अपने-अपने कारागृह-19
उषा ने महीने में एक बार ' परंपरा' जाने का नियम बना लिया था । वह वहां जाकर बुजुर्गों के दुख दर्द बांटती, कभी उनके लिए अपने हाथों का बने लड्डू या गुलाब जामुन भी ले जाया करती । उसको अपने बीच पाकर ' परंपरा ' में उपस्थित सभी लोगों के चेहरे पर खुशी छा जाती थी ।
उस दिन उषा बूँदी के लड्डू लेकर गई थी । कृष्णा के चेहरे पर हमेशा मायूसी छाई रहती थी । उस दिन उसके हाथों में बूंदी के लड्डू देखकर उसकी आँखों से आँसू बहने लगे । कारण पूछने पर उसने कहा,' मेरे बेटे अनिमेष को बूंदी के लड्डू बहुत पसंद थे । '
' क्या हुआ अनिमेष को ?'
उसके प्रश्न के उत्तर में कृष्णा ने उसे जो बताया उसे सुनकर वह स्तब्ध रह गई थी । आखिर एक बच्चा अपना पूरा जीवन उसको देने वाली अपनी मां के साथ ऐसा भी व्यवहार कर सकता है !!
कृष्णा ने कहा, ' जब मेरा पुत्र अनिमेष मात्र 7 वर्ष का था तभी मेरे पति का देहांत हो गया था । मैंने शिक्षिका की नौकरी कर अनिमेष को माँ के साथ पिता का भी प्यार दुलार दिया । अनिमेष की हर इच्छा को पूरी करने की हर संभव कोशिश की । इसके लिये मुझे स्कूल के पश्चात ट्यूशन भी लेनी पड़ती थीं । इंजीनियरिंग की पढ़ाई के पश्चात जब अनिमेष को नौकरी का ऑफर मिला, तब मेरी खुशी का ठिकाना ना रहा । उस समय मुझे ऐसा महसूस हुआ जैसे मेरी तपस्या सफल हो गई है । मिठाई बांटने के साथ मैंने अपने सगे संबंधियों को एक छोटी सी पार्टी भी दी थी ।
समय के साथ मैंने अनिमेष का धूमधाम से विवाह कर दिया । मेरा पुत्र अनिमेष तथा पुत्र वधू प्रतिमा मुंबई में नौकरी करते हैं । जब उनका बेटा अंश हुआ तब अनिमेष मुझे यह कहकर मुंबई ले गया कि मां आपने बहुत नौकरी कर ली । अब आराम करो , हमारे पास रहो , अपने पोते को खिलाओ । मैं भी उसके आग्रह को स्वीकार कर, नौकरी छोड़कर खुशी खुशी उनके साथ चली गई थी । जब तक अंश छोटा था तब तक सब ठीक चलता रहा पर जब वह अपनी मेडिकल की पढ़ाई के लिए हॉस्टल में रहने चला गया तब मैं उनकी आंखों की किरकिरी बनने लगी । रोज किसी न किसी बात पर ताना, खर्चे का रोना आखिर मैं लौट आई ।
घर भी अनिमेष ने बेच दिया था अब मैं रहती भी तो कहां रहती अंततः मैंने यहां इस वृद्धाश्रम में आकर रहने का निश्चय कर लिया । दुख तो इस बात का है कि मेरे अपने खून ने एक बार भी पलट कर नहीं देखा कि उसकी माँ कहां और कैसे रह रही है । '
माँ का एक अनूठा रूप... जिस मां को उसके अपने पुत्र ने न केवल दंश दिए वरन अपने स्वार्थ के लिए उसका इस्तेमाल करने से भी नहीं चूका, उसी माँ की आंखों में अपने पुत्र की पसंद के बूंदी के लड्डू देखकर आँसू... इन आंसुओं का मोल भला एक कृतघ्न संतान कहां समझ पाएगी ?
