Third people - 13 in Hindi Moral Stories by Geetanjali Chatterjee books and stories PDF | तीसरे लोग - 13

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तीसरे लोग - 13

13.

स्मारक और फाल्गुनी जिंदगी की कशमकश से उठ चुके थे | अब उनके पास जीने का एक उद्देश्य था। नि: स्वार्थ भाव से सेवा, सिर्फ सेवा। तभी तो दोनों सोच-समझकर अस्पताल का नामकरण किया 'अर्पण ' |

बहु का सम्पूर्ण, उसकी निष्ठां और पतिपरायणता देखकर उसके सास-ससुर उसे रोकने का साहस न जुटा सके और श्व्शुर-ग्रह की तमाम भौतिक सुख-सुविधाओं को तिलांजलि देकर वह अपने सहयात्री संग नर्मदा नदी के किनारे बसे इस अस्पताल में चली आई।

दस डॉक्टर नियुक्त किये गए थे, जिनमें से दो विदेशी थे, जो अपनी जमीन, अपने लोग और सांसारिक सुख-सुविधाओं को त्यागकर नि: स्वार्थ सेवा भाव लिए इस अस्पताल के साथ जुड़ गए |

दो सौ बेड के इस अस्पताल मरीज़ों की तमाम सुविधाओं का ख्याल रखा जाता था। राज्य सरकार भी इस नेक काम में उदारता से सहायता कर रही थी और कुछ योगदान गैर- सरकारी संस्थाओं तथा उदार उद्योगपति से भी मिल जाता था।

अस्पातल की ख्याति आसमान की उचाईयों को छूने वाली थी और यहां आनेवाला प्रत्येक रोगी अपने जीवन के अंतिम क्षणों की उखड़ती सांसों का पिंडदान करने आता था। उनके लिए यह अपनी आस्था के अनुसार एक मोक्ष भूमि थी। विभिन्न धर्म एवं समुदाय के मरीज़ अपनी आस्था के अनुसार इस मोक्षभूमि को काशी या काबा जानकर अतीत में की गई भूल पर पश्चत्ताप और प्रायिश्चत दोनों ही करते हुए मोक्षप्राप्ति की कामना करते।

रोगियों के खान-पान, उनकी सुविधा-असुविधा की जिम्मेदारी और अस्पताल की देख-रेख, सब फाल्गुनी के कन्धों पर था। यहां दिन की शुरुआत प्राथना सभा से होती थी। फिर आधे घंटे बैठकर मेडिटेशन करते थे रोगी। इसके बाद शुरू हो जाता था काउंसलिंग का समय, जो की तीन घंटे का था। यहां मनोचिकित्स्क डॉ. कोचर के पास सैकड़ों रोगी आते थे, जिनमें समलैंगिकों की तादाद अधिक मात्रा में थी। वे उसकी शंकाओं को दूर करने का प्रयत्न करते हुए, समाज में एक नए आत्मविश्वास के साथ जीने की दिशा दिखाया करते थे।

एच.आई .वी पॉजिटिव और एड्स के पीड़तों में सेना के जवानों की बहुत संख्या थी। बीहड़ जंगलों एवं बॉर्डर पर सालों से तैनात ये जाबांज सिपाही अपने घर-परिवारों से दूर रहकर पेट की आग तो बुझा लेते थे, परंतु नीरस रातों में पेट के निचले हिस्से की आग बुझाने के लिए प्रकृति द्वारा रेखांकित नियमों को तोड़ असामान्य यौन कृत्यों द्वारा अपनी क्षुधा शांत करते। भयंकर परिणामों से अनभिज्ञ, एड्स के शिकार बन जाया करते थे। आला कमान के एक इशारे पर जान की बाजी लगा देनेवाले ये जाबांज सिपाही अस्पताल के बिस्तर पर आज एक-एक सांस के लिए मौत से जूझ रहे थे। इन सबकी दयनीय दशा देखकर फाल्गुनी को अपने दुःख नगण्य लगते।

 

