Insanity.com in Hindi Moral Stories by Neelima Tikku books and stories PDF | इंसानियत डॉट कॉम

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इंसानियत डॉट कॉम

ट्रेन अपने निर्धारित समय से पूरे तीन घंटे लेट थी। सुबह सात बजे पहुंचने वाली ट्रेन दस बजे स्टेशन पहुंची थी।अपूर्व ने सोचा था कि दस बजे की अपनी क्लास ले लेगा, उसके पहले दो पीरियड़ लगातार होते हैं, वार्षिक परीक्षा सिर पर है विद्यार्थियों का कोर्स परा नहीं हआ था। इसीलिए चिंतित था। खैर कोई बात नहीं अब भी समय से पहुँच जायेगा तो आगे के पीरियड्स तो पढ़ा ही लेगा।स्टेशन से बाहर निकल कर कैब में बैठा इसी सोच में डूबा हुआ था। स्टेशन से कैब में जाने पर भी डेढ़ घंटा तो लग ही जाता है। उसका स्कूल शहर से करीब पैंसठ मील दूर है।

स्टेशन से निकल कर मेन रोड़ पर आते ही कैब राह में अटक गई थी। सड़क पर भीड़ अटी पड़ी थी। स्कूल के बाहर से एक नाबालिग लड़की का अपहरण हुआ था। सामूहिक दुष्कर्म के बाद उसे सड़क पर रातभर तड़पता छोड़, मौत के मुँह में धकेल गये अपराधियों को पकड़ लिया गया था। पुलिस की गाड़ी के पीछे आक्रोशित स्वर गूंज रहे थे,

"इन कुत्तों को मौत की सज़ा दो।''

"चौराहे पर उलटा लटका कर तब तक कोड़े मारों जब तक ये मर ना जाये।"

"इन्हें हिंजडा बना दो, फिर किसी लड़की के साथ ऐसा करने के लायक नहीं रहेंगे। सारी मर्दानगी हवा हो जायेगी।"

सड़क पर उत्तेजित लोगों का हुजूम अपूर्व को दूसरी दुनियां में ले गया था। सच ही कह रहे हैं ये लोग। ऐसे इंसानियत के दुश्मन, हैवानों के, अंग विशेष को भंग कर उन्हें हिंजड़ा बना दें तो उनकी अकल ठिकाने आ जायेगी। बचपन से ही हिंजड़ों को लेकर उसके मन में बसी नफ़रत शब्दों के रूप में सामने आ गयी थी। वो भी बड़बड़ाने लगा था इन सभी अपराधियों को हिंजड़ा बना देना चाहिए ताउम्र जिंदा लाश सा जीवन बितायेंगे।तभी इन्हें इनके कर्मों का फल भुगतना पड़ेगा। कैब रेंग-रेंग कर चल रही थी। भीड़ उत्तेजित हो रही थी और अब पुलिस की गाड़ी पर पत्थर फेंकने लगी थी। कैब का ड्राइवर एक्सपर्ट था किसी तरह मुख्य सड़क से गाड़ी निकाल कर कच्चे रास्ते पर ले आया था। उबड़-खाबड़ रास्तों से निकल कर देर से ही सही वह गंतव्य पर पहुँच गया था, कैब वाले को पैसे देने के लिए वह जेब से पर्स निकाल रहा था कि तभी स्कूल कैम्पस के भीतर से आते शोर-नारेबाजी ने उसकी सोच पर लगाम लगा दी थी।अपना बैग थामे वह तेज़ क़दमों से अंदर दाखिल हुआ तो वहाँ का दृश्य देखकर हैरान रह गया था।अन्दर स्कूल की लड़कियों की भीड़ जमा थी।"'वार्डन सुधा मैम को स्कूल से बाहर निकालो।"वार्डन हटाओ-स्कूल की प्रतिष्ठा बचाओ" की दो तख्तियाँ लिए स्कूल की तेज़ तर्रार दो लड़कियाँ सारे हुजूम का नेतृत्व कर रहीं थीं। उनका साथ देती लडकियों की भीड को देख अपर्व हैरान रह गया था।

अपूर्व मल्होत्रा स्कूल का कार्डीनेटर होने के साथ छात्राओं को फिज़िक्स भी पढ़ाता था।अपनी माँ की बीमारी की वज़ह से पन्द्रह दिन की छुट्टी लेकर गया अपूर्व माँ के ठीक हो जाने पर दस दिन बाद ही वापिस लौट आया था। उसे छात्राओं की पढ़ाई की चिंता थी लेकिन यहाँ तो नज़ारा ही दूसरा था। पढ़ाई-लिखाई छोड़कर सभी लड़कियाँ धरने पर बैठी हुईं थीं। अभी से ये हाल है आगे जाकर ये भी सड़क वाली अराजक, भीड़ में बदल जायेंगी।

अपने क्रोध को किसी तरह क़ाबू में रखकर वह उनके सामने जा खड़ा हुआ। क्या शोर मचा रखा है आप लोगों ने? ये कौनसा तरीका है विरोध करने का? आपको किसी से शिकायत हैं तो शिकायत बॉक्स में लिखकर डालिये। प्रिंसीपल से मिलिये। स्कूल प्रशासन इस तरह की गतिविधियों को बिल्कुल बर्दाश्त नहीं करेगा।"

उसे अचानक अपने सामने देखकर छात्राएँ सकपका गईं थीं। एकदम से सन्नाटा सा छा गया था।मानों सबको सांप सूंघ गया हो,

"चुपचाप सब अपनी-अपनी क्लास में जाइये।" अपूर्व की दहाड़ से एकदूसरे को आँखों ही आँखों में इशारे करती नेता बनी लड़कियाँ वहाँ से चली गईं थीं।

कुछ देर पहले सड़क पर अटी आक्रोशित भीड़ का शोर अपूर्व के मस्तिष्क से पूरी तरह निकला भी ना था कि स्कूल की इन किशोरवय की छात्राओं का दुस्साहस उसे चकित कर गया था। वह सोच रहा था कि सड़क पर उमड़ी भीड़ का आक्रोश जायज़ था पर अभिव्यक्ति का तरीका ग़लत था लेकिन यहाँ स्कूल में सुधा जैसी संतुलित-समझदार युवती से भला इन लड़कियों को क्या शिकायत हो सकती है? अचानक उसे याद आया कि नारे लगाने वाली और बाकी सभी को भड़काने वाली स्कूल की बेहद चंचल-खुराफाती लड़की कीर्ति वही लड़की है जिसे कुछ महीने पहले सुधा ने एक बड़ी मुसीबत से बचाया था। ये बात अलग है कि उसने इसे प्रेस्टीज़ पॉइन्ट बना कर सुधा को अपना दुश्मन मान लिया था।

