14.
नर्मदा नदी की शीतल लहरों को किसना एकटक खिड़की से देख रहा था। शायद उसके भीतर भावनाएं और शंकाएं भी इन्हीं लहरों-सी शीतल और शांत हो गई थी। न तो उनमें में किसी के प्रति राग था और न ही द्वेष। अतीत की घटनाओं में शोषकों के लिए क्षमादान था और अपने लिए पश्चाताप नर्मदा का विराट और सौम्य रूप उसे इलाहाबाद के संगम की याद दिला गया और उसे याद आए गुजरे कल के सुनहरे बचपन के दिन जब अम्मा सुरसतिया और बंगाली मां के साथ साइकिल -रिक्शे पर सवार हो, वह प्राय: संगम में स्नान के लिए जाया करता था। दोनों मां का हाथ अपनी नन्ही उंगलियों से थामें वह उछल -उछलकर डुबकियां लगाता। बड़ा ही आनंद आता उसे उन लहरों के साथ खेलते हुए। फिर घाट पर बैठे पंडे-पुजारी उसके मस्तक पर चंदन का गोलाकार टीका लगा दिया। संगम पर उनके साथ जाने की जिद करने का एक अहम कारण था फालूदा कुल्फी। साल के पत्ते के बने उन छोटे-छोटे दोने को वह चाट-चुटकर एकदम साफ कर दिया करता था और अम्मां उसके हाथों में रंगबिरंगे फूले हुए गुब्बारे की डोर थमा दिया करती थी। रस्ते भर रिक्शे में उनकी गोदी में बैठे वह गुब्बारेवाला हाथ ऊपर उठाए एरोप्लेन-एरोप्लेन चिल्लाता हुआ घर लौटता। 'न जाने अम्मा किस हाल में होगी बेचारी।' कई बार मन हुआ नूरा के साथ जाकर जीवन की बची चंद घड़ियां संगम किनारे बिता दे, लेकिन फिर अम्मा के बारे में सोचकर इच्छाओं का दमन कर देता, क्योंकि वह जानता था कि बेटे कि यह हालत देखकर वह अभागन जीते-जीत मर जाएगी।
किसना को इस अस्पताल में आए हुए अभी एक सप्ताह ही हुआ था। बड़ी मदद की थी नूरा ने उसकी। फ्लैट और अन्य सामान बेचकर जो रकम आई थी, उसका दो तिहाई हिस्सा अम्मा के नाम करवा, बाकी का हिस्सा अस्पताल को दान में दे दिया।
न जाने क्यों फाल्गुनी को मासूम आंखोंवाले इस युवक से इतना स्नेह हो गया था। उसे खिड़की के पास बैठकर नर्मदा नदी को टकटकी बांधे देखते हुए फाल्गुनी पूछ बैठी, "क्यों किसना भाई क्या सोच रहे हो तब से ?" फाल्गुनी की ताजे गुलाब-सी मुस्कान देखकर वह भी खिल उठा।
"अरे दीदी, आप कब आईं। ये लो मुझे पता ही नहीं चला। चलो अच्छा हुआ जो आपसे मुलाकात हो गई। अच्छा दीदी क्या मुझे कुछ कागज और एक कलम मिलेगा ?”
"हां, हां, क्यों नहीं। अभी मंगवा देती हूं, पर हम भी तो सुने कि हमारा भइया कौन-सी रामायण लिखना चाहता है ?" फाल्गुनी ने स्नेह से पूछा तो किसना कुछ सोचते हुए गालों पर उंगलियां रखकर कहने लगा---
"दीदी सोच रहा हूं कविताएं लिखूं। यूं ही खाली बैठे-बैठे उकता जाता हूं।"
अर्रे वाह ! क्या बात है ! तो हमारे किसना भइया कविताएं भी लिखते हैं।" फाल्गुनी की इस टिप्पणी पर किसना झेंप गया।
"हां ! स्कूल के दिनों में बड़ा शौक था कविता लिखने का। तो बस यूं ही कुछ लिख लेता हूं। सुनोगी एक-आध पंक्ति ?" फाल्गुनी बड़े अच्छे मूड और फुर्सत में थी।
"जरूर सुनेंगे, इरशाद।" शायराना अंदाज़ में सलाम करते हुए फाल्गुनी के इरशाद को सुन किसना मुस्कराए बिना न रह सका। गला साफ करके किसना ने कविता पाठ शुरू किया---
जीवन के इस झरोखे में, कोटरें अनेक हैं,
कहीं दशा, दिशा कहीं, द्वार किंतु एक है।
चटकती चांद-छाहं में, प्रेम की पिपास है,
स्याह-सूनी रात में, मृत्यु का परिहास है।
कहीं पे भूख कहीं है प्यास, तूफान का कहीं आभास,
मृत्यु के आगोश में, जीने की आंखों में है आस ....