"उफ ! इस पृथ्वी में कितना दुख, कितनी पीड़ा, कितना अन्याय है प्रभु, फिर भी तू अपनी आंखों को बंद किये मौन बैठा है ?" फाल्गुनी ईश्वर से शिकायत करती चुपचाप।

 

स्मारक को घडी-भर चैन लेने की भी फुरसत नहीं थी। चुकीं इस अस्पताल को ' टर्मिनेशन सेंटर फॉर एड्स पेशेंट ' यानी की एड्स पीड़तों के अंतिम दिनों का केंद्रे मान जाता था, इसलिए प्राय: किसी न किसी रोगी का अंतिम बुलावा किसी भी वक्त आ जाता। तभी तो सारे डॉक्टर और स्टाफ हमेशा तैयार रहते थे। किसी मरीज़ की इन्द्रियां काम करना बंद कर देती और वह बिस्तर पर ही पाखाना-पेशाब कर निरीह पड़ा रहता। एक प्रकार से "कोमा" में चला जाता, डॉक्टर तुरंत समझ जाते थे की बस अंत समय आ गया उस मरीज़ का। फाल्गुनी भगवद्गीता के स्तोत्र का उच्चारण करती उसके सिरहाने खड़े होकर----

"नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।

न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः॥"

 

और मरीज़ शांति से अक्सर स्मारक की बाहों में मोक्ष पा जाता। अलग-अलग धर्म-समुदाय के रोगियों के अंतिम समय में उनके धर्म गुरु आकर अपने धर्मग्रंथों के मंत्रों का उच्चारण करते। मरीज़ मुसलमान हो तो मौलवी साहब कुरान की पाक आयतें उसके कान में फुकतें। यदि क्रिस्टी धर्म को माननेवाला मरीज़ हो तो फादर होली बाइबल से पवित्र कम्यूनियन पढ़कर "दाखरस" पीने देते और पवित्र पानी की छिड़काव करते और सिख मरीज़ के लिए गुरुग्रंथ साहिब की पवित्र पंक्तियां अरदास पढ़कर, उन तमाम मृत्यु शैया पादरी हो या फिर पंडित अथवा मुल्ला-काजी, अस्पताल ने इन धर्मगुरुओं की भी नियुक्ति की थी।

 

अधिकतर मरीज़ों के परिवारवाले इसे भयावह छूत का रोग जानकर एवं समाज के बहिष्कार के डर से उन्हें त्याग देने में ही अपनी भलाई समझते थे। सामजिक दृष्टिकोण से ऐसे एड्स पीड़तों को महापापी का दर्जा देकर और समाज का कोढ़ मानते हुए सारे संपर्क तोड़ दिए जाते थे। अतीत में ये रोगी भी किसी के भ्राता, किसी का पुत्र, किसी के पति का परिचय लिए समाज का अभिन्न अंग थे, परंतु वर्तमान में समस्त संबंधों के भ्र्मजाल से मुक्त होकर नितांत एकाकी जीवन की शेष घड़ियों को गिन रहे थे। सचमुच, मनुष्य मात्र स्वार्थ का पर्यावाची ही तो है।

 

