Limited sky in Hindi Moral Stories by Alka Agrawal books and stories PDF | सीमित आकाश

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सीमित आकाश

कॉलेज से घर में प्रवेश करते हुए रंजना को थकान सी महसूस हो रही थी, लेकिन उसके चेहरे पर गर्व, प्रसन्नता और मुस्कान का भाव था घर में कोई नहीं था। बच्चे स्कूल गए हुए थे और पति भी अपने कॉलेज में थे। वह अपनी प्रसन्नता किसी के साथ बाँटना चाहती थी। अनजाने ही उसके हाथ फोन की ओर बढ़ गए। उसने विजय भाव से कहा, "मम्मी, आपके आशीर्वाद से आज मैंने अपने कॉलेज में इलेक्शन सफलतापूर्वक सम्पन्न करवा लिए हैं। कल तो अध्यक्ष पद के लिए खड़े प्रत्याशियों में कुछ तनाव हो गया था, इसलिए सबको डर था कि आज भी कुछ वैसा ही न हो जाए। लेकिन सब कुछ इतनी अच्छी तरह सम्पन्न हो गया कि सभी प्रशंसा कर रहे थे।" कहते-कहते उसका गला रुंध गया। इधर मम्मी भी उसकी खुशी में शामिल होते हुए कह रही थी, "मुझे यही आशा थी। आज तक जिस काम को भी तुमने हाथ में लिया है, उसमें हमेशा सफल हुई हो और सबकी प्रशंसा भी प्राप्त की है।"

"लेकिन मम्मी, निर्वाचन अधिकारी की ही सारी जिम्मेदारी होती है और मैं पहली बार यह दायित्व निभा रही थी, इसलिए कल से काफी तनाव में थी।"

"अब तो सब ठीक हो गया न, अब निश्चिंत होकर आराम कर।" रंजना ने फोन रख दिया और सोचने लगी, "आज भी मम्मी ही मेरी सबसे अच्छी दोस्त है। उनसे बात करके कितना सुकून मिलता है।" वह आँखें बंद करके लेट गई। वैसे रंजना न केवल एक बहुत अच्छी प्राध्यापिका है. उसमें और भी अनेक गुण है, जिनके कारण कॉलेज की लड़कियाँ तो उसकी 'फैन' हैं ही, साथ ही सभी की प्रशंसा भी उसे मिलती रहती है। रंजना की वेशभूषा, उसका सौम्य, आकर्षक और शालीन व्यक्तित्व उसे सबके आकर्षण का केन्द्र बनाए रखते हैं। उसकी वक्तृत्व शैली का तो जवाब ही नहीं। अनेक स्थानों पर उसे भाषण देने बुलाया जाता है, विषय कोई भी हो श्रोता मंत्रमुग्ध होकर सुनते रहते हैं। जब वह किसी कार्यक्रम का संचालन करती है तो कार्यक्रम से अधिक संचालन महत्त्वपूर्ण हो जाता है, दर्शकों के लिए ।

रंजना भी यही कुछ सोच रही थी कि उसके चेहरे पर मुस्कान और आँखों में चमक आ गई। ऐसे ही एक कार्यक्रम में शेखर ने जब रंजना को देखा तो देखता ही रह गया था। उसका व्यक्तित्व उसके हृदय में स्थापित हो गया था। शेखर ने अपने घर जाकर कहा था, "माँ, मैंने आपके लिए बहू ढूंढ ली है, अब जल्दी से उसके घर वालों से बात कर लो।" स्वयं शेखर ने रंजना को यह बताया था। लेकिन धीरे-धीरे सब कुछ बदल गया था।

रंजना के घरवाले भी बहुत खुश थे, क्योंकि बिना प्रयास के इतना अच्छा लड़का मिल गया था। सबसे बड़ी बात तो यह थी कि लड़के वाले स्वयं शादी का प्रस्ताव लाए थे, लड़की के गुणों और व्यक्तित्व से वे प्रभावित थे रंजना प्राइवेट कॉलेज में लेक्चर थी, इसलिए यदि कहीं और रिश्ता पक्का होता, उसे यह नौकरी छोड़नी पडती। सब लोग रंजना के भाग्य को सराह रहे थे कि घर बैठे बराबर का वर मिल गया। रंजना यही सब सोच रही थी कि उसकी नजर घड़ी पर गई।