शहर से दूर कई एकड़ भूमि में बना ये विद्यालय सभी तरह की बाहरी हलचलों से कटा हुआ एक बोर्डिंग स्कूल था, जिसमें दूर-दराज से आयीं पैसे वाले घरों की लड़कियाँ शिक्षा गृहण कर रहीं थीं कुछ तो एन.आर.आई. कोटे से भी थीं। देश के इस प्रतिष्ठित स्कूल की खासियत थी कि यहाँ हॉस्टल में कड़ा अनुशासन था।माता-पिता की सहमति के बिना कोई लड़की स्कूल से बाहर नहीं जा सकती थी और रजिस्टर में शामिल लिस्ट के अतिरिक्त किसी अन्य विज़िटर को अन्दर आने-मिलने की इज़ाज़त नहीं थी। स्कूल में भव्य कैफेटेरिया बना हआ था। हॉस्टल का अच्छा भला खाना छोड़कर लड़कियाँ कैफे में बैठी तरह-तरह का जंक-फूड़ खाती-गपियाती रहतीं थीं। स्कूल में कार्यरत सभी सेवाकर्मियों के लिए मकान की सुविधा थी।

डॉ. सुधा द्विवेदी स्कूल में अंग्रेज़ी पढ़ाती थीं और हॉस्टल की वार्डन भी थी। आकर्षक व्यक्तित्व की स्वामिनी सुधा ने ना जाने क्यों चेहरे पर असमय ही गम्भीरता ओढ रखी थी। यवा उम्र के खिलखिलाते रंग उसके चेहरे पर कभी दिखाई नहीं दिए। नाप-तोल के बात करती सुधा को कभी स्टाफ मेम्बरस के साथ हँसते-मुस्करातेगपियाते नहीं देखा। हाँ लाइब्रेरी में अक्सर किताबें ईश्यू करवाते देखा करता था। आश्चर्य की बात तो ये थी कि कभी उसका कोई रिश्तेदार-दोस्त यहाँ उससे मिलने नहीं आता था। कभी-कभी मुझे वो बड़ी रहस्यमयी शख्सियत लगती। उसके चेहरे पर सदा भाव शून्यता ही रहती। मेरी मुस्कराहट के जवाब में उसकी सर्द आँखें मुझे अन्दर तक सिहरा जातीं थीं।

हॉस्टल के नियम-कायदों का सख्ती से पालन करती सुधा इन चंचलखुराफाती लड़कियों के बीच 'खडूस' नाम से मशहूर थी।

दो महीने पहले ही एक शनिवार, पास की दुकान से सामान खरीदने के नाम पर कैम्पस से बाहर निकली कीर्ति भी आजकल के माहौल से अछूती नहीं थी। लगभग छह महीने से फेसबुक पर बने अपने फ्रैंड से मिलने को आतुर कीर्ति ने पहली बार चुपचाप उससे फेस टू फेस मिलने का रोमांटिक प्लान बनाया और उसे स्कूल के बाहर बुला लिया था। नई नियुक्ति पर आये चौकीदार को मोटी रकम देकर कुछ देर के लिए बाहर जाने का बंदोबस्त भी कर लिया था। उसका तथाकथित फेसबुक फ्रैंड अपने दोस्त के साथ कार में आया था। वो उसे अपना फार्म हाउस दिखाने ले जा रहा है। यह मैसेज उसने अपनी फ्रैंड को व्हाट्सएप कर दिया था शायद ये ख़बर वायरल होती तुरन्त सुधा के पास जा पहुंची थी। आनन-फानन में कॉलेज प्रशासन ने उसकी मोबाइल लोकेशन ट्रेस कर किसी तरह की अनहोनी से उसे बचा लिया था।कीर्ति को सही-सलामत पाकर सभी ने चैन की सांस ली थी।अधकचरे रोमांटिक ख़्वाब गढ़ती कीर्ति यथार्थ के कठोर धरातल पर आ गिरी थी बस तभी से उसके विद्रोही मन ने सुधा के ख़िलाफ़ बिगुल बजा दिया था। देखते ही देखते हॉस्टल की टीनएजर लड़कियाँ सुधा के विरोध में लामबंद होने लगी थीं। बात का बतंगड़ बनाकर इन लड़कियों ने सुधा के व्यक्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह खड़ा कर दिया था। छात्राओं के मन में दबी विरोध की चिंगारी को हवा मिलने की देर थी कि नफ़रत की आग भड़क उठी।

पिछले दो महिनों से स्कूल की डायरेक्टर आरती तिवारी विदेश गई हुईं थीं। पिछले सप्ताह ही वापिस आयी थीं और स्कूल कार्डिनेटर अपूर्व मल्होत्रा भी मौजूद नहीं थे। स्कूल के प्रिंसीपल अरविन्दो चक्रवर्ती छात्राओं के विद्रोह से घबराते थे। छात्राओं ने मौके का फायदा उठाते हुए सुधा पर कई तरह के आक्षेप लगाते हुए उसे वार्डन की नौकरी से बर्खास्त करने की मांग कर डाली। यहाँ तक कि स्कूल की प्रेस्टीज़ को ठेस पहुँचाने के लिए सुधा को दोषी क़रार करते हुए उसे हटाने के लिए नारे लगातीं धरने पर बैठ गईं। उसे इंसानियत के नाम पर धब्बा तक बता दिया।

अपूर्व को अभी भी याद है कीर्ति के स्कूल से बाहर जाने की घटना के बाद उसने उन दिनों उसे दूसरी लड़कियों के साथ बात करते सुना था, "ये मनहूस वार्डन सबका जीना हराम कर रही है। इतनी सावधानी से सारी सैटिंग करके स्कूल की इस कैद से बाहर निकली थी लेकिन ना जाने कैसे इस खडस ने संघ लिया। मेरा बॉयफ्रेंड है तभी तो उसके साथ गई थीं। इसका तो कोई आगे-पीछे हैं नहीं, अकेली अपनी मनहूसियत के साये में रहती है। मुझे तो शक होता है कि ये औरत भी है या नहीं?" उसकी बात पर लड़कियों का जोरदार ठहाका गूंजा था। खुद तो संन्यासिन ही मरेगी हमें भी सली पर टांगे रखना चाहती है।"

