असत्यम्। अशिवम् ।। असुन्दरम् ।।। - 7 in Hindi Comedy stories by Yashvant Kothari books and stories PDF | असत्यम्। अशिवम्।। असुन्दरम्।।। - 7

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असत्यम्। अशिवम्।। असुन्दरम्।।। - 7

7

‘श्रीवास्तवजी आजकल मैं यह क्या सुन रही हूं।’

‘क्या सुना-जरा मैं भी सुनंू।’

‘यही कि आप कक्षा मंे छात्रांे को प्रेम कविताएं बहुत रस ले लेकर पढ़ा रहे है। छात्राएंे बेचारी शर्म से गड़ जाती है।

‘ऐसी कोई बात नहीं है, मैडमजी।’ सन्दर्भ विषय के आधार पर मैं अपना लेक्चर तैयार करता हूं।

‘नही, भाई ये छोटा कस्बा है। यहां पर ये सब नहीं चलेगा।’

‘लेकिन मैडम पढ़ाना मुझे आता है।’

‘लेकिन आप समझते नही है। माधुरी बोली।’

‘मैं सब समझ रहा हूं। शायद स्कूल को मेरी आवश्यकता नहीं है।’

‘नही.......नही, मास्टरजी ऐसी बात नहीं है, बस आप थोड़ा ध्यान दीजिये और कभी घर पर लालू को भी देख लीजियेगा......।’

‘तो ये कहिये न मैं हर रविवार को एक घन्टा दे दूंगा।’

मास्टरजी बाहर आये। ओर सोचने लगे इस वज्र मूर्ख लालू को अंग्रेजी पढ़ाने के बजाय तो कोई दूसरा स्कूल ढूंढना ठीक रहेगा। मगर मास्टरजी ने काम जारी रखा। बेचारे मास्टरजी जानते थे सरकारी स्कूलों की ओर भी बुरी हालत है।

तबादलांे का चक्कर, टीकाकरण, पशुगणना, मतदाता सूचियां बनाना, सुधारना, चुनाव कराना, पंचायतांे मंे हाजरी बजाना जैसे सैकड़ो काम करने के बाद मिड डे मील पकाना, खिलाना, उसका हिसाब रखना, सस्पंेड होना, जैसे सैकड़ांे जलालत भरे काम के बजाय एक सेठानी के बुद्धु बच्चे कोे, पढ़ाना ठीक था। वे इसे इज्जत की मौत कहते थे जो जलालत की जिन्दगी से अच्छी थी। मास्टर श्रीवास्तवजी स्कूल के अन्य कामांे मंे कोई दिलचस्पी नहीं लेते थे। पढ़ाया और चल दिये। जो मिला उस पर सब की तरह अंगूठा लगाते और स्वयं पढ़ने मंे लगे रहते। धीरे-धीरे कस्बे मंे उनका एक व्यक्तित्व विकसित होने लगा था। जिसे वे बचा-बचा कर खर्च करते थे।

लक्ष्मी और माधुरी धीरे-धीरे सहेलियां हो गयी। सहेलियां जो एक दूसरे की राजदार हो जाती है। एक दूसरे के काम आती है। गोपनीयता बनाये रखती है और एक दूसरे कोे समझती है।

माधुरी के सेठजी व्यस्त थे, उन्होेने उसे दो बच्चे दे दिये थे। बस। माधुरी को स्कूल खुलवा दिया था। उनके शब्दों मंे स्कूल एक ठीया था जहां पर माधुरी अपना शगल पूरा करती थी। सेठजी ने स्कूल मंे पैसा डाला था। जमीन उनकी थी। माधुरी जब चाहती स्टाफ से काम करवा लेती।

लक्ष्मी ये सब जानती थीं। समझती थीं। शुक्लाजी की नौकरी को भी अच्छी तरह समझ रही थी। उसके अपने स्वार्थ थे, और माधुरी के अपने, लक्ष्मी सोचती यदि हेडमास्टर को चलता किया जा सके तो शुक्ला को हेडमास्टर बनवाया जा सकता है। माधुरी सोचती थी लक्ष्मी की मदद से राजनीति की सीढ़िया चढ़ी जा सकती हैं। ऐसी ही मानसिकता के चलते वे दोनो घर के लॉन मंे टहल रही थी कि माधुरी बोली।

