murti ka rahasy - 9 in Hindi Children Stories by रामगोपाल तिवारी (भावुक) books and stories PDF | मूर्ति का रहस्य - 9

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मूर्ति का रहस्य - 9

मूर्ति का रहस्य - नौ:

रमजान विश्वनाथ त्यागी के चेहरे के भावों से सब कुछ समझ गया कि श्रीमान को यहाँ भी कुछ समझ नहीं आया तो बोला - ‘‘ क्यों त्यागी जी यहाँ आपकी पुरातत्व वाली जानकारी काम नहीं आई ?’’

रमजान ने बिना उत्तर सुने आगे बढकर उस मूर्ति की आँखों में झाँक कर देखा और उस इबारत को कई बार पढ़ा ‘‘ छोटा भाई बडे भाई को मारे तो पावे ।’’

मूर्ति से हट कर रमजान भी उन्हीं के पास आकर खडा हो गया । सेठ राम दास ने अपनी बात रखी - ‘‘ मै तो इन लोगेां से शुरू से ही कह रहा हँू । यहाँ कुछ हाथ लगने वाला नहीं है, कहीं कुछ लिखा है, कहीं कुछ । हम सब इन्हीं उलझनों में उलझ कर रह गए हैं ।’’

रमजान को इस समय यह दोहा याद आया उसने जोर-जोर से सबको सुनाया -

‘‘धीरज धर कैं बंज लो तृष्णा की तकरार ।

अकुलाहट से बनत है खेती को रुजगार ।। ’’

रामदास इन भावों को समझने का प्रयास करते हुए बोला - ‘‘ रमजान भाई, हम धीरज धर के तो बैठे ही हैं । फिर भी यह काम जल्दी से निपट जाऐ उसी में लाभ है । इस बात का क्या मतलब है कि - छोटा भाई बडे भाई को मारे ...।’’

रमजान ने व्यंग के भाव में कहा - ‘‘सेठ जी मुझे तो लगता है यह मूर्ति बलिदान माँग रही है । आप तो जानते ही हैं ऐसा धन बिना बलिदान के हाथ नहीं लगता । ’’

रामदास सोच के सागर में ड़ूबते हुए बोला - ‘‘ यह किसका बलिदान माँग रही है ।’’

रमजान मजाक के मूड में आते हुए बोला-‘‘इसमें साफ-साफ तो लिखा है। छोटा भाई बडे भाई को मारे तो पावे।’’

विश्वनाथ त्यागी ने अपनी असमर्थता प्रकट की - ‘‘रमजान भाई, हमारे तो कोई बड़े छोटे भाई ही नहीं । अपन तो अकेले राम है ।’’

यकायक रामदास की अँाखें चमक उठीं, वह आवेश में चीखा ‘‘शान्ति ...।’’

‘‘जी साब ।’’

‘‘चौक में मेरे बड़े भाई साब बैठे हैं, उनसे कहना मैंने उन्हें जरूरी काम से यहाँ बुलाया है ।’’

‘‘जी साब।’’ कह कर वह उन्हंे बुलाने चली गई ।

कुछ देर बाद सेठ नारायण दास बेंत टेकते टेकते कठिनता से सभँल-सभँल कर सीड़ियों से नीचे उतर के तलधर में आ पहुँचे। वे सीधे मूर्ति के सामने पहुँचे और दोनों हाथ जोड़ कर भक्ति भाव से आँखें बन्द करके उनकी प्रार्थना करने लगे।

रामदास ने तत्परता से अपनी पिस्तौल निकाली और बङ़े भाई पर लक्ष्य साधकर टेªगर दबा दिया ।

फायर हुआ -‘‘धँाय .....!‘‘

पूरे तहखाने में शोर हुआ । धुअँा फैल गया .......और सेठ नारायणदास ‘हरेऽऽऽऽ शिव।‘ कहते हुए ढेर हो गये ।

यकायक रमजान रामदास पर चिल्लाया -‘‘रामदास तू बड़ा मूर्ख निकला, यह तूने क्या कर दिया ?’’ रामदास क्र्रोध में पागल सा होते हुये बोला -‘‘मियँा वाले यह तूने ही तो कहा था कि मूर्ति बलिदान मँाग

रही है।’’

विश्वनाथ त्यागी ने बिगड़ी हुई स्थिति को सभाँलने की दृष्टि से कहा -‘‘देखो, जो हो गया, सो हो गया । यहाँ से बात बाहर नहीं जाना चाहिए । बेचारे सेठ जी बड़े भले आदमी थे । देख नहीं रहे, मरते वक्त उनके मँुह से क्या शब्द निकले -‘‘हरे शिव।’’

