Pita - Ek Sanghrsh in Hindi Moral Stories by उषा जरवाल books and stories PDF | पिता : एक संघर्ष

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पिता : एक संघर्ष

‘पिता’ : एक संघर्ष

हर महीने की आखिरी तारीख हमारे लिए किसी त्योहार से कम नहीं होती थी क्योंकि उस दिन पापा की तनख्वाह जो मिलती थी | जैसे – जैसे वह दिन नज़दीक आता ; हम दोनों भाई – बहनों की ख्वाहिशों की पर्चियाँ भी बढ़ती जाती | (हम चार भाई – बहन हैं – बड़ी बहन की शादी हो गई है और बड़े भाई इंजिनीयरिंग करने ‘रुड़की’ गए हुए हैं |”) सबसे लंबी मेरी पर्ची होती थी | मेरे कानों की बालियाँ, नए रिब्बन, फ्रॉक की लटकन और भी न जाने क्या – क्या ? जैसे ही साईकिल की घंटी बजी , छपाक से हम दोनों भाई – बहन दरवाज़े पर | “लाइए पापा ! थैला मैं ले लेता हूँ |” भाई ने मस्का लगाते हुए कहा | और मैं पानी का गिलास लेकर हाज़िर | पापा ने थैला मम्मी के हाथ में दिया और हाथ – मुँह धोकर खाना खाने बैठे |

कब शाम ढले और कब हम अपनी पर्चियाँ लेकर पहुँचें ? इसी कशमकश में आज दोपहर की नींद का तो सवाल ही नहीं | भाई का जन्मदिन भी आ रहा है तो मैं इसी उधेड़बुन में थी कि उसे ऐसा क्या उपहार दूँ कि वो सदा मेरा कहना माने | तभी मुझे कुछ फुसफुसाहट – सी सुनाई दी | मुझे लगा कि दादी अपनी माला जप रही होंगीं पर ........ पापा अपनी डायरी में कुछ लिख रहे थे | दो हज़ार रुपये रामदीन के, तीन हज़ार ... सुलतान सिंह के, तीन हज़ार घर – खर्च के, दो हज़ार ‘साहब’ आएगा तो उसे भी देने हैं | और भी न जाने कितने ...... | (पापा मेरे बड़े भैया को ‘साहब’ कहकर बुलाते थे |) देखते ही देखते सारी तनख्वाह का बँटवारा हो गया था | पापा अपना हिसाब – किताब लगाकर बाहर आए लेकिन अब पर्ची निकालने की हिम्मत नहीं हो पा रही थी |तभी पापा ने दोनों भाई – बहनों को बुलाया और बीस – बीस रुपये देकर कहा, “ये लो तुम्हारी पॉकेटमनी |” फिर हमारी पर्चियाँ लेकर मुस्कुराते हुए टहलने चले गए | पर इस बार मुझे वो ख़ुशी नहीं हो रही थी जो आज से पहले हुआ करती थी |

बचपन में देखा करती थी कि पापा सुबह स्कूल जाते थे | घर आकर पंखे की मोटर ठीक किया करते थे | ठीक चार बजे गाँव में जाकर घरों में बिजली की फिटिंग किया करते थे | रात को दादाजी के साथ लकड़ियाँ चीरते थे | कभी कोई पूछता कि तुम्हारे पापा क्या करते हैं तो मैं सोच में पड़ जाती थी कि पापा ने तो कहा था कि वे टीचर हैं पर मुझे तो वे कभी बढ़ई, कभी इलेक्ट्रिशियन , कभी मैकेनिक तो कभी कुछ और काम करते ही दिखते थे | एक दिन मेरी सहेली ने बताया कि उसने मेरे पापा को कुँए में उतरते देखा | मैं गिरते – पड़ते ... मम्मी को बताने पहुँची तो पता चला कि मेरे पापा कुँए की मोटर भी लगाया करते थे | मेरे जागने से सोने तक मैनें पापा को काम करते ही देखा , कभी आराम करते ना देखा |