अरे, अब तक शेखर नहीं आए, उनके कॉलेज में भी आज ही छात्र-संघ के चुनाव हैं। उसके मन में आशंका उठी, इनके यहाँ तो और भी जल्दी मतदान शुरू हो गया था, फिर ये तो वहाँ निर्वाचन प्रभारी भी नहीं हैं, तब इतनी देर कैसे? कहीं कोई लड़ाई-झगड़ा तो नहीं हो गया। शेखर के गर्म स्वभाव के कारण रंजना को हमेशा ही यह डर बना रहता है। यही सोच रही थी कि दरवाजे की घंटी बजी। उसने उठाकर देखा, शेखर ही थे। उसने दरवाजा खोलते हुए कहा, "आपके यहाँ सब ठीक तो रहा। मैं यही सोच रही थी कि आपको इतनी देर कैसे हो गई?"

"तुम्हारे यहाँ सब कुछ ठीक हो गया लगता है, इसीलिए खुश दिख रही हो। " शेखर ने पीठ थपथपाना तो दूर, कड़वाहट भरे स्वर में कहा। तब भी रंजना ने कोई प्रतिवाद नहीं किया, बोली, "लगता है, आप काफी थक गए हैं, मैं चाय बनाकर लाती हूँ।" हालाँकि सच तो यह था कि वह स्वयं बहुत थकी हुई थी, रात भर सो भी नहीं पाई थी, उसकी तबियत भी कई दिनों से ठीक नहीं थी वह तो यह सोच रही थी कि जब बच्चे स्कूल से आएँगे, तभी एक साथ सबके लिए कुछ बनाने के लिए उठेगी। लेकिन शेखर का खराब मूड देखकर, वह तुरंत उठ गई।

वह रसोई में चाय बनाने लगी। शेखर भी उसके पीछे-पीछे आ गए और चाय के साथ खाने के लिए नमकीन ढूँढने लगे। उसे तो कई दिनों से किसी चीज का होश ही नहीं था, कॉलेज में अतिरिक्त काम से वह काफी थक जाती थी। तभी शेखर ने चिल्लाकर कहा, "एक भी डिब्बे में नमकीन नहीं है। तुम्हें पता है, मुझे चाय के साथ नमकीन या मठरी जरूर चाहिए। लेकिन तुम्हें कॉलेज के काम से फुर्सत मिले, तब न। वहाँ की प्रशंसा अब भी तुम्हारे कानों में गूंज रही होगी।" शेखर के इस अप्रत्याशित प्रहार से रंजना सहम-सी गई। शेखर ने नमकीन न होने पर ही उसे अपराधी बना दिया था। उसे यह भी ख्याल नहीं था कि रंजना कितनी व्यस्त थी, वह स्वयं इतना व्यस्त नहीं था तो घर को वह भी देख सकता था। उसने मन में सोचा, लेकिन शेखर से कुछ नहीं कहा।

उसने डिब्बे में से बचा हुआ नमकीन निकालते हुए कहा, "आपके लायक तो है, थोड़ा सा, आप चाय पीना शुरू कीजिए।" लेकिन शेखर का, जैसी कि आदत थी, उसी बात पर बड़बड़ाना जारी रहा, "तुम बहुत आलसी होती जा रही हो, चलो, आज मठरी बना लो, बहुत दिन से नहीं बनाई है।" उसने रंजना को आदेश के स्वर में कहा। रंजना उसका चेहरा देखती रह गई।"कितना अजीब हो गया है इनका व्यवहार, एक बार भी यह नहीं सोचा कि मैं कितनी थकी हुई हूँ।" लेकिन वह नहीं चाहती थी कि घर में तनाव हो, इसलिए रसोई में जाकर तैयारी करने लगी। शेखर वहीं डाइनिंग टेबिल पर पड़ी पत्रिकाओं के पन्ने उलटने लगे शेखर का मन पढ़ने में बिल्कुल नहीं लग रहा था। उसके दोस्तों ने रंजना की बहुत प्रशंसा की थी और वह शेखर को हजम नहीं हो पा रही थी। इसीलिए शेखर इस आक्रामक तरीके से रंजना पर वार कर रहा था। जहाँ पत्नी के लिए, पति की उन्नति और प्रशंसा गर्व का, खुशी का कारण होती है, वहीं पति के लिए पत्नी की उन्नति ईर्ष्या, हीनता और क्रोध का कारण बन जाती है।

