मानस के राम
भाग 34
शुक का रावण के पास वापस जाना
सुग्रीव के शिविर से निकल कर शुक लंका वापस चला गया। वह सारी घटना के बारे में बताने के लिए रावण के दरबार में उपस्थित हुआ। रावण ने उससे कहा,
"शुक बताओ क्या समाचार लेकर आए हो ? मेरे उस कुलघाती भाई का क्या हाल है ?"
शुक ने रावण को प्रणाम कर कहा,
"महाराज वहाँ उपस्थित लंका के गुप्तचरों से मैंने बात की। उन्होंने बताया कि राम विभीषण का बहुत सम्मान करता है। एक मित्र की भांति उन्हें अपने पास बराबरी का आसन प्रदान करता है।"
इंद्रजीत सब सुनकर उत्तेजित होकर बोला,
"यह सब केवल इसलिए है कि काका श्री विभीषण से हमारी गुप्त बातें ज्ञात की जा सकें। काका श्री उन्हें हमारी बातें बता भी रहे होंगे।"
रावण ने क्रोध में कहा,
"वह कुलघाती विभीषण सोच रहा होगा कि उसे वह वनवासी लंका का राजा बना देगा। किंतु उसके हाथ कुछ भी लगने वाला नहीं है।"
रावण ने शुक से कहा,
"तुम आगे बताओ वहाँ क्या हुआ ?"
शुक ने कहा,
"आपने मुझे दो काम सौंपे थे। क्षमता एक वानर सेना की क्षमता और उनकी मनोदशा का पता लगाना। दूसरा वानर राज सुग्रीव को आपके पक्ष में करने का प्रयास करना।"
रावण ने कहा,
"पहले यह बताओ कि उस सुग्रीव ने हमारा प्रस्ताव स्वीकार किया या नहीं ?"
रावण का यह प्रश्न सुनकर शुक ने अपनी नजरें झुका लीं। वह बोला,
"महाराज मैंने वानर राज सुग्रीव को आपका मैत्री प्रस्ताव सुनाया। उन्हें हर तरह से प्रस्ताव स्वीकार करने के लिए मनाया। परंतु....."
अपनी बात कहते हुए शुक रुक गया। रावण ने कहा,
"परंतु क्या ?"
शुक ने अपनी नजरें झुकाए हुए ही कहा,
"उन्होंने आपका मैत्री प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया। उनका कहना है कि राम की मित्रता उनके लिए संसार की अमूल्य निधि है। वह उसे ठुकरा कर उनके साथ विश्वासघात नहीं करेंगे।"
यह सुनकर रावण को बहुत क्रोध आया। उसने कहा,
"मूर्ख है वह वानर। मेरी मित्रता को अस्वीकार कर उसने मेरा अपमान किया है। किंतु इसमें उसकी ही हानि है। भविष्य में वह अपने निर्णय पर पछताएगा।"
अपनी खिसियाहट छुपाते हुए रावण ने कहा,
"बताओ वानर सेना के बारे में क्या पता किया तुमने ?"
