apne apne ram-bhagvan singh in Hindi Book Reviews by राजनारायण बोहरे books and stories PDF | अपने-अपने रामः भगवानसिंह

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अपने-अपने रामः भगवानसिंह

उपन्यास

अपने-अपने रामः भगवानसिंह

कुछ और परिश्रम की जरूरत थी

कुछ मिथक और चरित्र किसी जाति, कौम और धर्म की मिल्कियत बन जाते हैं, जबकि कुछ मिथक, चरित्र और धर्म सार्वजनिक होने के कारण हरेक व्यक्ति का प्रहार सहने को मजदूर होतें है। राम और रामकथा का मिथक भी ऐसा ही है। भारत की हर भाषा में रामकथा लिखी गई है और हरेक लेखक ने उसमें कुछ न कुछ परिवर्तन जरूर किए हैं, दरअसल ऐसी कृतियों में उन लेखकों की दृष्टि ही साफ तौर पर प्रगट होती है।

हिंदी के कथा साहित्य में कुछ दिनों पहले नरेन्द्र कोहली ने भी रामकथा अपने कुछ श्रृंखलाबद्ध उपन्यासों कि माध्यम से प्रस्तुत की थी और इसी परम्परा में ताजातरीन औपन्यासिक कृति ‘अपने-अपने राम ’ लेखक भगवान सिंह की निजी दृष्टि से देखे गए उनके अपने राम का चरित्र प्रस्तुत करती है। लेखक भगवान सिंह बहुत बड़े इतिहास विद् हैं अतः उनकी पौराणिक रचना में ऐतिहासिक तथ्य होंगे, इसका विश्वास तो हर व्यक्ति करेगा ही और इसका आतंक भी हर पाठक पर होना स्वाभाविक है। इस उपन्यास के माध्यम से उपनिषद और वेदों पर अनुसंधान और अनुशीलन करने वाले लेखक ने लगभग यह सिद्ध किया है कि राम कोई काल्पनिक चरित्र नही थे बल्कि लोकमान्यता में व्याप्त राम वास्तव में हुए हैं।

प्रचलित राम कथा और इस उपन्यास में तमाम फर्क साफ तौर पर महसूस किए जा सकते हैं। लेखक ने अपनी रचना के समर्थन में कई रामकथाओं, पुराणों का अध्ययन करने का जिक्र किया है। इसलिए किसी तथ्य को झूठा कहना या सच्चा कह देना तो सामान्यतः कठिन प्रतीत होता हैं लेकिन यह कृति पाठकों सूक्ष्म विश्लेशण की मांग जरूर करता है।

लेखक ने कथायोजना में हर पात्र को केन्द्र बनाकर एक-एक अध्याय लिखा है व कथा आगे बढाई हैं । इस उपन्यास की कथा भी वाल्मीकि की रामायण की तरह अंत के प्रसंग से आरम्भ होती है।

इस उपन्यास में सीधी और स्पष्ट बात जो भगवान सिंह ने कही, उसका सार यह है कि राम व उनका संपूर्ण परिवार, मित्र समुदाय तथा दुश्मन रावण भी एकदम निर्दोष और सहज सीधे व सरल चित्त लोग है। सारी घटनाएं व दुष्टता तथा उल्टी-सीधी हरकतें वशिष्ठ व उनके जाति भाई ब्राहृणों ने कराई हैं, चाहे वह रामवनवास हो चाहे भरत को राज्याभिषेक। रामकथाओं के अध्ययन से यह बात तो सच भी प्रतीत होती है कि राम सहज, सरल और सीधे चरित्र के व्यक्ति रहें होंगे, और भरत तथा राजा दशरथ, रानी कौशल्या, कैकेयी व सुमित्रा भी इसी स्वभाव की प्रायः हर जगह चित्रित की गई है। भगवानसिह इस कथा में रावण को दासों का एक निर्मम व्यापारी बताते हैं जो सीता का हरण महज दासी बनाने तथा दासीरूप में भरत को बेचने हेतु करता है। लेकिन अन्य ग्रंथों में रावण को जहाँ दिग्विजयी व अत्याचारी राजा के रूप में बताया गया हैं, वहाँ ऐसे व्यक्ति को मात्र दास-व्यवसायी दस्यु के रूप में प्रस्तुत करके भगवान सिंह क्या कहना चाहते हैं, यह स्पष्ट नहीं होता।