धीरे – धीरे बड़ी हुई तो सब बातें समझ आने लगीं | पंद्रह लोगों का परिवार और कमाने वाले अकेले मेरे पापा | पापा के चाचा धनुष्बाय के कारण चल बसे थे तो उनके परिवार का भरण – पोषण भी पापा के जिम्मे ही आ गया | दो सौ रुपये की तनख्वाह में कैसेगुजरा चलता ? जिम्मेदारियों ने एक साथ इतने सारे काम करने सिखा दिए थे पापा को | पाँच – पाँच बुआ थी मेरी और चार चाचा | सबकी पढ़ाई – लिखाई, शादी ...सबका खर्च पापा ने ही तो उठाया था | टीचर की नौकरी से तो काम चलता नहीं सो दूसरे काम सीखे , फिर भी पार ना पड़ी तो कर्ज लेना पड़ा | अपने भाई – बहनों की जिम्मेदारी से मुक्त हुए तब तक हम उनके अपने बच्चे पंख फैलाचुके थे | पापा ने अपने लिए तो कभी जीया ही नहीं | पापा का जीवन संघर्ष में ही बीतते देखा |

जिम्मेदारियाँ ऊँट की तरह कद फैलाए कड़ी थी तो आमदनी जीरे जितनी | अब बड़े भाई की इंजीनियरिंग पूरी हो गई थी | अब वे ‘नीमराना’ में एक कंपनी में काम करने लगे | अब अक्सर मैं पापा को मेरी शादी की बातें करते सुना करती थी | मम्मी से कहते रहते थे बिटिया की शादी में ऐसे करूँगा.....वैसे करूँगा.. सारा सामान दूँगा | पापा, मेरी शादी में अपने वो सभी अरमान पूरे करना चाहते थे जो वे मेरी बहन की शादी में पूरे नहीं कर पाए थे |

एक दिन मेरे भाई के दोस्त के साथ एक लड़का हमारे घर आया था .... प्रदीप नाम था उसका | ‘भैया नमस्ते !’ कहते हुए मैनें उन्हें चाय पकड़ाई | वे मेरी तरफ देखकर धीरे – से मुस्कुराए और फिर भैया से बात करने लगे | उनके जाने के बाद मुझे पता चला कि भैया के दोस्त ने मेरे बारे में उन्हें पहले ही बता रखा था | वे कुरुक्षेत्र में M.S.W. की पढाई कर रहे थे | जैसे ही पढाई पूरी हुई तो हमारे रिश्ते की बात चलने लगी | मेरे पापा ने साफ़ कह दिया था, “अपनी बिटिया की शादी किसी नौकरी वाले लड़के से ही करूँगा |” एक दो मुलाकातों में मन ही मन मैं भी उन्हें पसंद करने लगी थी | उनकी नौकरी लगते ही दीपावली के एक दिन पहले ही उनका फोन आया और ‘भैयादूज’ के दिन पापा बड़े भाई के साथ जाकर उन्हें एक चाँदी का सिक्का देकर बात पक्की करके आ गए | हमारे रिश्ते में ये मज़े की बात रही कि ‘भैया नमस्ते’ कहने से शुरू हुआ रिश्ता ‘भैयादूज’ के दिन ही पक्का हो गया |

खैर देखते ही देखते एक साल बीत गया | हम दोनों का ये एक साल प्यार की पींगें भरने में गुजरा तो मम्मी – पापा का शादी की तैयारियों में | जैसे – जैसे शादी का दिन नजदीक आ रहा था वैसे – वैसे ही मुझे पापा की सारी बातें याद आने लगती | फिर सोचती .... क्या कोई मुझे इतना प्यार कर पाएगा जितना मेरे पापा करते हैं ? क्या कोई मेरे पापा की तरह ये कह सकेगा कि ‘मेरी बेटी मेरा अभिमान है |’ मुझे याद है जब मैं गाँव में कभी साइकिल लेकर निकला करती थी तो गाँव की औरतें मम्मी को कहा करती थी, “छोरी की जात है, इतनी ना उड़न दो कि फेर रोकना मुश्किल हो जावै |” इससे पहले मम्मी कुछ बोल पाए मेरे पापा जवाब देकर उनकी बोलती बंद कर देते थे | पापा मेरी शादी के लिए मोटरसाइकिल लेकर आए और कहा, “ले बिटिया ! आज सबसे पहले इसका मुहूर्त तू ही कर दे | और हाँ, उसी गली में से लेकर जाना जहाँ वे औरतें बैठती हैं |”