शुक ने कहा,
"महाराज वानर सेना बहुत विशाल है। मैंने पंछी का रूप धारण कर उनकी बातें सुनीं। उनकी सेना राक्षसों से युद्ध करने के लिए उत्साहित है। उनमें अपनी जीत को लेकर पूरा विश्वास है। सभी बस इसी बात की प्रतीक्षा कर रहे हैं कि कब उन्हें युद्ध का अवसर मिलेगा।"
अब तक जो भी रावण ने सुना था वह उसके प्रतिकूल ही था। फिर भी दंभ में बोला,
"उन वानरों को राक्षसों का भोजन बनने की अभिलाषा है तो उनकी इच्छा पूरी होगी।"
जो कुछ रावण ने सुना था उससे वह चिंता में पड़ गया था। पर उसे एक तसल्ली थी। राम की सेना को विशाल सागर पार करना था।
जिसका उनके पास कोई उपाय नहीं था।
राम द्वारा सागर से प्रार्थना करना
सुग्रीव के दिए सुझाव के अनुसार राम ने विभीषण को मंत्रणा करने के लिए बुलाया। उन्होंने कहा,
"अब हमें आगे की योजना पर विचार करना चाहिए। लंका पर धावा बोलने के लिए सबसे बड़ी बाधा है इस विशाल सागर को पार करना। लंकापति विभीषण क्या आप कोई गुप्त मार्ग जानते हैं जिससे लंका पहुँचा जा सके।"
विभीषण ने कहा,
"कोई गुप्त मार्ग तो नहीं है। राक्षस तो आकाश मार्ग का ही प्रयोग करते हैं।"
राम ने कहा,
"परंतु हम तो आकाश मार्ग का प्रयोग नहीं जानते हैं। कुछ वानर उड़ सकते हैं। किंतु इस विशाल सागर को सेना के साथ पार कर पाना तो कठिन है। क्या आप हमें कोई मायावी विद्या सिखा सकते हैं जो हमारे काम की हो।"
विभीषण ने कहा,
"राक्षस कुल में जन्म लेने के कारण मैं भी कई मायावी विद्याएं जानता हूँ। किंतु उन्हें सीखने में समय लगता है। सीखना कठिन भी है और यह विद्याएं तामसिक प्रवृत्ति की हैं।"
विभीषण की बात सुनकर राम सोच में पड़ गए। उन्होंने कहा,
"तो आप विचार करके बताइए कि इस समस्या का क्या समाधान हो सकता है।"
विभीषण ने हाथ जोड़कर कहा,
"श्री राम मुझे एक उपाय सूझ रहा है। सागर आपके कुल के वरिष्ठ जन हैं। आप उनसे प्रार्थना करें कि वह वानर सेना के साथ आपको आगे बढ़ने का कोई मार्ग बताएं।"
राम ने कहा,
"आपने बहुत उत्तम उपाय बताया है। मैं अपने वंशज सागर से प्रार्थना करता हूँ कि वह मुझे आगे बढ़ने का मार्ग दें।
लक्ष्मण यह उपाय सुनकर अधिक प्रसन्न नहीं हुए। उन्होंने कहा,
"मैं क्षमा चाहता हूँ किंतु यह उपाय मुझे उचित नहीं लगता है। भ्राता श्री आप अपने एक बाण से इस समस्त सागर को सुखाने की क्षमता रखते हैं। फिर किसी के आगे गिड़गिड़ाने का क्या अर्थ है।"
राम ने मुस्कुरा कर कहा,
"अनुज लक्ष्मण, शक्ति होने का अर्थ बिना सोचे समझे उसका अकारण प्रयोग करना नहीं होता है। हमें ऐसा उपाय खोजना चाहिए जिससे सागर के जल में रहने वाले प्राणियों को कोई कष्ट ना हो और हमारा काम भी हो जाए। अतः यही उचित है कि समुद्र से प्रार्थना की जाए कि वह हमें मार्ग प्रदान करें।"
लक्ष्मण को समझाकर राम समुद्र तट पर कुश का आसन बिछाकर बैठ गए। उन्होंने अपना ध्यान केंद्रित किया और समुद्र से प्रार्थना करने लगे।
राम अन्न जल त्याग कर समुद्र को प्रसन्न करने के लिए बैठे थे। लक्ष्मण, सुग्रीव, विभीषण, अंगद हनुमान आदि सभी उस क्षण की प्रतीक्षा कर रहे थे जब समुद्र प्रकट होकर उन्हें समुद्र पार करने का मार्ग बताएंगे।
