अंतस से
*2010,/6 नवम्बर की एक गुनगुनी ठन्डी शाम अचानक छोटे भाई श्रेय का फोन आया , उसकी आवाज में निराशा थी ,बोला "शैला दीदी उदिता शादी के लिये मना कर रही है, कहती है उसके पास ज्यादा समय नही है", "मैं उसे कैसे समझाऊँ , उसके पास जितना भी समय है, मैं चाहता हूं हम साथ गुजारे"।
उसके परिवार वाले भी उसकी हां में हां मिला रहे हैं..और उल्टा मुझे समझा रहे हैं कि 'जितने दिन भी उदिता के पास हैं उसे शान्ति से जीने दो' ।
प्लीज दीदी आप समझाये उसे ..और उसके परिवार वालों को भी ..
श्रेय कुछ सोच समझ के ही उदिता और उसके परिवार के लोग मना कर रहे होंगे.. तुम हमेशा अपनी जिद् में रहते हो, फिर भी मैं कोशिश करती हूं ,फिर तुम्हें बताती हूं.. परेशान मत हो ,कहते हुये मैंने फोन रखा..।
उदिता प्यारी, खूबसूरत, शान्त सी लड़की , श्रेय कॉलेज से उसे जानता था , दोनों ने साथ पढाई पूरी की, और जॉब भी , सभी को वो पसन्द थी, आज भी याद है पहली बार श्रेय ने उदिता से कॉफी हाउस मिलाया था, एक संकोच था, पर बहुत जल्दी हम एक दूसरे को समझने लगे थे, बेहतरीन दोस्त थी उदिता, पर अपनी बीमारी के साथ ही उसने अपने आप को अपने तक सीमित कर लिया था,
जब मुम्बई से लौटने के बाद मैं उससे मिलने गई तो झगड़ा करना चाहती थी उससे, पर उसकी हालत और भरी आंखों ने मुझे शब्द विहीन कर दिया, कुछ पल अबोले बैठे रहे, चुप्पी उदिता ने हो तोड़ी,धीरे से बोली 'दीदी श्रेय को समझाओ,अब बस दुख ही दुख है", मेरी आंखें भर आई,गला रुंध गया ,सर हिला के खामोश लौट आई,
उदिता के स्वास्थ्य ने दोनों के सपनों में लगाम लगा दी,श्रेय हर पल उसके साथ खड़ा था, उसकी बीमारी की गम्भीरता और हालातों को देखते हुये मम्मी, पापा, मैं और उदिता का परिवार श्रेय को समझा रहे थे कि 'इस शादी से तुम्हें दुख के अलावा कुछ नही मिलेगा',
पर श्रेय कुछ सुनने को तैयार नही था, उसकी एक ही रट थी "कि उदिता से ही मुझे शादी करनी है .. वरना वो शादी ही नही करेगा।
इस युग में "लैला मंजनू ...हीर राझां...,शशि पुन्नो...,शीरी फरहाद ..सबकी आत्मा साथ ही इस हीरो के अंदर प्रवेश कर गयी है", यह बड़बड़ाते हुये मैंने उदिता के घर फोन किया ,
उदिता की मां फोन पर थी , बोली "बेटा शैल..श्रेय बहुत अच्छा लड़का है ,हमारी बेटी अगर ठीक होती तो "हमें क्यों इन्कार करना था"। मुझे समझाती रही "कि तुम्हें श्रेय को समझाना चाहिये कि अपनी जिन्दगी बरबाद ना करे , उदिता को मुम्बई टाटा कैंसर इंस्टीट्यूट वालो ने भी जवाब दे दिया है "।
आंटीजी हम तो उसे समझा ही रहे है, पर वो मानता नही, कहता है "मैं उसे कैसे छोड़ दूं , पिछले सात साल से हम मिलते रहे हैं ,अगर शादी के बाद बीमार होती तो?क्या उसे मैं छोड़ देता, मैं जल्दी शादी करके मैं उसे जर्मनी ले जाकर उसका नेचुरल पैथी से ट्रिटमेंट करवाना चाहता हूं",
तुमने श्रेय को समझाया नही कि "जर्मन लेकर जाना..ईलाज करवाना ,फिर वहां रुकना भी पड़ेगा....ठीक हो पायेगी..कोई गारन्टी भी नही... इतना पैसा.., कैसे हो पायेगा?ये कहते आंटी की आवाज भर्राने लगी,
समझाया था आंटी..पर कहता है "मैं सब कुछ मैनेज कर लूंगा , बस उदिता और उसका परिवार मान जाय"।
श्रेय ने मुझे जर्मन के डाॅक्टर ओटो वारबर्ग और डाक्टर जोहाना बुडविग के बारे में उनकी कैंसर के कारण की रिसर्च के बारे में बताया था,
