15.
इन दिनों स्मारक, काफी अस्वस्त दिखाई देता। काम की व्यस्तता और अत्यधिकता के चलते न तो वह समय से खाना खाता था और न ही पूरी नींद मिलती थी। कई बार तो दम तोड़ते मरीज उसी के हाथों पर वमन कर देते थे, परंतु इस तपस्वी नि:स्वार्थ डॉक्टर के माथे पर शिकन की एक भी लकीर न उभरती, परंतु न जाने क्यों वह प्राय: उदास रहने लगा था। फाल्गुनी को आसपास न पाकर कुशकाओं से उसका जी घबराने लगता।
शाम से ही गुलाबी ठंड पड़ने लगी थी। नवरात्रि के उत्सव की गूंज गांव में बजते ढोल-ताशे की ताल के संग गरबा के गीतों से वातावरण को गुंजायमान कर रही थी। नर्मदा की लहरें भी गुन-गुन करतीं उस लोकसंगीत के साथ जुगलबंदी करती प्रतीत हो रही थीं। ऐसे उत्सव-भरे वातावरण में आज फाल्गुनी को भी थिरकने का मन हुआ और ठंडी रेत पर चलते-चलते गुनगुनाने लगी।
‘ श्याम तारा बांसुरी नि धुन मां राधा....’
स्मारक को अपनी ओर मुस्कराते देखकर वह चुप हो गई। "चुप क्यों हो गई फल्गु,गाओ न पूरा गीत..." स्मारक ने आग्रह किया। "देखो आज तो मैं भी अपनी बांसुरी साथ लेकर चला आया हूं। कहते हुए उसने शर्ट के भीतर से मुरली निकाली। फाल्गुनी का मन मयूर नाच उठा। शरमाते हुए गीत का मुखड़ा शुरू किया तो स्मारक की मुरली, बावली होकर स्मारक के अधर चूमने को उतावली हो गई। न जाने कितनी देर तक दोनों संगीत की दुनिया में खोए रहे।
पर अचानक स्मारक को खांसी का विकट दौरा पड़ा और वह खांसता हुआ ही चला गया। फाल्गुनी उसका पीठ को हल्के से थपथपाने लगी। खांसी बंद हुई तो फाल्गुनी उसे अपनों कंधो का सहारा देते हुए वापस अस्पताल परिसर में बने बंगले में चली आई।
अपने चेंबर में बैठी फाल्गुनी कुछ आवश्यक फाइलों से निपट रही थी। ऑडिटिंग के लिए शाम को दो चार्टर्ड अकाउंटेंट मुंबई से आ रहे थे। अचानक झगड़े और चीत्कार की आवाज़ें वार्ड से आती सुनाई पड़ी। झगड़े की बढ़ती आवाज़ से फाल्गुनी का ध्यान बार-बार काम से बंट जा रहा था। आखिर काम को बीच में ही रोककर वह वार्ड की तरफ मुड़ी। अच्छा-खासा तमाशा चल रहा वहां। एक औरत जोर-जोर से अपने पति के साथ लड़ रही थी। "बंद करो हंगामा ! क्या हो रहा है ये सब।" फाल्गुनी ने तमतमाते हुए कहा। हाथ में झाडू लिए खड़े सफाई कर्मचारी, आया ,वार्ड बॉय सभी अपना-अपना काम छोड़कर तमाशे का मजा ले रहे थे। फाल्गुनी ने उन्हें भी फटकारा, "और तुम लोग यहां खड़े क्या कर रहे हो ? कोई नौटंकी चल रही है क्या ? चलो जाओ अपना-अपना काम करो। " सारे कर्मचारी फाल्गुनी का रौद्र रूप देखकर सहमते हुए वहां से खिसक लिए।
अभी दो ही दिन हुए थे इस पति-पत्नी को यहां आए हुए। उस औरत ने अपने काष्ठा डालकर पहनी हुई 'नौवरी' सारी ( महाराष्ट्र में साड़ी पहनने का तरीका, जिसे धोती की तरह बांधकर पहना जाता है और नौ गज की साड़ी होती है ) के आंचल से अपने आंसुओं को पोछते हुए फाल्गुनी से कहा, "देखो न बाई। अक्खा जिनगी ( जिंदगी) ये आदमी मेरे को तपलीक ( तकलीफ) दिया, त्रास दिया, मार। पोटली (सस्ती शराब) पीके आता, लफड़ा करता। मैं अक्खा दिन तप में, पाऊस (बारिश) में वंडी (ठंडी) में मच्छी का टोकरा उठाके मच्छी बेचने को जाती और जो भी पईसा कमाती, ये साला भड़ुआ पईसा छीन के रंडीबाजी में उड़ा देता। पुलिस पकड़ को ले जाती तो मैं इंस्पेक्टर साहेब का पांव पकड़ को, मुट्ठी गर्म करके छुड़ा ले आती। पन (लेकिन) मेरे कू कब्बी ( कभी) बी प्यार से बात नई किया। इसकू मना करती रंडीबाजी करने को वास्ते तो मेरे कू बांझ बोलके, लाफा (थप्पड़) लात से ढोर मार मारता और रात-रात-भर अय्यशी करने को इधर-उधर मुंह मारके आता। अभी जब हरामी का मरने का बख्त ( वक्त ) हो गया तो मैं बोलती अक्खा जिनगी तू मवालीगिरी किया सो किया, पन अभी ऊपर जाने का टेम ( टाइम) थोड़ा भगवान का नाम ले ! तो मालूम क्या बोलता ! ये नास्तिक माणुस ? शाणी ( होशियार ) हे बिगवान कशी होत नाई ( भगवान कुछ नहीं होता ) मला दारु पाहिजे मण्जे पाहिजे, ला दारु ध्या मला।" ( मुझे शराब चाहिए यानी चाहिए ला दारु दे मुझे )।