स्कूल की इन टीनएजर लड़कियों की बातें सुनकर तब वो हैरान रह गया था। आजकल के इन बच्चों की सोच समय के साथ किस दिशा में जा रही है। यही बात उसे खाए जा रही थी। अपूर्व फिर से सुधा के बारे में सोचने लगा वह सीनियर क्लासेज़ को अंग्रेजी पढ़ाती है। पिछले तीन साल से उसका रिजल्ट अच्छा आ रहा है।एक वार्डन के रूप में चुस्त-दुरुस्त सुधा से स्कूल प्रशासन सन्तुष्ट है। वह दो साल पहले जब इस स्कूल में फिज़िक्स पढ़ाने आया था। तभी अन्य सहकर्मियों की तरह सुधा से भी बातचीत होने लगी। वह सुधा से बहुत प्रभावित था, सुधा ने पी.एच.डी. की है जानकर उसे हैरानी हुई थी।

"सुधा जी आप पी.एच.डी. हैं आपने किसी कॉलेज में ट्राय क्यों नहीं किया। पढ़ाने के लिए स्कूल ही क्यों चुना?"

"स्कूल हो या कॉलेज, क्या फ़र्क पड़ता है ? हम शिक्षकों का काम बच्चों को पढ़ाना है और वो ईमानदारी से करते हैं।"

"इतनी ज़्यादा ईमानदारी भी ठीक नहीं है।" अपूर्व की मज़ाक में कही गई बात के जवाब में सुधा चुप्पी लगा गई थी।

एक बार उसने पूछा था, "आप अकेली कैसे रह लेती हैं ?"

"अकेली कहाँ इतने सारे लोग तो हैं यहाँ।"

उसकी आँखों में झाँकते हुए वो मुस्कराया था, "मेरा मतलब है विवाह करने का इरादा नहीं है क्या?"

उसकी आँखें सर्द हो उठी थीं, "मैं कभी विवाह नहीं करूँगी। मुझे अकेले रहना ही पसंद है।" उसके बाद अपूर्व ने उससे इस बारे में तो क्या उसके निजी जीवन के बारे में भी कभी कोई सवाल नहीं किया था।

आज जब अपूर्व स्कूल में आया तो दरवाज़े पर खड़ा चौकीदार भी कुछ अलग ढंग से मुस्कराया था, उससे कुछ पूछना उचित नहीं है। यही सोचकर अपने कमरे में सामान रखकर वह अपना पीरियड़ लेने चला गया था। उसकी वजह से ही लड़कियों को क्लास में आना पड़ा था। इसीलिए मज़बरी में चुप बैठी वे लैक्चर समझने की एक्टिंग कर रहीं थी। हालाँकि वो समझ रहा था कि किसी का दिमाग़ पढ़ाई में नहीं लग रहा है। वातावरण बोझिल होने लगा था। आखिर पढ़ाना बंद कर उसने आज हुई घटना की तह में जाने का प्रयास किया, "ये आप लोग बाहर क्या तमाशा कर रहीं थीं आपको पेरेन्ट्स ने यहाँ पढ़ने के लिए भेजा है या इस तरह के उल्टे सीधे काम करने? आपको शर्म नहीं आती अपनी शिक्षिका के विरोध में इतनी गलत नारेबाजी करते हुए, "वैसे किया क्या है उन्होंने? क्या आप में से किसी को डांटा है या किसी पर हाथ उठाया है?"

सब सुट्ट बैठी थी 'नो सर' सबके सिर हिले। "

तो फिर क्या हुआ?"

उनके बीच आँखों ही आँखों में इशारे चल रहे थे। मैंने अक्सर नोट किया है। कीर्ति के साथ पिछली बैंच पर बैठी तीन-चार लड़कियाँ मेरे पीरियड में पढ़ाई के दौरान बार-बार अपनी घड़ी देखती रहतीं या उबासियाँ लेने लगतीं थीं। आज भी कीर्ति ही हाथ में तख्ती लिए नेताओं की तरह नारे लगाकर सब लड़कियों को भड़का रही थी, मैंने उसी से पूछा, "हाँ तो तुम बताओ कीर्ति क्या बात है?"

पहले तो वो सकपकाई लेकिन फिर तुरन्त ही संभल गई,

"सर सुधा मैम ने स्कूल का एटमसफेयर खराब कर रखा है ?"

"क्या!?" मैं बुरी तरह चौंक गया था।

"ऐसा क्या किया है सुधा मैम ने?"

उसके चेहरे पर ढीढ़ता छाई हुई थी, "सर उनसे मिलने जो लोग आते हैं वो ठीक नहीं है....।"

मैं हैरान रह गया, "मैंने तो आज तक किसी को भी, उनसे मिलने के लिए यहाँ आते हुए नहीं देखा"

"सर आप कैसे देखेंगे वे रात को उनसे मिलती हैं।"

"रात के समय?" मेरे अपने चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगी थीं। ये क्या कह रही हैं आप? एक नेक महिला पर कितना ग़लत इल्जाम लगा रही हैं ?

तभी पीरियड़ सप्ताह होने की घंटी बज गई, इसी के साथ स्कूल की छुट्टी भी हो गई थी।

लड़कियाँ मेरी बात का कोई जवाब ना देकर रहस्यमय तरीके से एक-दूसरे को देखकर जिस तरह से मुस्कराईं थीं मैं मन ही मन विचलित हो उठा था। इतनी लड़कियाँ विश्वास के साथ ऐसी बात कह रही हैं कोई ना कोई बात तो अवश्य है... लेकिन सुधा के चरित्र पर अंगुली उठाने वाली बात मुझे हज़म नहीं हो रही थी। ज़रूर इन लड़कियों को बहुत बड़ी ग़लतफ़हमी हुई है। रात भर इसी उधेड़बुन में मुझे नींद नहीं आई। सुधा का मासूम-निष्कलंक चेहरा आँखों के सामने घूमता रहा। दूसरे दिन सुबह अपने फ्लैट से निकलकर डाइनिंग हॉल जा रहा था, रास्ते में पहले लड़कियों का हॉस्टल पड़ता है। लड़कियों की आवाजें सुन कर चौंक गया था।