‘एक वर्ष मंे चुनाव होने वाले है।’ ‘मैं भी खड़ी होना चाहती हूं।’

‘पर तुम्हंे टिकट कौन देगा।’

‘टिकट कोई देता नही खरीदना पड़ता है। आजकल पार्टियांे को पैसा दो, टिकट लो। अपने पैसे से चुनाव लड़ांे, जीत जाओ तो ठीक है वरना पैसा डूबा।’

‘लेकिन तुम क्यांे अपना पैसा डुबोना चाहती हो।’

‘डुबोना कौन चाहता है और डूबेगा भी नहीं। यह तो निवेश है, निवेश का फल मीठा होता है।’

‘निवेश कैसे।’

‘वो ऐसे समझो कि मैं अगर पैसा लगाने के बाद भी हार गई तो भी मेरी राजनीति मंे एक पहचान बन जायेगी, एम.एल.ए. अफसर मुझे जानने लग जायेंगे और इस जान पहचान से जो भी शिक्षामंत्री बनेगा उससे निजि विश्वविद्यालय की मांग कर दूंगी।’

‘लेकिन क्या ये इतना आसान हैं ?’

‘आसान तो कुछ भी नहीं है। कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है और अपने पास पैसा ही है जिसे खोकर कुछ पाया जा सकता है।’

‘एक ओर चीज है जिसे खोया जा सकता है।’

‘वो भी चलती है।’ सच बात तो ये हैं लक्ष्मी की महत्वाकांक्षी औरत को एक अतिमहत्वाकांक्षी पुरुषरूपी घोड़े पर चढ़कर वल्गाएं अपने हाथ मंे ले लेनी चाहिये, जब भी चाबुक मारो, पुरुष की महत्वाकांक्षाएं दौडेगी और ऐड़ लगाने पर और भी ज्यादा तेज दोड़ेगी।’

‘लेकिन ऐसा महत्वकांक्षी घोड़ा है कहां ?

‘राजनीति मंे घोड़े, गधे-खच्चर, हाथी बैल सब मिलते हैं। बस पाररवी नजरें होनी चाहिये।’

‘तो तुम्हारे पास ऐसी पाररवी नजरंे है।’

नजरंे भी है और घोड़ा भी ढूंढ रखा है, मगर वल्गाएं मेरे हाथ मंे आ जाये बस।

‘कौन है वो घोड़ा ?’

‘अभी जानकर क्या करोगी।’

‘तुम तो मेरा साथ देती जाओ।’

मुझे क्या मिलेगा ?

तुम्हंे क्या चाहिये। पति-पत्नी दोनांे कमा रहे हो। एक बच्चा है और मध्यवर्गीय मानसिकता वाले को क्या चाहिये ?

‘तो क्या मेरा शोषण मुफ्त मंे होगा।’

‘शोषण शब्द का नाम न लो। हर युग मंे नारी शोषित, वंचित रही है।’

‘मगर ये तो नारी सशक्तिकरण का जमाना है।’

‘वूमन लिब तक फेल हो गया। ’

‘अब तो इस हाथ दो, उस हाथ लो। और सशक्त हो जाओ।’

इस पूरे खेल मंे जीवन का रस कहां है?

‘रस ढूंढती रह जाओगी तो सफलता हाथ से निकल जायेगी और सफलता ही सब कुछ होती है। मेरी राजनीतिक शतरंज पर तुम्हंे भी मौका मिलेगा।’

‘लेकिन.....।’

‘लेकिन-वेकिन कुछ नहीं। तुम्हारे शुक्लाजी को भी तो प्रिन्सिपल बनना है। बेचारा सुन्दर, पढ़ा-लिखा, स्मार्ट और सक्रिय है।’

लक्ष्मी ये सुन कर ही कृतार्थ हो गई। उसे अच्छा लगा कि माधुरी बिना कहे ही उसकी बात समझ गयी। माधुरी ने उसकी कमर मंे हाथ डालकर उसे अपने स्नेह से सराबोर कर दिया।

तभी बंगले पर एक गाड़ी आई। एक नेताजी उतरे। माधुरी ने उनकी अगवानी की। नेताजी ने लक्ष्मी को ध्यान से देखा ऊपर से नीचे तक निरीक्षण किया। मन ही मन खुश हुए और प्रकट मंे बोले।

‘माधुरी ये कौन है ?’

