भाग - १७
मेरी इस लापरवाही को अम्मी निश्चित ही मेरी बदतमीजी ही समझ रही होंगी। सीधे-सीधे यही कह रही होंगी कि, 'बेंज़ी अब पहले वाली बेंज़ी नहीं रही। कैसा सब अपनी मनमर्जी का किये जा रही है। चौदह-पन्द्रह दिनों के लिए इतनी दूर जाने के लिए जोर लगा रही है। लेकिन एक बार भी नहीं कहा अम्मी तू खायेगी- पियेगी कैसे? कौन देखभाल करेगा?' यह सब सोचकर मैं अपनी जान बड़ी सांसत में पा रही थी। लेकिन जाने की जिद ऐसी थी कि मैं मसले का हल निकालने के लिए तड़पने लगी। ऐसे जैसे कि, पानी से कोई मछली बाहर आ गिरी हो या कोई सिर कटी मुर्गी तड़फड़ा रही हो।
अंततः मैंने खाने का हल निकाला कि मोबाइल पर खाना ऑर्डर करके पहुंचवा दिया करूंगी । दिन में तो सिलाई-कढाई करने वाली लड़कियां रहतीं हैं। बस बात रात भर की है। अचानक ही ज़ाहिदा का ध्यान आया कि, यह तो दूसरे-तीसरे दिन ही शाम को मियां के साथ घंटे, दो घंटे को घूमने जाती है। बाकी समय घर पर ही रहती है। कह दूंगी कि काम-धंधे के चलते जाना पड़ रहा है। इसलिए अम्मी का बस दो हफ्ते ख्याल रखे। लेकिन अगले ही पल फिर असमंजस में पड़ गई कि कैसे कहूं, आज तक तो इससे कभी खुलकर दुआ-सलाम भी नहीं हुई।
अम्मी भी इसे ज्यादा पसंद नहीं करतीं। दूसरे कहने पर यह दुनिया भर की बातें पूछेगी। आप कहां जा रही हैं? क्यों जा रही हैं? किसके साथ जा रही हैं? वो भी इतने दिन के लिए। और तब मैं जो भी बताऊँगी उसे यह मिर्च-मसाला लगा कर मोहल्ले भर में बताती भी फिर सकती है। हालांकि मोहल्ले में किसी से सीधे मुंह बात भी नहीं करती। लेकिन क्या पता यह बात इसके लिए गपशप करने का बढियाँ सबब बन जाए।
बाराबंकी में इनाम मिला तो मोहल्ले से कितने लोग आए, मगर ये दोनों नहीं आए। भूलकर भी नहीं आए और ना ही मुबारकबाद दी। घर से निकली तक नहीं। इसको अपने हुस्न का गुरुर तो माशाअल्लाह गज़ब का है ही। अपने हुस्न पर इतनी ऐंठ है कि निगाह ही नहीं मिलाती। मियां भी बेगम को जन्नत की हूर से कम नहीं समझता। जब-तक रहता है कमरे में, तब-तक बेगम को लिए घुसा रहता है। दिन हो या रात बेहया-बेगैरतों की तरह चुम्मा-चाटी से ही फुर्सत नहीं पाता। ना जाने कैसी-कैसी आवाज़ें करते रहते हैं दोनों।
दुनिया भर की इधर-उधर की बातें सोचते-सोचते मेरा दिमाग बिल्कुल भनभना उठा तो सोचा, चलो कल एक बार बात कर ही लेते हैं। शायद बात बन ही जाए। देखें इस समय यह पूरा घमंडी कुनबा क्या कर रहा है। कमरे में नजर डाली तो मैं बड़ी देर तक देखती ही रह गई। रियाज बिस्तर पर एक तरफ बेसुध सो रहा था। उसकी लुंगी खुल गई थी और उसे खबर तक नहीं थी। मगर ज़ाहिदा जाग रही थी। सीने से खुलने वाली उसकी मैक्सी पूरी खुली हुई थी। एकदम मियां की लुंगी की तरह। और गोल-मटोल गुड्डा सा उसका बेटा उसकी छाती पर ही लेटा दूध पी रहा था।
अम्मी की बाई छाती को चूसे जा रहा था। मगर बीच-बीच में रुक जाता था। वह जितना नींद में लग रहा था उतना ही भूखा भी लग रहा था। भूख सताने लगती तो चूसने लगता। जब नींद सताती तो सोने लगता। इधर ज़ाहिदा का दाहिना हाथ मियां को जगाने में लगा हुआ था। उसके चेहरे पर अजीब सी रेखाएं उभरी हुई थीं। उसका मतलब तो मैं समझ रही थी लेकिन उसके लिए कोई अलफ़ाज़ सोच नहीं पाई कि कहूं क्या? जिस तरह उसके हाथ हरकत कर रहे थे, उससे मियां भी नींद से बाहर आता जा रहा था। जल्दी ही बच्चा गहरी नींद में सो गया।
