Benzir - the dream of the shore - 18 in Hindi Moral Stories by Pradeep Shrivastava books and stories PDF | बेनज़ीर - दरिया किनारे का ख्वाब - 18

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बेनज़ीर - दरिया किनारे का ख्वाब - 18

भाग - १८

मुश्किल से दो घंटा हुआ होगा कि मुझे लगा जैसे मेरे घुटनों के पास कुछ है। मैं उठने को हुई तभी मुन्ना धीरे से बोले, 'कुछ नहीं, मैं हूं।' मैं शांत हो गई। मैं डरी कि, नीचे की बर्थ पर कई लोग सो रहे हैं। कोई जाग गया तो कितनी शर्मिंदगी झेलनी पड़ेगी। कंबल थोड़ा हटाकर नीचे देखा तो राहत की सांस ली, नीचे कोई नहीं था। मुन्ना के हाथ हरकत कर रहे थे। मेरा हाथ भी उसके हाथों के ऊपर पहुंच गया था। देर नहीं लगी उनके हाथ ऊपर और ऊपर तक आए तो मैं भी नहीं रुक सकी। उन्हें पूरा ही अपने ऊपर खींच लिया। बड़ी देर तक हम साथ रहे। फिर वह अपनी बर्थ पर जाने लगा तो मेरा मन हुआ कि वह जाए ही ना। लेकिन किसी के जाग जाने या आ जाने के खौफ ने मेरा हाथ रोक लिया। मगर फिर भी उन्हें जाने देने से पहले, मैं कंबल में ही उनके चेहरे को अपने दोनों हाथों में भरकर, होंठों को चूमने से ना रह सकी।'

'मैं आपसे सच कहता हूं कि, आप दोनों ने यह जो चरम रूमानी क्षण ट्रेन की उस बर्थ पर जिया, वह हॉलीवुड की किसी क्लासिक मूवी के बड़े ही रोमांटिक दृश्य जैसा है। इसी को यदि सूट किया जाए तो निश्चित ही बड़ा प्यारा दृश्य बनेगा।'

'अब यह तो आप जाने या मूवी वाले। मुझे तो इतना याद आ रहा है कि, ट्रेन रास्ते में और लेट होती चली गई इसलिए काशी समय से दो घंटे लेट पहुंची। वहां का भी स्टेशन मैं देखती रह गयी। टीवी पर आए दिन उसकी चर्चा सुनती रहती थी। वहीं पहुंचकर मैं खुशी से फूली नहीं समा रही थी। लग रहा था जैसे मैं कोई ख्वाब देख रही हूं। मुन्ना मेरी हालत समझ रहे थे। उन्होंने पूछा, 'कैसा लग रहा है?'

'बहुत-बहुत खूबसूरत है यह स्टेशन।'

कुली के साथ सामान लेकर हम स्टेशन से बाहर आए। टैक्सी करके उस गेस्ट हाउस पहुंचे जहां हमारे ठहरने का इंतजाम किया गया था। यूं तो हम काफी समय तक सोते हुए ही काशी पहुंचे थे। लेकिन नींद पूरी नहीं हुई थी। इसलिए नींद, थकान दोनों महसूस कर रहे थे। लेकिन हमारे मन मचल रहे थे, उस कार्यक्रम के बारे में सब जान-समझ लेने के लिए। इसलिए हम दोनों जल्दी से नहा-धोकर तैयार हुए।

एक होटल में गए, वहां की प्रसिद्ध कचौड़ी, मिठाई खाई और फिर जाकर कार्यक्रम के कर्ता-धर्ताओं से मिले। उनसे सारी बातें जानी-समझीं। कुल मिलाकर व्यवस्था अच्छी ही लगी। हम दोनों से कई कागज़-पत्रों पर दस्तखत कराए गए। फॉर्म भरवाए गए। फोटो खींचकर हमारे परिचय पत्र बनाए गए। उसे हमेशा साथ रखने के लिए कहा गया।

