मानस के राम
भाग 33
राम द्वारा विभीषण का राज्याभिषेक
राम के आदेश के अनुसार सुग्रीव विभीषण को राम के पास लेकर चले। जब विभीषण राम के शिविर की तरफ जा रहे थे तो वह बहुत अधिक प्रसन्नता का अनुभव कर रहे थे। उन्होंने राम के बारे में बहुत कुछ सुना था। उनके मन में विचार आ रहा था कि आज वह उन श्री राम से मिलेंगे जो अपने पिता के वचन को निभाने के लिए राज्य का सुख छोड़कर चले आए। जो अपनी पत्नी सीता के सम्मान की रक्षा के लिए वानर दल लेकर लंका पर चढ़ाई करने के लिए आए हैं।
किंतु खुशी के साथ साथ उनके मन में एक संशय भी था। क्या श्री राम उन्हें स्वीकार करेंगे ? वह राक्षस कुल में जन्मे हैं। उनकी पत्नी सीता का हरण करने वाले रावण के अनुज हैं। परंतु उन्होंने राम के बारे में जो कुछ सुना था उससे उन्हें यकीन था कि वह अवश्य उन्हें अपनी शरण में ले लेंगे।
विभीषण उस जगह पर पहुँचे जहाँ राम तथा लक्ष्मण उनके आने की प्रतीक्षा कर रहे थे। विभीषण ने दूर से ही दोनों भाइयों को देखा। दोनों की छवि आँखों को आनंद देने वाली थी। विभीषण ने राम को देखा। उनके चेहरे पर सौम्यता और वात्सल्य दिखाई पड़े। चौड़ी छाती, लंबी भुजाएं और पुष्ठ कंधे उनके योद्धा होने की निशानी थे। राम का पूरा व्यक्तित्व मोहक था।
पास पहुँच कर विभीषण ने हाथ जोड़कर कहा,
"श्री राम मैं लंकापति रावण का अनुज विभीषण हूँ। मेरा जन्म राक्षस कुल में हुआ है। मेरे बड़े भाई रावण ने आपकी पत्नी सीता का हरण किया है। पर मैं आपकी शरण में आया हूँ। मैंने आपकी महिमा के बारे में सुना है। इसलिए मुझे विश्वास है कि मेरे दुर्गुणों को ध्यान में ना रखकर आप मुझे अपनी शरण में ले लेंगे।"
राम ने उठकर विभीषण को गले लगाकर कहा,
"दुर्गुण कुल में नहीं व्यक्ति में होते हैं। किंतु आप तो ऋषि पुलस्त्य के वंशज हैं। आप यहाँ निर्मल लेकर आए हैं। जो सच्चे मन से मेरी शरण में आता है उसे मैं स्वीकार करता हूँ।"
राम के बाद विभीषण लक्ष्मण के गले मिले। उसके बाद राम ने उन्हें आसन पर बैठाया। विभीषण ने कहा,
"मेरे भ्राता रावण वेदों के ज्ञाता हैं। किंतु अपने दंभ में चूर वह सारा ज्ञान भुला चुके हैं। मेरे समझाने पर भी वह अपनी भूल सुधारने को तैयार नहीं हुए। मुझे अपमानित कर लंका से निकाल दिया। मैं अब आपकी शरण में हूँ। आप ही मुझे सही मार्ग दिखाएं। मैं लंका और राक्षस कुल के विषय में अति चिंतित हूँ।"
राम ने कहा,
"तुम एक मित्र की भांति मेरे पास आए हो। मैं तुम्हें मित्र के रुप में स्वीकार करता हूंँ। एक मित्र होने के नाते मैं तुम्हें वचन देता हूँ कि मैं रावण को उसके किए का दंड देकर लंका को तुम्हें सौंप दूँगा। तुम धर्म के मार्ग पर चलते हुए लंका पर राज्य करना।"
उसके बाद राम ने आदेश दिया कि शिविर के मध्य में विभीषण के राज्याभिषेक की व्यवस्था की जाए। उन्होंने सागर का जल मंगवाया। उस जल से विभीषण का राज्याभिषेक कर कहा,
"रावण की मृत्यु के पश्चात तुम लंका के राजा बनोगे। लंका के वासियों का सुख दुख तुम्हारे हाथ में होगा। अब लंका पर तुम्हारा अचल राज्य स्थापित होगा।"
सबने विभीषण की जय जयकार कर उन्हें लंका का राजा घोषित कर दिया।
विभीषण ने भी वचन दिया कि वह एक सच्चे मित्र का धर्म निभाते हुए सदैव राम का साथ देंगे।
रावण द्वारा दूत भेजना
जिस समय विभीषण ने अपने कुछ मंत्रियों के साथ लंका छोड़ी थी उसी समय रावण ने उनके पीछे शार्दूल नाम के एक दूत को भेजा था। उसने वानर का रूप बनाकर सबकुछ देखा। लंका पहुंँचकर वह दरबार में उपस्थित हुआ। उसने रावण को सारी बात बताई। सब जानकर रावण ने कहा,
