजी, जो अब तक खामोशी से सब देख-सुन रहे थे, फाल्गुनी की बातों को बीच में ही रोकते हुए कहने लगे, " बेटी तेरी सांस तो पुत्र मोह में अंधी हुई जा रही है। नादान ये नहीं जानती की कितने बड़े मिशन की जिम्मेदारी है उस पर। हंसू ये तो सोच कि उसने दुनिया में नाम रोशन करके तेरी कोख को गर्वित किया है। मैंने आज भई उसका एक नेशनल न्यूज़ चैनल में इंटरव्यू देखा। हंसू अब वह सिर्फ मेरा और तेरा बेटा नहीं, पूरे देश का बेटा है इसलिए कहता हूं ममता का अभिमान मत कर, हो सके तो उसे और प्रोत्साहन दे समझी नादान।"
पता नहीं बापूजी की हंसू यानी हंसाबेन पति की बातों को कितना समझी, लेकिन फाल्गुनी बच गई पति का और पक्ष लेने से। खाने की मेज पर थेपला ( मेथी का परांठा) का टुकड़ा तोड़ते हुए फाल्गुनी ने स्मारक की गिरती सेहत की बात बताई और उन्हें वहां जाकर एक बार पुत्र को समझाने का अनुरोध किया।
पुत्र की गिरती सेहत की खबर से जननी का ह्रदय वेदना से छलनी हो उठा। एक बार फिर फाल्गुनी की सास जिद पर अड़ गई, " सुनोजी ! आपको चलना हो तो चलिए, वर्ना मैं जा रही हूं बेटे के पास।" अमूमन हंसमुख रहने वाले स्मारक के पिता भी पुत्र के लिए चिंतित दिखाई देने लगे। ठीक है, तो फिर मैं भी तुम्हीं लोगों के साथ चलूंगा। कल सुबह ही निकल पड़ेंगे।
फाल्गुनी के बिना ये दो-दिन स्मारक को बड़े कठिन लग रहे थे। शायद उसे आदत पड़ गई थी फाल्गुनी की। कौन-सी चीज कब और किस वक्त चाहिए, फाल्गुनी खूब जानती थी। कभी-कभी तो स्मारक हंसते हुए कहने लगता, "भई तुमने तो मेरी आदतें बिगाड़कर रख दी हैं फाल्गु। पता नहीं कैसे रह पाऊंगा तुम्हारे बगैर।" बस, यही बातें थीं, जो फाल्गुनी को संतुष्ट कर देती। उस दिन भी तिर्यक हंसी के साथ फाल्गुनी उसके शर्ट का बटन टांकते हुए कहने लगी, " हां, हां खूब जानती हूं, पर एक बात कहूं, पति की सेवा का सुख ही पत्नी का परमानंद है। उसमें समर्पण की भावना है और इसी समपर्ण में पत्नी अपना प्रेम पा लेती है। "
स्मारक उसके तर्कों की प्रशंसा मन ही मन करते हुए कहने लगा, " लेकिन फाल्गु तुम्हारा ऋण कैसे चूका पाऊंगा, भला कहो तो ? पुरुष प्रेम तो स्वार्थ से शुरू और स्वार्थ पर ही समाप्त होता है। अब मुझे ही देख लो। ये जानते हुए भी की तुम्हें में वह पत्नी का प्रेम और ना ही भातृत्व का सुख, फिर भी अपनी सुख-सुविधा के लिए तुम्हारा इस्तेमाल कर ही रहा हूं ना। तुम्हारा सामीप्य अब मेरी आवश्यकता और आदत, दोनों बन गई है। सचमुच कितना स्वार्थी हूं मैं। फाल्गुनी शर्ट का बटन टांक चुकी थी। धागे को दांत से तोड़ते हुए खिलखिला कर हँस पड़ी। ' आप भी ना, बड़े ही भोले हैं, लेकिन आपकी ईमानदार की प्रशंसा करनी होगी। मुझे पत्नी सुख न दे पाने की असमर्थता को व्यक्त करने का कोई मौका नहीं छोड़ते है आप, खूब समझती हूं। सहवास सुख से हम दोनों ही वंचित है, कारण जो भी हों, पर एक बात से हम दोनों ही संतुष्ट है की हमारी सोच, हमारे मन परस्पर एक दूसरे से घुल-मिल गए है। नेत्रहीन धृतराष्ट्र के साथ गांधारी ने भी अपनी-आंखों पर आजीवन पटटी बांधकर अपने स्त्री धर्म का पालन किया था, तो क्या धृतराष्ट्र भी आप ही की तरह ग्लानिबोध से पीड़ित रहे होंगे ? तो इसलिए आपसे हाथ जोड़कर विनती करती हूं कि बार-बार अपनी हीनता को न दवाइयां खा लीजिए, लेक्चरबाजी बहुत खा चुके हैं। ' कहकर फाल्गुनी ने पानी का गिलास और गोलियां थमा दीं पति को। स्मारक ने भी किसी अनुशासित बालक कि तरह चुपचाप दवाइयां निगल लीं।