कहता इसी रिसर्च के कारण डा.वारबर्ग को उन्नीस सौ इकत्तीस में नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया, जिनके शोध ने साबित किया कि जिन सेल्स में आक्सीजन नही पहुँच पाता वह कैंसरस हो जाती है, आक्सीजन न मिलने की स्थिति में कैंसर कोशिकायें ग्लूकोज को फर्मेंट कर उर्जा प्राप्त करती हैं, डाक्टर वारवर्ग को तलाश थी एक खास तरह के फैटस् की , उस रहस्यमय फैटस् को ढूंढने से पहले चल बसे , पर डाॅक्टर जोहाना बुडविग ने उस फैट को खोज निकाला,1949 में अपने अपने रिसर्च पेपर से ओमेगा 3,ओमेगा 6 के प्रमुख लिनोनिक एसिड की पहचान की , और प्रयोग के तौर वो सफल रही,
दीदी आप को पता है डा. जोहाना ने सात बार नोबुल प्राईज को ठुकरा दिया, कारण था कि प्राईज देने वाले चाहते थे कि इस ट्रिटमेंट के साथ वह कीमोथेरेपी की भी वकालत करें, जिससे हजारों बिलियन का कैंसर व्यवसाय बर्बाद न हो , अब डा. जोहाना तो रही नही ,इस समय डा.लोथर हरनाई से इस ट्रिटमेन्ट के लिये काम कर रहे हैं।
शायद इसीलिये उदिता की कीमो थेरेपी करने का विरोध कर रहा था , कहता ये कीमों तो मौत की ओर ले जाने वाला ट्रीटमेंट है,उसकी बातों को कोई गम्भीरता से नही ले रहा था,श्रेय बेबस और लाचार महसूस करता,कहता उदिता को मार डालेगें ये लोग , बुडविग प्रोटोकाल पर उसका विश्वास था,पनीर को अलसी के तेल में मिला कर देना,गेहूं के पत्तों का रस , फलों, सब्ज़ियों के रस व सूप की तारीफ करता, वो जल्दी से जल्दी उदिता से विवाह करना चाह रहा था,
श्रेय को विश्वास है कि उदिता ठीक हो जायेगी, आंटी जी आप उदिता को समझायें कि वो मान जाय ,और आप लोग भी मान जायें , क्या पता श्रेय का विश्वास जीत जाये , सब कुछ अच्छा ही हो। श्रेय को समझाना अब मुश्किल है ,प्लीज आप लोग ही मान जायें तो अच्छा ही होगा , मैं भी मम्मी पापा को समझाने की कोशिश करती हूं, उम्मीद है वो मान ही जायेगें ।
आंटी को काफी हद तक समझाने में मैं कामयाब रही, "अच्छा तो उदिता से ही बात कर बताते हैं" यह कह आंटी ने फोन रख दिया।
12 नवम्बर की सुबह चहकते हुये श्रेय का फोन आया था ,बहुत खुश लग रहा था , बोला "दीदी आप उदिता से एक बार मिल लें , वो मान गयी है ,अब सब काम आपको ही करने है... मैं भी थोड़ी देर में पहुंच रहा हूं आपके पास,फिर मार्केट चलेगें,पर हां एक काम और करना पड़ेगा.. आप प्लीज़ ममा पापा को ये बात बता दें, और समझा भी दें..मैं बात करूंगा तो आप को पता ही है ना..,
मैंने फोन कर मम्मी पापा को बताया ,दोनो ने बहुत ही नाखुशी जाहिर की , श्रेय के साथ साथ वह मुझ पर भी बहुत नाराज हुये , बहुत समझाना पड़ा था, अन्ततः श्रेय की खुशी के लिये शामिल होने के लिये तैयार हो गये।
बहुत भाग दौड़ वाले दिन थे ये ..आयोजन चाहे छोटा था पर काम कोई कम नही,शादी की खरीददारी,कपड़े गहने,खाने पीने का इन्तजाम,आर्यसमाज मन्दिर में समय लेना,श्रेय जर्मन जाने की तैयारी करने में व्यस्त हो गया,उदिता निस्पृह सी अपने निर्णय में उलझी हुई , उसकी पसन्द पूछती तो जवाब मिलता 'जो आपको अच्छा लगता है ले लें..आपकी पसन्द बहुत अच्छी है, पर भाई की खुशी और विश्वास के लिये इतना तो बनता ही है,
25 नवम्बर की सुबह दोनों परिवार के सदस्यों और कुछ मित्रों के बीच आर्य समाज मन्दिर में श्रेय और उदिता ने एक दूसरे को वर माला पहना दी, दुबली ,कमजोर ,फीकी सी मुस्कान लिये उदिता बहुत उदास सी लग रही थी,पर सप्तपदी के बाद अनायास ही उदिता का चेहरा आत्मविश्वास से दीप्त होने लगा,
