मानस के राम
भाग 32
विभीषण द्वारा रावण को समझाना
रावण जब अपने दरबार में पहुँचा तो उसे गुप्तचरों द्वारा सूचना दी गई कि राम एक विशाल वानर सेना के साथ समुद्र तट पर आ चुके हैं। इस सूचना को सुनकर रावण जोर से हंस कर बोला,
"समुद्र तट तक आ चुके हैं। पर समुद्र पार कर लंका कैसे पहुँचेंगे ? कितने दिनों तक समुद्र के किनारे डेरा डाले रहेंगे ? मान लो कि अगर किसी तरह लंका तक पहुँच भी गए तो राक्षसों का भोजन ही बनेंगे। जब सुर असुर मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते हैं तो नर और वानर की गिनती ही क्या है।"
रावण के दरबार में उपस्थित सभी मंत्रीगण उसकी जय जयकार करने लगे। उन्होंने रावण की बात का समर्थन करते हुए कहा कि रावण के वर्चस्व को चुनौती देना मूर्खता है। जैसे जलते हुए दीपक की लौ की तरफ बढ़ने वाला पतंगा जल कर नष्ट हो जाता है उसी प्रकार राम और उसकी वानर सेना रावण के प्रताप के आगे अधिक समय तक टिक नहीं पाएगी। सबसे बड़ी बात तो यह है कि सागर पार करके लंका आना ही उनके लिए संभव नहीं होगा। यदि आ भी गए तो रावण की सेना के पराक्रमी योद्धा कुछ ही समय में उन्हें धूल चटा देंगे।
दरबार में रावण के भाई विभीषण भी उपस्थित थे। मंत्रीगणों को इस प्रकार चाटुकारिता करते हुए देखकर उन्हें दुख हुआ। जिन मंत्रियों को अपने राजा को सही मार्ग दिखाना था वह उसे कुमार्ग की तरफ ढकेल रहे थे। रावण उनकी स्तुति सुनकर फूला नहीं समा रहा था। विभीषण जानते थे कि यह राक्षस जाति के विनाश की तरफ बढ़ाया गया एक कदम है। वह अपने कुल का नाश नहीं देख सकते थे।
विभीषण अपने आसन से उठे और हाथ जोड़कर विनम्र भाव से अपने भाई रावण से बोले,
"महाराज मैं आपका अनुज हूँ। इस नाते से मैं आपके हित की बात करूँगा। कई बार हित में कही गई बात ह्रदय को अच्छी नहीं लगती है। उसी प्रकार जैसे एक कड़वी औषधि जीभ को तो नहीं भाती है किंतु शरीर पर अपना अनुकूल प्रभाव दिखाती है।"
विभीषण की बात सुनकर रावण ने कहा,
"तुम कहना क्या चाहते हो ? स्पष्ट रूप से अपनी बात कहो।"
विभीषण ने एक बार फिर रावण को हाथ जोड़कर प्रणाम किया। उसके बाद कहा,
"लंका पर जो विपदा आई है आपके मंत्री उसका सही आकलन नहीं कर रहे हैं। वह सब वही बातें कह रहे हैं जो आपको अच्छी लगें। किंतु वास्तविकता यह है कि हनुमान ने लंका का दहन कर आने वाले विनाश का संकेत दे दिया था। लंका नगरी को पुनः बसाने के लिए हमें कितना परिश्रम करना पड़ा। अतः सही तो यह है कि आप उस छोटे से विनाश से सबक लेकर अपनी भूल का सुधार करें। सीता को सुरक्षित और सम्मान के साथ श्री राम के पास पहुँचा दें।"
विभीषण की बात सुनते ही रावण क्रोध में बोला,
"मूर्ख स्वयं को मेरे भाई कहता है। कह रहा था कि मेरे हित की बात करेगा। किंतु बोली शत्रु की बोल रहा है।"
विभीषण ने उसी प्रकार विनीत भाव से कहा,
"मैंने पहले ही कहा था कि हित की बात कई बार बुरी लगती है। लेकिन उसे मान लेना ही उचित होता है। आप भले ही मुझसे रुष्ट हो जाएं। किंतु आपके हित की बात मैं अवश्य करूँगा। मैं इन उपस्थित मंत्रीगणों की तरह वह नहीं कहूँगा जो आप सुनना चाहते हैं। मेरी बात मानिए सीता को श्री राम के पास पहुँचा कर उनसे क्षमा मांग लीजिए। इस तरह आने वाली विपत्ति को टाल दीजिए।"
रावण ने दंभ से कहा,
"मैं लंकापति रावण जिसका डंका तीनों लोकों में बजता है वह उस साधारण वनवासी नर से क्षमा मांगे। वह भी इसलिए क्योंकी मैं उसकी स्त्री को राजसी सुख देने के लिए लंका ले आया। जबकी वह वनवासी अपनी स्त्री को केवल वनों के कष्ट ही दे सकता था। यह कैसी मूर्खता पूर्ण बात है।"