इस उपन्यास को पढनें की रूचि रामकथा से जुड़ी होनं के कारण पाठक को आदि से अंत तक बनी रहती हैं, और इसकी मृदुलता भी पाठकों को भीतर तक-आकर्षित करती चलती है। कथा में व्यर्थ के विवरण और अनावश्यक प्रसंग कम से कम है। इस हेतु भगवान सिंह बधाई के पात्र है।

कुछ बिंदुओं पर भगवान सिंह की इस कृति में अजब सा द्वंद्व है, एक तरफ वे ब्राहृणों को सारे शोषण तंत्र का विधायक कहते हैं, सृजेता बताते हैं, दूसरी ओर वे उसे इतना निर्धन और विपन्न बतातें हैं कि ब्राहमण अपने बच्चें भी बेचने में संकोच नहीं करते। एक वर्ग जो शाष्शण तंत्र का सृजेता हैं, क्या ख्ुाद उस तंत्र का लाभ नहीं लेगा और अपनी संपूर्ण बुद्धि और शक्ति केवल ठाकुरों व राजाओं को समृद्ध करने में खर्च कर देगा, यह संभव नही लगता । कदाचित यदि ऐसा संभव होता है तो वह कम से कम उचित प्रतिदान तो लेगा ही। इसी प्रकार वे एक स्थान पर वशिष्ट के ब्राहृण होने पर भी शंका प्रकट करते हैं तो संपूर्ण उपन्यास में वशिष्ट को पुरोहित व्यवस्था का प्रबल पक्षधर और पुरोहितों का नेता बनाकर प्रकट करते है। हक्का-बक्का पाठक कुछ निष्कर्ष नहीं निकाल पाता कि कौन सी बात लेखक की अंतिम बात हैं क्योंकि कहीं-कहीं लेखक सर्वमान्य मिथकों को भी झुठलाता प्रतीत होता है।

अग्नि परीक्षा शब्द को लकर भगवान सिंह ज्यादा ही एकाग्र में हैं, वे एकाधिक स्थान पर अग्नि परीक्षा से तात्पर्य आग में से निकलना नहीं बताते, हालांकि अधिकांश पाठक भी यह अर्थ नही लेते। खुद समीक्षक नहीं लेता-लेकिन आत भी मोघिया नामक घूमन्तू जनजाति में अपराधी व्यक्ति को अग्नि परीक्षाएँ गर्म तेल में हाथ ड़ालकर देना होती है यह तथ्य भी सहज ही झुठलाने योग्य नहीं है।

यहि कथा के तथ्यों और स्त्रोतों की बात करने दी जाए तो एक संपूर्ण कृति के रूप में यह उपन्यास कुछ और परिश्रम की मांग करता है। पाठक आदि एक गल्प समझकर इस कृति को पढना चाहे तो वह निराश ही होगा, हां रामकथा के रूप् में इसे पढ़ने में लेखक का औत्सुक्य बना रहेगा। इस उपन्यास के संवाद प्रायः लम्बे हैं और उनमें प्रयुक्त बहुत से शब्द भी प्रायः किताबी लगते हैं, पूरे उपन्यास में राम अन्तर्मन में जितने जागृत दिखतें हैं, बहिर्रूप से वैसी अभिव्यक्ति भगवान सिंह ने नही होने दी है।

शास्त्रीय ग्रंथ रामकथा और कृष्णकथा कल्पना और किस्सों के महासागर हैं। महाभारत के बारे में यह भी कहा गया कि - यन्न भारत, तन्न भारत ! अर्थात जो महाभारत में नही वह भारतवर्ष में मुमकिन ही नहीं। इस का आशय यह कि एक सामाजिक व्यक्ति के जीवन की हर परिस्थिति , हर द्वंद्व महाभारत में किसी न किसी रूप् मे ंमौजूद है। रामकथा इस मायने में कतिपय सीमाओं से घिरी है। यहां कल्पनाओं का विस्तार करने की गंुजायश कम है फिर भी समर्थ लेखकों के लिए संभावनाएं कभी खत्म नही होती। भगवानसिंह ने रामकथा के संभावित समय ओर उपनिषद युग के आधार पर बहंुत सी संभावनाओं का उपयोग कर अपनी कल्पना में रंग भरने का यत्न किया है जो सराहनीय तो है, लेकिन फिर भी लेखक चाहते तो इसमें कुछ और परिश्रम कर इसे बहुत दिलचस्प रचाव ला सकते थे।

हर बेहतर रचनाकार से और अच्छे और अच्छे की चाहत तो रहती ही है आखिरकार।

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