दूसरे दिन सुबह 3:00 की फ्लाईट से दोनों जर्मन चले गये ।वहां से श्रेय रोज फोन करता, उदिता के स्वास्थ्य की सकारात्मक खबर देता, कहता दीदी उदिता तो पहले से ज्यादा खूबसूरत लगने लगी है, हां कभी कभी उदास हो जाती है... अब तो उसका वेट भी बढ़ने लगा है...बहुत अच्छा महसूस होता, श्रेय का विश्वास जीत रहा था,हम सब उसके निर्णय पर खुश थे,तीनों परिवारों ने उसे हर सम्भव मदद दी ,
11फरवरी 2011 को जीवनदान मिली चेहरे में चमक लिये मुस्कुराती उदिता को लेकर श्रेय लौटा आया , हम सब उसके और उसके प्यार के लिये खुश थे ,सेवा और प्यार ने एक मिसाल कायम की थी श्रेय ने।
दोनों परिवारों ने मिल एक ग्रान्ड वेलकम दिया था दोनों को , हर मेहमान की जुबां पर श्रेय के प्रेम और समर्पण के चर्चे सुनकर मां पापा की निराशा भी छंट चुकी थी, वे अपने बेटे के निर्णय पर गर्वित थे ,
ज़िन्दगी हमेशा आगे बढ़ती है, जीवन की खुशियां और प्यार पुरानी उदासी के पलों को बिसरा ही देता है, उदिता खुश रहती , खूब रिश्ता निभाना जानती , पूरे परिवार का दिल चुरा चुकी थी, श्रेय बहुत ध्यान रखता था, जिन्दगी से ताल मेल मिलाना सीख लिया था , सुबह पांच बजे उठ कर रोज ताजा पनीर बना कर जयपुर से मंगवाया हुआ एक खास टेम्प्रेचर में निकला फ्लैक्सी सीड के तेल को पनीर में मिला कर क्रीम सा बना लेता और उदिता का डाईट ट्रिटमेंट शुरु कर देता, गेहूं का रस हो,फलों का रस हो या मट्ठा हर कुछ फ्रेश अपने हाथों से बना कर देता , अपने साथ बिठा के योगा प्राणायाम करवाता.. उसकी दवा,खाने पीने के साथ साथ उसकी भावनाओं का भी भर पूर ध्यान रखता , कभी कभी तो मेरे साथ साथ उदिता को भी यकीन नही होता कि ये वही आलसी लापरवाह श्रेय है,उदिता भी हर सम्भव घर संवारती, हमेशा कहती "दीदी श्रेय तो मेरे लिये ईश्वर की तरह है जो मुझे मृत्यु से ही नही मेरे अंतस के अंधेरों से भी मुझे निकाल लाया , लगता इन सालों में ही मानों सारी जिन्दगी जी ली" ।
*15 जनवरी 2017 ठंडी उदास दोपहर श्रेय का फोन आया ,कुछ घबराई सी आवाज थी, ..इधर उदिता का लगातार गिरती तबियत का आभास था मुझे .. उदास स्वर में बोला "दीदी लगता नही कुछ भी हो पायेगा ,ना जाने कितनी सांसे अब बची है.. कुछ समय से बहुत लापरवाह हो गये थे हम लोग , खास कर उदिता.... मेरी काम की व्यस्तता भी बहुत बढ़ गई थी,मैं नही चाहता था कि उदिता अब सर्विस करे... पिछले साल मेडिकल टेस्ट करवाये थे ,सब ठीक था.. , अब लग भी रहा था सब कुछ सामान्य हो गया है, स्वस्थ्य थी.. तो मैं भी उम्मीद करने लगा कि वह अपनी केयर खुद कर लेगी, पर उसने सब कुछ छोड़ दिया था , एक तो उसकी कीमों हुई थी ..ऊपर से उसने बुडविग प्रोटोकाल के लगभग सारे ट्रिटमेन्ट लेने बंद कर दिये,कभी में टोकता तो कहती अब में ठीक हूँ, मैं भी जिद्द नही कर पाया..,
अरे ऐसा क्यों कह रहा है.. कुछ नही होगा उदित को..,फिर ये सात साल.. तुझे पता है उसे मृत्यु की गोद से खींच लाया है तू ,कोई नही फिर ईलाज की और ध्यान दो , मैं सिर्फ दिलासा दे सकती थी, अंदर से मन कांप उठा,श्रेय को इतना निराश कभी नही देखा,
"नही दीदी ..आप को नही पता..आज अपने को अपराधी महसूस कर रहा हूं उदिता की जीवन के प्रति आग्रह से भरी आंखें देख कर...मैंने उसकी शान्त प्रतीक्षित मृत्यु को यातनामय बना दिया है, वह अब जीना चाहती है , पर बीमारी उसे जीने नही दे रही ,मैं उसे बचा नही पा रहा हूँ...मैं क्या करुँ उसके लिये , यह कहता फफक के रो पड़ा ...
श्रेया का जीजिविषा से भरा चेहरा आंखों घूमने लगा , ये कैसी विडंबना है,जब जीने की चाह जगाना जिन्दगी के लिये बोझ बन जाय , मैं शब्द विहीन सी सांत्वना के शब्द तलाश रही थी..।
डा.कुसुम जोशी
गाजियाबाद,उ.प्र.