‘अरे ये हमारे स्कूल मंे नई आई है, बेचारी मिलने चली आई।

अच्छा.........अच्छा......।’ नेताजी माधुरी के साथ अन्दर गये। माधुरी ने लक्ष्मी को भी बुला लिया। सेठजी बाहर गये हुए थे। माधुरी और लक्ष्मी ने मिलकर कुछ जरूरी फाइलांे की चर्चा नेताजी से की। नेताजी ने फाइलंे निकलवाने का वादा किया, थकान मिटाई और चले गये।

माधुरी ने लक्ष्मी को भी इस वादे के साथ बिदा किया कि शीध्र ही हेडमास्टर को चलता कर शुक्लाजी को प्रिन्सिपल बनाने का प्रस्ताव मैनेजमंेट मंे ले जायेगी।

लक्ष्मी जब घर पहुंची तो शुक्लाजी घर पर ही बच्चंे को क्रेश से ले आये थे और उसकेे साथ खेल रहे थे। शुक्लाजी की नजरंे बचाकर लक्ष्मी बाथरूम मंे घुस गई। तरो ताजा होकर आई तो शुक्लाजी चाय लेकर तैयार खडे़ थे।

शुक्लाईन को खुश देखकर शुक्लाजी भी खुश हुए। मुन्ना मन्द-मन्द मुस्करा रहा था। दोनांे पति-पत्नी देर रात तक बच्चे के साथ खेलते रहे। न शुक्लाजी ने कुछ पूछा न शुक्लाइन ने कुछ बताया।

ग् ग् ग्

बड़े लोगांे की बड़ी बीमारियां, बड़े डॉक्टर, बड़े अस्पताल, बडे टेस्ट, बड़ी जांचें और बड़ी दवाईयां। माधुरी को भी बड़ी बीमारियां हुई। पैसे के चलते खैराती अस्पताल नहीं गये। बड़े शहर के बड़े फाइवस्टार अस्पताल मंे गई। बड़ी जांचें हुई और बड़े परिणाम आये। लेकिन माधुरी घबराई नही। सेठजी भी नहीं घबराये। वास्तव मंे पैसा और खासकर काली कमाई का काला पैसा आदमी, परिवार को बड़ा आत्मविश्वास देता है।

हुआ यंू कि माधुरी के पेट मंे तेज दर्द हुआ। स्थानीय ईलाज, हकीम, वैद्य, होम्योपैथी से कुछ नहीं हुआ तो शहर मंे बड़े फीजिशियन को दिखाया। फिजिशियन ने डाइबिटालोजिस्ट को रेफर किया। डायाबिटोलाजिस्ट ने यूरोलोजिस्ट को रेफर किया। यूरोलोजिस्ट ने नेफ्रोलोजिस्ट को, तथा नेफ्रोलोजिस्ट ने न्यूरोलोजिस्ट को रेफर किया। न्यूरोलोजिस्ट ने कारडियोलोजिस्ट तक पहुंचाया। कारडियालोजिस्ट ने साइक्याट्रिस्ट को दिखाने की सलाह दी। साइक्याट्रिस्ट ने भी सभी पूववर्ती जांचंे वापस कराई और अन्त मंे पुनः वे लोग एक पुरूष गाइनेकोलोस्टि की शरण मंे गये। अब तक नुस्खे, जांचे, रिपोर्टो का एक पुलिन्दा बन गया था। जिसे एक थिसिस का रूप दिया जा सकता था। डॉक्टर ने पूरी जांच-पड़ताल की। मगर रोग हाथ मंे नहीं आया। डॉक्टर ने उन्हंे डी.एन.सी. की सलाह दे डाली। नई सोनोग्राफी से भी रोग का पता नही चला। अन्त मंे चलकर हुआ ये कि डॉक्टर ने साइक्याट्रिस्ट वाली दवाएं चालू रखने की सलाह दी। माधुरी डॉक्टरांे से उबकर अब तंत्र, मंत्र, फकीरांे, औझाआंे, बाबाआंे की शरण मंे जाना चाहती थी मगर घर वाले नहीं मानते थे। आखिर मंे ये तय हुआ कि माधुरी को बिना किसी दवा के कुछ दिन रखा जाये। महान आश्चर्य ये हुआ कि माधुरी ठीक होकर सामान्य रूप से अपना काम काज करने लगी।