ज़ाहिदा ने उसे दीवार की तरफ सुरक्षित लिटा दिया, और मैक्सी को निकालकर एक तरफ रख दिया। उसे उस तरह देखा तो मैं बड़ी देर तक देखती ही रह गई। सोचा यह अपने हुस्न पर गुरुर गलत नहीं करती। इसका मियां भी गलत नहीं है। कौन मियां ऐसी बीवी पर हर वक्त मर नहीं मिटेगा। पलकों पर नहीं बिठायेगा। हर वक्त बाहें नहीं फैलाएगा। अब-तक रियाज की नींद टूट चुकी थी। उसने आंखें बंद किए-किए ही ज़ाहिदा को अपने ऊपर खींच लिया और मैं अपनी जगह आकर बैठ गई।
'आपको बीच में फिर रोक रहा हूं यह पूछते हुए कि, आपको नहीं लगता कि उनके कमरे में झांकने की आपको आदत पड़ गई थी। आप कोई न कोई बहाना ढूंढ ही लेती थीं, उन्हें उनके नितांत एकांत क्षणों में देखने का।'
'बड़ी मुश्किल बात पूछी है, लेकिन मेरा एकदम आसान, सीधा सा उत्तर है कि ना आदत थी, ना बहाना ढूंढती थी। यह सब अनायास हो जाता था।'
'ठीक है वापस आने के बाद आपने...।'
'वापस अपनी जगह बैठी तो मुझे पसीना हो रहा था। वह ऐसे बह रहा था जैसे मैं बहुत दूर से दौड़ती-भागती हुई आई हूं। अपनी जगह आते हुए मैंने सोचा कि, इनको अम्मी की जिम्मेदारी देने का कोई मतलब ही नहीं है। ये अपनी दुनिया में ही खोए-डूबे रहेंगे। ऐसे में जरूरत पड़ने पर अम्मी की आवाज इनके कानों में पहुंचेगी ही नहीं। सच में हुस्न भी क्या बला है। आदमी सब कुछ भूल जाता है इसके आगे। मेरी अप्पियों का हुस्न ही तो था, जो उनके आदमी अपने परिवार को भी छोड़कर चल दिए। लेकिन तुरंत ही मन में बात उठी कि नहीं, यह सच नहीं है।
मेरा हुस्न भी तो इन से कम नहीं है। मुझे तो कोई नहीं मिला कि मेरे लिए घर-बार छोड़ दे। लेकिन मुन्ना! हां वह चाहता तो बहुत है। कहता तो है, 'मैंने तुम्हें जीवन साथी बना लिया है। जीवन भर साथ रखूंगा। किसी भी सूरत में अब कोई हमें अलग नहीं कर सकता। हम दोनों अच्छे से काम-धंधा जमा लें, तब तुम्हारी अम्मी से बात करूँगा।' जब भी मैं कहती हूं कि, 'मान लो मेरी अम्मी, तुम्हारे घर वाले, दोनों ही तैयार ना हुए तो?' कितने यकीन से कहता है कि घबराओ नहीं। मैं समय आने पर कोई ना कोई रास्ता निकाल ही लूँगा।'
अब यह तो ऊपर वाला ही जाने कि ऐसा वक्त कब आएगा। आएगा भी कि नहीं। और नहीं आया तो? यह सोचकर मैं घबरा गई। एकदम कांपने लगी। बड़ी देर बाद मन में आया कि नहीं, ऊपर वाला ऐसा नहीं करेगा। वह जानता है कि, मेरा सच्चा मुन्ना, मुझे कितना चाहता है। इससे अच्छा तो कोई मुझे नहीं लगता।
वह बहुत भला इंसान है। कितना साफ-साफ कहता है कि, 'पहले दोनों इस लायक हो जाएं कि किसी को ऐतराज़ ना हो।' कैसे दिन रात लगा रहता है, अपना और मेरा बिजनेस बढ़ाने के लिए। मुझे और मेहनत करनी पड़ेगी। तभी मैंने कपड़े का थान उठाया और ज़ाहिदा की मैक्सी से मिलती-जुलती एक नई डिज़ाइन तैयार की। चिकन की मैक्सी बनाई। मैं मुन्ना से नसीहत मिलने के बाद हर चीज बड़े, अमीर लोगों की पसंद, उनके तौर-तरीकों को ध्यान में रखकर ही बनाती थी।
इन सारी जद्दोजहद के साथ काशी जाने का समय आ गया। जाने के लिए जब देर रात को मैं निकली तो अम्मी मुझे बिल्कुल भी परेशान नहीं दिखीं। जबकि मैं बराबर सोचती रही थी कि जाते समय वह बहुत ग़मगीन हो जायेंगीं। उन्हें उस हाल में देखकर खुद मेरा मन बहुत भारी हो जाएगा। लेकिन अम्मी ने हमें खुशी-खुशी रुखसत किया। खूब दुआएं दीं।