फाल्गुनी ऐसी अद्भुत कविता को सुनकर ठगी रह गई। ओह ! कितनी व्यथा है। मानो होनी ही टूटती सांसों को पुन: जोड़ने के प्रयास में यह कविता लिखी गई हो। वह तड़पकर कहने लगी-किसना ! जाना तो हम सभी को पड़ेगा यह एक सत्य है, परंतु तुम इसी प्रकार वर्तमान के प्रत्येक क्षण की बुझती हुई चिंगारी को अपने हौंसलें की हवा देते रहो। शाबाश किसना, तुम्हारी जिंदादिली को सलाम।
दिन गुजरते चले गए और फाल्गुनी अपने इर्द-गिर्द बुझते दीपकों में निरर्थक तेल डालने का प्रयास करती रही। अस्पताल के पुस्तकालय में साहित्य से लेकर दर्शनशास्त्र और विज्ञान से लेकर धर्म तक, सभी प्रकार की पुस्तकें उपलब्ध थीं। पढ़ने के शौकीन रोगी इन्ही पुस्तकों में स्वंय को डुबोकर कुछ क्षणों के लिए अपनी पीड़ा को भूल जाया करते थे।
किसी-किसी दिन सूर्यास्त के समय फाल्गुनी और स्मारक पैदल चलते हुए नर्मदा के तीर पर निकल जाते थे। उस दिन भी दोनों ठंडी रेत पर बैठकर अस्त होते सूरज की सिंदूरी लालिमा निहार रहे थे।
पति को अपनी ओर टकटकी बांधें देखते हुए फाल्गुनी ने लजाते हुए पूछा, " ऐसे क्या देख रहे हो ?"
स्मारक ने एक दीर्घ नि:श्वस फेंकते हुए कहा, " फाल्गु तुम्हारा नाम भी रेवा होना चाहिए था।"
मगर जानती हो नर्मदा नदी का एक और नाम है 'रेवा'। बहुत काम लोग जानते हैं। तुम भी तो इस रेवा की तरह ही हो। सबके दुःख-दर्द, व्यथा को अपने भीतर समेट लेती हो, ठीक इसके भंवर की तरह और बदले में देती हो स्नेह, वातसल्य और सहानुभूति। इसकी लहरों की तरह। "
पति की बातें सुनकर का भावुक हो उठी। रेत पर आड़ी-तिरछी लकीरें खींचती फाल्गुनी के हाथ रुक गए, पर दृष्टि को अब भी नर्मदा की विशाल छाती पर टिकाए हुए बोल उठी ----शायद कुछ ज्यादा ही तारीफ कर रहे हैं आप, किंतु 'रेवा' तो मौसम के साथ-साथ अपना मिजाज भी बदलती है। अभी जिस रेवा यानी नर्मदा का सौम्य रूप तुम देख रहे हो, ये आनेवाले झंझवात में उसके साथ लड़ने के लिए कभी-कभी रौद्र रूप भी धारण करती है, लेकिन आप क्यों मुझे "फाल्गु" कह कर संबोधित करते हैं, वह नाम ही अधिक सार्थक है, क्योंकि अंत:सलीला फाल्गु निर्विकार, निर्भाव है। अपनी समस्त भावनाएं, चाहे हर्ष हो अथवा विषाद की उन्हें भीतर ही प्रवाहित करती है। मौन धारण किए हुए धरती की सतह पर फेंककर शांत लहरों का उस पर कोई आदिपत्य नहीं।" कहते हुए वह सचमुच अंत:सलीला की तरह मौन हो गई। स्मारक एक कंकड़ नर्मदा की सतह पर फेंका शांत लहरों में किंचित हलचल पैदा करते हुए कहने लगा, " जानता हूं कितने ही वर्षों से तुम्हें देख जो रहा हूं। तुम्हारे अंत:सलीलावले रूप को अब छोड़ना पड़ेगा फाल्गु और रेवा का रूप धारण करना होगा। अपनी भावनाओं को छुपाओ मत, उन्हें मुक्त होकर बहने दो, नहीं तो घुट-घुटकर मर जाओगी। फाल्गुनी ने उठते हुए केवल इतना कहा, "सह सकोगे ?"