यह सब करते-करते तीन बज गए। अब-तक हमें भूख सताने लगी थी। एक होटल में जाकर खाना खाया और गेस्ट हाउस आकर सो गए। हमारे लिए अलग-अलग कमरों की व्यवस्था थी। लेकिन मैंने मुन्ना से साफ़ कहा कि, मैं अलग नहीं रहूंगी, तो उन्होंने कह-सुन कर एक कमरे में ही व्यवस्था करवा ली।

उसी समय वहां के इंचार्ज ने मुन्ना को बड़ी अर्थपूर्ण नज़रों से देखते हुए कहा, 'कमरों की कोई कमीं नहीं है, फिर भी कई लोग कमरे शेयर करने की जिद किये आ जा रहें हैं। मुझे क्या, मेरा काम आसान हो जा रहा है, लेकिन मीडिया वाले छाती पीटेंगे कि, आगंतुकों के लिए रुकने तक की व्यवस्था ढंग की नहीं की गई, आगंतुक कमरा शेयर करने को मज़बूर हो रहे हैं।'

वह मुंह में पान भरे अजीब से ढंग से बोले जा रहा था, पान की लाल धागे सी लाइन उसके दोनों होंठों के कोरों पर बन रही थी। हम दोनों उसका तंज़ समझते हुए भी अनसुना कर चले आये, मगर उसके तंज़ ने हमें एक सूचना भी दे दी कि, हम जैसे प्यार करने वाले वहां और भी आये हैं।

शाम करीब सात बजे हमारी नींद खुली। मुन्ना ने कहा, ' तैयार हो जाओ घूमने चलते हैं। कार्यक्रम का जो शिड्यूल मिला है, उससे तो लगता है कि, घूमने-फिरने का कभी समय ही नहीं मिल पायेगा। जब-तक मिलेगा, तब-तक थक चुके होंगे। यहां आकर सोने के सिवा और कुछ करने की इच्छा ही नहीं होगी।'

'अच्छा, यहांआकर केवल सोने का मन करेगा, इसके अलावा और कुछ नहीं।'

मैंने उन्हें छेड़ते हुए कहा, तो उन्होंने मेरा हाथ पकड़ कर कर अपनी तरफ खींचते हुए कहा, 'जो-जो कहोगी, वह सब भी करता जाऊँगा। सोने का ही हिस्सा मानकर करता जाऊँगा।' यह कह कर वह हंसे और सूटकेस बेड पर रखकर, अपने कपड़े निकाल कर पहनने लगे। साथ ही मुझे भी जल्दी चेंज करने को कहा। मैं समझ नहीं पा रही थी कि सलवार सूट पहनूं कि जींस।

अम्मी से नजर बचाकर बड़े शौक से जींस लेकर गई थी। उनका बड़ा खौफ था मन में कि उन्होंने जींस देख ली तो कोई आश्चर्य नहीं होगा कि, वह फिर मुझे अंधेरी कोठरी में बंद कर, इतने पर्दे चढा दें कि, सूरज की रोशनी भी मुझे छू ना सके। तब एक बार फिर मेरा सुर्ख बदन पीलिया के रोगियों सा पीला हो जाएगा, एकदम मुरझाया हुआ रोगिओं सा।

असमंजस में मैं जींस उठाती फिर छोड़ देती। सलवार को पकड़ लेती, मगर मन हाथ को जींस की तरफ बढ़ा देता। जींस पहनने का मेरा मन बहुत पहले से ही खूब होता था। घर में खिड़की से बाहर जब सड़क पर जींस पहनकर निकलती लड़कियों को देखती तो मन मचल उठता था। जी करता था कि, सारे खिड़की-दरवाजे तोड़कर निकल जाऊं। इन तितलियों की तरह मैं भी खूब खेलूं-उछलूं। अम्मी से कहूं कि मुझे भी दुनिया की और लड़किओं की तरह लिखने-पढ़ने, खेलने-कूदने दो। लेकिन पल दो पल नहीं पूरा बचपन, किशोरावस्था बीत गया। युवावस्था भी करीब-करीब बीतने को ही थी, परन्तु कभी इतनी हिम्मत ही नहीं जुटा पाई थी कि अपने मन की बात कहती अम्मी से।