रंजना को लगा पति चाहे तो पत्नी का सबसे अच्छा दोस्त और हमदर्द हो सकता है। लेकिन शेखर को उसके दुख-सुख, तनाव, खुशी किसी से कोई सरोकार नहीं था। यह सोचते ही मैदा गूंथते हुए, उसके आँसू आ गए। उसी समय शेखर रसोई में पानी पीने आया। रंजना की आँखों में आँसू देखते ही बरस पड़ा। "इतने से काम में आखिर रोने वाली क्या बात हो गई?" "तुमने यह भी नहीं सोचा कि मैं कितनी थकी हुई हूँ। आज ही यह काम करना जरूरी था", रंजना से चुप न रहा गया। " आखिर ऐसी क्या थकान हो गई तुम्हें? मैं देख रहा हूँ, लोगों की प्रशंसा सुन-सुनकर तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है? बाजार में सब कुछ मिलता है, मेरी ही गलती थी कि मैंने तुमसे कहा। अब गलती सुधार लेता हूँ", कहते हुए शेखर ने मठरी का आटा फेंकने के लिए हाथ में उठा लिया।

रंजना इस अनपेक्षित आक्रमण के लिए तैयार नहीं थी। वह हर्की-बक्की रह गई। जैसे-तैसे वह शेखर को रोक पाई। शेखर गुस्से में घर से बाहर निकल गया।

रंजना जानती है, शेखर 2-3 घंटे बाद ही आएंगे अब। वह रसोई में जाकर मठरी की लोई बनाने लगी। लेकिन उसका मन अतीत की जुगाली करने लगा। शादी से पहले रंजना कॉलेज ही नहीं, उस शहर की साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेती थी। जब शेखर ने उसे पसंद किया तो उसे लगा था कि शेखर को यह सब पसंद होगा। लेकिन जब शादी के बाद एक ऐसे ही कार्यक्रम में उसने शेखर से बिना पूछे, 'हाँ' कर दी थी तो शेखर बहुत नाराज हुए थे। यहाँ तक कि उसने प्रतिज्ञा ही कर ली थी कि अब वह ऐसे किसी कार्य के लिए हाँ नहीं करेगी। जहाँ रंजना की शहर में लोग बहुत इज्जत करते थे, वहीं शेखर को ऐसी किसी गतिविधि में रुचि नहीं थी और कॉलेज में पढ़ाने के अलावा वह किसी चीज में रुचि नहीं लेते थे। उनके दोस्त उन्हें घेरे रहते थे और रंजना का काम उनके लिए चाय-नाश्ता बनाना ही रह गया था।

रंजना को इस तरह घर में घर के कार्यों तक सीमित करके शेखर को अजीव सी खुशी मिलती थी। रंजना को उसकी सहेलियों ने कई बार कहा कि अब वह बदल गई है। पहले की तरह नए कामों को आगे बढ़कर हाथ में नहीं लेती। रंजना सोच ही रही थी कि क्या जवाब दे, तभी स्टाफ रूम में बैठी मिसेज सिन्हा की अनुभवी आँखों ने उसके असमंजस की स्थिति को समझते हुए, जवाब दिया था, "अब रंजना अकेली तो नहीं है, शादी के बाद जिम्मेदारियाँ बढ़ ही जाती हैं।" रंजना ने उनकी ओर कृतज्ञता से देखा था।

रंजना कभी-कभी सोचती थी कि महिलाएँ व्यर्थ ही ईर्ष्या के लिए बदनाम हैं, पुरुष कहीं अधिक ईर्ष्या रखते हैं। वह समझ गई थी कि शेखर उन पुरुषों में से हैं जो बाहर की दुनिया में फॉरवर्ड, आधुनिक दिखना चाहते हैं, इसलिए शादी के लिए उसके जैसी लड़की को पसंद करते हैं, लेकिन अंतर्मन में वही अहंवादी पति हैं जो पत्नी को पति के अधीन ही देखकर संतुष्ट रहता है। विवाह के बाद प्रारंभिक वर्षो में वह इन समस्याओं से परेशान रही थी लेकिन धीरे-धीरे उसने स्वयं को शेखर के अनुरूप ढाल लिया था।