लक्ष्मी और माधुरी ने मिलकर वापस स्कूल का कामकाज संभाल लिया। लक्ष्मी शुक्लाईन शुक्लाजी को प्रिन्सिपिल बनाने की फिराक मंे थी और माधुरी वापस निजि विश्वविद्यालय के मिशन ओर चल पड़ी। इस पूरी भागदौड़ मंे लक्ष्मी माधुरी के साथ थी। राजधानी के चक्कर, नेताआंे के चक्कर, राजनैतिक पार्टियांे के चक्कर और स्कूल का कामकाज सब काम माधुरी-लक्ष्मी को पूरा करना पड़ता था। माधुरी उम्र मंे बड़ी थी। बीमारी से उठी थी, मगर दिमाग से तेज थी। जागरूक थी। उसे मछली को चारा डालना आ गया था। मछली जाल मंे थी। बस उसका उपयोग करना था।

माधुरी के स्कूल मंे स्टाफ के नाम पर कुल दस थे। मगर सब मिलकर छप्पन का काम करते थे। मिसेज राघवन भी उनमंे से एक थी। स्कूल की सबसे पुरानी अध्यापिका। सबसे नम्र और सबसे धूर्त। धूर्तता मंे नम्रता का ऐसा घालमेल था कि व्यक्ति चाहकर भी कुछ नहीं कर पाता।

मिसेज राघवन विधवा थी। उसने अपने एकमात्र पुत्र को भी इसी स्कूल मंे फिट करने का प्रयास किया था। मगर बात बनी नहीं। वो खार खाये बैठी थी। मगर अत्यन्त विनम्रता से सब कुछ देख-सुन समझ रही थी। वो हेडमास्टर के पास गई और बोली।

‘प्रिन्सिपल साहब आपके दिन तो अब लद गये लगते है।

‘क्यांे भाई अभी-अभी तो स्थायी हुआ हूं। मेरी सेवानिवृत्ति भी दूर है।’

‘सेवा से निवृत्ति दूर तभी तक है जब तक मेडम माधुरी नही कहती।’

‘वो तो मेरे से खुश है।’

‘वो आप सोचते है।’

‘मैने तो सुना है कि शुक्लाजी को जल्दी ही प्रिन्सिपल बनाया जाने वाला है।’

‘क्या बकती हो तुम।’

‘मै बकती नही, कानो सुनी और आंखांे देखी कहती हूं।’

 

‘लक्ष्मी बहिनजी ने माधुरी मेम को पटा लिया है और कभी भी आपका पत्ता साफ हो सकता है। संभलकर रहना, फिर न कहना मैम ने चेताया नहीं।’ यह कहकर मिसेज राघवन ने हेड मास्टर को चिन्ता मंे डाला और खुद खिसक कर आ गई।

हेडमास्टर साहब को भी कुछ-कुछ भनक लग रही थी, मगर अब तो स्टाफरूम से भी अफवाहंे आ रही थी। जो कभी भी सच हो सकती हैं।

हेडमास्टर साहब कर भी क्या सकते थे। मैनेजर से पंगा लेना उनके बस का नहीं था। मगर घर पर बैठी दो कुंवारी कन्याआंे की चिन्ता उन्हंे खाने लगी।