"तो ये माज़रा है सुधा मैम का, तभी ना इतनी खडूस है। हम तो पहले ही कहते थे कि दाल में कुछ काला है, पर यहाँ तो सारी दाल ही काली निकली।"लड़कियों के ठहाके गूंज रहे थे।

डायरेक्टर मैडम से शिकायत की है, लगता है अब इस मुसीबत वार्डन से पीछा छूट जायेगा। बुलावा भेजा है मैडम ने महारानी जी को। अब पता पड़ेगा जब बच्चू की पोल खुलेगी। सारी असलियत बाहर आ जायेगी। वैसे इंसान अन्दर से क्या होता है बाहर से कहाँ पता चलता है।" खी-खी करती लड़कियों पर मानों हँसी का दौरा पड गया था।

अपूर्व को कुछ समझ नहीं आ रहा था। आखिर ये लड़कियाँ क्या कहना चाह रही हैं। अचानक ना जाने क्या सोचकर वह डायरेक्टर आरती तिवारी के ऑफिस की ओर जा पहुँचा।आज रिसेप्शन पर कोई नहीं बैठा था। वह सीधे ही उनके ऑफिस के अन्दर चला गया। बेहद गम्भीर मुद्रा में बैठी आरती जी ने उसे देखा।

"आओ अपूर्व, शीतल की तबियत अब कैसी है ?"

आरती जी माँ की घनिष्ठ मित्र हैं, उनसे हमारे अच्छे पारिवारिक सम्बन्ध हैं।

"माँ अब ठीक हैं इसीलिए पाँच दिन पहले ही आ गया। ये स्कूल की छात्राएँ सुधाजी को लेकर क्या अनाप-शनाप बोल रही हैं। मैंने कल इन्हें डाँट-डपट कर कक्षा में भेज दिया था।वैसे हुआ क्या है ?"आरती जी ने स्कूल के कार्डीनेटर होने के नाते भी मुझसे इस सम्बन्ध में स्पष्ट कोई बात नहीं की।

"कुछ खास नहीं, कुछ दिनों से इन लड़कियों की खिचड़ी पक रही थी। कल कुछ ज़्यादा ही हो गया। वैसे मैंने अभी सुधा को बुलाया है। इस बारे में कुछ जानकारी ली है। सुधा अभी आती ही होगी।" कहकर आरती जी ने मेज़ पर रखी फाईल देखनी शुरू कर दी थी जो इस बात का स्पष्ट संकेत था कि इस सम्बन्ध में अपूर्व की अभी कोई ज़रूरत नहीं है। "जी ठीक है" कहता अपूर्व कमरे से बाहर निकल ही रहा था कि सिर ढके हए एक औरत को कमरे में आते हए देखा तभी उत्तेजित सी सधा भी तेज क़दमों से अन्दर चली गई ।वह अपने आप में इतनी गुम थी कि उसने पास से निकलते अपर्व को भी नहीं देखा। ना जाने क्यों अपूर्व अन्दर की बातें सुनने का लोभ संवरण नहीं कर सका। वह आरती जी के केबिन में लगे काँच की दीवार के पर्दे के पास खड़ा रहा।"

आरती जी का गम्भीर स्वर गूंजा, वो सिर पर पल्लू लिए हुए बैठी उस रहस्यमयी औरत से कह रहीं थीं.

"तुम्हें पता है मैंने तुम्हें यहाँ क्यों बुलाया है ? तुम्हारे यहाँ आने से सुधा पर कैसे-कैसे आक्षेप लग रहे हैं ?"

"पहले पता नहीं था लेकिन अब सब-कुछ जान चुकी हूँ इसीलिए आखिरी बार आपसे मिलने आयी हूँ। मुझे भी यहाँ आने का कोई शौक़ नहीं है। पता है, सभ्य समाज की बच्चियाँ पढ़ती हैं यहाँ । मेरे प्रिय जन भी मुझसे बहुत नाराज़ हैं, उनसे छिप-छिपाकर ही यहाँ आती हूँ। आज भी उनकी इतनी नाराजगी के बाद भी आपको सच बताने की खातिर ही यहाँ आयी हूँ। कल ही एक बच्ची को पाँच वहशियों ने बेरहमी से कुचला है, अधमरी लड़की जब रात को सड़क पर तड़प रही थी तब आतेजाते लोग मोबाइल से उसका वीडियो बनाते रहे ।बड़े-बड़े ऊँचे तबके के इन्सान कार साइड से निकालते रहे किसी ने उसकी सुध नहीं ली और लड़की बेमौत ही सड़क पर मर गईं उसी सडक पर अटी भीड दष्कर्मियों को सजा देने के नये-नये तरीके बता रही है, कुछ सभ्य लोगों की मांग थी कि उन हैवानों के गुप्तांग काटकर उन्हें हिंजड़ा बना दिया जाये ताकि वो जीते जी ज़िन्दा लाश बन कर जिएं और फिर किसी बच्ची के साथ हैवानियत करने के लायक ना रहें।"

"आप बताइये इनकी हैवानियत क्या ऐसा करने से रुक जायेगी। मानसिक रूप से विकृत लोगों की हरकतों पर विराम लग जायेगा? आए दिन समाचार-पत्रों, खबरिया चैनलों में दिखाते हैं कई बार मानसिक रूप से विकृत बुजुर्ग या शारीरिक रूप से अक्षम व्यक्ति, जो सैक्स करने में अक्षम हैं वे भी छोटी-छोटी बच्चियों के साथ अप्राकृतिक यौन दुराचार करते हैं । उनका शारीरिक-मानसिक दोहन करते हैं । उनको गम्भीर अवस्था में पहुँचा देते हैं। ऐसे दुराचारी-हैवान पुरुषों की तुलना हिंजड़ों से करना उनका अपमान करना है। हिंजड़े जिन्हें अब किन्नर कह कर संबोधित किया जाता है, वो बेचारे तो खुद ही कुदरत के मारे होते हैं।

सामान्य इंसानों द्वारा जन्में ऐसे बच्चे, एक अंग विशेष के ना होने पर ही जन्मते ही अपने घर से बेदख़ल कर दिए जाते हैं। वे अपने जन्मदाताओं के घर में पल-बढ़ नहीं सकते। जब माता-पिता जन्म से विक्षिप्त, लूले-लंगड़े बच्चे पाल सकते हैं फिर केवल इन्हें ही क्यों केवल एक शारीरिक दोष की वज़ह से घर-समाज से बेदख़ल कर दिया जाता है? आम इंसान की तरह सोचने-बोलने में सक्षम इनके प्रति इस कठोर नीति के बारे में कभी समाज ने सोचा है ?