"जो स्वयं वनवासी है। दर दर की ठोकर खा रहा है। उसने विभीषण को लंका का राज्य दे दिया। इससे पहले उसने इसी प्रकार सुग्रीव को मूर्ख बनाकर अपने पक्ष में कर लिया था। अब वह भिखारी लंका का ऐश्वर्य उस दूसरे भिखारी मेरे मूर्ख अनुज को देने की बात कर रहा है। यह तो मानना ही होगा कि वह अत्यंत चालाक है।"
माल्यवंत ने कहा,
"राम सचमुच बुद्धिमान है। इस एक युक्ति से उसने लंका में विघटन का बीज रोपित कर दिया है। जब से राम का दूत हनुमान लंका का दहन करके गया है तब से लंका के कई वासियों में राम के प्रति भय व्याप्त हो गया है। अब वह सभी लोग विभीषण अपना राजा मानकर उसके साथ हो जाएंगे।"
माल्यवंत की बात सुनकर रावण विचारमग्न हो गया। कुछ देर सोचने के बाद बोला,
"आपका कहना उचित है। अब हमें भी कोई कदम उठाना होगा।"
उसकी बात सुनकर इंद्रजीत ने कहा,
"इसमें सोचने वाली क्या बात है। अभी वह लोग समुद्र के किनारे बैठे इसी बात पर विचार कर रहे हैं कि विशाल समुद्र को कैसे पार करें। हम अपनी सेना लेकर उन पर अचानक धावा बोल देते हैं।"
यह सुनकर एक मंत्री ने कहा,
"इस बात में कोई संदेह नहीं है कि लंका की सेना बहुत शक्तिशाली है। किंतु युद्धनीति कहती है कि यदि शत्रु अपनी धरती के बाहर हो तो बिना उसकी सामर्थ्य की थाह लगाए आक्रमण करना नुकसान भी पहुंँचा सकता है।"
माल्यवंत ने भी उसकी बात का समर्थन किया। रावण ने कहा,
"ठीक है तो फिर मैं भी वही चाल चलूँगा जो उस राम ने चली है। मैं सुग्रीव को अपने पक्ष में करने का प्रयास करता हूँ। राम उसके और उसकी वानर सेना के दम पर ही इतना आश्वस्त है। यदि सुग्रीव उसका साथ छोड़ दे उसके पास कुछ भी नहीं रह जाएगा।"
रावण के दरबार में शुक नाम का एक मंत्री था। वह मायावी शक्तियों का स्वामी था। रावण ने उससे कहा,
"शुक तुम सागर पार जाकर इस बात का अनुमान लगाओ कि राम की वानर सेना में किस प्रकार का वातावरण है। इसके अतिरिक्त वानर राज सुग्रीव से मिलकर उन्हें मेरा संदेश देना कि वह उस वनवासी राम का साथ छोड़कर मेरी मित्रता को स्वीकार कर लें। पूरी कोशिश करना कि वह मेरे इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लें।"
समुद्र पार कर शुक उस जगह पर आया जहाँ राम और उनकी सेना ने पड़ाव डाला था। उसने एक पंछी का रूप धारण कर लिया। इधर उधर उड़ते हुए वह वानर सेना की शक्ति और उनकी बातों के माध्यम से उनकी मनोदशा का अनुमान लगाने का प्रयास कर रहा था।
वानर सैनिक अलग अलग दल बनाकर आपस में बातें कर रहे थे। वह एक दल के ऊपर जाकर मंडराने लगा। ऊपर उड़ते हुए वह ध्यान से उनकी बातें सुन रहा था। दल में से एक वानर ने कहा,
"मुझे तो पूर्ण विश्वास है की जीत हमारे स्वामी श्री राम की होगी। लंकापति रावण ने माता सीता का हरण कर पाप किया है। पापी कितना भी शक्तिशाली क्यों ना हो उसे उसके किए का दंड अवश्य मिलता है।"
एक दूसरे वानर ने कहा,
"हमारी सेना में कोई कम पराक्रमी योद्धा नहीं हैं। सब एक से बढ़कर एक शक्तिशाली हैं। दोनों राजकुमार राम तथा लक्ष्मण भी महान योद्धा हैं। उन्होंने जनस्थान में राक्षसों का संहार किया था।"
एक और वानर बोला,
"मुझे भी पूरा विश्वास है कि जीत हमारी ही होगी। हम राक्षसों की सेना के दांत खट्टे कर देंगे। परंतु एक बाधा बची है। इस सागर को कैसे पार किया जाएगा।"
पहले वाले वानर ने कहा,
"इसकी भी कोई चिंता नहीं है। महाराज सुग्रीव, जांबवंत, युवराज अंगद, हनुमान के होते हुए श्री राम कोई ना कोई उपाय अवश्य निकाल लेंगे।"
पंछी के भेष में शुक ने अन्य वानर दलों की भी बातें सुनीं। हर वानर सैनिक पूरे उत्साह में था। कोई भी किसी भी तरीके की निराशा नहीं दिखा रहा था। कुछ वानर सैनिक युद्ध नीति के बारे में बातें कर रहे थे। कुछ युद्ध के लिए तैयारी कर रहे थे। अपने हथियारों को सही प्रकार से देख रहे थे कि युद्ध में काम आने लायक है या नहीं। कोई भी सैनिक खिन्न या दुखी नहीं था।