विभीषण ने उत्तर दिया,
"सर्वप्रथम तो किसी पराई स्त्री पर कुदृष्टि डालना ही पाप है। फिर उसकी इच्छा के विरुद्ध उसका हरण करना उससे भी बड़ा पाप है। आप जिन श्री राम को साधारण वनवासी नर मानते हैं वह स्वयं भगवान विष्णु के अवतार हैं। पुलत्स्य ऋषि ने यह संदेश भिजवाया है। इसलिए मैं आपसे हाथ जोड़कर निवेदन करता हूंँ कि सीता उनके पति के पास भिजवा कर क्षमा मांग लें।"
दरबार में माल्यवंत भी उपस्थित थे। उन्हें विभीषण की बात उचित जान पड़ी। उन्होंने खड़े होकर कहा,
"महाराज आपके अनुज विभीषण सही कह रहे हैं। यही उचित होगा कि सीता को उनके पति के पास पहुँचा कर विनाश को रोक लिया जाए।"
पहले विभीषण उसके बाद माल्यवंत की बात सुनकर रावण का क्रोध आसमान छूने लगा। उसने गरज कर आदेश दिया,
"इन दोनों धृष्ट लोगों को मेरे दरबार से निकाल दिया जाए। मेरे अधीन रहते हुए भी दोनों शत्रु का पक्ष ले रहे हैं।"
रावण की बात सुनकर माल्यवंत ने कहा,
"महाराज सचिव, वैद्य और गुरु की सलाह यदि अच्छी ना भी लगे तो मान लेनी चाहिए। कड़वी लगते हुए भी इनकी बातें हितकारी होती हैं।"
यह कहकर माल्यवंत दरबार से चले गए। लेकिन विभीषण अपने बड़े भाई को सही राह दिखाना चाहते थे। उन्होंने आगे कहा,
"महाराज एक छोटी सी चिंगारी पूरे वन को जलाकर राख कर सकती है। इसी प्रकार एक छोटी सी भूल पूरे कुल के विनाश का कारण बन सकती है। इसलिए उचित यही है कि समय रहते अपनी भूल का प्रायश्चित कर लिया जाए।"
रावण ने कहा,
"दुष्ट तू इसी समय यहाँ से चला जा। अन्यथा अपने विनाश का कारण बनेगा।"
रावण के क्रोध की परवाह किए बिना विभीषण उसके सिंहासन के पास जाकर हाथ जोड़कर उसे समझाने लगे। लेकिन अपने अभिमान में चूर रावण को यह बात अच्छी नहीं लगी। उसने विभीषण को लात मारकर कहा,
"तू मेरी दया पर पलता है किंतु मेरे शत्रु का पक्ष लेकर मुझे नीचा दिखाने का प्रयास कर रहा है। रहता लंका में है किंतु हित उन वनवासियों का देख रहा है। इसी समय लंका से चला जा।"
विभीषण समझ गए कि अपने अहंकार के आधीन रावण अपने हित की बात नहीं समझेगा। उसका हितैषी होने के नाते विभीषण ने अपना दायित्व निभाया था। लंका छोड़ने से पहले विभीषण ने कहा,
"जब विनाश निकट आता है तो अहंकार व्यक्ति के विवेक पर अधिकार कर लेता है। ऐसा होने पर अपना हित समझ नहीं आता है। आपके विवेक पर अहंकार आच्छादित हो गया है। इसलिए आप बढ़ते हुए विनाश को पहचान नहीं पा रहे हैं।"
विभीषण के साथ उनके कुछ समर्थक मंत्रियों ने लंका को त्याग दिया।
विभीषण का राम के पास आना
समुद्र तट पर पहुँचने के बाद राम ने उस विशाल जलराशि को देखा जो सीता और उनके बीच एक बाधा बनकर फैली हुई थी। बिना समुद्र पार किए लंका पहुँचना संभव नहीं था।
यह तय हुआ कि जब तक समुद्र पार करने की कोई युक्ति नहीं निकलती है तब तक सेना वहीं पर पड़ाव डालकर आराम करे।
सीता की सूचना मिल जाने के बाद से ही राम के लिए धैर्य रखना कठिन हो रहा था। उन्हें हनुमान द्वारा सीता ने जो संदेश भिजवाया था वह याद आ रहा था। सीता ने कहा था कि अब उनके लिए प्रतीक्षा करना कठिन हो रहा है। राम शीघ्र आकर उन्हें ले जाएं। राम का मन अब सीता को रावण की कैद से मुक्त कराने के लिए छटपटा रहा था।
लक्ष्मण अपने बड़े भाई राम के दुख को समझ रहे थे। उनके चरण दबाते हुए उन्होंने पूँछा,
"भ्राता श्री अब दुख का क्या कारण है ? हम लोग शीघ्र ही भाभी श्री सीता को उस रावण के चंगुल से आजाद करा लेंगे।"
राम ने कहा,