आरती जी की गम्भीर आवाज गूंज रहीं थीं, "मैं तुम्हारी बातों से पूरी तरह सहमत हूँ लेकिन ये हमारे समाज के ही बनाए नियम-कायदे हैं और तुम सड़क पर आक्रोशित भीड़ की जो बात कर रही हो ये उनके क्षुब्ध-चोट खाये मन से उपजे उद्गार हैं। हर घर में बेटी किसी ना किसी रूप में है चाहे वो बहन, पत्नी या माँ के रूप में हो। इसलिए दुष्कर्मियों के लिए उचित सज़ा मांगना वाजिब है....

"वाजिब है मैडम जी लेकिन उन्हें हिंजड़ा बना दो कहना उचित नहीं है। ऐसे दराचारी, मानसिक विकति वाले पुरुष, किन्नरों के समकक्ष कैसे हो सकते हैं। किन्नर अपना पेट भरने के लिए गाते-बजाते तमाशे करते हैं । तरह-तरह के मज़ाक और तानों के बीच पैसा वसूलने के लिए उनके द्वारा किए गए उपक्रम उनका पेशा बन चुके हैं क्योंकि ये उनकी मज़बूरी है। जब समाज दूध पीते ऐसे बच्चों को जन्मते ही उनके माता-पिता से अलग कर इन लोगों की झोली में डाल देता है तो धीरे-धीरे वहाँ के वातावरण में बढ़ते ये बच्चे मजबूरी में मन मार कर अपने इस नसीब को स्वीकार कर लेते हैं। लेकिन इन लोगों के भी अपने उसूल होते हैं । ऐसे दुराचारियों से इनकी तुलना करना इनका अपमान करना है। ये भी इंसान कहे जाने वाले माता-पिता की संतान ही होते हैं...

अब मैं मुद्दे की बात पर आती हूँ। जिस मासूम युवती सुधा के पीछे आपके स्कूल की नादान किशोरी बच्चियाँ पड़ी हैं ना... सिर्फ इसलिए कि वो इन नादान लड़कियों को समाज में, इंसान के रूप में घूमते कुछ भेड़ियों से सुरक्षित रखना चाहती है और मैं केवल दो बार ही सुधा से मिलने यहाँ आयी हूँ वो भी किसी के कहने से। खैर आज मैं अतीत का एक दर्दनाक हादसा आपको बताने आयी हूँ... मेरे यहाँ आने का कारण जानना चाहती हैं तो आपको मेरी पूरी बात ध्यान से सुननी पड़ेगी... आरती जी की स्वीकृति से आश्वस्त होती वह शुरू हो गई।

इसी समाज के एक माता-पिता ने वर्षों पहले आपसी कलह की वजह से अपनी इकलौती बेटी के साथ जहर खाकर आत्महत्या का प्रयास किया था जिसमें किस्मत से बेटी को बचा लिया गया। जिसे उसके नाना-नानी ने पाल पोस कर बड़ा किया लेकिन उस बच्ची की मुश्किल कम नहीं हुई थी। नाना-नानी की मृत्यु के बाद उत्पन्न विपरीत परिस्थितियों में उसे आगे की पढ़ाई के लिए शहर में रह रहे दूर के रिश्ते के मामा-मामी के घर रहना पड़ा, जहाँ रहकर उसने अपनी पी.एच.डी. की पढ़ाई पूरी की, अभी उसे पी.एच.डी. की डिग्री नहीं मिली थी लेकिन शहर के एक प्राइवेट कॉलेज में उसे अस्थाई नौकरी मिल गई थी। उसी कॉलेज का सालाना जलसा था जिसमें उसकी ड्यूटी लगी थी।कार्यक्रम में जब रात गहराने लगी तो उसने कॉलेज से निकलने में ही अपनी भलाई समझी।शहर से दूर बने कॉलेज से जब वह घर आ रही थी तो सुनसान सड़क पर उसकी स्कूटी पंचर हो गई। घबरायी सी वह बीच रास्ते में खड़ी थी कि तभी वहाँ से स्कूटर से गुज़रती एक युवती ने उसे लिफ्ट दे दी। रास्ते में पंचर की दुकान का बोर्ड देखकर युवती वहाँ उतर गई। दुकान से बाहर आये युवक को उसने अपनी स्कूटी के टायर पंचर होने की बात कही। युवक ने दुकान के अन्दर बैठे दो युवकों को बुलाकर कहा इन मैडम का टायर पंचर हो गया है उसे ठीक करना है।शराब के नशे में धुत युवकों ने उसे पकड़ लिया था। ये सब देखकर घबरायी दूसरी लड़की अपनी स्कूटी स्टार्ट कर भाग छूटी थी...

आरती के चेहरे पर घबराहट के साथ पसीने की बूंदे छलछला आयीं थी जिसे देखकर उस महिला ने तंज कसा, "आप तो इतनी सी बात सुनकर घबरा गई, ठीक उस लड़की की तरह जो एक असहाय लड़की को छोड़कर भाग गई थी। लेकिन तब उस दूसरी लड़की का कसूर भी नहीं था। शराब के नशे में धुत वो तीन मुस्टंडे उसकी भी दुगर्ति कर सकते थे। आगे सुनिए...''