कृष्णा को ढाढस बंधा कर उषा दूसरे कमरे में गई । सीमा ने आगे बढ़कर उसका स्वागत किया । सीमा का दुख भी किसी से कम नहीं था । पति परमेश्वर द्वारा सताई वह ऐसी नारी थी जिसने अपने समस्त दायित्व पूरे करने के पश्चात अपने हाथों से सजाया संवारा अपना वह घर सदा के लिए छोड़ दिया जिसमें उसे सदा तिरस्कार मिला । उसका पढ़ा-लिखा पति शराब के नशे में उससे मारपीट करने के साथ दुराचार भी किया करता था । जब तक बच्चे छोटे थे, तब तक वह सब चुपचाप सहती रही पर बच्चों के स्थापित होते ही सुकून की तलाश में वह यहां चली आई ।
अपनी आपबीती उषा को सुनाते हुए अंत में उसने कहा था, ' उषा आज भी मैं यह नहीं सोच पाती हूँ कि बलात्कार के आरोपी को हमारे समाज में दंड का प्रावधान है पर बलात्कार अगर पति के द्वारा किया जाए तो...।'
हमारी सामाजिक व्यवस्था पर चोट करते उसके प्रश्न का उत्तर उषा के पास भी नहीं था । पहली मुलाकात में उसके मुख से उसकी आपबीती सुनकर उषा सिर्फ इतना ही कह पाई थी, ' आप बच्चों के पास क्यों नहीं गई ?'
' उषा बच्चों के पास जाकर मैं उनकी नजरों में दीन हीन नहीं बनना चाहती थी । मैं यहां रहकर अचार पापड़ बनाती हूँ । उन्हें बेचकर इतना तो कमा ही लेती हूँ कि इस आश्रम में अपनी आवश्यकताएं पूरी कर सकूँ ।'
जितने लोग उतनी कहानियां... यहां आकर उषा को लग रहा था कि सिर्फ कच्चे घरों में ही नहीं, पक्के घरों में भी बहुत सी दुश्वारियां हैं । कच्चे घरों में लाखों दुश्वारियां सहते हुए भी लोग अपने बुजुर्गों को घर से बाहर नहीं निकलते पर पक्के घरों में कहीं स्वार्थ, कहीं अहंकार, तथा कभी अवहेलना का तीर इन्हें इस दशा तक पहुंचने के लिए मजबूर कर ही देता है ।
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पदम और डेनियल के साथ अनिला भी बार -बार उनसे आने का आग्रह कर रही थी । आखिर उन्होंने पदम के पास जाने का मन बना ही लिया । यद्यपि नए खुले प्रौढ़ शिक्षा केंद्र के कारण उषा का जाने का मन नहीं था पर शशि और उमा ने उससे कहा, ' अगर आप जाना चाहती हैं तो चली जाइये, हम तो हैं ही , मैनेज कर लेंगे ।'
शशि और उमा की बात सुनकर उषा ने संतोष की सांस ली थी । वीजा वगैरा की फॉर्मेलिटी पूरी करके अजय ने टिकट बुक करा लीं तथा जाने की तैयारी करने लगे । लंदन जाने से पूर्व उषा 'परंपरा' गई क्योंकि उसे लग रहा था कि दो-तीन महीने तक वह किसी से नहीं मिल पाएगी ।
उस दिन उसने मूंग की दाल का हलुआ बनाया था । जैसे ही उसने 'परंपरा ' में प्रवेश किया बर्तन के गिरने की आवाज के साथ किसी की तेज आवाज गूँजी। गुरुशरण कौर ने उसकी आँखों में प्रश्न देख कर कहा, ' यह रीता हैं । अभी हफ्ते भर पूर्व ही यह यहां आई हैं । जब से उनका बेटा इन्हें यहां छोड़ कर गया है तबसे इनका यही हाल है । चिल्लाना और सामान फेंकना ...। लगता है यह इनका अपना आक्रोश व्यक्त करने का तरीका है । यह लगभग 90 वर्ष की हैं । अपना काम भी ठीक से नहीं कर पाती हैं अतः इनके बेटे ने इनके साथ एक 25- 26 वर्ष की नौकरानी को रखने का आग्रह किया है । वह इनके साथ पिछले 10 वर्षों से रह रही है । इनकी बहू नहीं रही है । बेटा अपनी उम्र के कारण अपने पुत्र के साथ रहना चाहता है पर उनके पुत्र ने दादी को साथ रखने से मना कर दिया अतः मजबूर होकर इनके पुत्र को इन्हें यहां रखना पड़ा । जाते हुए बार-बार भरी आंखों से वह हम सबसे यही कह रहे थे ' प्लीज मेरी माँ का ध्यान रखिएगा ।'
वैसे जब इनका मूड ठीक रहता है तब यह अच्छी तरह से बातें करती हैं । बिना प्रेस की साड़ी तो यह पहनेंगी ही नहीं । लगता है नौकरानी से कोई चूक हो गई होगी तभी यह इतना बिगड़ रही हैं । '
गुरुशरण कौर की बात सुनकर उषा को लग रहा था न जाने ईश्वर किसी को इतनी उम्र ही क्यों देते हैं ? न जाने ईश्वर की कैसी न्याय व्यवस्था कि अच्छे भले स्वस्थ इंसान तो छोटे से हादसे में ही गुजर जाते हैं किन्तु बूढ़े, लाचार लोग जो न केवल अपने परिवार वरन स्वयं के लिए भी जिनकी जिंदगी बोझ बन जाती है, वे सालों साल जीते जाते हैं ।
सबको हलुआ देकर वह अंत में रीता जी के पास गई । उसे देखकर ममत्व भरे स्वर में उन्होंने पूछा, ' तुम यहाँ कब आईं बेटी ?'