सागर से प्रार्थना करते हुए तीन दिन बीत गए थे। लक्ष्मण हर बीतते पल के साथ व्यग्र हो रहे थे। परंतु सागर ने जैसे ना सुनने की हठ ठान रखी थी।
सागर की इस हठधर्मिता से राम जैसे धीर पुरुष का धैर्य भी समाप्त हो रहा था। जब सागर उनके समक्ष प्रस्तुत नहीं हुआ तो उन्होंने अपनी आँखें खोल लीं। वह अपने आसन से उठकर बोले,
"निम्न प्रकृति के लोगों से अनुनय करने का कोई अर्थ नहीं होता है। वह आपकी विनम्रता को आपकी दुर्बलता समझते हैं। बिना भय के ऐसे लोग सही मार्ग पर नहीं आते हैं। इसलिए इन पर ताड़ना दिखाना भी आवश्यक है।"
राम ने अपना धनुष मंगाया और बाण का संधान किया। एक हलचल सी मच गई। सागर में ऊँची ऊँची लहरें उठने लगीं। जल में रहने वाले जीव अकुला कर बाहर आने लगे।
समुद्र पर सेतु का निर्माण
अचानक हुई इस उथल पुथल से सागर घबरा गया। वह हाथ जोड़कर राम के सामने प्रकट होकर बोला,
"श्री राम मुझे क्षमा कर दीजिए। मैं जड़ बुद्धि आपकी उदारता को समझ नहीं सका। आपकी प्रार्थना को आपकी कमजोरी मानकर दंभ में फूल गया। परंतु अब आपके इस बाण का तेज सहा नहीं जा रहा है। मुझ पर और मेरे अंदर रहने वाले जीवों पर दया कीजिए।"
राम ने कहा,
"मैंने तो यही सोचकर प्रार्थना की थी कि किसी भी प्राणी को कोई कष्ट ना हो और मुझे लंका तक अपनी सेना को लेकर जाने का मार्ग मिल जाए।"
सागर ने गिड़गिड़ाते हुए कहा,
"मेरी धृष्टता को क्षमा कर दें। कृपया मेरे जल को ना सुखाइए। उन जल जीवों पर दया कीजिए।"
राम ने कहा,
"पहले मुझे वह युक्ति बताओ जिससे मैं अपनी सेना के साथ उस पार लंका जा सकूँ।"
सागर ने विचार करके कहा,
"आपकी सेना में नल और नील नामक दो वानर हैं। दोनों कुशल शिल्पकार हैं। उन्हें यह वरदान भी है कि उनके स्पर्श से पत्थर पानी में तैरने लगते हैं। आप उनकी सहायता से एक सेतु का निर्माण करवाइए जो उस पार तक पहुँचे।"
सागर ने लंका तक पहुँचने का उपाय बता दिया था। पर राम ने बाण का संधान कर लिया था। अब उसे छोड़ना आवश्यक था। सागर ने इसका उपाय बताया। उसने कहा कि यह बाण मेरे उत्तर दिशा के तट की ओर छोड़ दीजिए। उस तट पर कुछ उपद्रवी लोगों का कब्जा है। उनका संहार इस बाण से कर दीजिए।
राम ने वह बाण उत्तर तट की ओर चला दिया। सागर उन्हें प्रणाम करके लौट गया।
राम ने एक सभा बुलाकर कहा,
"अब शीघ्रातिशीघ्र सेतु निर्माण का कार्य आरंभ किया जाना चाहिए।"
जांबवंत बोले,
"आपका आदेश मिल गया है अब सेतु निर्माण का कार्य आरंभ होगा।"
उन्होंने नल और नील को सारी बात बता कर कहा,
"अब विचार कर वानरों को बताओ कि सेतु निर्माण के लिए तुम्हें किस प्रकार के पत्थर व सामग्री चाहिए।"
नल और नील ने राम को प्रमाण कर वानर सेना को आदेश दिया,
"आप वानर तथा रीछ दल बनाकर विभिन्न दिशाओं में जाइए और बड़े बड़े पहाड़ व वृक्ष उखाड़ कर ले आइए।"