जिस लड़की ने पीड़िता को लिफ्ट दी थी वो स्वयं दूसरे शहर से अपने घरवालों के विरोध के बावजूद उस शहर में पढ़ने आयी थी। हालात से मज़बूर घरवाले उसे एक बुजुर्ग दम्पत्ति द्वारा घर में चलाये जा रहे पेइंग गैस्ट हॉस्टल में ठोक-बजा कर, सुरक्षित मान छोड़ गये थे। उस घर में आठ लड़कियाँ रहती थीं। वृद्ध दम्पति के दोनों बेटे परिवार सहित विदेश में जा बसे थे और वो दोनों अपने बेटों की इच्छा के विरुद्ध विदेश में उनके साथ ना रहकर अपने देश में इज़्ज़त के साथ रह रहे थे। लड़कियों से चहल-पहल भी रहती और आर्थिक मदद भी मिल रही थी। रात को डरी-सहमी उस लड़की ने जब सारे हादसे की जानकारी वृद्ध दम्पत्ति को दी तो पहले उनमें सारी घटना की जानकारी पुलिस को बताने का जोश उत्पन्न हुआ लेकिन तुरन्त ही अपनी स्थिति के बारे में सोचकर वो चुप्पी साध गये। पुलिस आयेगी लड़की के बयान लेगी।लड़की के माता-पिता का क्रोध उन पर क़हर बनकर टूटेगा, अन्य लड़कियों के घरवालों को भी उनके पी.जी. में बेटियाँ असुरक्षित लगेंगी। बात वृद्ध दम्पत्ति के बेटों तक पहुँची तो वो इस मुद्दे को भुनाते हए उन्हें यहाँ का मकान बेचकर अपने साथ विदेश में रहने को बाध्य करेंगे। वृद्ध दम्पत्ति की सलाह मानकर उस लड़की ने भी यही सोचा कि उस युवती के साथ तो हादसा हो ही गया लेकिन इसकी खबर उसके माता-पिता को हुई तो वे उसकी पढ़ाई छुड़वा कर उसे अपने साथ वापिस ले जायेंगे इसलिए उस वक्त वह चुप रही लेकिन ताउम्र अपराध बोध की गहन यातना से गुज़रती रही....

उसकी बात बीच में काटकर आरती जी बड़बड़ाई उन लड़कों के हत्थे चढ़ी उस लड़की का क्या हुआ?

उसका... वह देर रात हाइवे पर नग्न अवस्था में अर्धबेहोशी की स्थिति में पड़ी रही। आस-पास से निकलते वाहन उसके अस्तित्व को नकारते दौड़े चले जा रहे थे। तभी मोटरसाइकिल पर सवार दो लड़के वहाँ से गुज़रे । युवा लड़की को इस अवस्था में बीच सड़क पर देख वापिस मुड़े। उसके पास आकर मोटर साइकिल रूकी। एक युवक उतर कर उसके पास पहुँचा,

लगता है किसी ने.... दूसरा भी पास आया, “यार ये एक आदमी का किया धरा नहीं है। कहे तो अपन भी..."दूसरा उसे घूरता हुआ बोला, ये तो वैसे ही अधमरी हो रही है। मर मरा गई तो लेने के देने पड़ जायेंगे। फालतू फसेंगे, करे कोई भरे कोई बैठ जल्दी और यहाँ से निकल...

आरती सिहर उठी थी।समाज में इस तरह की विकृत सोच वाले युवा भी हैं !

मैडम क्या सोचने लगी? ये पिक्चर का सीन या कोई काल्पनिक कहानी नहीं थी। ये हादसा घटा था उस बच्ची के साथ। अब सुनो जिन हिंजड़ों/किन्नरों/थर्ड जेन्डर को दुत्कारता... ज़लील करता है हमारा समाज !

सुबह के चार बजे थे हँसती-खिलखिलाती किन्नरों की टोली सड़क से गुज़र रही थी। सड़क पर वस्त्र विहीन-लहूलुहान पड़ी युवती को देखकर ठिठक गई थी... "अरे ये कौन पड़ा है सड़क पर?"

"जवान लड़की है, मुओं ने कैसी दुगर्ति कर सड़क पर पटका है। शायद मर गई है।"

तभी युवती करहाई, "नहीं मरी नहीं ज़िंदा है।" अपनी साड़ी फाड़ कर उसके ऊपर डालते हुए वो बुदबुदाई थी, "पुलिस को फोन करें क्या?", "पुलिस कौनसा टाइम पर आ जायेगी? आ भी गई तो उनके सवाल-जवाब का सामना करने की हिम्मत लड़की में कहाँ है ? हमें और बेकार ही हड़कायेगी। ऐसा करते हैं इसे अस्पताल ले चलते हैं । उसने एम्बुलेंस को फोन किया,"

"मैं शांता बाई बोलती जी.टी. रोड हाइवे सड़क पर मेरी बहिन की तबियत अचानक खराब हो गई तुरन्त आना मांगता। थोड़ी देर में अस्पताल से एम्बुलेंस आ गयी थी। किन्नरों के झुंड को देखकर उसका ड्राइवर चिल्लाया, "तुमने ये क्या हल्ला मचा रखा है सुबु-सुबु सड़क पर? और ये किसकी लाश पड़ी है सड़क पर?" "ये लाश नहीं है ज़िन्दा-जवान लड़की है जिसकी इज़्ज़त तार-तार कर सड़क पर फेंक गये बदमाश लोग।"

"अरे ये तो पुलिस केस है। तुम पुलिस को बुलाओ। तुम में से शांता बाई तो कोई दिखती नहीं। यहाँ तो सारी हिंजड़ों की जमात इकट्ठी है। खी-खी करता ड्राइवर अपने साथी के साथ चुहल करता गाड़ी स्टार्ट कर जाने लगा।"

उसकी आँखों में खून उतर आया था। ड्राइवर की कमीज़ का कॉलर पकड़ कर गाड़ी से बाहर खींच उसे सड़क पर घसीटते हुए लाई, "तेरी बहिन का क्या नाम है..." वो हड़बड़ा गया, घबराया हुआ बोला, "कुसुम", "ठीक है तो इसे ध्यान से देख ये तेरी बहिन है... और मैं हूँ शांता, बोल इसको लेकर अस्पताल चलेगा की नहीं, नहीं तो हम सब मिलकर तुम दोनों का काम तमाम कर देंगे।"

ड्राइवर और उसके दुबले-पतले साथी के सामने। पूरे आठ हट्टे-कट्टे किन्नरों की टोली खड़ी थी। वो घबरा गए। जबरन युवती को एम्बुलेन्स में लिटाया गया। शांता अपने साथी के कान में फुसफुसा रही थी। आजकल किसी का कोई भरोसा नहीं है, बेहोश हालत में अधमरी लड़की को भी नहीं छोड़ते ये कुछ वहशी इंसान, उन्हें तो इसके शरीर से मतलब है। चाहे वो तीन बरस का हो या अस्सी बरस का। शांता और उसका साथी भी एम्बुलेन्स में बैठ गये थे। उस समय तो डर के मारे ड्राइवर और उसके साथी की बोलती बंद रही लेकिन अस्पताल पहुँचते ही उसमें जोश आ गया था,