अस्पताल के विशाल डाइनिंग हॉल के सारे साथी डॉक्टर इकट्ठे खाना खाते थे। उस दिन भी लंच समाप्त कर सब हंसी-मजाक कर रहे थे कि तभी सिस्टर मार्था हांफते हुए आई, " सॉरी टू डिस्टर्ब यू ऑल। पेशेंट किसना ऑफ वार्ड नंबर फोर इज नॉट रिस्पॉन्डिंग। ( क्षमा चाहती हूं, चार नंबर वार्ड के पेशेंट किसना की कोई प्रतिक्रिया नहीं है ) लगभग सारे डॉक्टर दौड़ते पहुंचे। अनिष्ट की आशंका से फाल्गुनी का दिल धड़क उठा।
किसना की सांसें उखड रही थीं। पीड़ा से उसका गोरा मुखड़ा स्याह हो चला था। स्मारक उसे कृत्रिम सांस देने का प्रयत्न कर रहा था, किंतु सब व्यर्थ। उसकी निरीह दृष्टि फाल्गुनी पर टिकी हुई थी। उस दृष्टि में वेदना के साथ अनुनय था, मानो चाह रही-हो दीदी, मेरी कविताओं को छपने का वादा किया है आपने, उसे भूलना मत।
फाल्गुनी ने कांपते कंठ से श्रीमद भागवदगीता के श्लोक का उच्चारण किया ----
"नैनं छिन्दन्ति ...
परंतु श्लोक के समाप्त होने के पहले ही किसना के प्राण उसकी सूंदर मासूम आंखों को चीरकर मोक्ष के अनंत पथ पर चल दिए।
सामन्य प्रवाह की निर्धारित और वर्जित रेखा को लांघने का जो दुस्साहस उस अबोध युवक ने किया था। आज उसका प्रतिशोध नियति ने उसे मृत्युदंड देकर ले लिया। पंडित को बुलाकर हिंदू धर्म के साथ उसकी अंतिम क्रिया कर दी गई। बहुत देर तक नर्मदा किनारे जल रही चिता पर उसकी निर्जीव काया की अस्थियों के चटकने की आवाज़ मौन वादियों में गूंजती रही।
रो-रोकर फाल्गुनी की आंखें सूज गई थीं। उस अनाथ-अभागे किसना से वह एक स्नेह और माया की डोर से अंजाने में बंधती चली गई थीं। जिंदगी भागती रहती है मनुष्य के पीछे और अबोध मनुषय भौतिक सुखों के पीछे पागलों-सा भागता रहता है तमाम उम्र और अंत समय में समस्त भौतिक सुखों से उकताकर जब वह जिंदगी की पनाह लेना चाहता है, तब भागती जिंदगी की सांसें उखड़ने का वक्त आ जाता है। मृत्यु को इतने करीब से रोज देखकर फाल्गुनी अंदर से टूटती चली गई। सुबह से बिना अन्न-जल ग्रहण किए फाल्गुनी केवल विलाप करती रही। स्मारक के स्नेह स्पर्श से वह चौंक गई। उसके कंधों को वह अपनी बाहों का सहारा देकर ले जाने लगा।
"चलो फाल्गु, अब कुछ खा लो। उसे तो जाना ही था। कितनी तकलीफें और दर्द झेल रहा था। चला अच्छा ही हुआ जो वेदनाओं से उसे मुक्ति मिली गई। " कहते हुए स्मारक ने ढ़ढास बंधाने की कोशिश की और आज प्रथम बार पति के कंधें पर सिर रखकर फुट-फुटकर रोइ फाल्गुनी। आसुओं के बह जाने से अब उसका जी हल्का था।
देश -विदेश तक अस्पताल की सुख्याति फैलती चली गई। अन्य फाइव स्टार अस्पतालों की तरह पैसा कमाना उनका उद्देश्य नहीं था।
