panchnama-virendr jain in Hindi Book Reviews by राजनारायण बोहरे books and stories PDF | पंचनामा: वीरेंन्द्र जैन

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पंचनामा: वीरेंन्द्र जैन

उपन्यास पंचनामा: वीरेंन्द्र जैन

साहित्येतर पाठ की मांग करता उपन्यास

वीरेन्द्र जैन का नाम गद्य साहित्य के उन लेखकों में शुमार है, जो बगैर किसी भाषागत कलाबाजी के अपना कथ्य सहज और सौम्य ढंग से पाठकों के समक्ष परोस देते है। एक सशक्त उपन्यासकार के रूप में ही उनकी छवि कथा जगत में बन चुकी है, अपने बेहतरीन उपन्यास डूब और पार के बाद उनका नया उपन्यास पंचनामा भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन से छपकर आया है।

उपन्यास की कथा साव (शाह-सेठ) परिवार के पंचम नामक एक बालक से आरंभ होती है और उसके किशोर होने के साथ-साथ चलती हुई युवा अवस्था पर आकर उपसंहार को प्राप्त हो जाती है। बालक पंचम किशोरावस्था में अकलंक कहा जाता है, और युवा अवस्था में आनंद के नाम से जाना जाता है। उपन्यास के तीन भाग दिये गए है जिन्हें पंचम के तीनों नाम से शीर्षक दिये है लेखक ने इस उपन्यास में नए प्रयोग किए है। वीरेन्द्र जैन के उपन्यासों की परंपरा के विपरीत इस उपन्यास की कथा की शुरूआत जिस गॉंव से होती है, उसका नाम या भौगोलिक परिवेश शायद लेखक जानबूझ कर गोल करता है। पहले अध्याय में पुण्यात्मा, पापात्मा और पाप-पुण्य की उस गॉंव में प्रचलित धारणाओं का परिचय भर दिया है।

लेखक दूसरे अध्याय से कथा की गाठें धीरे-धीरे खोलता हुआ पंचम के अभिभावक नन्ना के परिवार के दुख-सुख में पाठक को भागीदार बनाता हुआ कथानायक पंचम से रूबरू कराता है। पंचम नन्ना के बड़े लड़के ’दादा’ का पांचवां बेटा है. उससे दो छोटे भाई और हैं एक बहन भी है ।बड़े परिवार और कम आमदनी के चलते उसके घर में प्रायः फांकाकसी की नौबत बनी रहती है। पंचम पांचवे दर्जे की परीक्षा देता है और इसके तुरंत बाद पंचम के मंझले भाई और मामा उसे लेकर चल पड़ते हैं अनाम यात्रा पर। यह यात्रा एक अनाथालय में जाकर पूरी होती हैं, यात्रा के दरम्यान ही पंचम को बता दिया गया है कि वह अपना नाम अकलंक बताए और माता-पिता एवं गॉंव का नाम पूछने पर यही उत्तर दे कि- याद नहीं है ।. बदहवास पंचम उर्फ अकलंक उस अनाथ बच्चों के आश्रम में प्रविष्ट होता है और यहीं से आरंभ होता है आश्रम की छोटी से छोटी घटना और यंत्रवत मुनरती दिनचर्या का वर्णन। आश्रम में घुटते अकलंक को तमाम अच्छे-बुरे के अनुभव होते हैं।

अकलंक भजन गाने से लेकर नाटक तक में सक्रिय होता है। अनाथ आश्रम के नए अधीक्षक भगत जी का जब आगमन होता है , अकलंक को चार वर्ष बीत चुके हैं उन्हें अकलंक की शक्ल-सूरत देखकर कुछ पुराना याद आता है, वे बार-बार पूछते हैं और सहसा अकलंक को ज्ञान होता है कि बड़े भाई अकलंक भी अपने घर के लिए तीर्थ भ्रमण के नाम पर चल पड़ता हैं, गॉंव में, घर में हरेक को उसके बारे में अलग जानकारी है, असलियत बस पिता और मंझले भैया जानते है। मन टूट जाने से तुरंत ही लौटकर अकलंक आश्रम में आ जाता है फिर आश्रमवासी छात्रों का संगठन और आंदोलन होता है और अंततः भरेपूरे परिवार का होने पर भी अनाथ बनकर रहते अकलंक की पोल खुल जाती है और वह आश्रम से बाहर कर दिया जाता है। इस उपन्यास के प्रमुख पात्र पंचम की अनुभूतियां बहुत सघन गुंफन के साथ अभिव्यक्त हुई हैं, छोटे-छोटे विवरणों के कारण लेखक, हर दृश्य में पाठक को अपने प्रभाव में लेकर कथा जाल में संलिप्त करने का यत्न करता हैं, और कुछेक स्थानों पर सफल भी हो जाता है।

बहरहाल इस उपन्यास की कहानी में कई घटनाएं प्रसंग और पात्र सहज नहीं लगते, न वे कथा प्रवाह को आगे बढ़ाते हैं, न उनका कोई औचित्य दिखता हैं। कई प्रसंगों और जगहों का अनावश्यक विस्तार भी दिखाई देता हैं, । वीरेन्द्र जैन के उपन्यासों की सबसे बड़ी विशेषता-पाठक को रोकने की कला इसमें सिरे से गायब हैं, इस कथा का निर्वाह लेखक ने इस शैली में नहीं किया जैसा कि लोगों को किस्सा सुनाया जा रहा हों, बल्कि इस तरह से किया है कि किसी व्यक्ति की जीवनी का पारायण हो रहा हो। इस शैली में यह उपन्यास लिखा गया है, न तो कथा के बहाव में पाठक को रस मिलता हैं , न किसी औत्सुक का सृजन होता हैं। सामान्य पाठक इसकी शुरूआत के अंश पढ़कर नए बछड़े सा गिरमा तुड़ाकर (रस्सी तुड़ाकर) भाग सकता है।

अंतिम पृष्ठों में तो जैसे कथा एक जगह ठिठकी रह गई हैं, हालांकि कहानी की कृत संकल्पित बनी हुई पंचम की अनुभव गाथा पाठक को अनाथ आश्रमों के निर्गम यथार्थ से बड़े सूक्ष्म विवरण के साथ परिचित कराती हैं, उपन्यास एक विस्तृत बहस की मांग करता हैं, इसके समाजशास्त्री और अर्थशास्त्रीय पाठ गहन अर्थ देंगे यह निःसदेह हैं। लेकिन यह अंतिम पाठक इस उपन्यास से उतना आनंदित नहीं होगा जितना कि वह वीरेन्द्र जैन के पूर्व उपन्यासों से हुआ होगा।