"हिम्मत है तो अब मेरा कॉलर पकड़ कर दिखा?" वक़्त की नज़ाकत को समझते हुए शांता ने हाथ जोड़ दिए थे,

"ड्राइवर बाबू लड़की की जिंदगी का सवाल ना होता तो हम कदापि ऐसा नहीं करते।" इधर लड़की की गम्भीर हालत देखकर अस्पताल प्रशासन ने पुलिस बुला ली थी। इसी बीच शांता की टोली के और साथी भी वहाँ पहुँच गये थे। पुलिसवाला कड़क रहा था।

"जब तक लड़की को होश नहीं आ जाता तुम सब चुपचाप यहीं बैठे रहो।" लड़की को दूसरे दिन होश आया था दर्द और दहशत के बीच बड़ी मुश्किल से उसने बयान दिए थे। अस्पताल में आते-जाते लोग किन्नरों को देखकर तंज कस रहे थे। आँखों ही आँखों में भद्दे इशारे हो रहे थे। मानो वो इस दुनिया के नहीं बल्कि किसी और ही दुनियां से आये अजूबे हों। कुछ लोग फुसफुसा रहे थे। “अजी इनका क्या भरोसा। इस वारदात में इन हिंजड़ों का भी हाथ हो सकता है। क्या पता मोटे पैसे के लालच में लडकी को दबोचकर बदमाशों के हवाले कर दिया हो। इन लोगों का कोई धर्म-ईमान नहीं होता। ये पैसों के लिए कुछ भी कर सकते हैं।" कोई कह रहा था, हमारे यहाँ शादी में आए थे, ग्यारह हजार लेकर ही माने। मजबूरी थी देने पड़े। इनसे तो भगवान बचाये।"

उस समय इंसान कहेजाने वाले उन भद्र पुरुषों के व्यंग्य बाण सुनने के अलावा और कोई चारा नहीं बचा था। होम करते हाथ जलने वाली स्थिति हो रही थी।इन बात बनाने वालों पर गुस्सा तो बहुत आ रहा था। इंसान की खाल में भेड़िये, सड़क से गुज़र रहे थे तब किसी ने रुक कर उस लड़की की हालत पर तरस नहीं खाया। पुलिस केस में कौन फंसे इसी बात को लेकर नामुरादों ने किनारा कर लिया था। वो किन्नर ही थे जो एम्बुलेन्स के ड्राइवर के साथ ज़ोर-ज़बरदस्ती कर उस लड़की को अस्पताल ले गये वर्ना तो सड़क पर घूमते दूसरे क़िस्म के भेड़िये उसे.... इनको किन्नरों का धर्मईमान नहीं दिख रहा था। इन सफ़ेदपोश इंसानों की आँखों में लहराते सुअर के बाल देखकर घिन्न आती है... बड़े पुरुष बने फिरते हैं इंसानियत का ठेका तो बस इन्हीं लोगों ने ले रखा है किन्नर को तो इंसान मानते ही नहीं है। जब इंसान नहीं मानते तो उनमें भी इंसानियत होती है। ये कैसे सोच पायेंगे... खैर लड़की की स्थिति सुधरी और वो बेकसूर साबित हो गये थे।

आरती मानो सारी घटना चलचित्र की तरह अपनी आँखों के सामने घटते हुए देख रही थी। नम आँखों से वो सामने बैठी शख़्सियत से घटना का ब्यौरा सुन रही थी वो अभी भी पूरी उत्तेजना से भरी हुई थी।

"आपको पता है लड़की इतनी घबरायी हुई थी कि उन वहशियों के नाम भी नहीं बता पा रही थी जिनसे वो एक-दूसरे को सम्बोधित कर रहे थे और सुनो इंसानियत के दुश्मनों की बात ... नाना-नानी की मृत्यु के बाद जिन दूर के रिश्ते के मामा-मामी के पास रहकर वो लड़की नौकरी कर रही थी उनके घर भी दो जवान बेटियाँ थीं सो उन्होंने भी उस लड़की से अपना पल्ला झाड़ते हुए कह दिया कि हमें नहीं पता ये रात में किसके साथ थी, किन लोगों के चक्कर में थी। अपने ही रिश्तेदारों द्वारा लावारिस-बदचलन घोषित, मरणासन्न लड़की के केस में लीपापोती हो गई थी। अपने टोले की सहमति से शांता ने उसकी अस्पताल की फीस, दवाइयाँ के पैसे तो भरे ही उसके घाव भरने के बाद साइक्लोजिस्ट से चले लम्बे इलाज़ में उसकी सहायता भी की। पूरा एक साल लगा लड़की को सम्हलने में ।आपको पता है आरती मैडम उस साइक्लोजिस्ट से एक और लड़की के माता-पिता ने कुछ समय तक उसका इलाज़ करवाया था।"

कौनसी लड़की ?

ये वही लड़की थी, जो उस पीड़ित लड़की को मुस्टंडों से घिरा देखकर वहाँ से भाग छूटी थी और बाद में इस हादसे के लिए अपने आपको कभी माफ नहीं कर सकी थी।आज वो लड़की स्वस्थ है और इस शहर में बैंक में नौकरी कर रही है। आप उस लडकी को अच्छी तरह जानती हैं क्योंकि उसी ने सुधा की नौकरी के लिए आप से सिफ़ारिश की थी।"आरती चौंकी।

"तुम मानसी की बात कर रही हो? मानसी मेरी बेटी की सहेली है, बहुत संवेदनशील लड़की है।..."

"हाँ, मानसी ही वह लड़की है। उस हादसे के दूसरे दिन शांता से बदहवासी की हालत में मिली थी। कुछ हद तक अपने आपको इस घटना का ज़िम्मेदार मान रही थी लेकिन किन्नरों की टोली ने उसे समझा बुझाकर वापिस घर भेज दिया था वो ज़बरन अपना मोबाइल नम्बर शांता को दे गई थी और समय-समय पर पूरी जानकारी लेती रही...