बहनों से एक बार घुमा-फिरा कर बात उठाई थी। लेकिन उन सबने बात पूरी होने से पहले ही कहा, 'तेरा दिमाग फिर गया है क्या? अब्बू-अम्मी बोटी-बोटी काटकर घर में ही दफन कर देंगे। किसी को कानों-कान खबर तक नहीं होगी।' दोनों बहनें बात करने भर से ही पसीने-पसीने हो रही थीं। एक ने तो हाथ उठा लिया था मुझे मारने के लिए। फिर जाने क्या सोचकर रुकते हुए बोलीं, 'तेरे चलते हम सब भी काटे जाएंगे।'

मैं ख्यालों में खो गई। ऐसे, जैसे कि उन्हीं पुरानी बातों की कोई फिल्म चल रही है। जिसमें मैं हूं और मैं अपनी फिल्म देख रही हूं। मन मेरा बड़ा भारी होता जा रहा था। इसी बीच मुन्ना बोले, 'अरे, ऐसे चुप क्यों बैठी हो, तैयार हो ना।' तभी जींस देखते ही कहा, 'अरे वाह! पहले तो कभी तुम्हें जींस में देखा ही नहीं।'

'क्योंकि पहले कभी पहना ही नहीं। पहली बार खरीदा है।'

'अच्छा तो पहनो ना। देर क्यों कर रही हो? तुम्हारी अम्मी जींस देखकर तुम्हें कुछ बोली नहीं।'

'मैं भूलकर भी बता देती तो मेरी खैर नहीं थी। जींस पहन कर आती-जाती लड़कियों - औरतों को देखकर ही उनका गुस्सा सातवें आसमान पर हो जाता है। लानत भेज-भेज कर कहतीं हैं, पूरा-पूरा शरीर मालूम पड़ता है कि कहां क्या है। शरीर की चमड़ी की जगह कपड़ा चिपक जाता है बस। लेगी, जींस दोनों के लिए उनका यही कहना है।'

'तो अब तुम्हारा क्या ख्याल है। खरीद लिया, छिपाकर लाई भी हो। भाई, बहन, मां कोई यहां नहीं है, तो क्या करोगी, जैसे लाई हो, वैसे ही वापस लेती चलोगी?'

'यह बरसों की तमन्ना पूरी होने जैसा है। इसे पहनने को लेकर अम्मी ये बातें तब कहा करती थीं, जब मैं चौदह-पन्द्रह वर्ष की हुआ करती थी। तब से अब-तक हालात बहुत बदल गए हैं। इन बदले हालात ने अम्मी की सोच को भी बहुत बदल दिया है।

तब जींस पहनने पर मुझे भले ही जमीन में जिंदा गाड़ देतीं। लेकिन मुझे पूरा यकीन है कि आज वह अगर खुश नहीं होंगी तो मना भी नहीं करेंगी। बहुत होगा तो इतना ही कहेंगी कि, 'का बेंज़ी तुझे और कोई कपड़ा नहीं पसंद आया। तुम भी फैशन की दीवानी हो गई हो।' और तब अगर मैं कहूंगी कि, 'ठीक है अम्मी, तुझे नहीं पसंद है तो नहीं पहनुंगी।' तो कहेंगी, 'अरे मैंने मना थोड़ी ही किया है। जा, पहन लिया कर कभी-कभी।' जब पहली बार लेगी लेकर आई तो ऐसी ही बातें की थीं।'

'तोअब क्या सोच रही हो?'

'हूँ...कुछ नहीं, बस तैयार होती हूं।'

'जींस में ही या सलवार सूट में?'