रामदास ने अपनी पिस्तौल की नली रमजान की ओर मोङ़ दी और बोला, ’‘तू जल्दी से खजाना बताता है कि नहीं । नहीं तो तेरा भी काम तमाम यहीं किये देता हूँ।’’

विश्वनाथ त्यागी ने तत्परता से उसकी पिस्तौल पकड़ ली और बोला ’’सेठ जी आप यह क्या करते हैं! अपना बना बनाया काम बिगाड़ रहे हैं । अरे ! अभी अपने हाथ में आया ही क्या है ? जो कुछ मिलेेगा तो इन्हीं की कृपा से मिलेगा।‘‘

यह सुनकर यकायक उसका विवेेक जाग गया और उसने अपनी पिस्तौल की नली नीचे कर ली । विश्वनाथ ने स्थिति देखकर पिस्तौल की पकड़ छोड़ दी ।

चन्द्रावती बोली -‘‘भैया इन्हें खजाने का पता बता दें जिससे अपना पिण्ड छूटे ।

‘‘तुम कहती हो तो इन्हें बतला देते हैं।’’

विश्वनाथ त्यागी रमजान की खुशामद करते हुए बोला -‘‘ अरे ! रमजान भाई, आप तो हमारे मसीहा है।’’

‘‘चुप रह वें ! मसीहा मसीहा होता है, हमें आदमी बना रहने दे।’’

विश्वनाथ त्यागी अति नम्र बनते हुए बोला - ‘‘ तो बता दीजिये ना। इस शुभ काम में देर क्यों...?’’

चंद्रावती सेठ नारायणदास की लाश की तरफ देखकर बोली -‘‘भैया सेठ जी की लाश से खून के बबूले तो अभी तक निकल रहे हैं। इन्हें शीघ्र बता दें, जिससे अपन लोग यहाँ से मुक्त हों।’’

रमजान बोला - ‘‘चंदा मेरी समझ में तो यह आ रहा है कि यहाँ छोटे बड़े से मतलब इन दो नंदियों से है। छोटे नंदी को उठा कर बड़े नंदी पर पटक कर देंखें। ये ही छोटे भैया और......... बड़े भैया हैं।’’

‘‘अरे ! तो यह बात है।’’ यह कहते हुए रामदास ने फुर्ती से आगे बढ़कर, पिस्तौल जमीन में रखी और दोनों हाथों में उस छोटे नंदी को सिर के ऊपर उठाया और उस बड़े नंदी की पीठ पर पटक दिया।

‘‘धड़ा ऽ ऽ ऽ ऽ म’’ की आवाज हुई और चमत्कार हुआ। बड़ा नंदी मिट्टी के घड़े सा फूट गया।

सबकी आँखें अचरज से फटी रह गई-नंदी की मूर्ति भीतर से पोली थी और उसमें से सोने की गोल चमकदार मोहरें निकल कर इधर-उधर बिखरती जा रहीं थीं।

विश्वनाथ त्यागी ने यह देखकर जमीन पर पड़ी पिस्तौल शीघ्रता से उठा ली और रामदास की ओर तानी...।

रामदास की आंखों में अचरज था, उसने चट से त्यागी का हाथ पकड़ कर ऊपर उठा दिया। फायर हुआ ‘‘धँाय...।’’

पिस्तौल से निकली गोली रामदास के कंधे को छूते हुए दीवाल में जा घुसी।

रामदास के शब्द निकले-‘‘विश्वनाथ तू बड़ा धोखेबाज है। तूने तो मुझे मार ही दिया होता।’’

विश्वनाथ त्यागी बोला - ‘‘और ...तू बड़ा विश्वास पात्र है, तूने तो अपने बड़े भाई को ही मार डाला।दूसरों को तू क्या छोड़ेगा ? जब भी मौका देखेगा, जान निकाल लेगा!’’

रमजान ने स्थिति को सभाँला - ‘देखो, आप लोग विवेक से काम लोे, नहीं तो किसी के हाथ में कुछ भी आने वाला नहीं है। मैं जैसा कहूँ सब वैसा करते चले। पहले इन मोहरों को भर लें।’’

रामदास और विश्वनाथ दोनों सोचने लगे, रमजान सही कह रहा है, लेकिन सवाल था कि मोहरें कैसे भरी जावें।

किन्तु उन्हें मोहरें भरने का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था।