' माँ जी, आज ही ।'
' क्या तुम्हारे बेटे ने भी तुम्हें घर से निकाल दिया है ?'
' माँ जी, लीजिए हलुआ ।' उषा ने उनकी बात का कोई उत्तर न देते हुए हलुवा की प्लेट उनकी और बढ़ाते हुए कहा ।
' बड़ी खुश हो । क्या बात है ?'
'आज मेरे बेटे का जन्मदिन है इसलिए मूंग की दाल का हलुवा लेकर आई हूँ।' पता नहीं उषा कैसे झूठ बोल गई ।
' मूंग की दाल का हलुआ ...ला दे । बहुत दिनों से नहीं खाया है । मेरी बहू अनीता भी बहुत अच्छा मूंग की दाल का हलुआ बनाती थी । जब से वह गई है घर-घर ही नहीं रह गया है । अगर वह होती तो वह मुझे यहां कभी नहीं रहने देती । बहुत ही अच्छी थी वह । हमारे बीच सास बहू का नहीं वरन मां बेटी का रिश्ता था पर मेरा अपना खून, मेरा पोता रितेश जिसे मैंने अपने हाथों से पाला यहां तक कि उसकी पॉटी भी धोई, उसने मुझे अपने पास रखने से मना कर दिया । जब रितेश के बेटा हुआ था तब मैं परदादी बनने पर बहुत खुश हुई थी । सदानंद और अनीता ने बहुत शानदार पार्टी दी थी । मुझे सोने की सीढ़ी पर चढ़ाया था । उसे देखकर पड़ोसी पड़ोसी नाते रिश्तेदारों ने कहा था , ' अम्मा अब तो आप सोने की सीढ़ी चढ़कर स्वर्ग जाओगी । क्या यही स्वर्ग है बेटा ?' कहते हुए वह उदास हो गई थी ।
उषा उनकी बात का क्या उत्तर देती अतः माँ जी का ध्यान उन दुःखद घटनाओं से हटाने के लिए कहा, माँ जी, आप हलुआ और लेंगी ।'
' नहीं बेटा इतना बहुत है । अब उम्र हो गई है ज्यादा खाया नहीं जाता पर इतना याद रखना अपने बेटे को ज्यादा प्यार मत करना, न ही कोई चाह रखना क्योंकि यही प्यार और चाह दर्द का कारण बनता है । ' माँ ने उसे समझाते हुए कहा ।
' बेटा तुम भी लो थोड़ा हलुआ ।' उषा ने उनकी नौकरानी शील को हलुआ देते हुए कहा ।
' थैंक्यू ऑंटी ।'
' वेलकम बेटा । खुश रहो ।अपनी माँ जी का अच्छे से ख़्याल रखना ।''
'माँ जी, अब मैं चलती हूँ ।' उषा ने रीताजी की ओर देखते हुए कहा ।
' ठीक है । मिलने आ जाया करना । मुझसे तो अब ज्यादा चला नहीं जाता है । बस अपने कमरे में ही पड़ी पड़ी समय काट रही हूँ । वैसे अलीगंज में हमारी बहुत बड़ी सी कोठी है । पता नहीं सदानंद ने उसे बेचा या किराए पर उठा दिया है ।' कहकर वह फिर अतीत में खो गई थीं ।
उषा कमरे से बाहर निकल आई । ज्यादा कुछ कह कर उषा उनका मन नहीं दुखाना चाहती थी वैसे भी एक उम्र के पश्चात जब शरीर काम नहीं करता तब दिल को सुकून पहुंचने के लिए इंसान के पास यादें ही एकमात्र सहारा रह जाती हैं ।
सुधा आदेश
क्रमशः