मुन्ना ने स्टेशन जाने के लिए कैब बुलाई थी। पहले अपने घरअपना सारा सामान रखा। फिर मुझे लेनेआये। जल्दी-जल्दी मेरा भी सामान रखा और कार के पीछे का दरवाजा खोलकर मुझे बैठने को कहा। उन्होंने अम्मी को नमस्ते बोला तो अम्मी ने उन्हें भी दुआएं दीं। वह आगे ड्राइवर के बगल में बैठ गए। बैठते ही गाड़ी चल दी। घर से काफी आगे निकल जाने के बाद उन्होंने ड्राइवर से हेडलाइट ऑन करने के लिए कहा। मेरा ध्यान इस तरफ नहीं गया था कि गाड़ी की हेड लाइट्स ऑफ हैं । जब उन्होंने कहा तब मेरा ध्यान इस ओर गया कि, जब गाड़ी लेकर आये थे तो उसकी सारी लाइट्स ऑफ थीं। मेरे लिए वह छोटी से छोटी बात का भी पूरा ध्यान रखते थे। लाइट्स के कारण मोहल्ले वालों की नजर जल्दी आ गड़ेगी, उन्होंने इतनी छोटी सी बात का भी ध्यान रखा था।'
'यह बात भी आपके प्रति उनके अतिशय प्रेम को ही प्रतिबिम्बित कर रही है।'
'हाँ, ऐसी अनगिनत बातें हैं, जो मेरे लिए उनकी बेपनाह मोहब्बत को बयां करतीं हैं।आगे अभी आप और देखेंगे। हाँ तो जब गाड़ी मेन रोड पर पहुंच कर स्टेशन की ओर मुड़ी तो उन्होंने गाड़ी रुकवा दी। मैं कुछ समझती उसके पहले ही वह पीछे आकर मेरे पास बैठ गए । गाड़ी चल दी तो मेरा एक हाथ अपने हाथ में लेकर बोले, 'तुम्हारीअम्मी नाराज तो नहीं हैं ना।'
'मुझे लगता है कि बिल्कुल भी नहीं। देखा नहीं, चलते वक्त कितनी दुआएं दे रही थीं।'
'हाँ, दुआएं तो वह मुझे भी दे रही थीं, लेकिन मुझे बिल्कुल विश्वास नहीं था, कि वह इतनी आसानी से तुम्हें मेरे साथ जाने देंगी। तुमने कैसे उन्हें तैयार कर लिया।'
'तैयार क्या किया? जब तुमने बताया तो मैंने उसी दिन घर पहुंच कर उनसे बात की। बहुत परेशान हो गईं कि इतनी दूर मैं कैसे जाऊँगी। वह भी इतने दिनों के लिए। मैंने सब कुछ बताते हुए कहा, 'अगर तुम कहोगी, तभी जाऊँगी, नहीं तो नहीं जाऊँगी। अभी कई दिन हैं, इत्मीनान से सोच-समझ कर बताना।' चार-पांच दिन बीत गया लेकिन वह कुछ नहीं बोलीं। आगे जब भी बात करतीं, हमेशा कुछ ना कुछ संदेह ही पैदा करतीं।
सच बताऊं मुझे एक पैसे का यकीन नहीं था कि मुझे जाने देंगी। यही सोच-सोच कर मैं बड़ी चिंता में पड़ी रही लेकिन अपनी तैयारी करती रही। बढियाँ से बढियाँ डिज़ाइन, कढाई सारे काम उन्हें दिखाती रही। आखिर उन्हें लगा कि, मेरा हुनर ऐसा है कि उसे उसके मुकाम तक पहुंचने दिया जाए। एक दिन तो बोलीं, 'तू इतना जान गई है कि मुझे बता सकती है।' मग र आखिर तक उनके मन में यह असमंजस बना रहा कि, एक गैर मर्द के साथ जा रही हूं और इतने दिन साथ रहूंगी। मुझे पक्का यकीन है कि, उनके मन का डर जब-तक मैं वापस नहीं आ जाऊँगी तब-तक बना रहेगा।'
'हूँ ... आखिर मां है। एक बात और कि अगर डर बना हुआ है तो इसका मतलब यह है कि मैं अब-तक ऐसा कुछ नहीं कर पाया जिससे उनका पूरा विश्वास मुझ पर बन पाता।'
'नहीं, ऐसा नहीं है। विश्वास नहीं होता तो भेजती ही क्यों? जमाने को देखते हुए कोई भी मां निश्चिंत नहीं हो सकती। फिर हम बड़े घरों के तो हैं नहीं, जहां पर इस तरह की बातें फिजूल मानी जाती हैं।'
'हूँ... लेकिन तुम्हें तो मुझ पर पूरा भरोसा है ना?'
