जो लोग भारतीय फ़िल्म उद्योग में गहरी दिलचस्पी रखते हैं वो समय- समय पर इसमें परवान चढ़ती प्रवृत्तियों से भी अनजान नहीं हैं।
हमारी फ़िल्मों ने दो संस्कृतियों के सम्मिलित स्वर का स्वागत हमेशा से किया है। यही कारण है कि यहां कई मुस्लिम अभिनेत्रियां और अभिनेता नाम बदल कर इस तरह आए कि आम लोगों को उनका असली धर्म मालूम तक नहीं पड़ा। यहां आरंभ में मधुबाला, मीना कुमारी, रीना रॉय, लीना चंदावरकर जैसी अभिनेत्रियों को धर्म बदल कर अपनी पहचान विलीन कर देते हुए भी लोगों ने देखा। दूसरी ओर अपने धर्म से इतर दूसरे धर्मों में विवाह कर के कुछ तारिकाओं ने अपने नाम भी बदले। यद्यपि ये बदलाव केवल औपचारिक ही रहा। नवाब मंसूर अली पटौदी से शादी करके आयशा सुल्ताना बनी शर्मिला आज भी अपने प्रचलित नाम शर्मिला टैगोर से ही पहचानी जाती हैं।
किंतु सदी के बीतते - बीतते सम्भवतः ज़ीनत अमान ऐसी पहली अभिनेत्री थीं जो अपने नाम को अलग- अलग देशों के रहने वाले अपने माता - पिता के मूल नाम के साथ ही पर्दे पर लाईं।
लेकिन मौजूदा सदी में एक ट्रेंड ये भी आया कि अभिनेत्रियों ने अपनी पहचान छिपाना बिल्कुल ही छोड़ दिया और वे अपने मूल नामों के साथ उद्योग में आईं चाहे उनके नाम परम्परागत भारतीय नामों से इतर विदेशी ही क्यों न हों।
कैटरीना कैफ, कल्कि कोचलिन, जैकलीन फर्नाडीज, सनी लियोन आदि का स्वागत हिंदी फ़िल्म दर्शकों ने मन से किया। विदेशी , विदेश में जन्मी, विदेश में पढ़ी लड़कियों को भारतीय जनमानस ने एक आत्मीय कौतूहल से देखा।
मज़े की बात ये है कि दीपिका पादुकोण का जन्म भी डेनमार्क के कोपनहेगन में हुआ। कोंकणी मातृभाषा वाली, कर्नाटक में पली बढ़ी भारतीय अभिनेत्री दीपिका के साथ "विदेश में जन्मी" लड़कियों वाला कौतूहल स्वतः जुड़ गया।
इस तरह दीपिका की लोकप्रियता और स्वीकार्य में कई तथ्य स्वाभाविक रूप से जुड़ गए।
फ़िल्मों के लिए चुस्त दुरुस्त बॉडी बनाने को जहां कई अभिनेता - अभिनेत्रियां जिम में जाकर पसीना बहाते हैं, जॉगिंग करते हैं, संतुलित आहार का पालन करने के परामर्श पाते हैं वहीं दीपिका पादुकोण स्वयं देश का प्रतिनिधित्व बैडमिंटन में करने वाली एक खिलाड़ी रहीं।
"व्हाट नॉट" अर्थात कौन सी चीज़ या बात ऐसी थी जो उनके साथ उनके पक्ष में खड़ी नहीं रही?
सन दो हज़ार सात में नए कलाकारों की भारी भीड़ और प्रतिस्पर्धा के बीच दीपिका पादुकोण की पतंग आसमान में उड़ने लगी।
ओम शांति ओम साल की सबसे बड़ी फ़िल्म तो ठहराई ही गई, उसने विदेशों में भी कमाई के कई कीर्तिमान बनाए।
जब किसी फ़िल्म स्टार की पहली ही फ़िल्म ज़बरदस्त ढंग से कामयाब हो जाती है तो उसके सामने दो विकल्प खुल जाते हैं।
पहला विकल्प तो ये है कि आप अपनी सफ़लता के नशे में दनादन ऐसी सभी फ़िल्मों को साइन करते चले जाएं जो आपको ऑफ़र हो रही हैं। ज़ाहिर है कि आपको ढेरों फ़िल्में ऑफ़र होती हैं। क्योंकि फिल्मजगत में ये कोई नहीं जानता कि कौन अच्छा और कौन अच्छा नहीं।
यहां जो चल जाए वो बेहतरीन!