उसे याद है, एक बार, उसके कॉलेज की कुछ लेक्चरर उसके साथ ही कॉलेज से आ गई थीं। बरसात का मौसम था, वह सबके लिए चाय-पकौड़े बना कर लाई थी कि देखा शेखर भी आ गए हैं। उसने कहा, "आप भी यहीं आ जाइए।" लेकिन शेखर ने अंदर के कमरे से रूखे स्वर में जवाब दिया था, "मेरे सिर में दर्द है, तुम मेरी चाय यहीं ले आओ।" शेखर की चाय वह अंदर ले आई थी, लेकिन उसके कहने के ढंग और बेरुखी ने चाय-पकौड़ों का मजा खराब कर दिया था। शेखर ने रंजना को बाद में, सबके जाने के बाद कहा था, "मुझे पसंद नहीं है कि जब मैं घर आऊँ, तुम दूसरे लोगों के साथ व्यस्त मिलो।" इसके बाद रंजना कभी किसी को साथ लेकर नहीं आई। उसने किसी के साथ इतनी निकटता ही नहीं रखी कि कोई घर आता रहे। लेकिन कुछ तो घुट्टी में मिले संस्कारों के कारण और कुछ घर में शांति बनी रहे, इसलिए पलटकर यह नहीं कहा कि आपके दोस्त तो सारे दिन ही आते रहते हैं।

यहाँ तक कि शेखर ने उसके हर कदम पर जिससे वह आगे बढ़ सके रोक लगा दी थी। जब उसका शोध-पत्र प्रकाशित हुआ, शेखर ने कहा था, "तुम्हें बच्चा की पढ़ाई पर ध्यान देना चाहिए, अपनी पढ़ाई पर नहीं।" जब उसके पास एक राष्ट्रीय सेमिनार का निमंत्रण आया था, शेखर ने साफ शब्दों में कह दिया था, "मैं तुम्हारे लिए वहाँ जाने की अपेक्षा बच्चों को संभालना ज्यादा जरूरी मानता हूँ। वैसे भी वहाँ जाकर क्या मिलते वाला है?" उसने बिना बहस किए, आदर्श पत्नी की तरह शेखर की बात को सिर झुकाकर स्वीकार कर लिया था। रंजना ने स्वयं ही अपनी महत्त्वाकांक्षाओं के पंख काट दिए थे, लेकिन शेखर तो उसके व्यक्तित्व को ही कुचल देना चाहता था। रंजना को लगा, जैसे उसकी जिंदगी परिवार के 'दायरे में कैद' होकर रह गई है। उसे चिड़ियाघर में कैद उन पंछियों की याद आई, जिनकी उड़ान का आकाश सीमित कर दिया जाता है। अगर वह पहले की तरह आगे बढ़ती रहती तो आज वह अपने क्षेत्र में शिखर पर पहुँच जाती, लेकिन शेखर अब भी संतुष्ट नहीं था। वह यह सोचकर चुपचाप अकेले में कितनी ही बार रोई थी, और सच तो यह है कि वह स्वयं कितनी अकेली-सी हो गई थी। सोचते-सोचते उसके आँसू बह निकले। कढ़ाई में पानी (आँसू) गिरने पर होने वाली चटर-पटर की आवाज से वह वर्तमान में लौट आई थी।

आँसू उसके गालों पर अब भी बह रहे थे। मठरियों की सुगंध हवा में तैर रही थी। बच्चों के घर आने का समय हो गया था उसने हाथ-मुँह धोकर स्वयं को ठीक किया। बच्चों को उन दोनों के बीच होने वाले तनाव का पता नहीं लगना चाहिए, यह सोचकर उसने नेहा की पसंद की साड़ी पहनी और जूड़ा बनाया। तभी नेहा ने खुश होते हुए घर में प्रवेश किया, "मम्मी, हमें दूर से ही सुगंध आ रही थी, खुशबू से भूख और बढ़ गई है। मम्मी आपके कॉलेज में इलेक्शन बहुत शांति से हुए, हमारा रिक्शेवाला बता रहा था। मैंने कहा, आखिर मेरी मम्मी ने कराए हैं।" माँ के प्रति गर्व का भाव छुपाए नहीं छुप रहा था। रंजना सोच रही थी चलो, कोई तो है घर में जो उसे समझता है। तभी शेखर भी घर आ गए थे, अब तक उनका गुस्सा भी शांत हो चुका था। बच्चे दौड़ते हुए शेखर से लिपट गए। रंजना टेबिल पर चाय और मठरियाँ रख रही थी। ऐसा प्रतीत होता था, घर में सब कुछ पुन: सामान्य गति से चल रहा है।