शादी हो गई अब विदाई ....... मैनें आज पहली बार मेरे पापा को रोते देखा | मैनें कहा, पापा आप चिंता मत करो मैं खुश ही रहूँगी |” पापा सिर पर हाथ रखकर बोले कि जहाँ मेरी ‘बिटिया’ है वहाँ तो खुशियों का अंबार रहना ही है |

मैं शादी के बाद ‘लातूर’ चली गई | (मेरे पति का तबादला वहाँ हो गया था |) समय बीता छोटे भाई को भी एम. बी. ए. करके अच्छी नौकरी मिल गई | पापा अपनी टीचर की नौकरी से रिटायर हो गए | रिटायरमेंट पर मिली जमा पूँजी से भाइयों की पसंद का एक बड़ा और अच्छा - सा घर बनवा दिया | बाकी बची धनराशि से परिस्थितियों के चलते लिया हुआ सारा कर्ज भी उतार दिया | थोड़ा – बहुत बचा था वो छोटे भाई ने उतार दिया | छोटे भाई की भी शादी हो गई थी | सब अपने – अपने बाल – बच्चों के साथ खुशहाल जिंदगी बिता रहे थे | एक लंबे अरसे के बाद मेरे पापा के जीवन में सुकून आया था | छोटा भाई मम्मी – पापा को अपने साथ दिल्ली में ही रखना चाहता था पर पापा की इच्छा थी कि वे गाँव में ही रहें |

कुछ समय आराम से बीता | अचानक एक दिन पापा को सीने में बहुत तेज़ दर्द होने लगा | सब डर गए थे कि कहीं दिल का दौरा ना पड़ा हो | अब यहाँ से एक और संघर्ष शुरू हो चुका था | पापा ने महीने – दो महीने इसी ज़िद में बिता दिए कि रहना गाँव में ही है | तकलीफ़ ज्यादा ही बढ़ने लगी तो भाई के लाख जतनों के बाद मम्मी – पापा दिल्ली रहने लगे | वहीँ पर भाई ने ‘फोर्टिस’ अस्पताल में पापा का इलाज कराया |

एक तो उत्तर भारत की सर्दी ऊपर से दिल्ली की दम घोटती हवा ... दोनों की वजह से हर सर्दी में पापा को ‘फोर्टिस’ में एडमिट कराना पड़ता | हर साल डेढ़ – दो लाख का खर्चा हो ही जाता था | पर भाई ने इलाज में कोई कसर नहीं छोड़ रखी थी | कुछ साल ऐसे ही चलता रहा पर धीरे – धीरे पापा की हालत बहुत खराब होती जा रही थी | अब तो डॉक्टर ने बोल दिया था कि कम से कम आठ घंटे मशीन (साँस लेने के लिए) लगाकर रखनी है | सुबह से शाम तक पचासों दवाइयाँ, फिर नेपोलाइज़र .... इन सब से पापा तंग आ चुके थे | पापा का स्वभाव चिड़चिड़ा – सा हो गया था पर वे अपनी भड़ास मम्मी के सिवाय किसी पर भी नहीं निकालते थे | फिर भी यह कहासुनी अब भाभी को बहुत अखरने लगी थी | अब तो बातों ही बातों में कहने भी लगी थी कि अब इनके साथ रहना मुश्किल है | पापा ने बचपन में ना जाने हमारी कितनी ही लड़ाइयाँ.... वो भी मार – पीट वाली, बर्दास्त कर ली पर बड़े होने के बाद बच्चे माता – पिता को बर्दास्त नहीं कर पाते | ये विडम्बना नहीं तो और क्या है ?