वानर सेना के सभी सैनिक बड़े उत्साहित थे। समुद्र पर सेतु निर्माण कर वह आसानी से उस पार जा सकते थे। सभी रावण की सेना से युद्ध कर उसे पराजित करने के इच्छुक थे। वानर और रीछ दल बनाकर विभिन्न दिशाओं में गए। जैसा कहा गया था उस प्रकार के पर्वत और वृक्ष उखाड़ कर ले आए। नल और नील के नेतृत्व में सेतु निर्माण का कार्य आरंभ हो गया।
राम बहुत प्रसन्न थे। अब सीता को उस दुष्ट रावण के चंगुल से छुड़ाने का समय पास आ रहा था। उनके मन में एक इच्छा थी। उन्होंने सुग्रीव को बुला कर कहा,
"यह स्थान बहुत पावन है। मेरी इच्छा है कि कूच करने से पहले मैं अपने आराध्य शिव की पूजा अर्चना कर उनका आशीर्वाद प्राप्त करूँ।"
राम की इच्छा के बारे में जानकर सुग्रीव ने कुछ वानर भेजकर पूजा करवाने के लिए ऋषियों को बुलवाया। समुद्र तट के किनारे बालू से एक शिवलिंग का निर्माण किया गया। ऋषियों ने विधिवत पूजा करवाई। शिवलिंग की विधिवत पूजा अर्चना के बाद राम ने भगवान शिव से प्रार्थना की कि उनके अभियान में उन्हें सफल बनाएं।
वानर सेना ने पूरी लगन और उत्साह के साथ पाँच दिनों में सौ योजन लंबे सेतु का निर्माण कार्य पूरा कर दिया।
उस सेतु पर चलकर राम तथा लक्ष्मण ने समस्त वानर सेना के साथ लंका की तरफ कूच किया। समुद्र के उस पार पहूँचकर राम तथा उनकी सेना ने पड़ाव डाल दिया।
रावण के गुप्तचरों ने उसे इस बात की सूचना दी कि राम की वानर सेना ने असंभव समझा जाने वाला काम कर दिया है। उन्होंने समुद्र पर लंका तक एक सेतु बना दिया है। उस पर चलकर राम अपनी सेना के साथ समुद्र के इस पार पहुँच चुके हैं।
यह खबर रावण के लिए चौंकाने वाली थी। अब तक वह यही समझ रहा था कि राम समुद्र के दूसरी तरफ ही पड़ाव डाले पड़े रहेंगे। किंतु यह समाचार सुनकर कि राम की सेना ने एक सेतु निर्माण कर लिया है, जिस पर चलकर राम ने लंका की तरफ कूच कर दिया है, वह चिंतित हो गया।
अपनी चिंता को भुलाने के लिए वह अपनी सबसे प्रिय रानी मंदोदरी के पास गया। अपनी परेशानी को छिपाकर वह उससे बातें करने लगा। मंदोदरी एक समझदार स्त्री थी। वह समझ गई कि इन बातों के पीछे रावण अपनी चिंता को छिपाने का प्रयास कर रहा है। उसने कहा,
"स्वामी आप किसी बात को लेकर चिंतित हैं। उस बात को मुझ से छिपाने का प्रयास कर रहे हैं। कृपया मुझे बताइए कि बात क्या है ?"
रावण ने अपनी चिंता का कारण बता दिया। सुनकर मंदोदरी भी चिंतित हो गई। उसने रावण को एक बार फिर समझाया,
"हे नाथ राम को साधारण मनुष्य मानना आपकी सबसे बड़ी भूल है। उनके प्रताप से ही वानरों ने इतना बड़ा सेतु बना दिया है। उस पर चलकर राम अपनी सेना समेत लंका पहुँच गए हैं। यह शुभ संकेत नहीं हैं।"
रावण उसे तसल्ली देने के लिए बोला,
"तुम चिंता मत करो। अपने पति की सामर्थ्य पर भरोसा रखो। मैंने देवताओं को भी परास्त किया है। फिर वानरों के बल पर आश्रित राम कितने दिनों तक मेरा सामना कर पाएगा।"
मंदोदरी ने उसे समझाने का प्रयास किया कि अभी भी समय है। वह अपनी भूल का सुधार करके राम से क्षमा मांग ले। सीता को उनके पति के पास पहुँचा दे।
मंदोदरी की बात सुनकर रावण और अधिक क्रोधित हो गया। वह उसके महल से चला गया।