लेकिन मानसी ने या मेरी बेटी ने कभी ऐसी किसी घटना का ज़िक्र मुझसे नहीं किया। हाँ बीच में मुझे पता चला था कि मानसी कुछ समय अवसाद में घिर गई थी लेकिन आजकल बच्चों पर पढ़ाई का तनाव इतना रहता है। ये नार्मल सी बात हो गई है इसलिए मैंने इस बात को ज़्यादा गम्भीरता से नहीं लिया था। अब तो उसका विवाह हो गया है। एक प्यारी सी बेटी की माँ भी बन गई है।

"हाँ अब वो अपनी गृहस्थी में मग्न है।"

आरती जी भावुक हो उठी थीं, "सच कहूँ तो इंसानियत इंसानों में ही तो होती है और किन्नर भी तो इंसान ही है ना। तुम्हारी बातें सुनकर तो उनके प्रति मेरे मन में इज़्ज़त और भी बढ़ गई है। लेकिन ये भी कड़वा सच है कि हमारा समाज अभी भी उन्हें पूरी तरह से स्वीकार नहीं कर पा रहा है। निश्चय ही वे फ़रिश्ते बनकर उस लड़की की जिंदगी में आये थे लेकिन इन सब बातों से तुम्हारा यहाँ आने का क्या सम्बन्ध है ? मेरा मतलब है सुधा से?"

अब तक चुप बैठी सुधा के चेहरे पर व्यथा के भाव उभर आये थे, “सम्बन्ध बहुत गहरा है मैम क्योंकि... वो पीड़ित लड़की जिसे शांता मौसी ने नई जिंदगी दी वो मैं हूँ... मेरे साथ ही चार साल पहले वो दुर्घटना घटी थी और ये जो मुझसे मिलने दो बार इस स्कूल में आयी हैं और अभी आपके सामने बैठी हैं यही मेरी शांता मौसी हैं।"

आरती की आँखें हैरत से फट गईं थीं, "ये क्या कह रही हो तुम?"

"वही जो आप सुन रही हैं।"दृढ़ता से कहे सुधा के शब्द आरती के साथ-साथ अपूर्व मल्होत्रा को भी कंपकंपा गये थे। उस समय एक और शख़्स वहाँ मौजूद था, खम्भे के पीछे छिपकर खड़ी कीर्ति चौधरी... ये वही कीर्ति थी जो स्कूल की लड़कियों की नेता बनी सुधा के विरोध में नारे लगा रही थी। जो सुधा से इतनी खार खाए बैठी थी कि उसकी कोई बात सुनने को तैयार नहीं थी। क्योंकि सुधा ने स्कूल के बाहर फेसबुक फ्रैंड के साथ कार में जाने पर उसे आधे रास्ते से ट्रेस करवाकर वापिस बुलवा लिया था। स्कूल में एक किन्नर सुधा से मिलने आती है। क्या रिश्ता है उसका सुधा के साथ? कहीं सुधा भी तो ट्रांसजेंडर नहीं? ऐसी बेसिर पैर की ख़बरें उड़ाने वाली कीर्ति चौधरी आज सुधा के रहस्य का पर्दाफाश करने को आतुर, चुपचाप यहाँ खम्बे के पीछे दम साधे खड़ी थी।

सुधा कह रही थी, "ओह तो उस लड़की का नाम मानसी है, उसकी कोई गलती नहीं थी।क़िस्मत तो मेरी खराब थी। उसकी जगह मैं होती तो शायद मैं भी उस समय वही करती। उसने तो फिर भी हिम्मत दिखायी, स्कूटी स्टार्ट कर चली गई नहीं तो उसकी भी वही हालत होती जो मेरी हुई थी। शांता मौसी उससे कहना वो बेवजह अपने आपको सज़ा ना दे। इस हादसे में उसका कोई दोष नहीं था। मुझे उससे कोई शिकायत नहीं है। मौसी मैं आपको मरते दम तक नहीं भूलूंगी। आपने मुझे तो नई जिंदगी दी लेकिन साथ ही कीर्ति के साथ भी किसी ऐसी ही घटना की पुनरावृत्ति ना हो, इसीलिए आपने उसके लड़कों के साथ कार में जाने की सूचना मुझे तुरन्त दे दी थी।"

"वो तो उस लड़की की किस्मत अच्छी थी। उस दिन मैं तुझ से मिलने स्कूल आयी थी सुधा, स्कूल के बाहर पहुँची ही थी कि तभी दो लफंगे लड़कों की गाड़ी में उस मासूम बच्ची को बैठते देखा और मैंने तुम्हें तुरन्त बता दिया।

आरती जी सिहर गईं थी, सच जानकर अपूर्व और कीर्ति भी हतप्रभ रह गए थे। किन्नरों के प्रति उनके मन में भरे पूर्वाग्रह भरभरा कर ढ़ह रहे थे।

"शांता मौसी आप इंसान नहीं फरिश्ता हो। आपने जहाँ सुधा को एक नई जिंदगी दी वहीं एक मासूम बच्ची को हैवानों के जाल से बचा कर हम पर हमारे स्कूल पर बहुत बड़ा एहसान किया है। काश मैं यहाँ की बच्चियों को तुम्हारे साहस, तुम्हारे ज़ज़्बे के बारे में बता सकती। सुधा को इसी समाज में रहना है। जहाँ अभी भी लोगों की मानसिक सोच संकीर्ण बनी हुई है। मैं नहीं चाहती कि पुरानी घटना इसके वर्तमान में बिखरी खुशियों में सेंध लगाये।"

"आरती जी हम भी आप जैसे सामान्य इंसानों की ही संतान हैं, फिर भी ये समाज हमें इंसान नहीं मानता।''आपने हमें इंसान माना और हमारी इंसानियत को पहचाना। हमारे लिए यही बहुत है। समाज से हम इसी स्वीकृति की चाहत रखते हैं।''आँसू पौंछती शांता तेज़-तेज़ कदमों से बाहर निकल गई थी।

आरती ने सुधा को गले से लगा लिया, "सुधा आज से तुम मेरी बेटी हो, अकेले रहकर बहुत कुछ सहा है तुमने। बस अब और नहीं...

इधर बाहर जाती शांता एक बार ठिठक गई थी... पश्चाताप में डूबी, आँसुओं से भीगा चेहरा लिए कीर्ति उसके पैरों पर झुक गई थी।स्नेह से उसके सिर पर हाथ फेर आशीष देती शांता बाहर निकल गई थी।

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