दवाइयों के लिए, कभी ओढ़ने – पहनने के लिए तो कभी बाहर जाने से मन करने करने के लिए सबका टोकना पापा को बहुत खलता | सब उनकी सेहत के लिए ही टोकते थे पर इंसान कब तक बँधा रहे एक ही कमरे में | पापा से हर दो – तीन दिन में फ़ोन पर बात होती तो कहते, “बिटिया ! सब टोकते रहते हैं मुझे | मेरे मन की तो कोई सुनता ही नहीं है |” मैं वही समझाती कि आप अच्छे रहो ... इसीलिए टोकते हैं सब पापा | “ठीक है , बिटिया ! मैं अब से सबकी बात मानूँगा” कहकर फ़ोन मम्मी को पकड़ा देते | इसी दौरान कुछ दिनों के लिए वापस गाँव आ गए थे कि उन्हें काफी सारे काम करने हैं | बारिश का पानी घर में भरने लग गया था तो तोड़ – फोड़ कराकर मकान ऊँचे करा दिए | भाई फिर लेने आया पर गए नहीं , ज़िद करके घर में सफ़ेदी भी करा डाली | मम्मी का ए. टी. एम. बनवाकर दे दिया | पता नहीं क्या चल रहा था पापा के मन में ... |

जीवन में हम इतने व्यस्त हो जाते हैं कि हमें अपनों के लिए ही समय नहीं मिलता | कई बार सोचती कि पापा से मिल आऊँ पर भुज से दिल्ली की दूरी इतनी रह गई कि एक हफ़्ते की छुट्टी लो तो उसमें से तीन दिन तो आने – जाने में ही बीत जाते | फिर बड़े बेटे की दसवीं की परीक्षा भी नज़दीक ही आ गई थी | बस यही सोचकर पापा से कह देती कि पापा जून में आऊँगी, छुट्टियाँ नहीं हैं अभी | पापा को शायद अहसास हो चुका था कि अब उनके पास ज्यादा समय नहीं बचा | सबसे प्यार से बातचीत करने लगे थे, दवाई टाइम से लेना, नेपोलाइजर सूँघना सब टाइम से करने लगे | दो दिन पहले ही तो बात हुई थी मेरी | जब कह रहे थे , बिटिया ! अब मैं सबकी बात मानता हूँ | तेरी मम्मी जब देखो मेरी शिकायत कर देती है | अब बिटिया, मैं शिकायत का मौका नहीं दूँगा | प्रोमिस |

अगले दिन मैं भी घर के कामों में व्यस्त हो गई | फिर बच्चों के लिए ‘खेल’ की पर्चियाँ बनाने लग गई | बाईस तारीख को स्कूल की तरफ से बच्चों का पिकनिक जो जा रहा था | शाम हुई .... तो ‘शिवरात्रि’ के व्रत के लिए सामान खरीदने बाज़ार चली गई | मेरे पापा भी ‘शिवजी’ के भक्त थे | पहले शिव – स्तुति किया करते थे पर जब से तबीयत खराब रहने लगी तो एक ही बात बोलते थे- “ रे भोले ! उठा ले मन्ने |”

‘शिवरात्रि’ की छुट्टी थी तो मैं देर से ही उठी थी | सुबह की चाय पीकर सबको काम पर लगा दिया | पतिदेव गाजर छीलने लगे और बच्चे कसने | छोटा बेटा इसी इंतज़ार में था कि कब ‘गाजर का हलवा’ बने और कब मैं खाने बैठूँ ? सुबह के दस बज गए थे .... पर पापा का फ़ोन नहीं आया | पापा हर बार फ़ोन करके “शिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएँ ! बिटिया, भोलेनाथ तुम्हें सदा खुश रखे |” का आशीर्वाद मेरी आँख खुलते ही दे देते थे | हलवा तैयार हो चुका था बस नहाना बाकी था सो सोचा नहा – धोकर आराम से पापा से बात करूँगी | किचन समेटकर नहाने जा ही रही थी कि मेरे पति के फ़ोन पर भाई का फ़ोन आया | मैंने बात करने के लिए फ़ोन माँगा तो “नहा ले, बाद में कर लेना” कहकर बात करते – करते बाहर चले गए |