फाल्गुनी कभी-कभी फुर्सत के क्षणो में इनके अतीत के सुनहरे हरफों को सुनती। ऐसे ही एक समलैंगिक एड्स पीड़ित की व्यथा कथा को सुन वह दुग्ध हो उठी। फिल्मों में छोटे-छोटे कई रोल कर चूका था वह। चंडीगड़ के एक भले घर का लड़का। पंजाब की रंगत और तीखे नैन-नक्श वाला वह हँसमुख एड्स रोगी। मरने के चार दिनों पहले ही बात है। फाल्गुनी उसका हाल जानने के लिए आई तो देखा वह रो रहा था। फाल्गुनी ने स्नेह से पूछा, "क्या बात है ' लवली ' रोज ' हँसने -हँसाने वाले लड़के को आज क्या हो गया है ? उसने फाल्गुनी का हाथ पकड़ते हुए कहा, " दीदी, कितनी चिट्ठियां लिखीं, फ़ोन किये घर पर, लेकिन भइया-भाभी आवाज़ सुनते ही फ़ोन काट देते हैं। अगर में पैदाइशी समलैंगिक हूं तो इसमें क्या मैं कसूरवार हूं ? फिर उन्होंने तो मुझे जन्म दिया था, पर मैंने कब चाहा था की मैं एक तीसरे लोगों वाला जीवन जीऊं। आप ही बताओ फिर मेरे किस दोष के कारण उन्होंने मुझे त्याग दिया। कसूरवार मैं नहीं, वो हैं, मेरे माँ-बाप। " कहकर फिर सुबकने लगा। इस जन्मजात समलैंगिक युवक की व्यथा सुनकर उसके अपने जीवन घाव ताजा हो गए और वह सोचने लगी की " यदि उनके देवता-तुल्य सास-ससुर को भी अपने पुत्र की प्रवृत्ति का पता लगता तो क्या वे भी आज इसी तरह उसको भी त्याग देते ? नहीं , नहीं , वह इस सच्चाई को मरते दम तक सीनो में दफन कर देगी। "

 

मां नर्मदा ने न जाने कितने ऐसे रोगियों की अस्थियों को अपने गर्भ में पनाह देकर उनकी आत्माओं को मुक्ति दी। देखते -देखते दो वर्ष यूं ही बीत गए। सास-ससुर कभी-कभी मिलने आ जाया करते थे और स्नेही श्वसुर पुत्रवधु के सिर पर वातसल्य से हाथ फेरकर कहते, " ये तो फ्लोरेंस नाइटिंगेल है। तुझे पुत्रवधु के रूप में पाकर तो धन्य हो गए हैं हम। मुझे बहुत नाज है बेटी तुझ पर। जा इसी तरह इन दुखियारों की सेवा क्र नि:स्वार्थ भाव से। मेरा आशीर्वाद तेरे साथ है। " परंतु हंसाबेन उनके तपस्वी जीवन को देखकर दग्ध हो उथती। पोते-पोतियों की किलकारियों से गूंजते आंगन को देखने के लिए उनकी बूढ़ी आखें टीआरएस गई थी और कान बेचैन थे तोतली जुबान से दादा-दादी की पुकार सुनने को। उस दिन वह स्वंय को रोक नहीं पाई और फाल्गुनी को अपने पास खींचकर बैठाते हुए अनुनय और विनती भरे स्वर में कहने लगी, " फाल्गु, क्या पोते-पोतियों का मुंह देखे बिना ही मुझे जाना होगा रे ?"

 

बेचारी फाल्गुनी कहती भी तो क्या ? अब इस तरह समझाए उस ममता की मारी जननी को की " मां बनने तो दूर, मुझे तो औरत तक बनने का सुख प्राप्त न हो सका। "

परंतु पति के प्रति अथाह प्रेम और श्रद्धा इतनी गहरी थी उस महान युवती की, तभी तो सुहाग के सम्मान की रक्षा करने के लिए आज फिर उसे झूठ का सहारा लेना पड़ा।

 

" बा, अब आपसे क्या छुपाऊं, मेरी कोख बंजर है और मैं मां बनने के सुख से सदा वंचित रहूंगी। " हंसाबेन भौंचक्की रह गई, उनसे कुछ उत्तर देते न बना। फाल्गुनी ने उन्हें पानी का गिलास थमाया। पानी पीकर बड़े कष्ट से फाल्गुनी को केवल इतना ही बोल पाई हंसाबेन की उनका कुल तो बस यहीं समाप्त हुआ। सास और बहू दोनों ने ही द्वार पर खड़े स्मारक को नहीं देखा। स्मारक कुछ काम से फाल्गुनी के पास आ रहा था, लेकिन उनकी बातें सुनकर वह उलटे पांव लौट गया। अपने प्रति इस स्त्री की भक्ति और प्रेम देखकर जहां एक ओर ग्लानिबोध से उसका सीना छलनी हुआ तो वहीं दूसरी तरफ पत्नी के प्रति सम्मान और श्रद्धा से उसने मन ही मन उसकी महानता और त्याग को नमन किया।