वानर सेना की शक्ति और मनोदशा का अनुमान लगाने के बाद शुक दूसरे महत्वपूर्ण कार्य को करने के लिए गया।
शुक द्वारा सुग्रीव को रावण का संदेश देना
सुग्रीव कुछ ही समय पहले राम तथा लक्ष्मण के शिविर से आए थे। राम के शिविर में उन्होंने इसी विषय में विचार किया था कि समुद्र किस प्रकार पार किया जाए। उन्होंने राम को सुझाव दिया था कि क्योंकी विभीषण अब उनके मित्र बन गए हैं इसलिए उनसे ऐसा कोई मार्ग पूँछा जाए जिससे वानर दल के साथ लंका पहुंँचा जा सके। सुग्रीव का कहना था कि हो सकता है विभीषण लंका पहुंँचने का कोई गुप्त मार्ग जानते हों। राम को उनका यह सुझाव बहुत पसंद आया था। उन्होंने कहा था कि वह कल इस विषय में विभीषण से बात करेंगे।
शुक ने सुग्रीव को उनके शिविर में प्रवेश करते हुए देखा। उसने इधर उधर देखा। आस पास कोई नहीं था। वह अपने असली रूप में आ गया। उसके बाद सुग्रीव के शिविर में प्रवेश कर गया। किंतु विभीषण की दृष्टि उस पर पड़ गई थी। उन्होंने उसे पहचान लिया कि वह रावण का मंत्री शुक है। वह सुग्रीव के शिविर की तरफ बढ़ गए।
शिविर के भीतर पहुंँचकर शुक ने सुग्रीव को अपना परिचय देकर रावण का संदेश सुनाते हुए कहा,
"लंकापति रावण ने कहा है कि आपके भाई बालि उनके मित्र थे। इस लिहाज से वह आपको भी अपना मित्र बनाना चाहते हैं। उनका कहना है कि आप व्यर्थ ही राम के लिए अपने राजपाट को छोड़कर यहांँ पड़े हुए हैं। बुद्धिमानी इसी में है कि राम का साथ छोड़कर आप लंकापति रावण के साथ मित्रता कर लें। अपने राज्य किष्किंधा लौट कर उसका सुख भोगें।"
शुक की बात सुनकर सुग्रीव ने कहा,
"वह लंपट रावण जिसने छल से साधू का वेष बनाकर एक स्त्री का अपहरण कर लिया वह मुझे अपना मित्र बनाना चाहता है। मैं उसकी मित्रता को कदापि स्वीकार नहीं कर सकता। वह चाहता है कि मेरे जिस मित्र राम ने किष्किंधा का राज्य पाने में मेरी सहायता की मैं उनसे धोखा करूँ। मैं ऐसा कभी सोच भी नहीं सकता हूँ। तुम रावण का दूत बनकर यहांँ आए हो। इसलिए ऐसी बातें करने के बाद भी मैं तुम्हें दंड नहीं दे रहा हूंँ। वापस जाकर उस दुराचारी रावण से कहना कि वह अपना अंत निकट ही समझे।"
सुग्रीव ने अपना मंतव्य स्पष्ट कर दिया था। फिर भी शुक ने उसे दूसरी तरह से समझाने का प्रयास किया। वह बोला,
"महाराज सुग्रीव मैं आपका हितैषी होने के नाते कह रहा हूंँ कि राम के स्थान पर लंकापति रावण की मित्रता आपके लिए अधिक लाभदायक है। अतः सही प्रकार से विचार कर उनका प्रस्ताव स्वीकार कर लीजिए।"
सुग्रीव ने कहा,
"अगर हित सोचना है तो अपने स्वामी रावण का सोचो। उसे जाकर समझाओ कि अभी भी समय है। अपनी भूल स्वीकार कर उसकी क्षमा मांग ले। सीता को सम्मान पूर्वक इस शिविर में छोड़ जाए। अन्यथा उसके संपूर्ण कुल का विनाश हो जाएगा।"
शुक ने कई तरीके से समझाने की कोशिश की। परंतु सुग्रीव नहीं माने। हार कर शुक वापस चला गया।
विभीषण सुग्रीव के शिविर के बाहर खड़े सब सुन रहे थे। शुक के जाने के पश्चात वह शिविर के अंदर गए। उन्होंने सुग्रीव को गले लगाकर कहा,
"महाराज सुग्रीव आप और आपकी मित्रता दोनों ही मेरा अभिवादन है। आप श्री राम के सच्चे मित्र हैं। आप जैसे मित्र के होते हुए श्री राम को विजई होने में कोई कठिनाई नहीं होगी।"
सुग्रीव ने कहा,
"महाराज विभीषण श्री राम के कारण ही मुझे मेरा राज्य, मेरी पत्नी और पुत्र वापस मिले हैं। अन्यथा मैं ऋष्यमूक पर्वत पर एक निष्कासित जीवन ही व्यतीत करता। श्री राम का साथ छोड़ देना कृतघ्नता होती। मैं कृतघ्न नहीं हूँ।"