वे जल्दी घर आ गये। पण्डिताईन ने पूछा कुछ न बोले बस सरदर्द का बहाना बना कर लेट गये। सायंकाल भोजन के समय बताया शायद नया हेडमास्टर बनेगा। पण्डिताईन ने बिना चिन्ता जवाब दिया।

‘जिसने चोंच दी है वो चुग्गा भी देगा।’

हेडमास्टर साहब को अच्छा लगा। बेटियांे को पढ़ाकर सो गये।

माधुरी अपनी बीमारी से उबरकर नयी सज-धज के साथ स्कूल आई। हेडमास्टर से हिसाब की किताबंे मांगी उसके बाद अनियमितताआंे की चर्चा की ओर स्पष्ट कह दिया। ऑडिट रिपोर्ट बहुत खराब आई है। स्कूल की ग्रान्ट रूक जायेगी। सचिवालय मंे बहुत बदनामी फेल रही है। आपको निलम्बित करने के लिए बड़ा दवाब है।

‘क्यांे मेरा क्या कसूर है। स्कूल के कोषाध्यक्ष ने किया है गबन।’

‘लेकिन सभी वाउचर्स पर आपके हस्ताक्षर है।’

‘लेकिन.......लेकिन...........।’ हेडमास्टर हकला गया।

माधुरी ने तुरूप का पत्ता फंेका।

‘देखो मास्टरजी ये दुनिया, बड़ी खराब है, आपकी बदनामी, हमारी बदनामी, ऐसा करो कि आप स्तीफा दे दे, मैं मैनेजमंेट से मंजूर करवा दूंगी। आपको पंेशन के लाभ भी दिलवा दूंगी।’

‘लेकिन.....।’

‘लेकिन-वेकिन कुछ नहीं। जेल जाने से तो यही ठीक रहेगा। आप एक-दो दिन सोच लीजिये। तब तक मैं भी चुप रहूंगी।’ ये कहकर माधुरी चली गई।

हेडमाटर साहब के पैरों से जमीन खिसक गई थी, वे चाहकर भी कुछ नही कर सकते थे। गबनकर्ता मैनेजमंेट का ट्रस्टी था, उनके तो केवल हस्ताक्षर थे, मगर वे जानते थे कि कोर्ट, कचहरी, थाना, पुलिस, मुकदमंेबाजी मंे भी वे ही हारेंगे, उचित यही होगा कि स्तीफा दे और कोई अन्य रास्ता जीने का खोजे। वे माधुरी के हरामीपने से पहली बार परिचित हुए थे। मगर समरथ को नहीं दोष गुंर्साइं। यही सोचकर उन्हांेने स्तीफा लिखा । बाबू को दिया और घर की ओर भारी कदमांे से चल पड़े। आज रास्ता काटे नहीं कर रहा था। हर युग मंे ईमानदार, स्वच्छ, कर्तव्यपरायण, अध्यापकांे के साथ ऐसा ही हुआ है मास्टरजी ने सोचा और दो बूंद आंसू पोंछ डाले।

माधुरी ने बिना मैनेजमंेट को बताये लक्ष्मी के पति शुक्लाजी को कार्यवाहक प्रिंसिपल बना दिया। शुक्लाजी को बुलाकर स्पष्ट कहा।

‘मेरी कृपा समझिये शुक्लाजी नहीं तो आप जैसे नौसिखिये को प्राचार्य पद.........असंभव।’

शुक्लाजी बेचारे क्या बोलते। वे अपने पत्नी की सहेली के अहसानांे के तले वैसे ही दबे थे। शक्लाइन घर पर शेरनी की तरह दहाड़ती थी। उसके किसी भी कामकाज मंे हस्तक्षेप का मतलब था घर-गृहस्थी मंे घमासान होना। शुक्लाजी को धीरे-धीरे अपनी औकात समझ मंे आ रही थी, माधुरी आगे बोली।

‘पण्डितजी.......स्थायी होने के लिए लगातार मेहनत करो। मैंनेजमंेट की मीटिंग भी मैं शीघ्र बुला दूंगी।’