'तुम भी कैसी बातें कर रहे हो। इतना कुछ हो जाने के बाद, सब कुछ तुम्हारे हवाले कर दिया, तब भी यह पूछ रहे हो?' मेरी इस बात पर मुन्ना ने मेरा हाथ हल्के से दबा दिया। तभी मेरा दिल धक् से हो गया।'
'क्यों ?'
'क्योंकिअम्मी के खाने-पीने का कोई इंतजाम मैंने किया ही नहीं था। शुरू के दिनों में बात दिमाग में थी, लेकिन चलने के जुनून में, आखिर के दिनों में यह बात भूल गई। अपना यह जुनून महसूस करके मैं दंग रह गई। मेरी परेशानी मेरे चेहरे पर झलकने लगी। मुन्ना को समझते देर नहीं लगी। मैंने पूछने पर बताया तो बोले, 'परेशान ना हो। मुझे ध्यान था। अम्मा को बोल कर आया हूं। वह सब देख लेंगी।'
'लेकिन इतने दिन?'
'कुछ ख़ास नहीं है, आसानी से देख लेंगी।'
उनकी इस बात से मुझे इतनी राहत मिली कि मैं अम्मी के खाने-पीने को लेकर निश्चिंत हो गई और उनसे से पूछा, 'एक बात बताओ, तुम्हारी अम्मा ने कुछ कहा नहीं कि, मैं तुम्हारे साथ जा रही हूं।'
'थोड़ा बहुत कहा, लेकिन जैसे तुमने समझाया वैसे ही मैंने भी समझाया तो मान गईं।'
इसी समय गाड़ी एक चौराहे पर खड़ी हो गई, क्योंकि हल्का सा जाम लगा हुआ था। मैंने पूछा, ' समय से पहुंच तो जाएंगे ना?'
'हाँ, अभी काफी टाइम है। ट्रेन करीब आधा घंटा लेट भी है।' मुन्ना ने मोबाइल देखते हुए कहा।
'अच्छा, लेकिन आधी रात हो रही है, तब भी यहां इतना जाम है।'
'हाँ, स्टेशन करीब है। बस और मेट्रो स्टेशन भी यहीं पास में हैं। लोग एक साथ आ जाते हैं। टेम्पो, ऑटो-रिक्शा, सारी गाड़ियां एक साथ आएंगी तो यह तो होना ही है।'
करीब पन्द्रह मिनट के बाद जब हम स्टेशन पर पहुंचे तो मुन्ना ने कुली कर लिया। सामान बहुत था, पन्द्रह दिन के हिसाब से काफी कुछ ले जा रहे थे। ढेर सारा सामान तो मेरा ही था, पांच सूटकेस और दो बैग। सब एक हफ्ते पहले ही खरीदे थे, क्योंकि घर में कहीं जाने-आने लायक एक भी बैग, सूटकेस नहीं था।
हम कभी, कहीं जाते ही कहां थे जो हमें इनकी जरूरत पड़ती। चार सूटकेस मुन्ना के भी थे। मैं जीवन में पहली बार रेलवे स्टेशन के अंदर पहुंच रही थी। इतना बड़ा स्टेशन, इतने लोग, सब मेरे लिए बड़ी बात थी। तीनों कुली आगे-आगे सामान लेकर चल रहे थे। एक बैग लिए मुन्ना पीछे-पीछे चल रहे थे, उन्हीं के साथ एक बैग लिए मैं भी। करीब चालीस मिनट के बाद ट्रेन आई तो कुली हमें अंदर हमारी सीट, जिसे मुन्ना बर्थ कह रहे थे, पर छोड़ कर चले गए। तब मैं सीट, बर्थ यह सब कुछ जानती ही नहीं थी। हमारी बर्थ सबसे ऊपर वाली थी। आमने-सामने की। नीचे की सारी बर्थें पहले से ही भरी हुई थीं। बोगी में हमारे जैसे कुछ ही लोग चढे थे। बाकी लोग पहले के स्टेशनों से चढे थे, और वह सभी सो रहे थे। मुन्ना ने सामान बर्थों के नीचे रख कर मुझे बर्थ पर चढ़ाया। पहली बार रही चढ़ थी तो मुश्किल भी हो रही थी।