"अब सीता के विषय में सोचकर मेरा ह्रदय पीड़ा से भर उठता है। हनुमान ने बताया कि किस तरह वह उन राक्षसों के बीच रहकर एक एक दिन कठिनाई से काट रही है। अब तुम ही बताओ कि ऐसे में मैं धीरज कैसे रखूँ। मैं चाहता हूँ कि जल्दी से जल्दी उसके पास पहुंँच कर उसे उसके कष्टों से मुक्त कर दूँ।"
राम के हृदय की पीड़ा उनकी वाणी में झलक रही थी। वह आगे बोले,
"जब रावण सीता का हरण कर ले जा रहा होगा तब उसने अवश्य मुझे सहायता के लिए पुकारा होगा। परंतु मैं उसकी सहायता के लिए नहीं आ सका। अभी भी वह रावण की अशोक वाटिका में बैठकर मेरे आने की प्रतीक्षा कर रही है। मैं इतने पास आकर भी उस तक नहीं पहुंँच पा रहा हूंँ। यह सोच कर मेरा कलेजा फटा जा रहा है। अब इस समुद्र को लांघकर शीघ्रातिशीघ्र लंका पहुँचना होगा।"
सागर तट पर पहरा देते हुए वानरों ने देखा कि आकाश मार्ग से कुछ लोग समुद्र तट की ओर बढ़ रहे हैं। वानर सावधान हो गए। उन्हें लगा कि अवश्य ही यह रावण के भेजे हुए लोग हैं। उन्होंने जाकर अपने महाराज सुग्रीव को इस बात की सूचना दी।
सुग्रीव ने देखा की लंका की तरफ से पाँच आकाश मार्ग से उनकी तरफ आ रहे हैं। सुग्रीव ने कहा,
"अवश्य ही यह लोग रावण द्वारा भेजे गए हैं। इन्हें तट पर आने दो। उसके बाद से पूँछताछ करते हैं।"
समुद्र तट के पास पहुंँचकर विभीषण ने बिना नीचे आए आकाश से ही अपना परिचय दिया। उन्होंने कहा,
"मेरा नाम विभीषण है। मैं लंका के राजा रावण का छोटा भाई हूँ। मेरे बड़े भाई रावण ने श्री राम की पत्नी सीता का हरण कर पाप किया था। मैंने अपने भाई रावण को समझाने का प्रयास किया कि वह सीता को वापस कर श्री राम से क्षमा मांग लें। किंतु अभिमान में चूर मेरे भाई ने मेरी बात नहीं मानी। मुझे अपमानित करके लंका से निकाल दिया। अब मैं श्री राम की शरण में आया हूँ। आप कृपया मेरा यह संदेश श्री राम तक पहुंँचा दीजिए।"
विभीषण और उनके साथी नीचे उतर आए। उन्हें वानरों के संरक्षण में छोड़कर सुग्रीव इस बात की सूचना देने के लिए राम के पास गया।
सुग्रीव को विभीषण की बातों पर भरोसा नहीं हुआ। उसने जाकर राम को बताया कि लंका के राजा रावण का अनुज विभीषण उनसे भेंट करने के लिए आया है। सुग्रीव ने कहा,
"वह कह रहा है कि वह सब कुछ छोड़कर आपकी शरण में आया है। किंतु राक्षसों पर इस प्रकार विश्वास करना ठीक नहीं है। अतः आप इस विषय में सोचकर अपना उत्तर दें।"
राम ने कहा,
"विभीषण ने कहा है कि वह सब कुछ त्याग कर मेरी शरण में आए हैं। जो शरण में आए उसे मना करना अच्छी बात नहीं है। आप जाकर उन्हें आदर सहित ले आइए।"
सुग्रीव के मन में संशय था। उसने कहा,
"नीति यही कहती है कि शुत्रुदल से यदि कोई आए तो उस पर बिना सोचे समझे भरोसा नहीं करना चाहिए। मुझे तो लगता है कि रावण के छोटे भाई विभीषण का इस तरह आना उनकी कोई चाल है। रावण ने ही जानबूझकर अपने छोटे भाई विभीषण को उसके साथियों के साथ इस उद्देश्य से भेजा है कि वह यहाँ रहकर हमारी सारी गतिविधियों पर नजर रख सकें। मुझे तो लगता है कि विभीषण और उसके साथियों को बंदी बनाकर उनसे सारी बातें जान लेनी चाहिए।"
राम ने कहा,
"मित्र सुग्रीव आपने जो बात कही है वह सर्वथा उचित है। किंतु मैं भी अपनी शरण में आए हुए व्यक्ति पर संशय नहीं कर सकता हूँ। उचित तो यही होगा कि पहले उनसे बातचीत करके इस बात का अनुमान लगाया जाए कि वह सचमुच मेरी शरण में आए हैं या जैसा कि आपने कहा है हमारी जासूसी करने के लिए आए हैं। यदि आपकी बात सत्य साबित हुई तो अनुज लक्ष्मण क्षण भर में विभीषण और उसके साथियों का अंत कर देगा। अतः आप चिंता ना करें। जाकर उन्हें यहाँ ले आएं।"
राम की बात मानकर सुग्रीव विभीषण और उनके साथियों को लेने के लिए समुद्र तट के किनारे गए।