‘जी अच्छा मैडम।’ शुक्लाजी ने कहा और बाहर आकर पसीना पांेछा। शुक्लाजी जब पहली बार हेडमास्टर की कुर्सी पर बैठे तो बस मजा आ गया। वे अपने आपको महान समझने लगे।

उन्हांेने सोचा जिस किसी ने भी कुर्सी का आविष्कार किया है, बड़ा महान कार्य किया है। चार पायांे वाली यह छोटी सी लकड़ी की कुर्सी हर ऐरे गेरे नथ्थू खैरें, नूरे, जमाले फकीरे को आकर्षित करती है। हर कुर्सी की मर्यादा होती है। शुक्लाजी की कुर्सी की मर्यादा शुक्लाईन के मार्फत माधुरी की थी। तभी उन्हांेने सोचा यदि यह चार कमरांे का कॉलेज रूपी स्कूल कभी निजि विश्वविद्यालय बना तो वे भी कुछ बन जायेंगे। डीन एकेडिमिक, रजिस्ट्रार, परीक्षा नियंत्रक जैसे पदांे की गरिमा,........ शुक्लाजी कल्पना लोक मंे खो गये।

अचानक फोन की घंटी ने उनकी तन्द्रा को तोड़ा। शुक्लाईन बधाई दे रही थी और घर जल्दी आने की ताकीद की।

घर पर शुक्लाईन बोली।

‘तुम्हारा स्थायी होना मैनेजमंेट के नहीं शहर के एम.एल.ए. के हाथ मंे है। वो चाहंेगे तभी सब ठीक-ठाक होगा।’

‘तो हमंे क्या करना होगा।’

‘करना क्या है, सायंकाल उनके घर जाकर धन्यवाद देना है। फिर माधुरी मेम के घर जाकर चरण स्पर्श करने है।’

शुक्लाजी सब समझकर भी नासमझ बने रहे।

ग् ग् ग्

राज्य सरकार ने राज्य की साहित्य कला और संस्कृति से सम्बन्धित अकादमियांे में अध्यक्षांे के पद हेतु राजनैतिक नियुक्तियांे को करने का मानस बनाया। पर पता नहीं, कैसे समाचार लीक हो गये। और मीडियावाले राजनैतिक नियुक्तियांे के नाम उछालने लगे। एक चैनल ने तो बाकायदा पार्टी अध्यक्ष द्वारा जारी सूची को ही प्रसारित कर दिया। नियुक्तियांे का मामला खटाई मंे पड़ गया। प्रदेश की अकादमियां सनाथ होते-होते रह गई। सरकार ने प्रशासक नियुक्त कर दिये। बुद्धिजीवी चिल्लाने लगे। कपड़े फाड़ने लगे। मगर सरकार के कानांे पर जूं नहीं रेंगी। इसी उठापटक मंे कुलदीपक ने अपने कविता संग्रह पर अकादमी से आर्थिक सहयोग मांग लिया। अकादमी के अधिकारियांे ने तू-तू में-मंे से बचने के लिए आर्थिक अनुदान सभी मांगने वालों को बराबर-बराबर दे दिया। कोई असंतुष्ट नहीं बचा।

ललिता कला अकादमी वालांे ने सभी कलाकृतियांे को पुरस्कृत कर दिया। संगीत-नाटक अकादमी ने सभी कलाकारांे को कुछ न कुछ दिया। विद्रोह असंतोष केवल हवा मंे रह गया। सर्वोच्च पुरस्कार के लिए एक महिला को चुन लिया गया। महिला वर्ग के कारण सब चुप हो गये। सरकार ने अपने गाल स्वयं ही बजाना शुरू कर दिया।

अकादमियांे के अध्यक्ष बनने के इच्छुक लोगांे ने एक बार फिर प्रयास किये मुख्यमंत्री ने मामला शिक्षामंत्री पर छोड़ दिया। शिक्षामंत्री समझदार थे उन्हांेने राज्यमंत्री को कार्यभार दे दिया। राज्यमंत्री ने पार्टी के अध्यक्ष को मामला सौंपा और पार्टी अध्यक्ष ने अगले चुनाव के बाद ही विचार करंेगे, ऐसी घोषणा कर दी।