'जींस में ही। जब अम्मी इतना बदल गई हैं, तो हमें भी तो दो-चार कदम आगे बढ़ना है।'

इतना कहकर मैंने गाऊन उतार कर जींस पहनी और उस पर खुद की डिज़ाइन की गई बिल्कुल सफेद रंग की स्लीवलेस चिकन की कुर्ती। जिस पर मैंने सामने टमी और ब्रेस्ट के पास हल्की कढाई की थी। कमर पर दो इंच चौड़ी एक डिज़ाइन थी। पानी में तैरती मछलियां। जो एक सिरे से दूसरे सिरे तक जा रही थीं।

स्ट्रेचेबल जींस मुझ पर बिल्कुल फिट थी। कुर्ती का गला मुझे लगा कि, कुछ ज्यादा ही बड़ा हो गया है। हल्की नीली जींस, सफ़ेद कुर्ती पर जब मैंने ब्लैक वैली पहनी, तभी मुन्ना मोबाइल पर अपनी बात खत्म कर मेरी तरफ मुड़े। मुझ पर एक नजर डाली। खुश होकर आंखें बड़ी करते हुए बोले, 'तुम तो हॉलीवुड की स्टार लग रही हो। वाकई बहुत खूबसूरत लग रही हो। जींस पर स्लीवलेस कुर्ती। यह स्टाइल मैं पहली बार देख रहा हूं। यह तुम्हारे दिमाग की उपज है या इसे कहीं और देखा था।'

'जब जींस लेकर आई और रात में अपने कमरे में पहन कर देख रही थी कि, मुझ पर कैसी लगेगी, उस समय कुर्ता पहना हुआ था। शीशे में देखकर मुझे लगा कि कुर्ता इस पर नहीं जंच रहा है। तभी दिमाग में आया कि, ऐसा कुछ बनाऊं जो कुछ ख़ास हो। बस ऐसे ही यह बन गई। स्लीवलेस चिकन कुर्ती। कहीं और पहले ऐसी कुर्ती बनी हो तो मैं कह नहीं सकती।'

'गुड। तुममें बहुत क्रिएटिविटी है। चलो अब चलते हैं। रास्ते में भी बहुत बातें करनी हैं।'

मैंने चलते-चलते अपने को शीशे में देखा कि ठीक लग रही हूँ कि नहीं। कहीं बेढंगी-फूहड़ तो नहीं लग रही हूं। लेकिन खुद को देखकर मन में यह आए बिना नहीं रहा कि, अच्छी तो लग रही हूं। जाँघों, छातियों पर नजर बार-बार टिक जा रही थी। छातियां जहां मुझे कुछ ज्यादा भारी लग रही थीं, वहीं जांघें थोड़ी मोटी नजर आ रही थीं। मैं हटने वाली थी शीशे के सामने से कि, तभी मुन्ना ने मेरे एक हिप्प पर अपनी मज़बूत हथेली की एक धौल जमाते हुए कहा, 'गॉर्जियस लग रही हो। लेकिन ब्यूटी क्वीन मुझे चिंता हो रही है।'

'अरे तुम्हें काहे की चिंता हो रही है। तैयार तो हूं।'

'यही तो चिंता हो रही है। बाहर सब मुड़-मुड़ कर तुम्हें ही देखेंगे। मुझे अच्छा नहीं लगेगा।' वो इस तरह मुंह बनाकर बोले कि, मुझे हंसी आ गई।

मुन्ना ने रोड पर आते ही एक रिक्शा कर लिया। जब उसने पूछा, ' कहां चलना है बाबू।' तो मुन्ना ने कहा, 'दादा इस शहर के बारे में हम ज्यादा नहीं जानते। बस थोड़ी देर घूमना है। जहां सही लगे ले चलो, और बताते भी चलो कि कहां से निकल रहे हैं। वहां क्या ख़ास है। पैसे की चिंता नहीं करना, जितना कहोगे उतना आपको दे देंगे।'