पहले तो सोचा आज पापा ने भाई के फ़ोन से मिला दिया होगा | फिर मेरा माथा ठनका | मैं मन में ही बड़बड़ाई कि पापा ने मेरे फ़ोन पर क्यों नहीं किया ? बार – बार पूछने पर भी इन्होने नहीं बताया तो मेरा दिल बैठने लगा | मैंने ही भाई को फ़ोन लगा दिया और पापा से बात कराने के लिए बोला | भाई ने कहा कि पापा की तबीयत अचानक खराब हो गई थी तो एडमिट कराया है अभी आई. सी. यू. में हैं इसलिए बात नहीं करा सकता | दोपहर में मिलने का समय होगा तब करा दूँगा | मम्मी से, भाभी से सबसे बात की पर सबका ये एक ही जवाब | मेरे पति का चेहरा देखकर मुझसे रहा नहीं गया और दिमाग में बस यही आने लगा कि कुछ तो हुआ है मेरे पापा को | पापा को याद करके बुरी तरह रोने लगी तो पति ने संभालते हुए कहा कुछ नहीं हुआ ? पापा ठीक हैं, बस एडमिट हैं | कपड़े पैक कर ले मैं तुझे मिलवाने ले चलता हूँ |” आज तक तो कभी नहीं कहा ऐसा .... अब तो रहा – सहा शक भी दूर हो गया |

मम्मी अपने दिल को मजबूत करके यही कहे जा रही थी कि बस तबीयत खराब हैं पर ठीक हैं, कुछ नहीं हुआ ? तू आकर मिल ले | रोते - रोते सामान बाँधा पर दो दिन के बाद मेरे बेटे की बोर्ड की परीक्षा भी थी | मम्मी – पापा ने हमेशा ही पढ़ाई को सबसे ऊपर रखा | फिर भी मम्मी, पापा से मिलने आने के लिए कह रही हैं ....... | मेरा दिल बैठा जा रहा था | इसी बीच मेरे पति हवाईजहाज की टिकेट देख रहे रहे थे शाम के आठ बजे से पहले की कोई फ्लाइट नहीं थी | अपनी गाड़ी से जाते तो भी अगले दिन पहुँचते | पापा से मिलने जाने के लिए इतनी कोशिशें देखकर मुझे समझ आ चुका था कि अब मेरे पापा नहीं रहे | शाम को पाँच बजे की ट्रेन से हम निकल पड़े | पापा को याद करते – करते हम कब पहुँच गए पता ही नहीं चला | जिस बिटिया के लिए मेरे पापा पूरे समाज से भिड़ जाते थे, ‘मेरी बिटिया’ कहते – कहते नहीं थकते थे आज उनकी यही ‘बिटिया’ उनके अंतिम दर्शन भी नहीं कर पाई थी |

अब बहुत पछतावा होता है कि अगर मैं छुट्टियाँ ले लेती तो पापा से मिल लेती | पर जीवन का दस्तूर तो देखिए .....इंजीनियर भाई को कभी छुट्टियाँ नहीं मिलती थी, मैनेज़र भाई संडे को भी बिजी रहता था, बहन अपने स्कूल की प्रिंसिपल थी तो ज्यादा छुट्टियाँ वैसे ही नहीं ले सकती थीं | और मैं ....... पापा की ‘बिटिया’ प्राइवेट स्कूल के नियमों की बलि चढ़ जाती थी | सब अपने – अपने कामों में इतने व्यस्त थे कि किसी के पास भी समय ही नहीं था | आज हम सभी, छुट्टियाँ लेकर एक साथ थे | सबको छुट्टियाँ आसानी से मिल भी गई थी | किसी चीज़ की कमी नहीं छोड़ी थी पापा ने | दो महीने पहले की ही तो बात थी जब घर को ऊँचा उठाने के साथ – साथ आँगन भी बड़ा करा दिया था | क्या पता था कि यह ‘बड़ा आँगन’ सबसे पहले इस समय आने वाले रिश्तेदारों के बैठने के काम ही आएगा | सबके साथ गाँव में ही तो रहना चाहते थे मेरे पापा | भरा – पूरा परिवार एक ही जगह पर, वो भी वहाँ जहाँ पापा हमेशा रहना चाहते थे – गाँव में | बस मेरे पापा नहीं थे | पापा का जीवन संघर्ष से ही शुरू हुआ था और संघर्ष में ही बीत गया |