डॉ स्मारक की प्रसिद्ध और प्रतिभा को आकाश ऊंचाइयों तक पहुंचाने देखकर सबसे अधिक फाल्गुनी को ख़ुशी थी। इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट मीडिया उसे हमेशा घेरें रहते और स्मारक हर बार मीडिया में अपनी कामयाबी का श्रेय पत्नी को देने में उदार रहता। अति व्यस्तता के कारण मायका जाना छूट गया था उसका। परंतु उस दिन विदेशी टिकट लगा लिफाफा खोला तो देखा उसकी अंतरंग सखी जोगिया का पुत्र था कनाडा से और उसे तीव्रता के साथ मायके की याद आई। जोगिया का पिछले वर्ष ही एक प्रवासी भारतीय हीरा व्यापारी से विवाह हुआ था। उसके विवाह में ना जा पाने के कारण कितनी रूठ गई थी जोगिया, लेकिन फाल्गुनी जानती थी उस प्यारी सखी का स्वभाव। अभी रूठी और अभी मान भी गई।
पत्र क्या था,नई नवेली की अंतरंग रातों का अध्याय था। बाप रे ! ये जोगिया भी ना ! मुंह जली ने कितनी बेशर्मी से अपने आपको उधेड़ दिया, लेकिन पत्र को पूरा पढ़ने का लोभ भी संवरण नहीं कर पा रही थी फाल्गुनी। एक-एक शब्द को पढ़ती जाती और कपोल-कान तक सुर्ख होते जाते। तभी चुपके से स्मारक पीछे आकर खड़ा हो गया। वह जोगिया की प्रणय लीला पढ़ने में इतनी खो गई थी कि पति की उपस्थिति का अहसास ही नहीं हुआ।
"क्या पढ़ा जा रहा है इतने ध्यान से ?" पति की आवाज सुनते ही वह बेचारी घबरा गई, मानो उसकी चोरी पकड़ी गई हो।
"जी.... वो मेरी सहेली जोगिया है ना ! उसकी चिट्ठी है। आपको भी शुभकामनाएं भेजी हैं।"
फाल्गुनी सकपकाते हुए बोली, तो स्मारक ने हाथ बढ़ाकर कहा, " तो लाओ हम खुद ही पढ़ लेते हैं। सालीजी का संदेश।" फाल्गुनी ने घबराते हुए पत्रवाला हाथ पीछे कर लिया। पति से आंख मिलते उसकी पलकें लाज से झुख गई। स्मारक के बाहर जाते ही फाल्गुनी ने विवशता से एक लंबी सांस भरी, क्योंकि वह जानती थी कि उसे तो समंदर के किनारे आजीवन प्यासी ही रहना था।
कभी-कभी वह एड्स पीड़ित फौजियों के लाम के किस्से सुनती। किस बहादुरी से पडोसी मुल्क के दुश्मनो को गोलियों से भून दिया करते थे और दुर्गम चढ़ाइयों, बीहड़ जंगल में कैसे वे कई दिनों तक भूके-प्यासे घूमते थे और वही जाबांज सिपाही आज एड़ियां रगड़कर मरने को विवश इस टर्मिनेशन वार्ड में पड़े थे।
फाल्गुनी जैसी भावुक श्रोता पाकर वे उन दिनों के किस्से सुनाने को उतावले हो उठते थे, जो आज मात्र हसीन सपनो में परिवर्तित हो टूट चुके थे। अपने गांव, खेतों और पहाड़ों की यादें, घरों-परिवारों की खट्ठी-मीठी बातें, सभी कुछ अपनी फाल्गुनी दीदी को सुनाकर कुछ खूबसूरत लम्हों को अतीत से चुरा लेने में बड़ा आनंद आता उन्हें।
" ओह ! कितनी जीने की लालसा है, कैसी छटपटाहट है इनको भीतर और किस शिद्द्त से मौत की कसमसाहट से छूटना चाहते है, ये सिपाही।" फाल्गुनी इन्हीं बातों को सोच-सोचकर अक्सर अपनी नींद गंवा देती और करवटें बदल-बदलकर यूं ही रात बीतती चली जाती। दिन-प्रतिदिन सिलसिलेवार।