मुन्ना की यह बात मुझे कुछ अजीब लगी, लेकिन मैं कुछ बोली नहीं। रिक्शावाला बुजुर्ग और बहुत ही भला आदमी लग रहा था। अपनी ठेठ बनारसी में बोला, 'बाबू जी भोले बाबा जउन नसीब में हमरे लिखल हवई हमें मिल जाई। हम तोके कुछ बताउब ना।' उसके जवाब से मुझे लगा कि इसने कितनी बड़ी बात कह दी है। कितना संतोष है इसे। हम यहां पैसे के लिए जान दिए चले जा रहे हैं। पैसा, नाम मिल जाए इसके लिए बूढी अम्मी को अकेली छोड़ कर दस-पन्द्रह दिन के लिए यहां चले आए हैं। मुन्ना भी उसकी बात से इतना मुतासिर हुए कि उसे देखते रह गए। तो उसने कहा, बैइठल जाई बाबू। आपन जान तोंहे नीके-नीके जगहिंयां लई चलब।'

हमको लेकर वह गोदौलिया की तरफ चल दिया। हम वहां की मार्केट देखते रहे। मेरे दिमाग में अपने काम-धंधे की बात चलती रही। वह चौराहे पर थोड़ा ठिठक कर संकोच के साथ बोला, 'बाबू जी यह गोदौलिया चौराहा है। पत्थर का ऐइसन बनावट वाला खंभा और कहीं नहीं देख पाएंगे। एकदम ऊपर बैइठा हैं, नंदी बाबा। बाबा विश्वनाथ की ओर मुंह किए हैयन। गोदौलिया की जान हैं यह नंदी बाबा। जो इनको हाथ नहीं जोड़ता उसको भोले बाबा की कृपा नहीं मिलती। हम उस मूर्ति और खंभे की खूबसूरती को देखते रह गए। मूर्ति और पिलर दोनों ही वास्तुकला के खूबसूरत नमूना हैं। नंदी महाराज का तो जवाब ही नहीं है। मुन्ना ने पूछा और बाबा विश्वनाथ जी का मंदिर कितनी दूर है तो वह बोला, 'नजदीके बा। बस डेढ-दो सौ मीटर दूर। वहीं से खड़े होकर आप गंगा मैया के भी दर्शन कर सकते हैं।'

रिक्शावाला धीरे-धीरे चलता रहा, मुन्ना तरह-तरह की बातें पूछते रहे, वह बताता रहा। बिल्कुल प्रोफेशनल गाइड की तरह। खाने-पीने के मामले में भी उसकी अच्छी जानकारी थी। पूछने पर उसने बताया, 'बाबू जी नाश्ता में यहां की कचौड़ी-सब्जी, जलेबी का अपना ही मजा है। ऐसा स्वाद ना घर पर मिलेगा, ना यहां के बड़े-बड़े होटलों में। शाम को समोसा और लवंगलता का तो कोई जवाब नहीं है।'

मैं लवंगलता समझ नहीं पाई। मुन्ना से पूछा तो उन्हें भी कोई सही जानकारी नहीं थी। वह कुछ बोलते, उसके पहले ही वह बोला, 'बिटिया लवंगलता बहुत बढिया मिठाई है। खोआ, मैदा और शक्कर की चासनी से बनती है। इस समय तो नाश्ते में यही सब चलता है। आप लोगों का मन हो तो कहिए किसी दुकान पर ले चलें।' मेरा मन देखकर मुन्ना ने कह दिया किसी अच्छी दुकान पर चलने के लिए।

बेनज़ीर रिक्शेवाले की बातें कशिका बोली में बता रहीं थीं, तो बोली समझने में मुझे कुछ असहजता महसूस हो रही थी। मैंने एक-दो बार बातें रिपीट करवायी तो, बेनज़ीर ने कहा, 'आप ठहरे खड़ी बोली वाले, आगे मैं आपको उसी में सारी बताऊँगी। मैं तो यहाँ की उस बोली में रच-बस गई हूँ जिसमें वह बोलता था।'