मुन्ना मदद ना करता तो चढ़ ना पाती। तभी मुझे अहसास हुआ कि, मेरा शरीर वाकई ज्यादा भारी हो गया है, और मुन्ना के बाजुओं में जबरदस्त ताक़त है।
कुछ देर बाद मुझे ठंड लगने लगी। बाकी सभी लोग पहले से ही कंबल ओढ कर सो रहे थे। हमने भी कंबल ओढ लिया। इसके पहले मुन्ना ने दो चादरें निकाल कर, एक मेरे कंबल के नीचे लगा दी थी और एक अपने में। वह बहुत साफ-सफाई पसंद आदमी हैं । कंबल से मेरा चेहरा ढंकते हुए बोले, 'आराम से सो जाओ। ट्रेन सुबह पहुंचेगी।' मैंने सामान की ओर इशारा किया तो उन्होंने इशारे से कहा, ' निश्चिंत रहो।' फिर लाइट ऑफ कर दी। पूरी बोगी में निकलने के रास्ते पर ही हल्की सी रोशनी थी, बाकी में अंधेरा। बीच-बीच में कुछ लोगों के हल्के-हल्के खर्राटे की आवाज भी हो रही थी। हमारे लेटते ही ट्रेन चल दी। नींद से मेरी आंखें कड़ुवा रही थीं लेकिन मारे जोश के मैं सो नहीं पा रही थी। कम्बल ओढ़ते हुए मैंने सोचा कि इतना चाहने, ध्यान रखने वाला और कहाँ मिलेगा, घर में चादर रख रहे थे, तब भी मैं इनके ध्यान थी, मेरे लिए भी रखना भूले नहीं। इनके इस प्यार से मेरी आँखें भर आईं।'
'आँखें तो आपकी अब भी भर आईं हैं ।'
मैंने बेनज़ीर की डबडबा आईं आँखों को देखते हुए कहा, तो वह अपनी भावुकता पर नियंत्रण करती हुई बोलीं, 'इन्होंने मुझे जो बेपनाह मोहब्बत दी, ये उसी खुशी के आसूं हैं । ये और भी निकल पड़ते हैं, जब दुखःदर्द, मुफलिसी में बीती अपनी बीती ज़िंदगी याद आती है, तब मन में यह जरूर आता है कि इन्होंने अगर अपनी मोहब्बत भरी दुनिया में मुझे जगह न दी होती, तो क्या मैं तब भी ज़िंदा होती है?और इस प्रश्न का मुझे हर बार एक ही उत्तर मिलता है नहीं, नहीं, नहीं...। और मुकद्दर का अजब खेल देखिये कि आप जैसा खुर्राट लेखक माइक्रोस्कोप लेकर मेरी बीती ज़िंदगी, आज की ज़िंदगी का रेशा-रेशा देखने में जुटा हुआ है, जो मैं याद ही नहीं करना चाहती, ऐसा सम्मोहित कर दे रहा है मुझे कि सब बिना हिचक सिलसिलेवार बताये जा रही हूँ, बातें ऐसी कि, कभी हंसा रही हैं, कभी रुला रही हैं । इसे आपका या किसका का करिश्मा कहूं, कुछ समझ में नहीं आ रहा।'
' यदि यह करिश्मा है, तो भी निश्चित ही ईश्वर का ही है ।' मैंने बेनज़ीर की आँखों में आँखें डाल कर मुस्कुराते हुए कहा तो वह बोलीं, 'शायद आप सही कह रहे हैं, तो चलिए ईश्वर के इस करिश्में पर बात आगे बढाते हैं, मैं कम्बल ओढ कर लेट गई, लेकिन मन में एक अफनाहट थी, जल्दी से जल्दी काशी पहुँचने की एक हौल सी उठ रही थी। करीब आधे-एक घंटे बाद मैं सो गई।