रत्नागिरी जिले की ये मछलीवाली जीवन से विवश होकर कर्कशा हो उठी थी। मन की भड़ास को तल्खी से निकालते हुए आगे कहने लगी, "अध् बाई ! आउरत ( औरत) का सुख तो दिया नहीं और मां बनने का सुख भी नसीब में नहीं। जिस दिन शरीर को भूख लगती और रंडीबाजी करने को गजुए (जेब) में पईसा नहीं होता तो जनावर (जानवर) बनको मेरे पे चढ़ जाता और मैं मूरख भोली उसका वहशीपन और स्वार्थ को प्रेम का परसादी (प्रसाद) मान को ले लेती, पर उसके प्रेम ने परसादी में अपने साथ-साथ मेरे कू भी ये रोग दे दिया। अक्खी जिनगी कोई भी दूसरे मर्द को आंख उठा को देखा नई, क्योंकि मैंने तो इसको इच प्यार किया था। अच्छा है, बुरा है, कैसा भी है, पन मेरा मर्द है। दोनों साथ में ऊपर जाएंगे देवा के दरबार में मेरे कू मालुम। तो पन आज भी जी-जान से मैं इसकी सेवा करती। उसके नाम का कंकू (सिंदूर) लगाती रोज। पन बाई, दुनिया में सारा अधिकार क्या मर्द लोगा के वास्ते है और परिवार का फ़र्ज़ बजाने का काम आउरत ( औरत) का ? मारने का अधिकार मर्द का और आउरत का फ़र्ज़ मार खाने का ? कैसा इंसाफ है ये ? देख बाई ! तू भी देख मर्द के अधिकार का निसान। " ( निशान) कहकर उसने बिना किसी संकोच के अपनी जंघाओं और पीठ को उघाड़कर दिखा दिया। नील पड़े निशान और बीड़ी के जले दागों को देखकर फाल्गुनी की आत्मा कांप गई। मन हुआ उस लाचार-बीमार मृत्युशैया पर पड़े वहशी का गला घोंट दे। उसने आग्नेय द्रिष्टि से उसकी ओर देखा, परंतु उसकी आंखों में सिवाय काइयांपन के किसी प्रकार के पश्चात्ताप की लकीरें नहीं थीं।
फाल्गुनी उस अभागन मछलीवाली को समझा-बुझाकर और सांत्वना देते हुए शांत करके वापस अपने फाइलों में डूब गई, लेकिन इस बाफ उसका मन रह-रह के भटक रहा था। बहुत देर तक गालों में हाथ धरे फाल्गुनी उस अनपढ़, गवांर औरत की कही बातों का फलसफा समझने का प्रयास करती रही। सृष्टि के निर्माण के समय क्या ब्रम्हा ने पक्षपात नहीं किया? क्योंकि वे स्वयं पुरुष थे, शायद इसलिए विश्व के समस्त अधिकार का आधिपात्य पुरूषों को दिया और स्त्री ? उसके दामन को बांध दिया कर्तव्यपराण्यता की बेड़ियों से। अवस्था चाहे जो भी हो, मानसिक अथवा शारीरिक, क्या स्त्री को सम्पूर्णता पुरुष के नीचे दबकर ही प्राप्त होती है ? अब चाहे इसे नारी जाति की नियति मानों या विडंबना !
लॉबी से गुजरकर पैंट्री की तरफ मुड़ी ही थी की डॉ. मित्रा ने आवाज़ दी। 'फाल्गुनी प्लीज जस्ट एक मिनट। ' ओ डॉ. मित्रा ! गुड मार्निंग, इज एवरीथिंग ऑलराइट ? ( शुभ प्रभात, क्या सब ठीक है ) वैल फाल्गुनी, नॉट इक्ज़ेक्टली। आई एम एक्चुअली वरीड अबाउट डॉ. स्मारक हेल्थ ( शायद नहीं, मैं दरसल डॉ. स्मारक की सेहत के बारे मैं चिंतित हूं) बिलकुल अपना ख्याल नहीं रखते। तुम उन्हें एक थोरो चेकउप के लिए जितनी जल्दी हो सके, मुंबई ले जाओ। उस जिददी आदमी पर तुम ही लगाम कस सकती हो। " कहकर वे हलके से मुस्कुराते हुए राउंड के लिए वार्ड की ओर चल पड़े। डॉ. मित्रा स्मारक के परम् मित्र भी थे। फाल्गुनी के माथे पर चिंता की लकीरों उभर आईं। पैंट्री की ओर जाने बजाय वह स्मारक के चेंबर की तरफ निकल पड़ी।