ऐसे में फ़िर कुछ समय तक आपकी फ़िल्में आती हैं, जाती हैं। आप अपने नाम की आंधी से जो कमा सकें वो कमा लें। जाने कब आपकी सफ़लता से खुशबू आनी बंद हो जाए। जाने कब लोग आपके नाम से उकता जाएं।
लेकिन दूसरा विकल्प ये होता है कि एक बार सफ़ल होने के बाद आप और भी सतर्क हो जाएं तथा सावधानी से चुन - चुन कर अपने स्तर का ही काम लें, अपना बेहतरीन दें और आपका दाम नहीं, नाम बड़ा हो जाए। लोग आपके अगले प्रोजेक्ट की प्रतीक्षा उत्सुकता से करें। और आपका काम कालजयी कृतियों में शामिल हो जाए। ऐसे में दाम भी बड़ा हो ही जाता है। आख़िरकार ये एक इंडस्ट्री है और इंडस्ट्री में लाभ और क़ीमत में रिश्ता होता ही है।
दीपिका पादुकोण जैसी परिपक्व अभिनेत्री से सभी को समझदारी की उम्मीद थी। उस समझदारी को उन्होंने निभाया भी और धड़ाधड़ नई फ़िल्में साइन नहीं कीं।
बॉलीवुड के सबसे पुराने और प्रतिष्ठित पुरस्कारों में से एक कहे जाने वाले फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड समारोह में उनके नाम ने एक बार फ़िर चमत्कार किया।
वो साल की सबसे आकर्षक नई खोज के तौर पर अपने डेब्यू के लिए तो पुरस्कृत हुई हीं, अपनी पहली ही फ़िल्म में उन्हें बेस्ट एक्टर फीमेल का नॉमिनेशन भी हासिल हुआ। सर्वश्रेष्ठ हीरोइन के लिए नामित होना भी ये तो बताता ही है कि आपको साल की टॉप पांच बेस्ट एक्ट्रेसेज में से एक माना गया।
दीपिका का लोकप्रिय चेहरा लोगों को विज्ञापनों में भी लगातार दिखता रहा।
इन्हीं दिनों एक और मज़ेदार चर्चा फ़िल्म प्रेमियों के बीच सुनने को मिलती थी। लोग कहते थे कि समाज में फ़िल्मों के लोकप्रिय होने का एक बड़ा दिलचस्प कारण है इसीलिए फिल्मी कलाकार सितारों की हैसियत पा जाते हैं। ये नेताओं, खिलाडि़यों, साहित्यकारों, चित्रकारों, गायकों, संगीतकारों, वैज्ञानिकों, डॉक्टरों, वकीलों अथवा शिक्षकों की तुलना में ज़्यादा लोकप्रिय होते हैं क्योंकि सारा समाज किसी दौर के फ़िल्म एक्टर्स में ही समाहित होता है। सुनने में ये बात आपको कुछ अटपटी लगेगी परंतु ये ठीक इसी तरह है जैसे कुल बारह राशियां दुनियां के सब लोगों को कवर कर लेती हैं ठीक वैसे ही किसी दौर के अभिनेता या अभिनेत्रियां उस दौर के उस भाषा के लगभग सभी लोगों को कवर कर लेते हैं।
अगर सरल भाषा में कहें तो इसका मतलब ये है कि हर पुरुष या महिला किसी न किसी हीरो या हीरोइन से अपना कोई न कोई साम्य ढूंढ सकता है।
है न मजे़दार बात?
इस तरह लगभग आधी सदी अर्थात पचास वर्षों में एक पूरी पीढ़ी बदल जाती है। और उसके बाद समाज के लोग चेहरे - मोहरे में रिपीट होने लगते हैं। तो यही रिपिटीशन कमोवेश फिल्मी सितारों में भी देखा जा सकता है।
इस अवधारणा के कायल लोग नई सदी के पहले दशक की अभिनेत्रियों और अभिनेताओं की तुलना पिछली सदी के छठे सातवें दशक से भी करते थे।
संयोग से वही गुज़रा हुआ दौर फ़िल्मों का स्वर्ण युग या गोल्डन एरा भी कहा जाता है।
दीपिका पादुकोण की तुलना इस सिद्धान्त के अंतर्गत उस समय की लोकप्रिय अभिनेत्री वहीदा रहमान से की जाती थी। दोनों में क्या समानता रही होगी ये बताना तो काफ़ी मुश्किल है लेकिन दोनों को देख कर इस बात का असर अच्छी तरह समझा जा सकता है।
इसका कारण चाहे जो कुछ भी रहा हो, दीपिका के अगले तीन वर्ष काफ़ी साधारण रहे जिनमें उन्होंने कुछ गिनी चुनी फ़िल्मों में ही काम किया।
सराहना बटोरते हुए भी कोई बड़ी सफ़लता इस बीच उन्हें नहीं मिली।
फ़िल्म नगरी में सराहना और सफ़लता दो अलग - अलग बातें हैं।