राजनैतिक नियुक्तियों के मामलांे मंे सरकारंे पहले भी संकट मंे आ चुकी थी। नियुक्तियां हो जाने पर यदि सरकार चल बसे तो बेचारे नियुक्त पदाधिकारियांे की बड़ी छिछालेदर होती थी। कई निलम्बित हो जाते थे। कई बरखास्त और कई कोर्ट कचहरी के चक्कर लगा-लगाकर थक जाते थे। कई बार नई सरकार धमकाकर स्तीफा लिखवा लेती थी। कुल मिलाकर प्रजातन्त्र के सीने पर विचित्र केनवास बन जाते थे। कवि कविता छोड़कर फाइलांे के हल जोतने लग जाते थे और संगीतकार तानुपरा छोड़कर सरकार के पांव दबाने लग जाते थे।

इन्हीं विचित्र परिस्थितियांे मंे कुलदीपक झपकलाल को लेकर प्रकाशक के अड्डे पर चढ़े। आज प्रकाशक ने कुलदीपक का तपाक से स्वागत किया। उसे विश्वस्त सूत्रांे से पता लग गया था कि कुलदीपक को प्रकाशन सहायता मिल गई है और अब कविता संग्रह छापना घाटे का सौदा नहीं था।

‘आईये। आईये कुलदीपकजी। कहिए कैसे है। आज तो बड़े दिनांे के बाद दर्शन दिये। क्या लेंगे चाय या काफी।’

झपकलाल और कुलदीपक को बड़ा आश्चर्य हुआ। बाहर ध्यान से देखा, कहीं सूर्य पश्चिम से तो नही निकला था। मगर सब ठीक-ठाक था।

‘मैं अपने कविता संगह के प्रकाशन के सिलसिले मंे निवेदन करने आया हूं।’

‘अरे यार। ऐसी जल्दी क्या है। पहले कचौडी खाईये। फिर चाय पीजिये, पान खाईये फिर प्रकाशन की चर्चा।’ यह कहकर प्रकाशक नेे अपने इकलौते मैनेजर कम अकाउटंेट कम प्रूफरीडर कम सम्पादक को चाय-नाश्ता लाने भेज दिया।

‘और सुनाईये। क्या हाल है। ‘झपकलाल ने पूछा।’’

‘सब ठीक-ठाक है, आप तो जानते ही है प्रकाशन का धन्धा तो बेहद घाटे का काम हैं, जो घर फूंके आपना चले हमारे साथ।’

‘अरे सेठजी आपने अभी-अभी पचास लाख की नई प्रेस लगाई हैं।’

‘है.....है......है.......वो तो लोन लिया है।’

चाय हुई। नाश्ता हुआ। पान के बीडे़ हुए। और मदनमस्त माहौल मंे कुलदीपक के कविता संकलन के अनुदान का बंटवारा आधा-आधा हुआ। आधा अनुदान कुलदीपक को रायल्टी के रूपमंे मिलना तय हुआ और आधा-अनुदान प्रकाशकीय सहयोग के रूप मंे प्रकाशक को मिला एवज मंे प्रकाशक ने उन्हंें पचास प्रतियां निःशुल्क दे देने की मौखिक स्वीकृति प्रदान की।

पुस्तक यथा समय छपी। अकादमी तक प्रकाशक ने पहुंचाई और कुलदीपक को प्रतियां मिली। बस यही गड़बड़ हुई। प्रकाशक ने कुलदीपक को प्रतियां देर से दी। कुलदीपक नाराज हुए मगर प्रकाशक ने एक समीक्षा गोष्ठी रखवा दी। जिसकी रपट प्रकाशक ने छपवा दी। कविताएं तो नहीं बिकी मगर कुलदीपक जी शहर के नामी कवियांे मंे शामिल हो गये। जैसे उनके दिन फिरे, सभी के फिरे।